Book Title: Tulsi Prajna 1996 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati
Catalog link: https://jainqq.org/explore/524589/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा ___TULSI PRAJNA Jain Vishva Bharati Institute Research Journal अनुसंधान त्रैमासिकी पूर्णाङ्क-९९ प्रमुख आकर्षण ० अहिंसा की दार्शनिक पृष्ठभूमि ० वाल्मीकि रामायण में दार्शनिक तत्त्व ० राजस्थानी भाषा में खड़ी बोली • भारत में ईशामसीह का आगमन ० नक्षत्र-भोजन के मांसपरक शब्द o Science of Consciousness o Heart Disease : Cause & Prevention जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनू -३४१३०६ Jain Vishva-Bharati Institute, Ladnun-341306, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा : अनुसंधान त्रैमासिकी Tulsi Prajñā-Research Quarterly पूर्णाङ्क - ९९ परामर्शक प्रो. बी. बी. रायनाड़े सदस्यगण प्रो. राय अश्विनीकुमार प्रो. आर. के. ओझा डॉ. जे. आर. मट्टाचार्य बच्छराज डॉ. दूगड़ प्रणम्स पावारी जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय ) लाडनूं ३४१ ३०६ (राज०) भारत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Vishva-Bharati Institute Research Journal Vol. XXII . October-December, 1996 . No. 3 संपादक परमेश्वर सोलंकी Articles for Publication must accompany with notes and reference separate from the main body. The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers. It is not necessary that the INSTITUTE agree with them. Editorial enquiries may be addressed to : The Editor, Tulsi Prajñā, JVBI Research Journal, Ladaun-341 306 (INDIA). © Copyright of Articles, etc. published in this journal is reserved. Annual Subs. Rs. 60/- Rs. 20/- Life Membership Rs. 600/ Published by Dr. Parmeshwar Solanki for Jain Vishva-bharati Institute Deemed University. Ladņun,341 306 and printed by him at Jain Vishva-bharati Press, Ladoun--341 306. Published on 14.1.1997 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका/Contents १६७–१७० १७१-१९० १९१-१९४ १९५-२०४ २०५-२१० १. संपादकीय-ईसा-मूसा के समाधिस्थल २. मनःपर्याय ज्ञान भी संभव है ? मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही' । ३. अहिंसा की दार्शनिक पृष्ठभूमि ___मंगलाराम ४. श्रुत-ज्ञान---एक मीमांसा मुनि सुखलाल ५. आचार्य कुन्दकुन्द की काव्यकला उदयचंद जैन ६. 'प्रवचनसार' में छन्द की दृष्टि से पाठों का संशोधन के. आर. चन्द्र ७. जिनकल्प की समाचारी साध्वी विश्रुतविमा ८. वाल्मीकि रामायण में दार्शनिक तत्त्व विजयरानी ९. राजस्थानी भाषा में खड़ी बोली का प्रयोग मनोहर शर्मा १०. 'णायकुमार चरिउ' का नायक हरिशंकर पाण्डेय ११. साहित्य-सत्कार एवं पुस्तक-समीक्षा परमेश्वर सोलंकी २११-२१६ २१७-२२६ २२७–२३० २३१-२३६ २३७-२४२ ०३-०४ कालक्रम और इतिहास १. भारत में ईशामसीह का आगमन परमेश्वर सोलंकी २. विक्रम संवत् : ३६ ईसवी पूर्व चंद्रकान्त बाली ३. वेद और आगमकाल में पर्दाप्रथा मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही' ०५-१० ११-१६ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०७-१८ १९-२१ (v) प्रकीर्णकम् | १. वृद्धि नवकार मंत्र कल्प परमेश्वर सोलंकी २. नक्षत्र भोजन के मांसपरक शब्दों का अर्थ मुनि श्रीचंद 'कमल' सूमरमल बेंगानी ३. णमो सिद्धाणं : नाद सौन्दर्य जयचंद्र शर्मा English Section 1. Religion & Science Hulaschand Golchha 2. Science of Consciousness A way to Harmony and Global Peace Mual Dbarmesh 3. Jaina Epigraphy-I Prof. P. B. Desai 4. New light on Epigraphs from Chittamur A. Ekambaranathan 5. Heart Disease : Cause & Prevention V. P. Singh 6. The Dharmashastras & Untouchability Upendranath Roy 107-110 111-116 117-123 124-126 127-130 131-146 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Our Contributors Among the Contributors to this issue we are blessed with five disciples of Ganadhipati Tulsi : Acharya Mahaprajña, Muni Gulabchand Nirmohi', Muni Sukhalal, Muni Srichand kamal' Muni Dharmesh and one Sadhvi Vishrut Vibha. Others are as follows: 1. Dr. Mangalaram, Astt. Professor of Sanskrit at Jai Narayan Vyas University, Jodhpur. 2. Dr. Udaichand Jain, a Reader in Jainology & Prakrit Deptt. of Mohanlal Sukhadia University, Udaipur. 3. Dr. K.R. Chandra, retired Professor and honorany Director of Prakrit Jain Vidya Vikas Fund, 375, Saraswati Nagar, Ahmedabad -15. 4. Dr. (Mrs.) Vijaya Rani, a Reader in Deptt. of Sanskrit Karukshetra University, Karukshetra-136119. 5. Dr. Manohar Sharma, Editor of Vishvambhara, Journal of Hindi Vishva Bharati, Bikaner. 6. Dr. Hari Shankar Panday, Asstt. Professor in Prakrit, JVBI, Ladnun. 7. Pt. Chandrakant Bali, a famous author, ND-23, Vishakha Enclave, Pitampura, New Delhi-34. 8. Sh. Jhumarmal Bengani, Director of Sevabhavi Ayurvedic Research Center, JVB, Ladnun. 9. Sh. Hulashchand Golchha, an industrialist of Nepal. Ganbabal, Kathmandu. 10. Prof. P.B. Desai, Iminent Epigraphist is author of "Jainism in South India", Dharwad. 11. Mr. A. Ekambaranathan, Jain Youth Forum, 3, Boag Rd. Chennai-600 017. 12. Sh. V.P. Singh, Dy. Registrar (Finance) JVBI, Ladnun 341 306. 13. Sh. Upendranath Roy, a author and historian, Matteli (Jalpaiguri)-735 223. 14. Dr. Jaichandra Sharma, Director, Sangit Bharati, Rani Bazar, Bikaner. 15. Parmeshwar Solanki, Editor, Tulsi Prajñā, JVBI, Ladnun. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पावकोय ईसा-मूसा के समाधि-स्थल 'तुलसीप्रज्ञा' के इसी अंक में अन्यत्र भविष्य-पुराण का एक सन्दर्भ प्रकाशित है जिसमें ईशामसीह के भारत-आगमन का वृत्तान्त है। कश्मीर के इतिहास-ग्रन्थराजतरंगिणी (कल्हण) में भी कश्मीर के एक सुधारक संत के रूप में ईशा का विवरण है। वहां उसे ईशान नाम से संबोधित किया गया है। ___ मूल्ला नादिरी के ग्रंथ-'तारीख-ए-कश्मीर' में “सोलोमन के सिंहासन" का विवरण है जिस पर चार ऐतिहासिक इबारतें खोदी गई हैं। सन् १४१३ में वर्तमान रहे इतिहासकार मुल्ला नादिरी ने लिखा है कि राजा अख के पुत्र गोपानंद ने गोपदत्त के नाम से राज्य किया और उसने हजार वर्ष पुराने सोलोमन-सिंहासन का एक पसियन कारीगर से नवीनीकरण कराया । इस नवीनीकरण के समय उस पर निम्न चार इबारतें खोदवाई गईं : (१) सिंहासन के पायों का निर्माता राज बिहिस्ती जरगर है जिसने इन्हें . सं० ५४ में बनाया-मेमर ईन सतून राज बिहिस्ति जरगर, सल्पज व (२) ख्वाजा रुकुन, पुत्र मुर्जान् ने ये पाये बनाये-एन सतून बर्दस्त ख्वाजा ____रुकुन बिन मुर्जन् । (३) इस समय युज असफ ने पैगम्बर का संदेश सुनाया, सं० ५४ में दर ईन वगत युज असफ दव-ए-पैगम्बर मिकुनद । सल पञ्च व चहर । (४) वह जीसस् है, इजराइल के पुत्रों का फरिश्ता ऐशान युज़ पैगम्बर-ए बनी इजराइल अस्त । मुल्ला नादिरी ने लिखा है कि यज असफ राजा गोपदत्त के शासनकाल में पवित्र देश से इस घाटी में आया और उसने घोषणा की कि वह फरिश्ता है। वह परम कृपालु और दयालु था। उसने कहा था कि उसका जीवन, उसका संदेश है । वह रात-दिन भक्ति में डूबा रहता था। उसने कश्मीरी जनता का विश्वास जीत लिया था। मृत्यु के बाद उसे मोहल्ला अंजीमराह में दफनाया गया जहां से आज भी उसका संदेश प्रसारित होता है। ईशामसीह की कब्र तदनुसार श्रीनगर की पुरानी आबादी के मध्य अंजीमर में बनी है जिसे रोज़बल कहते हैं। रोज़ (Rauza) फरिश्ते की कन को कहते हैं । यह चतुष्कोणीय बिल्डिग है जिसमें बनी कब्र पर भी इबारत है। इस इबारत में तुलसी प्रज्ञा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बताया गया है कि यज असफ शताब्दियों पूर्व कश्मीरी घाटी में आया था और उसने सत्य की खोज में अपना जीवन बिताया। यहां दो कब्रगाह बनी दीखती हैं जिनमें लम्बी कब्र यज़ असफ की है और दूसरी इस्लामी सन्त नासिर-उद्-दीन की है। दोनों कब्र उत्तर से दक्षिण बनी हैं किन्तु इन कब्रों के पत्थरों के नीचे यजु असफ की कब्र पूर्व से पश्चिम को बनी बताई जाती है । यही नहीं कब्र के उत्तर पूर्वी कौने पर पगलिया बनें हैं जिनमें कीलें ठोकने के जन विश्वास में यह हज़रत ईसा साहब की कब्र है । कब्र १७६६ का लिखा एक फरमान भी बताया जाता है जिस असफ सो रहा है जिसने राजा गोपदत्त के समय निशान भी बनाए गए हैं । के रक्षक लोगों के पास सन् पर लिखा है कि- 'यहां यज् सोलोमन के सिंहासन को पुनः प्रतिष्ठित किया था । तरह आया था । उसने लोगों को अनुशासित किया । की और जनता को ईश्वर का संदेश दिया । उसी समय उच्च एवं निम्न वर्ग के लोगों द्वारा पूजी जाती है ।' जो कश्मीर में एक फरिश्ते की उसने अपनी पैगम्बरी प्रमाणित से उसकी कब्र राजा, मुसाहिब, वस्तुतः ईशा मसीह को यरूशलम में सूली पर चढ़ाया गया तो उसे सूली पर चढ़ाने से पूर्व विनेगर का प्याला पिलाया गया जिसे पीते ही वह बेहोश हो गया और उसकी गर्दन लटक गई; इसीलिए दाहिने पर बायां पैर रखकर कील ठोक कर रोका गया । सूली देने के बाद उसे मृत घोषित कर दिया गया किन्तु सूली पर से शाम को और लिनेन के कपड़े में लपेट कर टोम्ब ऑफ जीसस जहां से तीन दिन बाद उसकी लाश गायब हो गई । उसके पैरों को तीन घंटे के उतारा गया में रख दिया गया और उसके सीने में मृत्युदण्ड दिया जाता प्राप्त विवरणों के अनुसार यह हुआ यह कि विनेगर पीने से जीसस् धड़कन बंद हो गई । यहूदी प्रथा के अनुसार उसे एक बीकर शराब में एक जड़ी का रस मिला कर पिला दिया जाता ताकि वह बेहोश हो जाए और मृत्यु के भय से पीड़ित न हो । जड़ी asclepias acida है जिसके पत्ते बड़े सिक्के की तरह गोल होते हैं और वह देवताओं का पेय - सोम कही जाती है । यह जड़ी योरोप में कहीं पैदा नहीं होती । लेटिन में इसे Vincetoxicum Hirundinaria कहते हैं | Hirundinaria= Swallow-wort और Vincetoxicum = Conquer the poison | अर्थात् विष को जीतने वाली जड़ी । ग्रीक फार्मोकोलोजिष्ट डायस्कुर्दिस् ( प्रथम शती ईसवी) ने इसे Dog choker कहा है। उसके विवरण अनुसार मांस में इस जड़ी के पत्ते मिला कर कुत्ते को खिलाया जाय तो कुत्ता मर जाता है । मृत्वत् हो गया जिस किसी को इस प्रकार बेहोश जीजस को तीन दिन बाद होश आया और होश आने पर वह यरूशलम क्षेत्र के दक्षिणी पठार से बेथनी चला गया जहां उसे अपने अनुयायियों को यह समझाने में वक्त लगा कि वह अभी जिन्दा है । बाद में जीसस के जिंदा होने की खबर की सचाई जाने के लिए जोन पॉल दमिश्क गया और जीसस् से मिल कर आया । खण्ड २२, अंक ३ 19 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिस्र से निकले थे, दमिश्क से जीसस् टर्की में निसिविस आया। वहां से उत्तर पश्चिम में एण्डपोलिस और पसिया होता हुआ वह १६ वर्ष बाद कश्मीर पहुंचा, जहां उसे यज् असफ कहा गया । यज् असफ का शब्दार्थ होता है पवित्र हुए लोगों का नेता । ऐसा उसे इसलिए कहा गया क्योंकि वह अपवित्र लोगों को पवित्र बनाता था । इसी प्रकार मूसा (Moses) के नेतृत्व में जो कबीले गोहेन ( GOSHEN ) में रहे। वहां से सिनाय पर्वत पहुंचे जो उसी के नाम पर जोबेलमूसा कहा जाता है । फिर कडेस ( Oasis of kades) में रहे जहां मूसा को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हुआ और उसने अपना अन्तिम संदेश देकर मृत्यु को वरण किया। वहां लिखा है कि मूसा मैदानी क्षेत्र (Plains of Moab ) से पर्वतीय क्षेत्र (Mountain of Nebo) में गया और पिस्गा (PISGA) के शिखर पर पहुंचा जो बेथपोर (Beth-peor ) के सामने था । बाइबिल में मूसा की कब्र की पहचान के पांच निशान बताए गए हैं - (1) The plains of Moab, ( 2 ) Mount of Nebo in the Abarin Mountains, (3) The Peak of Mount PISGA, ( 4 ) Beth Peor और (5) Heshbon । इन पांचों निशानों में Beth Peor का शब्दार्थ है, वह स्थान जो खुलता है ( A place that opens) । पर्सियन में झेलम नदी को बेहत ( Behat ) कहते हैं और झेलम का मैदान (Plain of lake wular) जहां शुरू होता है वहां आज भी बंदीपुर (Beth Peor) स्थित है । यह श्रीनगर से ८० किलोमीटर है और बंदीपुर से १८ किलोमीटर उत्तर पूर्व को गांव हस्ब या हस्बल है । पिसंग ( Pisga) इससे उत्तर में है और वहां से उत्तर पूर्व में केवल दो किलोमीटर पर अहं शरीफ है जहां का पानी नीरोगता देता है । इस प्रकार ये सारे निशान श्रीनगर से बाएं बाजू झेलम के किनारे पर स्थित हैं । इसलिए सांग बीबी ( इस्लामी संत) के पास माउन्ट नीबो के नीचे बना समाधिस्थल : Muquam-i- Musa ही मूसा का समाधि स्थल है। का पत्थर) और झेलम और सिंध के संगम पर शादीपुर में कार्नर स्टोन है । वहीं सांग ए मूसा ( मूसा कोह्न - ए - मूसा - मूसा का अर्थात् मूसा पहले कश्मीर पहुंचा और उसके बाद ईशामसीह भी यहीं आकर रहा और दिवंगत हुआ । - परमेश्वर सोलंकी ८ तुलसी प्रज्ञा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनः पर्याय ज्ञान भी सम्भव है ? 0 मुनि गुलाबचन्द्र "निर्मोहो" डॉ. मैक्सि मिलियन लैंगस्नर वियना के सुप्रसिद्ध मनोविज्ञान शास्त्री हो चुके हैं । उन्होंने मस्तिष्क तरंगों के आधार पर अपराधी के मन को पढ़ने का सफल प्रयत्न किया था। एक बार कनाडा के फर्म हाउस में एक साथ हुई चार हत्याओं के अपराधों का पता मस्तिष्क तरंगों के आधार पर ही उन्होंने लगाया था । उन्होंने इस सम्बन्ध में बतलाया कि मनुष्य के विचार अपने कार्य-कलाप और तीव्रता में रेडियो तरंगों की भांति होते हैं । तीव्र न होने पर वे शीघ्र ही लुत्त हो जाते हैं। मानव में ऐसे मनोवेगों को ग्रहण करने की अन्तनिहित शक्ति होती है। इसी शक्ति से उच्च वर्ग के प्राणी एक दूसरे से अपने विचार अभिव्यक्त करते हैं । परन्तु चूंकि मानव में अभिव्यक्ति के लिए वाशक्ति भी है । अत: वह अभिव्यक्ति की अन्तर्निहित शक्ति को बहुत हद तक खो चुका है। मेरे विचार से वह शक्ति पुन: अजित की जा सकती है । इस शक्ति से किसी भी व्यक्ति का विचार पठन किया जा सकता है और यह विचार पठन बहुत उपयोगी है, विशेष तौर से अपराध के क्षेत्र में । क्योंकि कोई भी अपराधी अपने कुकृत्यों से कभी विचार मुक्त नहीं हो पाता है। विचार तरंगें उसके अवचेतन मन में सदा उत्पन्न होती रहती हैं और उन्हें मनोवैज्ञानिक ग्रहण कर सकते हैं। ___ उन्होंने इस बात को भी स्पष्ट किया कि वातावरण में विचार तरंगें काफी समय तक बनी रहती हैं और उन्हें पकड़ा जा सकता है। उन्होंने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि अपराधी के दिमाग में अपने किए हुए अपराध के चित्र बनते और बिगड़ते हैं । कोई भी मनोविज्ञान को समझने वाला उन चित्रों को आसानी से ग्रहण कर सकता है। ___एक अन्य रुसी वैज्ञानिक किरलियान ने हाई फ्रिक्वैसी की फोटोग्राफी का विकास किया है। यदि ऐसी फोटोग्राफी से किसी के हाथ का चित्र लिया जाए तो केवल हाथ का ही चित्र नहीं आता अपितु उससे जो किरणें निकल रही हैं उनका भी चित्र आ जाता है । इसमें भी आश्चर्य की बात यह है कि यदि व्यक्ति निषेधात्मक विचारों से भरा है तो उसके हाथ के आस पास जो विद्युत् परमाणु हैं उनका चित्र अस्वस्थ, रुग्ण और अराजक होता है । वह ऐसा लगता है मानो किसी बच्चे या पागल आदमी द्वारा खींची गई टेढ़ी-मेढ़ी लकीरे हों। यदि. व्यक्ति शुभ या पवित्र भावनाओं से भरा है तो उसके हाथ के आस पास जो विद्यत् परमाण हैं उनका चित्र लयबद्ध, सुन्दर और सानुपातिक होता है । किरलियान ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन खण्ड २२, अंक ३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया कि बहुत शीघ्र ही वह समय आने वाला है जब किसी के बीमार होने से पहले ही हम बताने में समर्थ हो जायेंगे कि वह बीमार होने वाला है । शरीर पर बीमारी उतरने से पहले उसके विद्युत् बर्तुल पर बीमारी उतर आती । इससे पहले कि व्यक्ति की मृत्यु हो उसका विद्युत् वर्तुल सिकुड़ना शुरू हो जाता है । यहां तक कि कोई आदमी किसी की हत्या करे, उसके पहले ही उस विद्युत् वर्तुल में हत्या के लक्षण दिखाई पड़ने लगते हैं । प्रत्येक मनुष्य के ईर्द गिर्द एक आभामंडल होता है । मनुष्य अकेला ही नहीं चलता । उसके ईर्द गिर्द एक विद्युत् वर्तुल (इलेक्ट्रो डाइनेमिक फील्ड) भी चलता है । रुसी वैज्ञानिकों का कहना है कि जीव-अजीव में एक ही फर्क किया जा सकता है कि जिसके आसपास आभामंडल है वह जीवित है और जिसके पास आभामंडल नहीं है वह मृत है । उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि मृत्यु के बाद आभामंडल को विसर्जित होने में तीन दिन लगते हैं । जब तक आभामंडल कायम है तब तक व्यक्ति सूक्ष्म तल पर जीवित होता है । महावीर या अन्य आप्त पुरुषों के प्रतीक के साथ आभामंडल निर्मित किया जाता है । यह सिर्फ कल्पना नहीं है, एक वास्तविकता है । वास्तव में ही उनके आसपास एक आभामंडज होता है। अब तक तो इस आभामंडल को वे ही जान सकते थे जिन्हें गहरी और सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त थी किन्तु सन् १९३० में एक अंग्रेज वैज्ञानिक ने एक ऐसी रासायनिक प्रक्रिया निर्मित कर दी जिससे प्रत्येक व्यक्ति उस यंत्र के माध्यम से दूसरे के आभामंडल को देख सकता है । जिस प्रकार व्यक्ति के अंगुंठे की छाप अपनी निजी होती है उसी प्रकार आभामंडल भी अपना निजी होता है । आभामंडल उन सारी बातों को बता देता है जो व्यक्ति के गहरे अवचेतन मन में निर्मित होकर भविष्य में घटित होने वाली होती हैं जबकि व्यक्ति स्वयं उन्हें नहीं जान पाता । आगमों में ज्ञान के पांच प्रकार बताए गए है उनमें चौथा है— मनः पर्याय ज्ञान । मनोवर्गणा अथवा मन से सम्बन्धित परमाणुओं के द्वारा जो मन की अवस्थाओं का ज्ञान होता है, उसे मन पर्याय ज्ञान कहते है । मानसिक वर्गणाओं की पर्याय अवधि ज्ञान का विषय भी बनती है फिर भी मनःपर्याय ज्ञान मानसिक पर्यायों का विशेषज्ञ होता । एक डाक्टर समूचे शरीर की चिकित्सा विधि को जानता है और एक वह है जो किसी एक अवयव विशेष का विशेषज्ञ होता है । यही स्थिति अवधि और मन: पर्याय की होती है । मनः पर्याय ज्ञानी अमूर्त पदार्थ का साक्षात् नहीं कर सकता । वह द्रव्य मन के साक्षात्कार के द्वारा जैसे आत्मीय चिन्तन को जानता है, वैसे ही उसके द्वारा चिन्तनीय पदार्थों को जानता है । मनःपर्याय ज्ञान दूसरों की मानसिक आकृतियों को जानता है । समनस्क प्राणी जो चिन्तन करते हैं उस चिन्तन के अनुरूप आकृतियां बनती हैं । मनः पर्याय ज्ञानी मानसिक आकृतियों का साक्षात्कार करता है । मनः पर्याय ज्ञान आवृत चेतना का ही एक विभाग है । अतः वह आत्मा की तुलसी प्रज्ञा १६८ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमूर्त मानसिक परिणति का साक्षात् नहीं कर सकता किन्तु इसके निमित्त से होने वाली मूर्त मानसिक परिणति का साक्षात्कार कर लेता है । उसका विषय मानसिक आकृतियों को साक्षात् जानना है और इसके लिए वह अपने आप में पूर्ण स्वतंत्र है। उसे किसी दूसरे पर निर्भर होने की अपेक्षा नहीं होती। विज्ञान की भाषा में आभामंडल के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है कि आभामंडल व्यक्ति की चेतना के साथ-साथ रहने वाला पुद्गलों और परमाणुओं का संस्थान है । चेतना व्यक्ति के तेजस् शरीर (विद्युत् शरीर) को सक्रिय बनाती है । जब तेजस् शरीर सक्रिय होता है तब वह किरणों का विकिरण करता है । यह विकिरण ही व्यक्ति के शरीर पर वर्तुलाकार घेरा बना लेता है । यह घेरा ही आभामंडल है। आभामंडल व्यक्ति के भावमंडल (चेतना) के अनुरूप ही होता है। भावमंडल जितना शुद्ध होगा, आभामंडल भी उतना ही शुद्ध होगा । भावमंडल मलिन होगा तो आभामंडल भी मलिन होगा । व्यक्ति अपनी भावधारा के अनुसार आभामंडल को बदल सकता मनः पर्याय ज्ञानी मानस परमाणुओं से मन के परिणामों को साक्षात् जान लेता है । मनोवैज्ञानिक भी आभामंडल के सहारे मन की स्थिति को पहचान लेता है । दोनों की प्रक्रियाओं में बहुत बड़ी समानता है । यह समानता इस बात की सूचक है कि जिस मनःपर्याय ज्ञान को समय के प्रभाव से विच्छिन्न मान लिया गया है, आज का विज्ञान उसके निकट पहुंच रहा है ? आधुनिक विज्ञान ने धर्म, दर्शन और आध्यात्म के अनेक रहस्यपूर्ण तथ्यों का उद्घाटन किया है। आभामंडल के सहारे मन की स्थिति को पहचान लेने का उपक्रम उसी रहस्य की खोज में एक नई कड़ी है तथा अध्यात्म विदों के लिए चिन्तन और विकास के नये आयामों का उद्घाटन करने की पर्याप्त संभावना उसमें निहित है। -अग्रगण्य मुनि श्री श्वेतांबर तेरापंथ महासभा खण्ड २२, अंक ३ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा की दार्शनिक पृष्ठभूमि मंगलाराम किसी भी विषय पर दार्शनिक चितन करना मनुष्य का जन्मजात स्वभाव है। 'सर्वं वेदात् प्रसिद्धति' की अवधारणा के अनुसार समस्त दर्शनों का बीज वैदिक ज्ञान में निहित है । भारतीय दर्शनों में नीति-मीमांसा के अन्तर्गत कई पक्षों पर विचार हुआ है। उनमें अहिंसा-दर्शन भी एक विवेच्य विषय रहा है। जहां एक ओर वैदिक यज्ञ परम्परा में पशु-पक्षियों की बलि को हिंसा नहीं माना जाता है, वहीं दूसरी ओर जनदर्शन मन, वचन और कर्म तीनों से ही अहिंसा कर्म को करणीय मानकर उसके पालन का प्रतिपल सन्देश देता है । गीता 'सर्वभूतहिते रताः' का सन्देश देती है, तो मनुस्मृति हिंस्य कर्मों के त्याग तथा हिंस्य कर्म हो जाने पर उसके प्रायश्चित्त का भी उपाय बताती है। महात्मा गान्धी सत्य, ईश्वर और अहिंसा में कोई भेद नहीं करते। १. अति-परम्परा में अहिंसा की अवधारणा-यह संसार दुःखबहुल है तथा विद्यमान दुःखों की निवृत्ति के लिये व्यक्ति अनेक उपाय करता है। उन उपायों में मुख्य रूप से लौकिक (औषधि इत्यादि) तथा वैदिक (यज्ञ इत्यादि) उपाय माने जाते हैं। स्वर्ग प्राप्ति के लिये किये जाने वाले वायु इत्यादि यज्ञ शुद्धि एवं आत्यन्तिक शांति से रहित हैं। कारण कि ये यज्ञ अविशुद्धि नामक दोष से ग्रस्त हैं । जैसे 'वायव्यं श्वेतं छागलमालभेत' अथवा 'अग्नीषोमीयं पशुमालभेत' यहां वायव्य याग निरूपित जो पशुवध निष्ठ कारणता है वही अविशुद्धि है । अर्थात् होम, देवपूजन, दक्षिणादि प्रदान करना इत्यादि रूप जो पुण्योत्पादक साध्य कर्म हैं उनके लिये किये जाने वाले वायुयज्ञ में पशु हिंसा ही अविशुद्धि कहलाती है । तात्पर्य यह है कि होम, देवपूजन इत्यादि पुण्यकर्म भी यज्ञ में ही होते हैं, वहां हिंसा होने से जो पाप से सम्बन्ध होता है वही यज्ञ की अविशुद्धता है। जिस प्रकार यज्ञ के अंगभूत दक्षिणा इत्यादि पुण्य कर्मों द्वारा परलोक के लिये सुख पैदा किया जाता है उसी प्रकार यज्ञ के अंगभूत पशुवध, बीजवध इत्यादि रूप पापकर्मों के द्वारा परलोक के लिये दुःख भी पैदा किया जाता है । इस प्रकार वैदिककर्म यज्ञ इत्यादि दुःखमिश्रित सुख के जनक हैं । ___ यदि कोई यह प्रश्न करे कि यज्ञ में विहित बीजवध कोई वध नहीं है, क्योंकि उसमें प्राणों का अभाव है । तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि 'वृक्षः शरीरम्, आध्यात्मिक-वायुसम्बन्धवत्वात्, मनुष्यादिशरीरवत्' इस अनुमान द्वारा वृक्ष के शरीर होने पर 'वृक्ष: आध्यात्मिकवायुसम्बन्ध वान्, वृद्धिमत्वात्, भग्नक्षतावयवसंदोहणवत्त्वाद्वा' खंड २२, अंक ३ १७१ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अनुमान द्वारा आध्यात्मिक वायु से सम्बन्ध होने पर जागरूकता के कारण व्रीहि इत्यादि बीजों में भी प्राणत्व स्वीकार करना पड़ेगा । मनु ने भी बीजों में प्राण होने की बात को स्वीकार किया शारीरजः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः । वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् ॥' अभक्ष्य का भक्षण करना, अभोज्य को भोजन का विषय बनाना, अपेय का पान करना, अयाज्य का यजन करना, असत्प्रतिग्रह, परस्त्रीगमन करना, पर द्रन्य का अपहरण करना और प्राणियों की हिंसा करना-ये शारीरिक दोष हैं। पारुष्य, अनूतत्ब, विवाद और श्रुतिविक्रय - ये वाचिक दोष हैं। किसी भी व्यक्ति को पीड़ा पहुंचाना, किसी व्यक्ति के द्रव्य का अपहरण करना, क्रोध, लोभ, मान और अहंकार -ये मानसिक दोष हैं। इन दोषों को व्यक्ति जब भी जिस उम्र में करता है वे दोष उस व्यक्ति को उसी उम्र में जकड़ लेते हैं, अतः बीजवध वस्तुतः वध ही है। इस प्रकार जहां-जहां बाह्य साधनों द्वारा कर्म साधित होते हैं वहां-वहां सर्वत्र कोई न कोई पीड़ा अवश्य होती है इसलिये हम यह नहीं कह सकते कि व्रीहि इत्यादि साधनस्वरूप यागकर्मों में परपीड़ा नहीं है। चार प्रकार की कर्मों की जातियां हैं कृष्णा, शुक्ल कृष्णा, शुक्ला तथा अशुक्लाअकृष्णा । तमोमूलक तथा मात्र दु:ख रूप फल को उत्पन्न करने वाले ब्रह्महत्या इत्यादि कर्म कृष्णा जाति के अन्तर्गत आते हैं । ये कर्म दुरात्मा जनों के द्वारा किये जाते हैं । रजोमूलक, जिसमें दुःख गौण हो एवं सुख रूप फल विद्यमान हो, ऐसे बाह्य साधनों के द्वारा साध्य यागादि कर्म शुक्लकृष्णा जाति के अन्तर्गत आते हैं। यज्ञ इत्यादि में परपीड़ा और परानुग्रह दोनों वर्तमान रहते हैं, अतः यह शुक्ल कृष्णा जाति पाप और पुण्य दोनों की जनिका है । यह जाति याज्ञिकों का विषय है । सत्त्वमूलक तथा मात्र सुख रूप फल को ही पैदा करने वाले, मात्र मन से ही साध्य सन्ध्या, उपासना, तप स्वाध्याय, प्रणवजप इत्यादि कर्म शुक्ला जाति के अन्तर्गत आते हैं। परपीड़ा राहित्यवश तथा स्वाध्याय इत्यादि के कारण यह जाति मात्र पुण्य की जनिका है जो सभी जनों का विषय बनती है । सत्त्व, रजस् और तमो रूप गुणत्रय के अहेतुक निजानन्द रूप फल को उत्पन्न करने वाले सम्प्रज्ञात समाधि-साध्य कर्म अशुक्ला-अकृष्णा जाति के अन्तर्गत आते हैं। ये कर्म योगियों के विषय बनते हैं । इस प्रकार जैसे दक्षिणा दान इत्यादि पुण्यकर्मों द्वारा शुक्लात्मक होने के कारण यागादि की विशुद्धि है उसी प्रकार पशुवध इत्यादि पापकर्मों द्वारा कृष्णात्मक होने के कारण यागादि की अविशुद्धि भी जिस प्रकार दक्षिणा, दान इत्यादि पुण्य कर्मों के योग के कारण ज्योतिष्टोम इत्यादि यज्ञों द्वारा धर्म की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार पशुवध इत्यादि पापकर्मों के योग के कारण अधर्म की भी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार धर्म और अधर्म का जो साहचर्य है उसकी संकर संज्ञा होती है । याग में पुण्य अधिक होता है और पाप न्यून । इस प्रकार पुण्य की अपेक्षा उस पाप का स्वल्पत्व है । संकर नामक यह पाप १७२ तुलसी प्रज्ञा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्प है अतः अल्पता के कारण प्रायश्चित्त द्व रा उसका परिहार सम्भव है । जो आये हुए अशुभ का नाश करता है तथा फलांतर को पैदा नहीं करता उस कर्म को प्रायश्चित्त कहते हैं, अर्थात् पाप ( प्रायस् ) विशोधन ( चित्तम् ) जिससे हो उसे प्रायश्चित्त कहते | यह 'प्रायश्चित्त' शब्द पापनिवर्तक के निमित्त रूप कर्म विशेष में रूढ़ है । संकर नामक पाप प्रायश्चित्त के द्वारा परिहरणीय है । स्वयं उत्पन्न दुष्टअदृष्ट रूप संकर के परिहार के लिये प्रायश्चित्त आवश्यक है । यदि आलस्यवश प्रायश्चित्त का अनुष्ठान नहीं किया तो प्रधान कर्मरूप ज्योतिष्टोमादि यज्ञ फलभूत स्वर्ग भोग के समय वह संकर नामक पाप फलोन्मुखी होता है और ऐसा होने पर हिंसाजन्य अधर्म जब तक अपना भयरूप फल पैदा करता रहता है तब तक वह भय रूप फल अवश्य सहन करना होता हैं । अर्थात् संकर जन्य दुःख अवश्य ही भोक्तव्य है, यदि प्रायश्चित्त नहीं किया हो। कथ्य यह है कि किया हुआ कोई भी कर्म फलदायी होता है अतः वह फल देने पर्यन्त क्षीण नहीं होता । यद्यपि 'अङ्गापूर्व प्रधानापूर्वातिशयमुत्पाद्य विनश्यति' यह सिद्धांत है तथापि मूलतः उसका विनाश स्वीकार नहीं किया गया है । पुण्यसमूह से युक्त स्वर्ग नामक अमृत सरोवर में नहाने वाले जो इन्द्रादि कुशल पुरुष हैं वे पाप द्वारा की हुई हिंसा से जन्य देवासुर संग्राम इत्यदि रूप को निरन्तर सहन करते हैं - यह लोकप्रसिद्ध बात है । यद्यपि संकर जन्य दुःख का उपभोग करना ही होता है अतः यज्ञानुष्ठानों में याज्ञिकों की प्रवृत्ति होना सत्फलिका नहीं है तथापि संकर स्वल्प होते हैं तथा पुण्यकर्म महान् होते हैं अतः स्वल्प-संकार महान् पुण्यकर्मों को क्षीण करने के लिये पर्याप्त नहीं है, क्योंकि याग के अनुष्ठाता के पुण्यात्मक कर्म दक्षिणा इत्यादि - अधिक हैं । प्रधान कर्म - स्वर्गप्राप्ति रूप यज्ञ में यह स्वल्प संकर अन्तर्भूत होता हुआ स्वर्ग में थोड़ा दुःख का सम्भेदन करेगा। इस प्रकार अल्प दुःख के भय से महत्सुख को त्यागना उचित नहीं है, क्योंकि 'हरिण धान को खायेंगे' यह सोचकर कभी धान की बुवाई नहीं रोकी जाती तथा 'भिक्षुक मांगने आयेंगे' यह सोचकर कभी पतीली में की जाने वाली रन्धन क्रिया रोकी नहीं जाती अविशुद्धिः सोमादियागस्य पशुवीजादिवधसाधनता यथाह स्म भगवान्पञ्चशिखाचार्यः स्वल्पः संकरः सपरिहारः प्रत्यवमर्ष इति । स्वल्पः सङ्करो ज्योतिष्टोमादिजन्मनः प्रधानापूर्वस्य पशुहिंसादिजन्मनानर्थहेतुनापूर्वेण सपरिहारः कियतापि प्रायश्चित्तेन परिहर्तुं शक्योऽथ प्रमादतः प्रायश्चित्तमपि नाचरितं प्रधानकर्म विपाकसमये स विपच्यते तथापि यावदसावनथं सूते तावत्सप्रत्यवमर्षः प्रत्यवमर्षेण सहिष्णुतया सह वर्तत इति मृष्यन्ते हि पुण्य सम्भारोपनीतस्वर्गसुधा महाह्रदवगाहिनः कुशलः पापमात्रोपपादितां दुःखर्वाह्निकणिकाम् । याग में पशुवध तथा तृणादि का छेदन 'हिंसा' नहीं है। अध्वर यज्ञ का नाम है । ध्वर का अर्थ है हिंसाकार्य एवं उस हिंसा का प्रतिषेध करना ही अध्वर कहलाता है । 'इयं हिंसा इयमहिंसा' यह वेद से ज्ञात होता है । समस्त जगत् के कल्याण के लिये प्रवृत्त वेद कैसे किसी पुरुष को हिंसा में प्रवृत्त करायेगा ? इसलिये वेद प्रतिपादित हिंसा अहिंसा ही है क्योंकि यज्ञ में समर्पित ओषधि, वनस्पति इत्यादि उच्च गति को प्राप्त करते हैं । यज्ञानुष्ठाता उन पशु, ओषधियों इत्यादि की हिंसा नहीं करता प्रत्युत खंड २२, अंक ३ १७३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यज्ञ में विनियोग के लिये विधिपूर्वक काटता हुआ उनके ऊपर अनुग्रह करता है । यज्ञ में विधिपूर्वक एक बार कटे हुए उन-उन पदार्थों का पुनः नरकगमन रूप कर्तन (कटना) नहीं होता। द्वेषपूर्वक प्राणिवध ही हिंसा कहलाती है। यद्यपि 'वायव्यं श्वेतं छागलमालभेत' यहां प्राणवियोगानुकूल व्यापार के लिये आलभन क्रिया की जा रही है इसलिये हिंसा ही है, तथापि 'मा हिंस्यात्सर्वा भूतानि' इस निषेध के विषय रूप पापजनिका हिंसा नहीं है, कारण कि 'मा हिंस्यात्सर्वा भूतानि' यह सामान्य शास्त्र है और 'वायव्यं श्वेतं छागलमालभेत' यह विशेष शास्त्र है । 'अपवादो ह्य त्सर्ग बाधते' इस न्यायानुसार यहां सामान्य शास्त्र विशेष शास्त्र द्वारा बाधित हो रहा है क्योंकि विधि और निषेध रूप विरोध में बलवान द्वारा दुर्बल का बाध होता है। विशेष शास्त्र निरवकाश होने के कारण अपवाद होता है तथा सामान्यशास्त्र की अपेक्षा वह बलवान होता है, जबकि सामान्यशास्त्र सावकाश होने के कारण अपवादशास्त्र की अपेक्षा दुर्बल होता है, अतः यहां सामान्यशास्त्र वैधेतरत्व के रूप में प्रयुक्त हुआ है-मा हिस्यात्सर्वा भूतानीति सामान्यशास्त्रं वायव्यं श्वेतं छागलमालभेतेति विशेषशास्त्रम् । अत्र हिंसायां विधिनिषेधयोरवस्थानेन विरोधात्सामान्यशास्त्रं विशेषशास्त्रेण बाध्यते । विरोधे हि बलीयसा दुर्बलं बाध्यते । विशेषशास्त्रं तु बलीयो निरवकाशत्वात्सामान्यशास्त्रं दुर्बलं सावकाशत्वात्तेन सामान्यशास्त्रस्य वैधेतरपरत्वम् ।' जिसकी प्राप्ति होने पर उसके स्थान पर जो अन्य विधि आरम्भ की जाती है वह उसकी अपवाद कहलाती है। विशेषशास्त्रों का विशेष स्थलों में अतिशीघ्र ही प्रवर्तन हो जाता है। सामान्यशास्त्र सामान्यमुख से विशेषों में प्रवर्तित होता है, अतः सामान्यशास्त्र की उन विशेष स्थलों में मंद प्रवृत्ति है, फलतः सामान्यशास्त्र से विशेषशास्त्र प्रबल होता है। यथा 'वायव्यं श्वेतं छागलमालभेत' इस विशेष शास्त्र द्वारा 'मा हिंस्यात्सर्वा भूतानि' इस सामान्यशास्त्र से निर्दिष्ट विषय से भिन्न विषय को विषयी बनाया जाता है ! कारण कि 'मा हिंस्यात्' इस व्यापक निषेध वाक्य का 'वायव्यं श्वेतं छागलमालभेत' इस अल्पप्रवर्तना विषय में भी प्रवेश हो जाता यदि विशेषशास्त्र की यहां प्रवर्तना न की जाती। अतः वैदिकी हिंसा सामान्य हिंसा के समान पापजनिका नहीं है, इसलिये तो प्रायः कहा जाता है कि शास्त्रनुज्ञात विषयों से अन्यत्र किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिये । ___मनु ने तो यहां तक कहा कि स्वयं भगवान् ने ही यज्ञ के लिये पशुओं की सृष्टि की है। सभी यज्ञ कल्याण के लिये होते हैं अत: यज्ञ में किया हुआ वध अवध ही है, क्योंकि यज्ञ के लिये प्रयुक्त ओषधि, पशु, पक्षी, मृग, वृक्ष, तिर्यक् इत्यादि सभी उत्कर्षता और उत्तम गति को प्राप्त करते हैं अतः वेदविहित हिंसा अहिंसा ही है यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा । यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ।। औषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृती पुनः ।। तुलसी प्रशा १७४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुपर्के च यज्ञे च पितृदेवतकर्मणि । अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रत्यव्रवीन्मनुः ।। एष्वर्येषु पशून्हिसन्वेदतत्त्वार्थ विद्विजः । आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ।। गहे गुरावण्ये वा निवसन्नात्मवान्द्विजः । नावेदविहितां हिंसानापद्यपि समाचरेत् ।। या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिश्चराचरे । अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्ब भो ।। यज के निमित्त मांस-भक्षण को देव विधि कहा है । इसके विरुद्ध मांस-भक्षण की प्रवृत्ति राक्षसी विधि है। खरीदकर या स्वयं कहीं से लाकर या सौगात की तरह किसी का दिया हुआ मांस देवता और पितरों को अर्पित कर खाये तो खाने वाला दोषी नहीं होता । विधि को जानने वाला ब्राह्मण सुखावस्था में अविधिपूर्वक मांस न खाये, क्योंकि अविधि से मांस खाने वाले को जन्मान्तर में वे प्राणी खा जाते हैं जिनका मांस उसने खाया था । धन के निमित्त मृग मारने वाले को वैसा पाप नहीं लगता जैसा वृथा मांस खाने वाले को होता है । श्राद्ध और मधुपर्क में तथा विधि नियुक्त होने पर जो मनुष्य मांस नहीं खाता वह मरने के इक्कीस जन्म तक पशु होता है । ब्रह्मण कभी मंत्रों से बिना संस्कार किये पशुओं का मांस न खाए, सनातन विधि को मानता हुआ मंत्रों से संस्कृत किये पशुओं का मांस खाय, पशु मास-भक्षण की यदि प्रबल इच्छा हो जावे तो घृत या मेदा का पशु बनाकर खाय, किन्तु कभी भी पशु को व्यर्थ मारने की इच्छा न करे अर्थात् अपने लिये कभी पशु-हिंसा न करे। देवतादि के उद्देश्य के बिना वृथा पशुओं को मारने वाला मनुष्य मरने पर उन पशुओं की रोम-संख्या के बराबर जन्म-जन्म में मारा जाता है । इसलिये वृथा पशुहिंसा न करे --- यज्ञाय जग्धिर्मासस्यत्येष देवो विधिः स्मृतः । अतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते ।। क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकृतमेव वा । देवान् पितंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्पति ॥ नाद्यादविधिना मासं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः । जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेत्य तैरद्यतेऽवशः ।। न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः । यादृश भवति प्रेत्य वृथामांसानि खादतः ।। नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवा । स प्रेत्य पशुतां याति षंभवानेकविंशतिम् ।। असंस्कृतान्पशून्मन्त्रैर्नाद्या द्विप्रः कदाचन । मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्याञ्छाश्वतं विधिमास्थितः॥ कुर्याद्घतपशु सङ्ग कुर्यात्पिष्टपशुं तथा । यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वोहि मारणम् । वृथापशुध्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ।' खण्ड २२, अंक ३ १७५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार हिंसा तो हम उसे कहेंगे जो अवैदिकी हो और जिसके द्वारा अनर्थ होना निश्चित हो। वेदोक्त हिंसा के द्वारा किसी भी प्रकार का अनर्थ नहीं होता, इसलिये तो यह शिष्टों का उद्घोष स्पष्ट होता है कि 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' तात्पर्य यह है कि वेदेतर हिंसा ही नरक-जनिका होती है। ___ मीमांसक भी यह स्वीकार करते हैं कि समस्त प्राणियों में हिंसा भाव को विषय बनाना 'अग्नीषोमीयं पशुमालभेत' इत्यादि विध्यर्थक वाक्य का तात्पर्य नहीं है, अपितु मात्र यज्ञविशेष में ही पशु विशेष का आलभन इष्ट है-न खलु सर्वभूतहिंसाभावविषयक कार्यमिति निषेधो विध्यर्थस्य बाधकं बिनाऽग्नीषोमीयपश्वालम्मनविषयकं कार्य विध्यर्थमुपपद्यत इति मीमांसकाः । यद्यपि 'श्येनेनाभिचरन्यजेत' यहां श्येनयाग का शवधरूप इष्टसाधनत्व है। यह श्येनयाग अभिचारमूलक कर्म माना गया है । अभिचार कहते हैं-श्येनयागादि के द्वारा शत्रुमरण को। अतः प्रकृत उदाहरण का वाक्यार्थ हुआ - 'श्येनयागेन शत्रुवधं कामयमानः इष्टं भावयेत् ।' मनु ने बलवत् अनिष्ट के जनक जिन उपपातकों को निषिद्वाचरण के रूप में गिनाया है उनमें अभिचार कर्म का भी परिगणन है गोवधोऽयाज्यसंयाज्यपारदार्यात्मक्रिया । गुरुमातृपितृत्यागः स्वाध्यायाग्न्योः सुतस्य च ॥ परिवित्तितानुजेऽनू ढे परिवेदनमेव च। तयोर्दानञ्च कन्यायास्तयोरेव च याजनम् ।। कन्याया दूषणं चैव वाधुषं व्रतलोपनम् । तडागाराम दाराणामपत्यस्य च विक्रयः ।। ब्रात्यता बान्धवत्यागो भृत्याध्यापनमेव च । भृत्या चाध्ययनादानमपण्यानां च विक्रयः॥ सर्वाक रेष्वधीकारो महायंत्रप्रर्वतनम् । हिंसौषधीनां स्त्याजीवोऽभिचारो मूलकर्म च ।। इन्धनार्थमशुष्काणां द्रुमाणामवपातनम् । आत्मार्थं च क्रियारम्भो निन्दितान्नादनं तथा । अनाहिताग्निता स्येयमृणानामनपक्रिया। असच्छास्त्राधिगमनं कौशीलव्यस्य च क्रिया ।। धान्यकुप्यपशस्तेयं मद्यपरम्त्रीनिषेवणम् । स्त्रीशूद्रविक्षत्रवधो नास्तिक्यञ्चोपपातकम् ॥ इसलिये 'श्येनेनाभिचरन्यजेत्' इस वेदोक्त क्रिया तथा 'नास्तिक्यञ्चोपपातकर्मा' इस मनुनिर्दिष्ट अक्रियाकथन में विसंगति रूप दोष की आपत्ति होती है, तथापि 'आततायिनमायांतं हन्यादेवाविचारयन्' इस प्रकार एकवाक्यता द्वारा आततायिस्थल पर इष्टसाधनत्व वोधित होने पर तथा अनाततायिस्थल पर उपपातक द्वारा प्रबल अनिष्ट साधनत्व वोधित होने के कारण विरोध नहीं आता है । फलतः उक्त दोष की आपत्ति का निराकरण हो जाता है-नन्वेवं श्येनेनाभिचरन्यजेतेत्यत्र श्येनस्य तुलसी प्रज्ञा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शत्रुवधरूपेष्टसाधनत्वमभिचारमूलं कर्म चेति मनुनोपपातकमध्ये पाठादनिष्टसाधनत्वञ्चावगम्यते । तदेतत्कथमुपपद्यत इति चेन्नाततायिनमायांतं हन्यादेवाविचारयनित्येकवाक्यतयाततायिस्थले इष्टसाधनत्वमनाततायिस्थले त्वपपातकत्वेन बलवदनिष्टसाधनत्वमित्यविरोध: कल्प्यते पदार्थान्तरसाकाङ्क्षां विशेषमिति न्यायात्तथा च वैधेतरहिंसाया एव नरकजनकत्वमिति कल्प्यते।' 'सति विरोधे सामान्यशास्त्राद्विशेषशास्त्रं प्रबलम्' इस न्याय स्वरूप 'मा हिंस्यात' 'श्वेतं छागलमालभेत' इन दोनों वाक्यों में सामान्य विशेष भाव होने पर भी भिन्नविषयत्व होने के कारण अर्थात् विषयभेदवश कोई विरोध नहीं है। यहां सामान्यविशेषभाव होने से बाध्यबाधकभाव की जिज्ञासा भिन्नविषयत्व के कारण स्वतः ही समाप्त हो जाती है । 'मा हिंस्यात्' इस निषेध वाक्य द्वारा हिंसा का अनर्थहेतुभाव ज्ञापित होता है न कि अक्रत्वर्थता, अर्थात् इस निषेध वाक्य द्वारा प्रबल रूप से हिंसा का अनिष्टसाधनत्व सूचित होता है न कि यागानुपकारकत्व । यदि यागहिंसा से यागानुपकारकत्व भी ज्ञापित होता तो अवश्य ही सामान्य और विशेषशास्त्र में विरोध होता। यद्यपि ‘मा हिंस्यात्' इस वाक्य द्वारा हिंसा का प्रबल रूप से अनिष्टसाधनत्व ज्ञापित होता है तथा · श्वेतं छागलमालभेत' इस विधिवाक्य द्वारा प्रबल रूप से हिंसा में अनिष्ट का अननुबन्धित्व अर्थात् इष्टसाधनत्व बोधित होता है। इस प्रकार इन दोनों सामान्य और विशेष वाक्यों में विरोध की अवश्यम्भाविता प्रतीत होती है तथापि 'श्वेतं छागलमालभेत' इस वाक्य द्वारा पशुहिंसा की ऋत्वर्थता कही जा रही है न कि अनर्थहेतुता । क्रत्वर्थता ही यागोपकारकता कहलाती है। 'मा हिंस्यात्' इस निषेध वाक्य से हिंसा पुरुषानर्थकरी है-यही बोधित होता है, न कि हिंसा यागोपकारिणी नहीं है-ऐसा भी। इसी प्रकार 'श्वेतं छागलमालभेत' इस वाक्य द्वारा 'हिंसा यागोपकारिणी है' यही ज्ञापित होता है, न कि 'हिंसा अनर्थकारी नहीं है' यह भी । इस प्रकार इन दोनों सामान्य और विशेष वाक्यों का विषय भिन्न होने के कारण इन दोनों में विरोध नहीं है। जिस प्रकार 'आमत कोष्ठे कर्फ हन्ति' इस वाक्य का विषय इष्ट की सिद्धि करना है और 'कण्ठे च तत्तकं कर्फ करोति' इस वाक्य का विषय अनिष्ट की सिद्धि करना है। इसी प्रकार ‘मा हिस्यात् सर्वभूतानि' और 'श्वेतं छागलमालभेत' इन दोनों वाक्यों में विषयभेद के कारण परस्पर अविरोध है । कारण कि 'मा हिंस्यात्' इस निषेध वाक्य का विषय अनर्थहेतुत्व है, जबकि 'छागलमालभेत' इस विधि वाक्य का विषय ऋतूपकारकत्व है। अतः उचित तो यही है कि वैधहिंसा में भी नरकजनकत्व और ऋतूपकारकत्व ये दोनों तो हैं. लेकिन स्वर्गजनकत्व नहीं है, जबकि यज्ञ में स्वर्गजनकत्व है, अतः वैधहिंसा द्वारा परम्परया स्वर्गप्राप्ति रूप इष्ट की सिद्धि हो जाती है--अत एव वैहिंसाया अपि नरकजनकत्वं ऋतूपकारकत्वं च कल्प्यं न तु स्वर्गजनकत्वं किन्तु तोरेव स्वर्गजनकत्वं तत्तद्विशेषविध्यभिधानात् । अपि च न मा हिंस्यात्सर्वा भूतानीति सामान्यशास्त्रं विशेषशास्त्रंणाग्नीषोमीय पशुमालभेतेत्यनेन बाध्यत खण्ड २२, अंक ३ १७७ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति युक्तं विरोधाभावाद्विरोधे हि बलीयसा दुर्बलं बाध्यते न चेहास्ति कश्चिद्विरोधो भिन्नविषयत्वात् । .... न चानर्थ वेतुत्वऋतूपकारकत्वयोः कश्चिद्विरोधोऽस्ति हिंसा हि पुरुषस्य दोषमावक्ष्यति ऋतोश्चोपकरिष्यतीति । " २. जैन दर्शन में अहिंसा की अवधारणा जैन दर्शन आचार की शुद्धता को विशेष महत्त्व देता है और उसी से मोक्ष की प्राप्ति मानता है । उमास्वाति के अनुसार सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ही मोक्षमार्ग है- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" जिस रूप में जीव आदि पदार्थों की व्यवस्था संसार में है, अर्हत् ने उसी रूप में उनके तात्त्विक अर्थ का प्रतिपादन किया है उन उक्तियों में श्रद्धा रखना ही सम्यक् दर्शन कहलाता है -- येन रूपेण जीवाद्यर्थो व्यवस्थितस्तेन रूपेणार्हता प्रतिपादिते तत्त्वार्थे विपरीताभिनिवेशरहितत्वाद्यपरपर्यायं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।१२ जिस स्वभाव से जीव आदि पदार्थ व्यवस्थित हैं उसी रूप में मोह तथा संयम से रहित होकर उन्हें जानना सम्यग्ज्ञान है येन स्वभावेन जीवादय पदार्था व्यवस्थितास्तेन स्वभावेन मोहसंशयरहितत्वेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् । संसार के कर्मों के नष्ट हो जाने पर उद्यत, श्रद्धावान् तथा ज्ञानवान् पुरुष का पाप में ले जाने वाली क्रियाओं से निवृत्त हो जाना ही सम्यक् चारित्र है - संसरणकर्मोच्छित्तावुद्यतस्य श्रद्दधानस्य ज्ञानवतः पापगमनकारण क्रियानिवृत्तिः सम्यक् चारित्रम् । भगवान् महावीर ने सिद्धों को नमस्कार करके सम्यक् चारित्र अङ्गीकार किया था । उन्होंने सम्यक् चारित्र को अङ्गीकार करते समय सभी पाप कर्मों को स्वयं के लिये अकरणीय माना था - सव्वं मे अकर णिज्जं पाव कम्मं ति कट्टु सामाइयं चरितं पडवज्जइ । १५ भगवान् महावीर चारित्र अङ्गीकार करके अहर्निश समस्त प्राणियों और भूतों के हित में संलग्न हो गये । सभी देवों ने जब यह सुना तो हर्ष से पुलकित हो उठे - डिवज्जित्तु चरितं अहोणिसं सव्वपाणभूतहितम् । सोला पयता देवा णिसामेति ॥ सम्यक् चारित्र के लिये पांच व्रतों का पालन आवश्यक है । ये पांच व्रत हैं अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । प्रमाद या असावधानी से भी जब मनुष्य, पशु, पक्षी आदि चरों और लता, वृक्ष आदि स्थावरों के प्राणों का विनाश नहीं किया जाता है तो वह अहिंसा कहलाती है न यत्प्रमादयोगेन जीवितव्यपरोपणम् । चरणां स्थावराणां च तदहिंसाव्रतं मतम् ।। ७ जैन दर्शन में अहिंसा पर सर्वाधिक बल दिया गया है। मनुष्य को मन, वचन और कर्म से हिंसा का परित्याग करना चाहिये । हिंसा न स्वयं करनी चाहिये न करानी चाहिये, न उसका समर्थन करना चाहिए । कृत, कारित तथा अनुमतप्रकार की हिंसा त्याज्य है । - सब जैन दर्शन की यह मान्यता है कि साधु को हिंसाजनक प्रश्नों में मौन रहना चाहिये । संयमशील साधु या साध्वी को ग्रामानुग्राम विहार करते हुए रास्ते में सामने से कुछ पथिक निकट आ जायें और वे यों पूछे कि 'हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या आपने १७८ तुलसी प्रज्ञा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस मार्ग में किसी मनुष्य को, मृग को, भैसे को, पशु या पक्षी को, सर्प को या किसी जलचर जन्तु को जाते हुए देखा है ? यदि देखा हो तो हमें बताओ कि वे किस ओर गये हैं, हमें दिखाओ।' ऐसा कहने पर साधु न तो उन्हें कुछ बतलाए, न मार्ग-दर्शन करे, न ही उनकी बात को स्वीकार करे. बल्कि कोई उत्तर न देकर उदासीनतापूर्वक मोन रहे अथवा जानता हुआ भी उपेक्षा भाव से 'मैं नहीं जानता' ऐसा कहे । फिर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे-आउसंतो समणा ! अवियाइं एत्तो पडिपहे पासह मणुस्सं वा गोणं वा महिसं वा पसुं वा पक्खिं वा सरीसवं वा जलचरं वा से तं मे आइक्खह दंसेह । तं णो आइक्खेज्जा णो दंसेज्जा णो तस्सं तं परिजाणेज्जा तुसिणीए उवेहेज्जा जाणं ति वदेज्जा । ततो संजयामेव गामाणुगाम दूइज्जेज्जा । साधु को कभी भी हिंसा के लिये उद्यत मनुष्य को कन्द, मूल, छाल, पत्ते, फूल, फल, बीज, हरित, जल, अग्नि, जौ, गेहूं, रथ, बैलगाड़ी, स्वचक्र, परचक्र, गांव, राजधानी, ग्रामयाचक इत्यादि के बारे में जानकारी नहीं देनी चाहिये। साधु या साध्वी के भिक्षु जीवन की यही सर्वाङ्गपूर्णता है कि वह सभी अर्थों में सम्यक् प्रवृत्तियुक्त , ज्ञानादि सहित होकर संक. पालन में सदा प्रयत्नशील रहे--एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वठेहिं समिते सहिते सदा जएज्जासि त्ति बेमि ।१९ ____ यदि कोई चोर अपना कर्तव्य जानकर साधु को गाली गलौज करे, अपशब्द कहें, मारे, पीटे, हैरान करे, यहां तक कि उसका वध करने का प्रयत्न करे और उसके वस्त्रादि को फाड़ डाले, तोड़-फोड़ कर फेंक दे तो भी वह साधु ग्राम में जाकर लोगों से उस बात को न कहे, न ही राजा या सरकार के आगे फरियाद करे, न ही किसी गृहस्थ के पास जाकर कहे कि 'हे आयुष्मन् गृहस्थ ! इन चोरों ने हमारे उपकरण छीन लिये हैं अथवा करणीय कृत्य जानकर हमें कोसा है, मारा-पीटा है, हमें हैरान किया है, हमारे उपकरणादि नष्ट कर दिये हैं।' ऐसे कुविचारों को साधु मन में भी न लाये और न वचन से व्यक्त करे । किन्तु निर्भय, निर्द्वन्द्व और अनासक्त होकर तथा आत्मभाव में लीन होकर शरीर और उपकरणों का व्युत्सर्ग कर दे और राग-द्वेष रहित होकर समाधिभाव में विचरण करे --- एतप्पगारं मणं वा वई वा णो पुरतो कट्ट विहरेज्जा । अप्पुस्सुए जाव समाहीए ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेज्जा । ३. श्रीमद्भगवद्गीता में अहिंसा की अवधारणा-भगवद् गीता की दृष्टि में अहिंसा वह कर्म है जिसके करने से व्यक्ति को किसी प्रकार का भय उद्वेग नहीं होता, जबकि हिंसा वह कर्म है जिसके करने से व्यक्ति में प्रतिपल भय तथा उद्वेग होता है। इसी विचार से भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से गीता के बारहवें अध्याय में कहते हैं कि जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति देखकर सन्तप्त होना), भय और उद्वेगादिकों से रहित है वह भक्त मेरे को प्रिय है - ___ यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः । हर्षामर्षभयोद्वेगर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥१ भगवद्गीता सात्त्विक तप पर बल देती है । त्रिविध तपों में अहिंसा शारीरिक खण्ड २२, अंक ३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप है । गीता की मान्यता है कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं, किन्तु वह कर्म निःसन्देह करणीय है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप-ये तीनों ही फलासक्ति-रहित बुद्धिमान् पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं। देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा---यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है । जो उद्वेग को न करने वाला प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो वेद-शास्त्रों के पढने का एवं परमेश्वर के नाम जपने का अभ्यास है वह निःसन्देह वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है । मन की प्रसन्नता और शान्तभाव एवं भगवत्चितन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण की पवित्रतायह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है । फल को न चाहने वाला निष्काम योगी पुरुष द्वारा परम श्रद्धा से किये गये ये तीनों तप सात्त्विक तप कहलाते हैं - श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः। अफलाकाक्षिभिर्युक्तैः सात्विक परिचक्षते ।।१२ सात्त्विक, राजस् और तामस्- इन त्रिविध कर्मों में हिंसा तामस् कर्म के अन्तर्गत आती है। जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित, फल को न चाहने वाले पुरुष के द्वारा बिना राग-द्वेष से किया हुआ है वह सात्त्विक कर्म कहलाता है। जो कर्म अत्यधिक परिश्रम से युक्त है तथा फल को चाहने वाले और अहंकार युक्त पुरुष के द्वारा किया जाता है वह राजस कर्म कहलाता है । जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य का विचार न करके केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है वह तामस कर्म कहलाता है। जो विक्षेपयुक्त चित्त वाला, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरे की आजीविका का नाशक एवं शोक करने के स्वभाव वाला, आलसी और दीर्घसूत्री (थोड़े से कार्य को बहुत समय तक भी नहीं करना) है वह तामस कर्ता कहलाता है ----- अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नष्कृतिकोऽलसः । विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।।" मनुष्य कामनावश पापपूर्णकृत्य करता है। गीता के तृतीय अध्याय में अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से पूछता है कि हे कृष्ण ! यह पुरुष बलात्कार से लगाये हुए के सदश न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ? श्रीकृष्ण ने जबाब दिया कि हे अर्जुन ! रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यही अग्नि के सदृश भोगों से तृप्त न होने वाला (अशन) और बड़ा पापी है । इस विषय में तू इस काम को ही बैरी जान । ज्ञानीजन विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में समभाव से देखने वाले होते हैं विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समशिनः ॥२१ नाश हो गये हैं सब पाप जिनके तथा ज्ञान के द्वारा नाश हो गया है संशय जिनका और सम्पूर्ण प्राणियों (भूत) के हित में है रति जिनकी, एकाग्र हुआ है भगवान् के ध्यान में चित्त जिनका-ऐसे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त परब्रह्म को प्राप्त होते हैं - १८० तुलसी प्रज्ञा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लभन्ते ब्रह्मानिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः । छिन्नद्वधा यतात्मनः सर्वभूतहिते रताः ।।२५ गीता सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप ब्रह्म (वासुदेव) को देखने का उपदेश देती है। भगवान् श्रीकृष्ण छठे अध्याय में अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन ! सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थिति रूप योग से युक्त हुए आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में बर्फ में जल के सदृश व्यापक देखता है और सम्पूर्णभूतों को आत्मा में देखता है। जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूं और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है । जो एकीभाव में स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव को भजता है वह योगी सब प्रकार रहता हुआ भी मेरे में ही स्थित है । हे अर्जुन ! जो योगी अपनी सदृश्यता से सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सब में सम देखता है वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥९। गीता की मान्यता है कि ब्रह्म रूप वासुदेव ही समस्त भूतों का जीवन तथा सनातन कारण है । सातवें अध्याय में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! जल में मैं रस हूं तथा चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूं। सम्पूर्ण वेदों में ओङ्कार हूं, आकाश में शब्द तथा पुरुषों में पुरुषत्व हूं। पृथिवी में पवित्र गन्ध और अग्नि में तेज हूं। सम्पूर्ण भूतों में उनका जीवन हूं और तपस्वियों में तप हूं । हे अर्जुन ! तू सम्पूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही जान, मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूं । हे भरत भेष्ठ ! मैं बलवानों का आसक्ति और कामनाओं से रहित बल हूं और सब भूतों में धर्म (शास्त्र) के अनुकूल काम हूं बलं बलवतां चाहं कामरागविवजितम् । धर्मविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।। २७ गीता के अनुसार संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए सुख-दुःखादि द्वंद्व रूप मोह से सब प्राणी अति अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं। जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरण करने वाला महान् वायु सदा ही आकाश में स्थित है वैसे ही भगवान् के संकल्प द्वारा उत्पत्ति वाले होने से सम्पूर्ण भूत भगवान् में ही स्थित हैं । कल्प के अन्त में समस्त भूत भगवत्प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्प के आदि में उन भूतों को भगवान् फिर रचता है। वह अपनी त्रिगुणमयी माया को अंगीकार करके स्वभाववश परतंत्र हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को बारम्बार उनके कर्मानुसार रचता है प्रकृति स्वामष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥२० गीता मानती है कि अज्ञानी तथा तामसी मनुष्य परमात्मा को तुच्छ समझते हैं, किन्तु महात्मा उस परमात्मा का निरन्तर भजन करते हैं । इस कारण भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सम्पूर्ण भूतों के महान् ईश्वर रूप में मेरे भाव को न जनाने खंड २२, अक ३ १८१ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं, जो कि वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अज्ञानी जन राक्षसों के और असुरों के जैसे मोहित करने वाले तामसी स्वभाव को ही धारण किये हुए हैं। परन्तु हे अर्जुन ! दैवी प्रकृति के आश्रित हुए जो महात्मा जन हैं वे तो मेरे को सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षर स्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त हुए निरन्तर भजते हैं महात्मानस्तु मां पार्थ दैवी प्रकृतिमाश्रिताः । भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमनव्ययम् ॥" गीता के अनुसार निश्चय करने की शक्ति, तत्त्वज्ञान, अमूढ़ता, क्षमा, सत्य, इन्द्रियों का वश में रखना, मन का निग्रह, सुख, दुःख, उत्पत्ति, प्रलय, भय, अभय, अहिंसा, समता, सन्तोष, तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति-इस प्रकार ये प्राणियों के. नाना प्रकार के भाव भगवत्कृपा से ही होते हैं । इसलिये भगवान् कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है वह भी मैं ही हूं, क्योंकि ऐसा वह चर और अचर कोई भी भूत नहीं है जो मेरे से रहित होवे यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन । न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ।।२० जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित एवं स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार रहित सुख-दुःख की प्राप्ति में सम और क्षमावान् है तथा जो ध्यानयोग में युक्त हुआ निरन्तर लाभ-हानि में सन्तुष्ट है तथा मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किये हुए भगवान् में दृढ़ निश्चय वाला है वह भगवान् में अर्पण किये हुए मन-बुद्धि वाला भक्त भगवान् को प्रिय है । गीता की मान्यता है कि जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतों में परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है वही सही देखता है, क्योंकि वह पुरुष सब में समभाव से स्थित हुए परमेश्वर को समान देखता हुआ अपने द्वारा आपको नष्ट नहीं करता है और वह परम गति को प्राप्त होता है । यह पुरुष जिस काल में भूतों के पृथक्पृथक् भाव को एक परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित देखता है तथा उस परमात्मा के संकल्प से ही सम्पूर्ण भूतों का विस्तार देखता है उस काल में सच्चिदानन्दद्मन ब्रह्म को प्राप्त होता है--- ___ यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति । तत एव च विस्तारं ब्रह्म संपद्यते तदा ।। गीता के अनुसार समस्त भूतों को धारण करने की शक्ति परमात्मा में ही है। भगवान् कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! जो तेज सूर्य में स्थित हुआ सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में स्थित है और जो तेज अग्नि में स्थित है उसको तू मेरा ही तेज जान । मैं ही पृथिवी में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सब भूतों को धारण करता हूं और रस स्वरूप चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं १८२ तु नसी प्रज्ञा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥२ गीता सभी प्राणियों के प्रति हेतुरहित दया भाव का उपदेश देती है और सभी प्राणियों के प्रति हेतुरहित दयाभाव रखने वाला पुरुष ही देवी सम्पदा से युक्त माना जाता है । सर्वथा भय का अभाव, अन्तःकरण की अच्छी प्रकार से स्वच्छता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यानयोग में निरन्तर दृढ़ स्थिति, सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवत्पूजा अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों का आचरण, वेदशास्त्रों के पठन-पाठन पूर्वक भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्मपालन के लिये कष्ट सहन करना, शरीर और इन्द्रियों के सहित अन्तःकरण की सरलता, मन-वाणी-शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ तथा प्रिय भाषण करना, अपना अपकार करने वाले पर क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरामता, किसी की भी निन्दा न करना, सब प्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र के विरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, बाहर-भीतर की शुद्धि, किसी में भी शत्रु भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव-ये सब देवी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं । ४. मनुस्मृति में अहिंसा की अवधारणा मनुस्मृति सदाचार-पालन का उपदेश देती है । उसके अनुसार अन्तरात्मा को सुख पहुंचाने वाला कर्म ही अहिंसा है जिस कर्म को करने से अन्तरात्मा को परितोष होता है उस कर्म को सदा प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये और उसके विपरीत कर्म को सदा परिवजित कर देना चाहिये यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः । तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत् ॥" आचार्य, प्रकृष्ट रूप से वक्तृता करने वाले, पिता, माता, गुरु, ब्राह्मण, गाय और समस्त तपश्चर्या करने वाले पुरुषों की कभी भी हिंसा (मानसिक सन्ताप) नहीं करनी चाहिये-- आचार्य च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम् । न हिंस्याद् ब्राह्मणान्गाश्च सर्वाश्चैव तपस्विनः ॥" ___ आचार से ही मनुष्य बड़ी आयु को प्राप्त किया करता है । आचार शुद्ध होने से ही अभीष्ट सन्तति की प्राप्ति होती है । आचार से ही अक्षय धन का लाभ और बुरे लक्षणों का नाश होता है । बुरे आचार वाला पुरुष संसार में निन्दित हो जाता है। ऐसा दुष्ट आचार वाला व्यक्ति निरन्तर दुःखों को भोगने वाला, अल्प आयु वाला और रोगयुक्त हो जाता है । समस्त सुलक्षणों से हीन भी पुरुष यदि सदाचार वाला होता है और श्रद्धापूर्वक देखने वाला तथा किसी की निन्दा एवं बुराई न करने वाला हो तो वह सौ वर्ष तक जीवित रहता है - सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः । श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति ।।२५ खण्ड २२, अंक ३ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुस्मृति का सन्देश है कि समस्त प्राणियों को पीड़ा न पहुंचाते हुए परलोक सुधारने के लिये अपनी शक्ति के अनुसार धीरे-धीरे धर्म का उसी प्रकार संचय करना चाहिये जिस प्रकार दीमक धीरे-धीरे मिट्टी की दीवार खड़ी कर देती है । दृढ़ता के साथ कर्म करने वाला, मृदु, दांत और क्रूर आचारों में निवास न करता हुआ, हिंसा से रहित और दान तथा दम-इस प्रकार के व्रत वाला पुरुष स्वर्ग को जीत लेता है। जो मनुष्य अधार्मिक हो और जिसके पास मिथ्या धन हो तथा जिसकी रति नित्य हिंसा में ही रहा करती हो वह इस लोक में कभी भी सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम् । हिसारतश्च यो नित्यं नेहासो सुखमेधते ॥" मनुस्मृति में कतिपय पशु-पक्षियों के मांस-भक्षण का निषेध है । कच्चे मांस खाने वाले गिद्ध आदि और गांव-घर में रहने वाले कबूतर आरि पक्षियों का मांस नहीं खाना चाहिये । जिनके नाम का निर्देश न किया हुआ हो ऐसे एक खुर वाले घोड़े और गधे आदि अभक्ष्य हैं । टिटहरी पक्षी का मांस भी वजित है । चटका, गौरैया, पपीहा, हंस, चकवा, ग्राम-कुक्कट, बत्तख, रज्जुवाल, जलकाक, सुग्गा और मैना इन पक्षियों का मांस ब्राह्मण को नहीं खाना चाहिये । कठफोड़ा और जिनके चंगुल झिल्ली से जुटे हों या जल-मुर्गा, नख से विदीर्ण कर खाने वाला बाज आदि और पानी में डूबकर मछली खाने वाला पक्षी, बकुला, वध स्थान का मांस और सूखा मांस वर्जित है। बगुला, बलक, द्रोणकाक, खञ्जन, मछली खाने वाला, जल जीव (मगर), ग्राम्यशूकर और सब प्रकार की मछली नहीं खानी चाहिए। मनुस्मृति की मान्यता है कि मांस न खाना अश्वमेघ यज्ञ करने के बराबर है। जो अपने सुख की इच्छा से अहिंसक जीवों को मारता है वह जीवन में या जन्मान्तर में कहीं सुख नहीं पाता । जो जीवों को बान्धने, मारने या क्लेश देने की इच्छा नहीं करता, वह सब जीवों का हित चाहने वाला अत्यन्त सुख पाता है । जो किसी जीव को दुःख नहीं देता वह जिस धर्म को मन से चाहता है, जो कर्म करता है, जिस पदार्थ को चाहता है, वह उसे अनायास ही प्राप्त होता है । जीवों की हिंसा बिना किये कभी मांस उत्पन्न नहीं हो सकता । पशुओं का वध करना स्वर्ग-प्राप्त्यर्थ नहीं होता इसलिये मांस खाना छोड़ देना चाहिये । मांस की उपत्ति को और जीवों के बध-बन्धन को अच्छी तरह सोचकर सब प्रकार के मांस-भक्षण को त्याग देना चाहिये । जो विधि को छोड़कर पिशाच की तरह मांस नहीं खाता वह संसार में सबका प्यारा होता है और रोग से पीड़ित नहीं होता। मारने की आज्ञा देने वाला, जीव को खण्ड-खण्ड करके खाने वाला, मारने वाला, बेचने और मोल लेने वाला, पकाने वाला परोसने वाला और खाने वाला ये आठों घातक हैं । जो देवता और पितरों का पूजन किये बिना दूसरे के मांस से अपना मांस बढ़ाता है उससे बढ़कर दूसरा पापी नहीं है । जो प्रत्येक वर्ष, सौ वर्ष तक अश्वमेघ यज्ञ करता है और जो बिल्कुल ही मांस नहीं नहीं खाता-इन दोनों का पुण्य फल बराबर है । फल, मूल और मुनियों के हविष्यान्न १८४ तुलसी प्रज्ञा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाने से वह फल नहीं मिलता जो केवल मांस छोड़ देने से मिलता है । 'मैं यह जिसका मांस खाता हूं, परलोक में वह मुझे ही खायेगा, यही मांस का मांसत्व हैं ऐसा पण्डितों का कहना है । मां खाने, मद्य पीने और स्त्री प्रसंग करने में दोष नहीं है, क्योंकि प्राणियों की प्रकृत्ति ही ऐसी है, परन्तु उससे निवृत्त हो जाना महाफलदायी है - मोक्ष प्राप्ति में अहिंसा सहायक है । इन्द्रियों के नियन्त्रण से राग-द्वेष के त्याग से तथा प्राणियों की अहिंसा से सन्यासी मोक्ष पाता हैइन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च । न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते ।।" सन्यासी को जिस किसी भी आश्रम में रहते हुए किसी दोष से दूषित होने पर भी सब प्राणियों को समान दृष्टि से देखते हुए धर्मानुष्ठान करना चाहिये । शरीर की अस्वस्थता में भी जीवों के प्राण -रक्षार्थ दिन हो या रात सदा पृथिवी को देखकर पैर रखे । बिना जाने दिन या रात में छोटे जीवों की पैरों के नीचे दबकर हिंसा हो जाये तो उस पाप से विशुद्धि के लिये वह सन्यासी स्नान करके छः प्राणायाम करे | व्याहृति और प्रणव सहित यथाविधि तीन प्राणायाम ही ब्राह्मण के लिये परम तप जानना चाहिये । अहिंसा ब्रह्मपद की प्राप्ति में सहायक है तथा अहिंसा से व्यक्ति निरोगी रहता है । साधक अहिंसा, इन्द्रिय-संयम, वैदिक कर्मों के अनुष्ठान और कठिन तपस्या से ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं । वैश्य की वृत्ति से जीता हुआ ब्राह्मण या क्षत्रिय हिसा वाली पराधीन कृषि को यत्न से त्याग दे । कृषि कर्म श्रेष्ठ है- ऐसा कोई-कोई मानते हैं, किन्तु सज्जनों ने कृषि की निन्दा की है क्योंकि खेती और फरसा, हल इत्यादि औजार से भूमि और भूमि में रहने वाले जीवों का नाश होता है। हिंसा करने वाला रोगी तथा हिंसा न करने वाला निरोगी होता है खण्ड २२, अंक ३ जातिभ्रंशक पाप और सङ्कटीकरण पाप - इन द्विविध पापों में ब्राह्मणपीड़ा जातिभ्रंशक पाप है | अतः मनुस्मृति का कहना है कि ब्राह्मण की रक्षा ब्रह्महत्या के पाप की मोचक है । ब्राह्मण को लाठी या हाथ से पीड़ा पहुंचाना, अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त लहसुन इत्यादि तथा मदिरा का सूंघना, दुष्टता करना और पुरुष के साथ मैथुन करना—ये सभी जातिभ्रंशक पाप हैं । गधा, घोड़ा, ऊंट, मृग, हाथी, बकरा, भेड़, मछली, सांप और भैंस इनका वध करना सङ्कटीकरण पाप है । ब्राह्मण की रक्षा करने में या गो की रक्षा में व्यक्ति शीघ्र ही प्राण को त्याग दे, क्योंकि गो और ब्राह्मण की रक्षा करने वाला ब्रह्महत्या से छूट जाता है दीपहर्ता भवेदन्धः काणो निर्वापको भवेत् । हिंसया व्याधिभूयस्त्वमरोगित्वमहिंसया ॥" १८५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मणार्थे गवार्थे वा सद्यः प्राणान्परित्यजेत् । मुच्यते ब्रह्महत्याया गोप्ता यो ह्मणस्य च ॥" मनुस्मृति की मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति भूलवश किसी प्राणी की हिंसा कर भी दे तो उस हिंसा के पाप से प्रायश्चित्त कर्म करने पर छुटकारा मिल सकता है । सांप को मारकर ब्राह्मण नोंकादार लोहे का डंडा और हिंजड़े को मारकर एक भार पुआल और एक मासा सीसा ब्राह्मण को देवे । वराह को मारने पर एक घड़ा घी, तीतर को मारने पर द्रोण तिल, सुग्गा के मारने पर दो वर्ष का बछड़ा, क्रौंच पक्षी के मारने पर तीन वर्ष का बछड़ा ब्राह्मण को दे। हंस, बालका, बगुला, मोर, वानर, बाज और भास पक्षी - इनमें से किसी को मारने पर एक गौ स्पर्श कर ब्राह्मण को देवे । घोड़े को मारने पर वस्त्र, गज को मारने पर पांच नीले बैल, बकरा और भेड़ को मारने पर एक बैल तथा गधे का वध करने पर एक वर्ष का बछड़ा दान के रूप में ब्राह्मण को देवे । कच्चा मांस खाने वाले पशुओं को मारने पर दुधारू गाय, तृणभोगी पशुओं को मारने पर जवान बछिया और ऊंट को मारने पर रत्ती भर सोना दान करे । चारों वर्गों की दुराचारिणी स्त्रियों को मारकर शरीर शुद्धि के लिये क्रमशः ब्राह्मणादि क्रम से चर्म पुट. धनुष, बकरा और भेड़ दान करे। यदि द्विज सर्पादिकों को मारने का प्रायश्चित्त 'दान' करने में असमर्थ हो तो प्रत्येक पाप की शांति के लिये एक-एक कृच्छ प्राजापत्य व्रत करे। हड्डी वाले एक सहस्र प्राणियों का वध करने पर तथा बहुत से बिना हड्डी वाले जानवरों का वध करने पर शूद्रवध का प्रायश्चित्त करे । हड्डी वाले जीवो का वध करने पर ब्राह्मण को कुछ देवे। बिना हड्डी वाले जीवों की हत्या करने पर प्राणायाम से ही शुद्धि हो जाती है। फल देने वाले वृक्ष, गुल्म, बल्ली, लतर और फलने वाले वृक्षों को काटने पर सौ बार गायत्री जाप करे। अनाजों से उत्पन्न जीवों का तथा गुड़ आदि रसों में और फल-पुष्पों में उत्पन्न जीवों का वध करने करने पर घी चाट लेने से शुद्धि हो जाती है। जोते हुए खेत में औषधियों और जंगल में स्वयं उत्पन्न वृक्षों को वृथा काटने से एक दिन केवल दूध पीकर ही रहे तथा गाय के पीछे-पीछे घूमें ! सूखे हुए मांस या जो न जाना हो, जो मांस कसाई के यहां का हो तथा गोबर छत्ता के खा लेने पर चांद्रायण व्रत करे। जो कच्चा मांस खाने वाले पशु सूअर, ऊंट, मुर्गा, कौआ और गधा-इनमें किसी का मांस ज्ञानपूर्वक खा लेवे तो पाप की शुद्धि के लिये कृच्छ्र व्रत करे । ब्राह्मण को तुण से भी मारने पर अथवा उसके कण्ठ में कपड़ा डालने या विवाद में जीतने पर उसको प्रणाम कर प्रसन्न करना चाहिये । ब्राह्मण को मारने की धमकी देने से सौ वर्ष और दण्ड प्रहार करने से हजार वर्ष तक नरक भोगना पड़ता है ____ अवगूर्य त्वब्दशतं सहस्रमभिहत्य च । जिघांसया ब्राह्मणस्य नरकं प्रतिपद्यते ॥ तीनों लोकों की हत्या करके और इधर-उधर भोजन करके भी ऋग्वेद को धारण करने वाला विप्र कुछ भी पाप को नहीं पाता। जो समाहित चित्त होकर ऋग्वेद संहिता को अथवा यजुःसंहिता को अथवा रहस्य के साथ सामवेद का तीन तुलसी प्रज्ञा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार अभ्यास करता है वह सभी पापों से छूट जाता है---- हत्वा लोकानपीमांस्त्रीनश्नन्नपि यतस्ततः । ऋग्वेदं धारयन्विप्रो नैगः प्राप्नोति किंचन ।। ऋक्संहिता त्रिरभ्यस्य यजुषां वा समाहितः । साम्नां वा सरहस्यानां सर्वपापैः ।। मनुस्मृति का कहना है कि मनुष्य को मानस-दुष्कर्म, वाणी-दुष्कर्म तथा शारीरिक-दुष्कर्म-इन त्रिविधि दुष्कर्मों का फल शरीर से ही भोग्य है और उन-उन दुष्कर्मों से व्यक्ति विभिन्न निकृष्ट योनियों को प्राप्त होता है। दूसरे का धन लेने की बात, अन्याय सोचना, चित्त में दूसरे का अनिष्ट सोचना, मिथ्या अभिनिवेश करना-- ये चारों प्रकार के अशुभ फल देने वाले मानस-कर्म हैं। कठोर और झूठ बोलना, दूसरे के दोषों को बताना और बिना अभिप्राय के वचन बोलना-ये वाणी के दुष्कर्म अशुभ फल देने वाले हैं। न दी हुई वस्तु को बलपूर्वक ले लेना, बिना विधान के हिंसा करना और परस्त्री का सेवन करना---ये तीन प्रकार के शारीरिक दुष्कर्म हैं । मन से किये हए कर्म का फल मन से, वाणी का किया हुआ वचन से और देह से किये हुए कर्म का फल देह से ही भोगना पड़ता है । शरीर से उत्पन्न कर्म-दोषों के फलों से मनुष्य स्थावरता, वाचिक दोषों से पक्षी और मृगत्व का तथा मानस दोषों से चांडालादि जाति को प्राप्त होता है ___ शारीरजः कर्मदोषयति स्थावरतां नरः । वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसरन्त्यजातिताम् ।। हिंसा करने वाले कच्चे मांस खाने वाले गिद्ध आदि की योनि को प्राप्त करते हैं । सभी प्राणियों में अपने को और सभी प्राणियों को अपने में देखता हुआ मनुष्य स्वराज्य अर्थात् ब्रह्मस्व को प्राप्त होता है सर्व भूतेषु चात्मानं सर्व भूतानि चात्मनि । समं पश्यन्नात्मयाजी स्वराज्यमधिगच्छति ॥" अतः मनुस्मृति कहती है कि सनातन वेदशास्त्र ही सभी प्राणियों का भरणपोषण करता है इसीलिए यह जीवों का उत्तम पुरुषार्थ साधन है। ५. गांधीजी की दृष्टि में अहिंसा की अवधारणा-भारतीय चिन्तकों में महात्मा गांधी का अनन्य स्थान है। वे शास्त्रीय दार्शनिक नहीं, अपितु व्यावहारिक जीवन के लिये एक नवीन दार्शनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने वाले महान् विचारक हैं । इस जगत् के लिये गांधीजी के दो महान् सन्देश हैं-सत्य के प्रति निष्ठा तथा प्राणिमात्र के प्रति प्रेम । उनका मानना है कि मानव-जीवन की आधारशिला नैतिकता पर टिकी है। गांधीजी की नीति-मीमांसा में अहिंसा का सर्वोच्च स्थान है। अहिंसा को वे परम धर्म मानते हैं। उनका कहना है कि जब आप सत्य को ईश्वर के रूप में जानना चाहें तो उसका एक मात्र उपाय प्रेम तथा अहिंसा है । प्रेम के रूप में अहिंसा सभी गुणों की जननी है । अहिंसा का स्थूल अर्थ किसी भी जीव की हत्या न करना है। खण्ड २२, अंक १७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा मनुष्य के लिये स्वाभाविक तथा जन्मजात सामर्थ्य का ही अंग है। पशु रूप में मनुष्य हिंसक है, किन्तु आत्मा रूप में वह हिंसक नहीं रह सकता । अहिंसा का अर्थ है अत्याचारी की इच्छा के विरुद्ध अपनी आत्मा को सन्नद्ध करना। सच्चे अर्थों में केवल वही व्यक्ति अहिंसक हो सकता है जिसने भय को जीत लिया हो । गांधीजी का विश्वास है कि हिंसा के आधार पर कोई वस्तु निर्मित नहीं की जा सकती । अहिंसा कर्मठता का दर्शन है निष्क्रियता का नहीं । अहिंसा न केवल हमारे विरोधियों को परास्त करती है अपितु हमें आंतरिक रूप से अधिक महान् बनाकर अन्य मनुष्यों के साथ एकता के सूत्र में बांधती है । अहिंसा सचेतन दुःख है जो हमारे सम्मुख दुःख सहन करने की शक्ति को प्रकट करती है । दुःख सहन करने से व्यक्ति का ही नहीं अपितु राष्ट्र का भी निर्माण होता है। गांधीजी का विख्यात 'हृदय परिवर्तन द्वारा क्रांति' का सिद्धांत अहिंसा के मनोवैज्ञानिक तथ्य पर आधारित है। १८८ तुलसी प्रज्ञा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ: १. मनुस्मृति (धीर बुक सेल्स प्रकाशन, हरिद्वार, द्वितीय संस्करण, १९८८) १२.९ २. मिश्र, वाचस्पति, सांख्य तत्त्व कौमुदी (प्रथम संस्करण, बम्बई, १९४०) पृष्ट ३५. ४२ ३. तर्कालङ्कार, श्रीजयकृष्ण, सारमञ्जरी (द्वितीय संस्करण, कलकत्ता, १९३५) पृष्ट ६८ ४. मनुस्मृति, ५.३९-४४ ५. वही, ५.३१-३८ ६. सारमञ्जरी, पृष्ठ ६८ ७ मनुस्मृति, ११.५९-६६ ८. सारमञ्जरी, पृष्ठ ६८-६९ ९. वही, पृष्ठ ६९-७० १०. सांख्यतत्त्वकोमुदी, पृष्ठ ४२-४६ ११. तत्त्वार्थसूत्र, १.१ १२. माधवाचार्य, सर्वदर्शन संग्रह, आर्हत दर्शन (चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, १९८४) पृष्ठ ११७-१८ १३. वही, पृष्ठ ११९ १४. वही, पृष्ठ १२१ १५. स्थविर, आचारङ्गसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध : आचारचूला, ईर्या : तृतीय अध्ययन, तृतीय उद्देशक (श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर, राजस्थान, १९८०) सूत्र ७६६, पृष्ठ ३८९ १६. वही, पंद्रहवां अध्ययन, सूत्र ७६८ १७. सर्वदर्शनसंग्रह, पृष्ठ १२२ १८ आचाराङ्गसूत्र, सूत्र ५१०,पृष्ठ २०२ १९. वही, सूत्र ५१९, पृष्ठ २०६ २०. वही, सूत्र ५१८, पृष्ठ २०६ २१. श्रीमद्भगवद्गीता (गीता प्रेस, गोरखपुर, विक्रम संवत् २०४०) १२.१५ २२. वही, १७.१७ २३. वही, १८.२८ २४. वही, ५.१८ २५. वही, ५.२५ २६. वही, ६.३२ २७. वही, ७.११ २८. वही, ९.८ खंड २२, अंक २ १८९ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. वही, ९.१३ ३०. वही, १०.३९ ३१. वही, १३.३० ३२. वही, १५.१३ ३३. मनुस्मृति, ४.१६१ ३४. वही, ४.१६२ ३५. वही, ४.१५८ ३६. वही, ४.१७० ३७. वही, ५.५६ ३८. वही, ६.६० ३९. वही, ११.५२ ४०. वही, ११.७९ ४९. वही, ११.२०६ ४२. वही, ११.२६१-२६२ ४३. वही, १२.९ ४४. वही, १२.९१ १९० --- ( डॉ. मंगलराम ) सहायक आचार्य. संस्कृत विभाग जयनारायन लाल विश्वविद्यालय, जोधपुर तुलसी प्रज्ञा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुत-ज्ञान--एक मीमांसा मुनि सुखलाल ज्ञान जीवन की पहचान है । अजीव में ज्ञान नहीं होता। भिक्षु शब्दानुशासनम् में "ज्ञांश् अवबोधने" कह कर ज्ञान का अर्थ अवबोध किया है । हर' प्राणी में कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य होता है। यही जीव और अजीव की भेदक रेखा है। पदार्थ का लक्षण है अर्थ क्रियाकारित्व। पुद्गल तत्त्व में तरंगों के रूप में अपनी भौतिक क्रिया होती रहती है। पर प्राणी भौतिक क्रियाओं को जैव-प्रक्रिया के माध्यम से पकड़ता है। एक अवस्था ऐसी भी आती है जब ज्ञान के लिए भौतिक-रासायनिक क्रिया की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह चेतना की सर्वोच्च स्थिति है। अल्पतम विकसित प्राणी है एकेन्द्रिय । पञ्चेन्द्रियता इन्द्रिय ज्ञान के विकास की उच्चतम कक्षा है। पञ्चेन्द्रिय प्राणियों में भी ज्ञान की अनंत तरतमता है। श्रेष्ठतम ज्ञान तो केवलज्ञान ही है। वह इन्द्रिय सापेक्ष नहीं है। मति और श्रुत इन्द्रिय सापेक्ष है। वे स्पर्शन, रसन, घ्राण, दर्शन और श्रवण के माध्यम से होते हैं। सभी ज्ञान माध्यमों का अपनाअपना महत्त्व है। पर श्रोतेन्द्रिय का विषय श्रुतज्ञान, इन्द्रियज्ञान की विशिष्टतम उपलब्धि है। वही मानवीय-सम्बन्धों एवं समाज-संरचना की समायोजक कड़ी है । शब्द तो प्रसरणशील है । तरंग दैर्ध्य के रूप में वह सबसे टकराता है। पर उसे ग्रहण पञ्चेन्द्रिय प्राणी ही कर सकता है । इन्द्रिय मनोनिबन्धनम्'-'मतिः' के अनुसार मतिज्ञान ज्ञान की पहली सीढ़ी है। इसे ही आभिनिबोधक ज्ञान कहा गया है। पर सूक्ष्मता से देखें तो दोनों में भेद भी है। आभिनिबोध निकटता से होने वाले प्राप्यकारी ज्ञान का प्रतिरूपक है। वह श्रुत-निश्रित भी होता है और अश्रुतनिश्रित भी होता है। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा श्रुत-निश्रित है तथा औत्पत्तिकी वैनयिकी, कार्मिकी, पारिणामिक ये चारों बुद्धियां अश्रुत-निश्रित हैं। श्रुतज्ञान का मूल है ध्वनि । वह शब्द के रूप में भी परिणत होती है तथा भाषा के रूप में भी। शब्द" जीव, अजीव तथा मिश्र तीनों प्रकार का होता है । सहन्यमान और भिधमान पुद्गल की ध्वनि रूप परिणति को शब्द कहा गया है। भाषा', भासिज्जमाण ध्वनि परिणाम है--बोला जाता हुआ पुद्गल-परिणाम भाषा है । वह श्रुतज्ञान है । वह स्थूल, कालान्तर स्थायी तथा शब्द संकेत का विषय बनकर व्यञ्जन पर्याय बनता है। वह अक्षर-आकृति में ढलकर लिपि बन कर पीढ़ियों की अपनी परम्परा बनाता है । संगीत केवल ध्वनि-परिणाम है, अभाषा है। गीत में बंध खंड २२, अंक ३ १९१ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर वह गीत-पर्याय अर्थात् श्रुत-वाक भाषा बन जाता है। श्रुतज्ञान के प्रमुख दो भेद हैं--द्रव्यश्रुत और भाव-श्रुत। "द्रव्यश्रुतानुसारि" परप्रत्यायनक्षयं श्रुतं' के अनुसार भावश्रुत से पहले द्रव्यश्रुत आवश्यक है। अन्तर्जल्परूप श्रुत भावश्रुत की पूर्व पर्याय है। शब्द में ढल कर वह भावश्रुत बन जाता है । मति-श्रुत में परस्पर भेदाभेद है। वह कुंजर और परमाणु की तरह नहीं अपितु बल्क और शुम्ब की तरह है। ज्ञाता के लिए पहले मतिज्ञान होता है, फिर द्रव्यश्रुत और फिर भावश्रुत। शब्द केवल अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। उसमें निहित" संकेत ज्ञान का संवाहक बनता है। पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की भाषा में भी अंतर है। मनुष्य सैकड़ों प्रकार की भाषाएं बोलता है। पशु भी अपनी भाषा में बोलते हैं। उनका अपना सीमित शब्दकोश होता है । बन्दर की भाषा में १८-२० शब्द होते हैं। इसी तरह पक्षियों की भी अपनी एक भाषा होती है । देवताओं में भाषा और मन एक साथ .. होते हैं। श्रुतज्ञान केवल श्रोतेन्द्रिय का ही विषय नहीं है । श्रोतेन्द्रिय का विषय तो श्रुत है, पर श्रुत केवल श्रोतेन्द्रिय का विषय नहीं है। चक्षु के द्वारा भी श्रुतज्ञान होता है। बल्कि हर इन्द्रिय के द्वारा होने वाला सूक्ष्म साभिलाष्य ज्ञान भी श्रुतज्ञान है । हर ज्ञान का अपना एक अभिलायक स्वरूप बनता है। शब्द तरंगों की ही तरह रूप, गंध आदि की भी अपनी तरंगें होती हैं। तरंगों के प्रकम्पनों का परस्पर संक्रमण भी हो सकता है। जिस तरह शब्द तरंगें श्रोतेन्द्रिय की अनुकूल आवृति का विषय बन कर, साभिलष्य बनकर श्रुतज्ञान बनती हैं उसी तरह रूप तरंगें चक्षुरिनि:य का विषय बन कर साभिलाष्यता के रूप में अव्यक्त श्रुतज्ञान बनती हैं। तरंगें ही अपनी नियत आवृतियों के रूप में इन्द्रिय ज्ञान का विषय बनती हैं । इसीलिए उनका वैविध्य इन्द्रिय ज्ञान की विविधता की ओर संकेत करता है। एकेन्द्रिय वनस्पति प्राणियों की संवेदना को हम विविध आयामों में देखते ही हैं। __ मति और श्रुत का साहचर्य है। जिस प्राणी" में मतिज्ञान होता है उसमें श्रुतज्ञान भी होता ही है। एकेन्द्रिय प्राणी में श्रोतेन्द्रिय नहीं है फिर भी श्रुतज्ञान है, इसका यही आशय है कि स्पर्श इन्द्रिय द्वारा गृहीत मतिज्ञान ही शब्दानुसार साभिलाष्य बनकर श्रुतज्ञान बन जाता है। १९२ तुलसी प्रज्ञा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदर्भ : १. नंदी सूत्र ७१ २. जैन सिद्धान्त दीपिका ११३८ ३. विशेषावश्यक भाष्य १७७, जैन. सि. दी. २-८ ४. नंदी सूत्र ३४ ५. जैन सिद्धान्त दीपिका २०१० ६. , , , २०१६ ७., , , ११५ ९. भगवती ११४४२ १०. जैन सिद्धान्त दीपिका २।२२ ११.,, , , " १२. रायपसेणी २७४ १३. विशेषा. ४६ --- (मुनि श्री सुखलाल) द्वारा प्रज्ञालोक, लाडनूं खण्ड २, अंक ३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द की काव्य-कला - उदयचंद्र जैन आचार्य कुन्दकुन्द मूलतः अध्यात्मकला के प्रवीण आचार्य हैं। उनका समग्र चिन्तन विशुद्ध आत्मा का दर्पण है, जिसमें वस्तु-स्वरूप की यथार्थदृष्टि प्रतिबिम्बित होती है । उन्होंने जो कुछ लिखा, वह सब उनकी स्वानुभूति का रस है। महावीर के वचनों की अमृतमयी सरिता में अवगाहन करके उन्होंने पहले स्वयं को अमृतत्व पान करने योग्य बनाया, फिर जिनशासन के धर्मरथ की बागडोर थामकर उसे जन-जन तक ले जाने का प्रयास किया। वह दो हजार वर्ष के बाद भी जीवन्त है और जन-जन को विशुद्ध आत्म तत्त्व के दर्शन करा रहा है। आचार्य ने अपने ग्रन्थों की रचना शौरसेनी प्राकृत (आर्ष प्राकृत) में की है जो सब गाथा छन्द में हैं। गाथा छन्द के साथ अनुष्टुप, उपजाति, चपला, विपुला, गाहू, स्कंधक आदि का प्रयोग भी हुआ है। छन्द, अलंकार और सूक्तों को आधार बना कर यहां उनकी काव्य-कला पर एक संक्षिप्त दृष्टिपात किया गया है१. गाथा छंद पढमं वारहमत्ता, बीए अट्ठारहेहिं संजुत्ता । जह पढमं तह तीअं, दह पंच विभूसिआ गाहा ॥ -प्राकृत पंगलम्, ५४ जिसके प्रथम चरण में १२ एवं १८ मात्राएं और द्वितीय चरण में १२ एवं १५ मात्राएं होती हैं, वह गाथा छन्द है-१२,१८ । १२,१५ । यथा चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हि समो॥ -प्रव०७ गाथा के भेद लच्छी रिद्धी बुद्धी, लज्जा विज्जा खमा अ देहीआ। गोरी धाई चुण्णी, छाआ कंती महामाई ॥ -प्रा० ५०, ६. कित्ती सिद्धी माणी, रामा गाहिणी विसा अ वासीआ। सोहा हरिणी चक्की, सारसि कुररी सिही अ हंसीआ ॥ -प्रा. ५०, ६१ बण्ड २२ मंक ३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्-लक्ष्मी (२७ गुरु, ३ लघु), ऋद्धि (२६ गुरु, ५ लघु), बुद्धि (२५ गुरु, ७ लघु), लज्जा (२४ गुरु, ९ लघु), विद्या (२३ गुरु, ११ लघु), क्षमा (२२ गुरु, १३ लघु), देवी (२१गुरु, १५ लघु), गौरी (२० गुरु, १७ लघु), धात्री (१९ गुरु, १९ लघु), चूर्णी (१८ गुरु, २१ लघु), छाया (१७ गुरु, २३ लघु), कान्ति (१६ गुरु, २५ लघु), महामाया (१५ गुरु, २७ लघु), कीर्ति (१४ गुरु, २९ लघु), सिद्धि (१३ गुरु, ३१ लघु), मानिनी (१२ गुरु, ३३ लघु) रामा (११ गुरु, ३५ लघु), गाहिणी (१० गुरु, ३५ लघु), विश्वा (९ गुरु, ३९ लघु), वासिता (८ गुरु, ४१ लघु), शोभा (७ गुरु, ४३ लघु), हरिणी (६ गुरु, ४५ लघु), चक्री (५ गुरु, ४७ लघु), सारसी (४ गुरु, ४९ लघु), कुररी (३ गुरु, ५१ लघु), सिंही (२ गुरु, ५३ लघु) और हंसिका (१ गुरु, ५५ लघु) ये सत्ताईस गाथा के भेद हैं ।' लक्ष्मी --२७ गुरु, ३ लघु सव्वे भावा जम्हा, पच्चक्खाई पर त्ति णादणं । तम्हा पच्चक्खाणं, णाणं णियमा मुणेयव्वा ।। -सम० ३४ ऋद्धि-२६ गुरु, और ५ लघु जदि संसारत्थाणं जीवाणं तुज्झ होंति वण्णादी । तम्हा संसारत्था, जीवा वित्तमावण्णा ॥ -सम०६३ पंचा. ६९, सम. २, निय. ४३,४४ । बुद्धि-२५ गुरु, ७ लघु एदे कालागासा धम्माधम्मा य पुग्गला जीवा । लब्भंति दव्वसण्णं, कालस्स दु णस्थि कायत्तं ॥ -पं०१०२ सम. २९५, प्रव. २३,२७, मे. ५६,६०, निय. ९,१००, चा. २,१२ । सज्जा -२४ गुरु, ६ लघु जीवाजीवा भावा, पुण्णं पावं च आसवं तेसि । संवर-णिज्जर-बंधो, मोक्खो य हवंति ते अट्ठा ।। --पं. १०८ पं. ७७,५, सम. १८८,२९७, प्रव. ३७,३८, निय. ९९, बोध. २३,४९, भाव२२, लि. २४, वार-३६,३८, श्रुतभक्ति-१ । विद्या-२३ गुरु, ११ लघु चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिट्ठिो। मोहक्खोह-विहीणो, परिणामो अप्पणो हि समो॥ -प्रव०७ पं. ८०,१०,८, सम. २२,१८६,२०२, प्रव. ३,४, निय. १८,२८,८०, द.पा. १२, ३१, सूत्र-२६,२७, चा. १, बोध. ७,२५, भाव-१४, मो. १२,३४,७१, वार-१३,२२, चारित्रभक्ति-१ । तुलसी प्रज्ञा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमा–२२ गुरु, १३ लघु परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयं त्ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणमदो, आदा धम्मो मुणेयव्वो । -प्रव० ८ __पं. ३,९, सम. ३,११,१५७, प्रव. १०,३४, निय. १७, द.पा. २,८, सूत्र. ५, २०, चा. १३, बोध. १३,२६, मो. २२,५७, शील-३,१०, वार-१७,४३, तित्थ-२, सिद्ध-६,७, श्रुत. २,६। देवी-२१ गुरु, १५ लघु जिणबिंब णाणमयं, संजमसुद्धं सुवीय रायं च । जं देइ दिक्ख-सिक्खा, कम्मक्खय-कारणे सुद्धा ।। - बोध० १५ पं. ८१,८२,८३,३,७, सम. १४, प्रव. ६,२९, निय. २,२१, द.पा. ४,१८,३३, मू. १,१०, चा ३,४,१४, बोध १७,१९, भाव-५,४८, मो. ३,४,४१, लि. १,६, शील-७,१९, वार-६,९, सिद्धभक्ति ९ श्रुत. ८ ।। गौरी-२० गुरु, १७ लघु णाणम्मि दसणम्मि य, तवेण चरिएण सम्मसहिाण । चोणं वि समाजोगे, सिद्धा जीवा ण संदेहो । -- दर्शन पा० ३२ पं. ६,३४, सम. ७,१२, प्रव. १.५.१५, निय. १०, द.पा. ५, सूत्र. ७,२३, वोध. ५,१८, भाव-२३, मो. १५,३८, लिं, ४, शील-१३, वार-१२,३९, श्रुत. ५ । धात्री-१९ गुरु, १६ लघु अह पुण अप्पा णिच्छदि, धम्माई करेइ णि रवसेसाई। तह वि ण पावइ सिद्धि, संसारत्थो पुणो भणि दो। सूत्र. १५ पं. १४, सम. १६४, प्रव. २,१२,३९, निय. २०,१६६, द.पा. ९, सूत्र. ३, चा. ९,३२, बोध. ४,६,४३, भाव. १८, मो. २,२६, लिं. १९, शी. १, वार. ७, तित्थ. ४, सिद्ध. ५, श्रुत. १० । चूर्णा १८ गुरु, २१ लघु हिस्संकिय णिक्कंखिय णिविदिगिछा अमूढदिट्ठी य । उवगृहण ठिदिकरणं, वच्छल्ल-पहावणा य ते अट्ठ।। ---चा.पा. ७ पं. ३३, सम. ४,१६, प्रव. २२,३०,८८, निय. १५,९१, द.पा. १, सूत्र ६, चा. ८,३६, बोध. ३, भाव-११२, मो. १४,४०, लि. २१,१३, शील. ११, बारसअणुप्रेक्षा१, सिद्ध-८, श्रुतभक्ति-३ । खण्ड २२, अंक ३ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया-१७ गुरु, २३ लघु सुण्णहरे तरुहिट्ठ, उज्जाणे तह मसाणवासे वा। गिरिगुह गिरिसिहरे वा, भीमवणे अहव वसिदो वा ।। -बो०४१ पं०८८,१३६, सम. १,२,१७१,३४९, प्रव. ४६,५०, निय. १,२३,२७, द. पा. १०, चा. ५,६, बोध. १२,४१, भाव-१०,८,७५, मो. १, शील. १४,२१, वार-१८, ३४, तित्थ. ३, सिद्धभक्ति ४ । कान्ति-१६ गुरु, २५ लघु णियदेह-सरिस्सं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण । अच्चेयणं पि गहियं, झाइज्झइ परम भागेण ॥ -मोक्ष पा० ९ पं. ६,१०४,११७, सम. १७,२०९,३८१,प्र व. १४,४३,७२, प्रवे. जे. ५०, चा. ८, निय. ३,१३, द.पा. ६,३५, सूत्र. १९, चा. १९, बोध. २,३१,३९, भाव. २०,९९, मो. ९, शील ९, तित्थयरभक्ति-१, सिद्ध-११ । महामाया-१५ गुरु, २७ लघु चउसट्ठि-चमर-सहिओ, चउतीसहि अइसएहि संजुत्तो। अणवर-बहुसत्तहिओ, कम्मक्खय कारण-णिमित्तो ।। -दर्शन पा. २९ पं. ४२,२४, सम. ९८,२७५,३८०, प्रव. ५५, द.पा. २९, श्रुतभक्ति ४ । कोति १४ गुरु, २६ लघु दोण्ह वि णयाण भणियं, जाणइ णवरं तु समयपडिबद्धो। ण दु णयपक्ख गिण्हदि किंचि वि णयपक्ख-परिहीणो॥ -सम. १४३ सम. १८४,३७३, प्रव. चा. ५६,५८, सूत्र. १९, भाव. २१, श्रुतभक्ति ७ । सिद्धि-१३ गुरु, ३१ लघु जिण-वयण मोराहमिणं विसयसुह-विरेयणं अमिदभूयं । जर-मरण-वाहि-हरणं खयकरणं सब्वदुक्खाणं । -द. पा. १७ भाव. पा. १७। गाथा छन्द के १५ भेद को यहां प्रस्तुत किया गया है और पाहुड ग्रन्थों में उन की संख्या दी गई। गाथा छन्द के अतिरिक्त प्रयुक्त छन्दों का उल्लेख इस प्रकार चपला-छंद दलयोद्वितीयतुर्यो गणो जकारौ तु यत्र चपला सा। १९८ तुलसी प्रज्ञा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भर्थात् जिस आर्या के दोनों अधों में दूसरे तथा चौथे गण जगण हों, वह आर्या पपला है। जैसे :--- समण-मुहुग्गदमट्ठ, चदुग्गति-णिवारणं सणिव्वाणं । एसो पणमिय सिरसा, समयमिमं सुण ह वोच्छामि ।। -पं०२ निय. ७५,१०७। पण्याछंद __ प्रथमगणत्रयविरतिदलयोरुभयोः प्रकीर्तिता पथ्या । अर्थात् जिस छन्द में तीन गणों के बाद यति हो वह पथ्या छन्द है --- जह राया ववहारा, दोसगुणप्पादगो ति आलविदो। तह जीवो ववहारा, दव्वगुणुप्पादगो भणिदो ॥ -सम.१०८ सम. १०८,१४७,१५१,१५२,१८६,२०६,२०८,२३२,२६८, प्रव० २७,३६, निय. ९७, द.पा. १९, सू. ६, भा. ७३ । विपुलाछंद संलय-गणत्रयमादिमं शकलयो योर्भवति पादः । अर्थात् जिस छन्द में तीन गण के बाद विराम हो उस छन्द को विपुला छन्द कहते हैं - अर्थात् जहां १२ मात्राओं के बाद विराम हो या विराम अंत में हो। अपरिच्चत्त-सहावेणुप्पादव्वय-धुवत्त-संजुत्तं । गुणव च सपज्जायं जत्नं दवत्ति वच्चंति ॥ -प्रव० जे० ३ निय -५१,५२,५६,६२,६३,६६,६७,११४ भावपाहुड-२५,२६,३५,४२,१२४ । शीलपाहुड---१६,२२,२४, द्वादशानुप्रेक्षा २१,२७,५३,६९,७० । गाहू छंद पुवढे उत्तढे सत्तग्गल-मत्त-वीसा।। छट्ठमगण पअमझे गाहू मेरुव्व जुअलाइ।। गाहू छन्द के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्ध दोनों में २७,२७ मात्राएं होती हैं। आदाय तं पि गुरुणा, परमेण तं णमंसित्ता । सोच्चा सवदं किरियं, उवट्टिदो होदि सो समणो ।। -----प्रव० चा०७ प्रव. ७,४२, मोक्ष-पाहुड-३१, लिंगपाहुड-७, द्वादशानुप्रेक्षा-८३ । उपजाति ___ इदं-उविंद-एक्क-करिज्जसु, चउअग्गल दह णाम मुणिज्जसु । उपेन्द्रवज्रा और इन्द्रवज्रा छन्द को एक करने से उपजाति छन्द बन जाता है। खण्ड २२, बंक ३ १९९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बंधो, जहण्णवज्जे विसमे समे वा ॥ -प्रव० ७४, की तत्व प्र० टीका अनुष्टुप छंद श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम् । द्विचतुष्पादयोहस्वं सत्तमं दीर्घमन्ययोः ॥ जहां सब चरणों में छठा अक्षर गुरु ओर पांचवां लघु होता है । दूसरे और चौथे पाद में सातवां लघु होता है और पहले तथा तीसरे पाद में गुरु । पथ्यावक्त्र का उदाहरण चेया उ पयडीयट्ट, उपज्जइ विणस्सइ । पयडीव चेययट्ट उप्पज्जइ विणस्सइ । __----सम. ३१२ अनुष्टुप-सम. ३१२,३१४,३१५, नियमसार-१०१,१२५-१३३, भावपाहुड५७,५९,६२, मोक्षपाहुड-२९,३०,७२, बारसाणुपेहा-२०, चारित्रभक्ति-५,६ ।। उक्त अनुष्टुपछन्द के छंदोनुशासन में कई भेद किए हैं, जिसके अनुसार भी छन्दों का परिचय दिया जा सकता है। अलंकार-योजना अप्रस्तुत प्रशंसा प्रशंसा क्रियते यत्राप्रस्तुतस्यापि वस्तुनः । अप्रस्तुतप्रशंसां तमाहुः कृतधियो यथा ।। जिस काव्य में वर्णनीय वस्तु से भिन्न अन्य वस्तु की प्रशंसा की जाती है, उसमें 'अप्रस्तुत प्रशंसा' अलंकार होता है । यथा-- ण मुयइ पयडि अभव्वो, सुठ्ठ वि आयणि ऊण जिणधम्म । गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिविसा होति ।। -भावपाहुड १३७ भाव. १३८, समयसार-१९५,१९६,१९७,३१७ । उपमा अलकार उपमानेन सादृश्यमुपमेयस्य यत्र सा । जहां उपमान (अप्रस्तुत) के साथ सादृश्य दिखाया जाता है वहा उपमा अलंकार होता है । यथागयणमिव णिरुवलेवा, अक्खोहा सायरुव्व मुणिवसहा । -आचार्य भा.६ - हरिहरतुल्ला वि णरो, सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी। ---सूत्र.. तुलसो प्रजा २००... Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमित्ते य समा पसंसणिद्दा अलद्धिलद्धिसमा ॥ बोधपाहुड-१४, -मो. ४६ । भावपाहुड -१४३,१४४,१४५,१५३, द्वादशानुप्रेक्षा-६, ती. ८, प्रव. ४४ । तारावलिपरियरिओ पुण्णिम इदुव्व पवणपहे। -भा. १५९ कमलं व अले णिवलेवो-प्रव.चा. १८।। रूपक अलंकार रूपकं यत्र साधादर्थयोरभिदा भवेत् । जहां धर्म साम्य के कारण उपमेय और उपमान में भेद न रह जाए, वहां रूपक अलंकार होता है । यथा जिणवर-चरणंबुरुह, णमंति जे परमभत्तिराएण। .. ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्थेण ।। -भाव. १५२ तिहुवण-भवणपदोवो-भाव. १५१ भाव. १५४,१५५,१५६,१५७,१५८, शील. ३१, द्वा. ६१, बोधपाहुड-२२ । कम्म-कलंकविमुक्को-मोक्ष-५ जिणमुदं सिद्धिसुहं हवेइ-मोक्ष-४७ वीरं विसालणयणं रसुप्पल-कोमलस्समप्पायं । -शीलपाहुड-१ दष्टान्त अलंकार अन्वयाख्यापनं यत्र क्रियया स्वतदर्थयोः । दृष्टान्तं ममिति प्राहरलङ्कारं मनीषिणः ।। - जिस अलंकार में प्रस्तुत और अप्रस्तुत का क्रिया, गुण, चेष्टादि सम्बन्ध से यथातथ्य वर्णन किया जाता है, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं। जहां बिम्ब प्रतिबिम्ब का भाव हो। जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । -सम० २७८ जह मज्जं पिवमाणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दव्ववभोगेअरदी णाणी विण वज्जदि तहेव ।। -सम० १९६ .... पंचा. ३३,८५,८६,११३, सम. १७४,१६८,१८४,२४२,३४९-३६५, प्रव. ३०, दर्शन पा. १०,११, सू.पा. ३, बो.पा. १४, भाव. ८२,११२,१२५, मोक्ष. पा. २४,५१, लिंगपा. २१, शील. पा. २४ । अनुप्रास-अलंकार तुल्यश्रुत्याक्षरावृत्तिरनुप्रासः स्फुरदगुणः । खण्ड २२, अंक ३ २०१ जह मज्ज। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहां समान सुनाई देने वाले अक्षरों की आवृत्ति हो वहां मनुप्रास अलंकार होता है। यथा दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो । -पं० ९ प्रायः सभी ग्रन्थों में अनुप्रास है । निय. २६ उल्लेख-अलंकार जहां किसी वस्तु या पदार्थ का अनेक प्रकार से वर्णन या उल्लेख किया जाए, वहां उल्लेख अलंकार होता है । यथा पाणेहिं चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हु जीविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण, बलमिदियमाउ उस्सासो॥ ..... -पंचा. ३० पं. २९,३८,७१,७२, सम. ३८,६७, प्र०. १२, निय. ४,१००, द.पा. ३, सू. ९, चा. पा. ११,१२, बोध. पा. १५, भाव. पा. २, मोक्षपा. ५, लि. २, शी.पा. ३६,३७, द्वादशानुप्रेक्षा १९ । यमक अलंकार स्यात्पाद-पद-वर्णानामावृत्तिः संयुतायुता। भिन्न अर्थ वाले पाद, पद और वर्ण की संयुक्त और असंयुक्त रूप से आवृत्ति को यमक कहते हैं । यथा-निय. गा. २ ते ते सव्वे समगं समगं पत्तेगंमेव पत्तेगं । यहां एक समगं का अर्थ साथ, सबको और दूसरे 'समगं' का अर्थ साथ-साथ है। इसी तरह पत्तेग-प्रत्येका और दूसरे पत्तेग का अर्थ पृथक्-पृथक् है । श्लेष अलंकार पदस्तैरेव भिन्न वाक्यं वक्त्येकमेव हि । जहां एक ही शब्द के दो अर्थ हो, वहां श्लेष अलंकार होता है । यथा-- णत्थि परोक्खं किंचि वि समंत सव्वक्ख-गुण-समिद्धस्स । -प्रव० २२ 'सव्वक्ख' में स्थित अक्ख के दो अर्थ हैं एक इन्द्रिय और दूसरा आत्मा। समस्त इन्द्रियों के गुणों से समृद्ध अथवा आत्मा के समस्त गुणों से सम्पन्न । दीपक अलंकार आदिमध्यान्तवत्यैकपदार्थनार्थसङ्गतिः । वाक्यस्य यत्र जायेत तदुक्तं दीपकं यथा ।। तुलसी प्रज्ञा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस स्थान पर आदि, मध्य और अन्त में रहने वाली एक क्रिया से वाक्य का सम्बन्ध उत्पन्न होता है, वहां दीपक अलंकार होता है । यथा परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पि य परं करितो सो। अण्णाणमओ जीवो, कम्माणं कारगो होदि ।। -सम० ९२ कुन्दकुन्द के सूक्त-- १. णाणं धणं च कुव्बदि धणिणं जह णाणिणं च दुविहेहिं । २. अहमिकको खलु सुहो। ३. अण्णाणमओ जीवो कम्माणं कारगो होदि । ४. अण्णाणमओ भावो अण्णाणिओ। ५. णाणिस्स दु णाणमओ। ६. सुदं सु वियाणंतो सुदं । ७. धम्म भोगणिमित्तं ण। ८. कुवंति जे ममत्तं तेहिं ण णायं समयसारं। ९. चारित्तं खलु धम्मो । १०. आदा णाण पमाणं । ११. णाणं विणा ण अप्पाणं । १२. णाणी णाणसहावो। १३. सव्वगयं वा णाणं । १४. णाणं सुत्तस्स य जाणणा भणिया। १५. जो जाणंदि सो णाणं । १६. तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण पत्थि कादव्वं । १७. जेसिं विसयेसु रदी तेसिं दुक्खं वियाण सब्भावं । १८. हिंडदि घोरमपारं संसारं मोह संछण्णो । १९. जो जाणादि जिणिदे पेच्छदि सिद्धे तधेव अणगारे । २०. उग्गो उम्मग्गपरो। २१. रत्तो बंधदि कम्म मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा । २२. कम्मरजेहिं सिलिट्ठो बंधो। २३. समवट्टिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा। २४. जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो । २५. गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स । २६. सो लोगिगो त्ति भणिदो संजम-तव-संजुदो चा वि । --पं. ४७ -सम. ३८ --सम. ९२ -सम. १२७ --सम. १२६ .-सम. १८६ --सम. २७५ -~-~-सम. ४१३ -प्रव.७ --प्रव. २३ --प्रव. २७ -प्रव.२८ -प्रव. ३१ -प्रव.३४ -प्रव. ३५ -प्रव.६७ -प्रव. ६४ -प्रव.७७ -प्रव.जे ६५ -प्रव. जे. ६६ ---प्रव. ज्ञे. ८७ --प्रव. जे. ९६ -प्रव. जे.१०४ -प्रव. चा. २६ --प्रव. चा. ५९ --प्रव. चा. ६९ खण्ड २२, मंक ३ २०३ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द के सम्पूर्ण वाङ्मय को आधार बनाकर सूक्त वचन, दृष्टान्त, सामाजिक परिप्रेक्ष्य आदि से सम्बन्धित एक विस्तृत परिचय, दार्शनिक चिन्तन के साथ प्रस्तुत किया जाय तो पाश्चात्य एवं भारतीय दार्शनिक परम्परा को एक नई दिशा प्राप्त हो सकती है। कुन्दकुन्द के चिन्तन में ज्ञान-विज्ञान का मन्थन है, जिसे विलोए बिना सर्वोदय तीर्थ की स्थापना और राष्ट्रीय भावना को बल नहीं मिल सकता है। -(डॉ. उदयचन्द्र जैन) पिऊ कुञ्ज ३, अरविंदनगर, उदयपुर-३१३००१ (राजस्थान) २.४ तुलसी प्रज्ञा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रवचनसार' में छन्द की दृष्टि से पाठों का संशोधन के० आर चन्द्र "प्रवचनसार' आचार्यश्री कुन्दकुन्द की जैन सिद्धान्त संबंधी एक प्राचीन रचना और शौरसेनी आगम साहित्य का एक अंग माना जाता है। उस ग्रंथ को पढ़ने पर उसकी गाथाओं में अनेक जगह छन्दोभंग हो रहा है उसी को प्रकाश में लाकर उन गाथाओं में संशोधन सुझाया गया है। इस ग्रन्थ की रचना गाथा (मात्रिक) छन्द में हुई है और उसके लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं उसके (गाथा) हरेक पद्य में दो पाद होते हैं और हरेक पाद में बारहवीं मात्रा पर यति होती है। प्रथम पाद में ३० और दूसरे पाद में २७ मात्राएं होती हैं। प्रथम पाद में चार-चार मात्राओं के छः गण होते हैं जिसमें से छठे गण में चारों लघु होते हैं या जगण (लगुल) होता है। अन्तिम (छः मात्राएं) तीन गण दो-दो मात्राओं के होते हैं। दूसरे पाद में भी छः गण चार-चार मात्राओं के होते हैं और छठा गण एक लघु मात्रा का होता है और अन्तिम दो-दो मात्राओं के तीन वण होते हैं । __इस ग्रन्थ में तृतीया बहुवचन की विभक्तियां--हि और-हिं प्रयुक्त हैं, परंतु अनेक स्थलों पर-हिं के प्रयोग (गुरु) से छन्दोभंग हो रहा है। ऐसे प्रयोग कहां पर सही हैं या कहां पर गलत हैं यह नीचे दर्शाया जा रहा है ।* १. तृतीया बहुवचन की विभक्ति-हि के सही प्रयोग, अर्थात लघु वर्ण के रूप में प्रयोग(i) अ. १, गाथा ५७ का द्वितीय पाद उवलदं/तेहि/कधं/पच्चक्खं/अप्पणो/होदि । यहां पर अन्तिम --दि (अर्थात् लघु) को गुरु माना जाना चाहिए। (ii) अ. २, गाथा ४४ का प्रथम पाद लोगालोगेसु/णभो/धम्माधम्मेहि/आददो/लोगो। (iii) अ. ३, गाथा ३ द्वितीय पाद समणेहि/तं/पि/पणदो/पडिच्छ/मं/चेदि/अणुगहिदो। (iv) अ. ३, गाथा ६९ का प्रथम पाद णिग्गंथो/पच्चइदो/वट्ठदि/जदि एहिगेहि/कम्मेहिं । *देखिए 'प्रवचनसार', संपा. ए. एन. उपाध्ये, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, १९६४ । खण्ड:२२, अंक ३ २०५ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. तृतीया बहुवचन की विभक्ति -हिं के सही प्रयोग, अर्थात् गुरु वर्ण का प्रयोग(i) अ. ३, गाथा ४७ का प्रथम पाद वंदणणमंसणेहिं/अभट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती । उपरोक्त प्रयोग गाथा के मध्य में आगत शब्द-रूप का उदाहरण है। (ii) पादान्त में तो ऐसे अनेक प्रयोग मिलते हैं (अ) प्रथम पाद के उदाहरण • संपज्जदि/णिव्वाणं/देवासुरमणुयरायविहवेहिं ।१.६। • जो/जाणदि/अरहंतं दव्वन्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं ।१.८०। ० समवेदं/खलु/दव्वं/संभवठिदिणाससण्णिदह्रहिं ।२.१०। • आपिच्छ/बंधुवग्गं/विमोचिदो/गुरुकलत्तपुत्तेहिं ।३.२। • जं/अण्णाणी/कम्म/खवेदि/भवसयसहस्सकोडीहिं ।३.३८। • ऊपर देखो अ. ३ की गाथा ६९ का 'कम्मेहिं' प्रयोग (ब) द्वितीय पाद के उदाहरण ० अत्थो/पज्जाओ/सो/संठाणादिप्पभेदेहि ।।२.६०।। ० संजमतवणाणड्ढा/पणिवदणीया/हि/समणेहिं ।।३.६३॥ इन गाथाओं के उदाहरणों से स्पष्ट है कि छन्द की मात्राओं के नियमन के लिए आवश्यकता के अनुसार लघु वर्ण के लिए ---हि और गुरु वर्ण के लिए --हिं विभक्ति का प्रयोग किया गया है । ३. परंतु 'प्रवचनसार' में ४५ ऐसे प्रसंग हैं जहां पर ----हि (लघु) के बदले में -हिं (गुरु) का प्रयोग है (अ. १ में १४ बार, अध्याय २ में २५ बार और अध्याय ३ में ६ बार)। • जहां पर -हि के प्रयोग से छंदोभंग होता है उनमें से कुछ उदाहरण देखिए---- (i) प्रथम गण में छंदोभंग __ तेहिं/पुणो/पज्जाया/पज्जयमूढा/हि/परसमया ॥२.१ ब।। (ii) दूसरे गण में छंदोभंग ____ मोहिदीहिं/विरहिया/तम्हा/सा/खाइग/त्ति/मदा ॥१.५५ब।। (iii) तीसरे गण में छन्दोभंग दुक्खसहस्सेहि/सदा/अभिधुदो/भमदि/अच्चंतं ॥१.१२ब।। (iv) चौथे गण में छंदोभंग तम्हा/जिणमग्गादो/गुणे हिं/आदं/परं/च/दव्वेसु ।१.९०॥ (v) पांचवें गण में छंदोभंग पज्जाया/जीवाणं/उदयादिहि/णामकम्मस्स ॥२.६१ब।। (vi) छठे गण में छन्दोभंग (अ) सो/णेव/त/विजाणदि/उग्गहपुव्वाहि किरियाहिं ॥१.२१॥ (ब) सपदेसेहि/समग्गो/लोगो/अठेहि/णिट्ठिदो/पिच्चो ।२.४३। : तुमसी प्रज्ञा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स) एदें / खलु / मूलगुणा / समणाणं / जिण वरेहिं / पण्णत्ता । ३.९अ । ४. लघु (वर्ण) के स्थान पर गुरु (वर्ण) का प्रयोग जिससे छन्दोभंग होता है । ऐसे सभी प्रयोगों की सूचि (i) प्रथम गण के प्रयोग २. १अ तेहि / पुणो... (ii) द्वितीय गण के प्रयोग १.४५ मोहादीहिं / विरहिया... १.७६ब जं / इंदियेहि २. ३८अ लिंगेहि / जेहि... २. ४३ब सपदेसेहि / असंखा २. ५३अ सपदेसेहि / समग्गो... २. ५५ पाणेहि / चदुहि / जीवदि " २. ५९ब कम्मे हि / सो / ण/रंजदि... २. ८२ रुवा दिएहि २. ८५अ फासेहि / पुग्गलाणं " २.९६ब कम्मरजेहिं / सिलिट्ठो २. ९७ब अरहंतेहिं / जदीणं ३. ३८ब तं / णाणी / तिहि / गुत्तो' (iii) तृतीय गण के प्रयोग १.१२ब दुक्ख सहस्सेहि / सदा १.५९ ब रहियं / तु / आग्गेहादिहिं .. २५५ पाणेहिं / चदुहि / जीवदि ... (iv) चतुर्थ गण के प्रयोग १. ९०अ गुणेहिं २. ४अ , गणेहिं... (v) पांचवें गण के प्रयोग १. ६५अ २.६१ब (vi) छठें गण के प्रयोग **** 1 खण्ड २२, अंक ३ .... १. ३४अ ....., पोग्गलदव्व पगेहि / वयणेहिं । २. ५५ब ३. ३५ब ...., पोग्गलदव्वेहिं / णिव्वत्ता । (vii) देखिए अन्य गाथाएं .... फासे हि / समस्सिदे " उदयादिहिं/ णामकम्मस्स ॥ अथ / गुणजएहि / चित्ते हि । १.४०, ४३अ, ६३अ, ७३अ, ७५अ, और ८६अ । २. ५५, ५६अ, ५६ब, ५७अ, ६१अ, ७५ब, ७६अ, ७६ब, ८१, ८३ब और ८७अ ! २०७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि जहां पर छन्द की दृष्टि से लघु मात्रा अर्थात् --हि होना चाहिए उसके बदले में --हिं का प्रयोग होने से मात्रा गुरु हो जाती है । इस अवस्था में ऐसा अनुमान भी नहीं किया जा सकता कि मूल हस्तप्रत में ...हि पाठ होगा और संपादक श्री ने उसे --हिं (अनुस्वारयुक्त हि) कर दिया हो। तब ऐसा समझ कर चलना चाहिए कि ----हिं गुरु होते हुए भी उसे लघु मानना (पढ़ना) चाहिए। ६. परंतु इन्हीं संपादक श्री ने ऐसी अवस्था में --हिं के बदले में ---हिं विभक्ति (चन्द्र बिन्दु युक्त/-हि) लिखने की पद्धति सुझायी है । 'लीलावईकहा' में यही पद्धति अपनाई गई है, देखिए(अ) "लीलावईकहा : कोहल' में प्रयुक्त -हि, -हिं और -हिं विभक्तियां--- १. जस्स/पिय-बंधवेहि/व/चउवयण-विणिग्गएहि/वेएहि । ऍक्क/वयणारविंद-ट्ठिएहिं/बहु-मण्णिओ/अप्पा ॥२१॥ २. अच्छउ/ता/णिय-छत्तं/सेसाइ/वि/जत्थ/पामरवहूहिं ।५१। ३. अहिसारियाहि/आमुक्क-मंडणाहि/पि/संचरिउ ।५६। (ब) पउमचरिउ--स्वयंभू* में भी लघु मात्रा के लिए -हिं का प्रयोग १. गियइँ/सिर इँ/विज्जाहरेहिँ २.२१,१.१० (१४ मात्रिक छन्द) तो/राहवेणे लइज्जइ/वाणे हि २.२१.७.७ (१६ मात्रिक छन्द) (स) पउमसिरीचरिउ : धाहिल** से उदाहरण पउमसिरि-सहिउ/विहिहिं/कुमारु/(१६ मात्रिक छन्द) संधि २.२१.२४५ [--हिं=गुरु] वज्जते हि/तूहि (संधि २.२.२३ [-हि-लघु] ) फुडु/त/जि/वृत्त/पयडक्खरेहि (संधि १.१७.१७) उब्भिन्न-वहल-पुलयंगयेहिँ (संधि १.९.११) [यहां पर --हिं गुरु के रूप में और ----हि, हिं लघु के रूप में प्रयुक्त ७. ऐसी अवस्था में प्रवचनसार में जहां पर भी --हिं का प्रयोग है परन्तु छन्द की दृष्टि से वह लघु हो तो ऐसे स्थलों पर हिं के बदले में – हिँ या -हि प्रयुक्त किया जाना चाहिए। यदि हस्तप्रतों में -हि का प्रयोग ही जब नहीं मिलता हो 1 संपा. डॉ० ए० एन० उपाध्ये, सिंघी जैन शास्त्र विद्यापीठ, भारतीय विद्या भवन, बंबई, ई.सं. १९४९ । (यह महाराष्ट्री प्राकृत में एक कथा-काव्य ग्रन्थ है ।) * डॉ० ह० चू० भायाणी, सिंघी जैन शास्त्र विद्यापीठ, भारतीय विद्या भवन, बंबई, ई.सं. १९५३ । ** संपा. मोदी एवं भायाणी, सिंघी जैन शास्त्र विद्यापीठ, भारतीय विद्या भवन, बंबई, ई.स. १९४८ । २०५ - तुलसी-प्रज्ञा . .. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब तो --हिं (चन्द्र बिन्दु युक्त -हि) का प्रयोग ही उपयुक्त होगा। इस दृष्टि से 'प्रवचनसार' में उदाहरण के रूप में निम्न प्रकार से तृ. ब. व. की विभक्ति के प्रयोग बदले जाने चाहिए [हिं के स्थान पर ---हिं का प्रयोग](i) द्वितीय पाद के उदाहरण--- १.४५ मोहादीहिं/विरहिया तम्हा/सा/खाइग/त्ति/मदा । २.१ तेहि/पुणो/पज्जाया/पज्जयमूढा/हि/परसमया ॥ ३.३८ तं/गाणी/तिहि/गुत्तो/खवेदि/उस्सासमेत्तेण ।। १.१२ दुक्खसहस्सेहि/सदा/अभिधुदो/भभदि/ऊच्चंते ॥ २.६१ पज्जाया/जीवाणं/उदयदिहिं /णामकम्मस्स ॥ (ii) प्रथम पाद के उदाहरण ----- १.४० अत्थं अक्खणिवदिदं/ईहापुव्वेहिँ/जे विजाणंति । २.५६ जीवो/पाणणिबद्धो/बद्धो/मोहादिएहिँ कम्मेहिं । २.८१ मुत्तो/रूवादिगुणो/बज्झदि/फासे हिँ/अण्णसणेहिं । २.८७ रत्तो/बंधदि कम्म/मुच्चदि/कम्मेहि / रागरहिदप्पा । ३.३५ सव्वे/आगमसिद्धा/अत्था/गुणपज्जएहि/चित्तेहिं । छन्द की दृष्टि से इस प्रकार के मात्रात्मक संशोधन से (जो अनिवार्य है) क्या ऐसा नहीं प्रतीत होता कि इस रचना पर अपभ्रंश-काल का प्रभाव है ? ८. विभक्ति प्रत्ययों का विकास किस प्रकार हुआ और उनमें परिवर्तन किस कारण से आया इस संबंध में मेरी पुस्तक 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी' में चर्चा की गई है*, उसे देखने से पता चलेगा कि किस प्रकार तृ. ब. व. का मूल विभक्ति प्रत्यय -हि से -हिं हुआ और फिर -हिं से ---हिं हुआ। -----हिं प्रत्यय परवर्ती काल में प्रचलन में आया है यह ध्यान में रखने की बात है। इसका प्रयोग अपभ्रंश साहित्य में बहुतायत से हुआ है इसीलिए ऐसा कहा जा सकता है कि 'प्रवचनसार' की भाषा पर अपभ्रंश काल का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। ---(डॉ० के० आर० चन्द्र) प्राकृत जैन विद्या विकास फण्ड ३७५, सरस्वती नगर, आजाद सोसाइटी अहमदाबाद-३८००१५ - *प्राकृत जैन विद्या विकास फंड, अहमदाबाद, १९९५, देखिए अध्याय, १२ और मुख्यतः पृष्ठ नं. ११३ । खण्ड २२, अंक ३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प की 'सामाचारी' साध्वी विभुतविमा जैन आगमों में दो प्रकार की साधना का वर्णन उपलब्ध होता है-(१) संघबद्ध साधना, (२) संघमुक्त साधना। जो साधक साधना के विशेष प्रयोग करना चाहते हैं वे एक निश्चित समयावधि के लिए संघ से विमुक्त होकर साधना करते हैं। संघमुक्त साधना करने वाले अप्रमत्त साधकों की मुख्यतः तीन श्रेणियां निर्दिष्ट हैं-१. जिनकल्पी, २. यथालन्दक, ३. परिहारविशुद्धि। जैन साधुओं की एक नियत सामाचारी होती हैं। उसके दश प्रकार है- इच्छाकार, मिध्याकार, तथाकार, आवश्यिकी, नषेधिकी, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दना, निमन्त्रणा और उपसम्पद् । उपसम्पद् सामाचारी दो प्रकार की है--साधु विषयक और गृहस्थ विषयक । ज्ञान आदि के लिए दूसरे गण में जाकर उपसम्पदा लेना साधु विषयक उपसम्पदा है । गृहस्थ आदि से प्रवास आदि के लिए अनुज्ञा लेना गृहस्थ विषयक उपसम्पदा है । जिनकल्पी के पांच सामाचारी का प्रयोग होता है---आवश्यिकी, नैषेधिकी, मिथ्याकार, आपृच्छा और गृहस्थ विषयक उपसम्पदा।' कुछ आचार्यों के अनुसार उनके मिथ्याकार और आपृच्छा की अपेक्षा नहीं है । जिनकल्पी का जघन्य श्रुत नौंवें पूर्व की तृतीय वस्तु तथा उत्कृष्ट श्रुत भिन्नदशपूर्व होता है। इससे अधिक श्रुत पर्याय वाला जिनकल्प साधना को स्वीकार नहीं करता किन्तु शासन प्रभावना, परोपकार आदि के द्वारा बहुत निर्जरा लाभ कर लेता है। ____ जिनकल्प की साधना केवल वे ही शक्ति संपन्न व्यक्ति कर सकते हैं जो वज्रऋषभनाराच संहनन तथा वज्रमयी धृति वाले होते हैं।' इस साधना में उपसर्ग, रोग और आतङ्क की भजना है। यदि उपसर्ग आदि आते हैं तो वे उन्हें प्रसन्नता से सहन करते हैं। वेदना के दो प्रकार हैं १. आभ्युपगमिकी वेदना-ध्रुवलोच, आतापना, तप आदि । २. औपक्रमिकी वेदना-कर्म के उदय से होने वाली वेदना । इन दोनों वेदनाओं को वे अदीन मन से सहन करते हैं।' जिनकल्प साधना करने वाले साधक ऐसे स्थान पर कभी भी उच्चार और प्रश्रवण का त्याग नहीं करते जहां लोगों का आवागमन हो अथवा जहां लोग दिखाई दें। दीर्घकालीन बहुदैवसिक उपसर्ग के कारण अनापात (आवागमन रहित) असंलोक (जहां लोग दिखाई दें) स्थण्डिल के अभाव में वे मलमूत्र का विसर्जन नहीं खण्ड २२, अंक ३ २११ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते । जिनकल्पी का आहार अल्प और रुक्ष होने के कारण उनका पुरीष अल्प और अभिन्न ही होता है । इसलिए उन्हें निर्लेप की आवश्यकता नहीं होती ।" उनका वसति ( उपाश्रय) के प्रति ममत्व नहीं होता। इसलिए न वे स्वयं उसकी सारसंभाल करते हैं और न ही गृहस्थों को उपलेपन आदि का संकेत देते हैं ।" ये Hi fi को मिट्टी आदि से नहीं ढकते । गौ आदि के द्वारा तोड़ी जाती हुई वसति का निवारण नहीं करते । न वे कपाट बन्द करते हैं, न अर्गला देते हैं ।' जिस वसति में जिन कल्पी साधना करें तो यदि गृहस्वामी उसे प्रश्न करें कि आप यहां कितने दिन रहेंगे ? अथवा यह निर्देश करें कि अमुक स्थान पर उच्चारप्रश्रवण आदि कार्य करना, अमुक स्थान पर नहीं, अमुक स्थान पर रहना, हस्त संकेत से निर्दिष्ट स्थान से तृण फल आदि ग्रहण करना, दूसरे जगह से नहीं, गायों की रक्षा करना, वसति यदि टूट रही हो तो उसका पुनः संस्थापन करना, उपेक्षा मत करना ।" जिस वसति में बलि की जाती हो, दीपक जलाया जाता हो, अग्नि, अङ्गारे आदि का प्रकाश हो अथवा जहां गृहस्थ यह निर्देश दें कि हमारे गृह का ध्यान रखना, वहां जिनकल्पी निवास नहीं कर सकता । " वसति में रहने के लिए अनुज्ञा देते हुए गृहस्वामी यदि यह जिज्ञासा करे कि आप यहां कितने दिन रहेंगे तो जिनकल्प साधना करने वाला मुनि वहां नहीं रह सकता। क्योंकि ये मुनि किञ्चित् मात्र भी दूसरों की अप्रीति के कारण नहीं बन सकते 18 । जिनकल्पी मुनि नियमत: तृतीय पौरुषी में भिक्षाचर्या भिक्षषणा अभिग्रहयुक्त होती है । पानक की भी यही विधि है चणक- सौवीर आदि ग्रहण करते हैं ।" अत्यधिक मासिकी प्रतिमा, भद्रा - महाभद्रा आदि प्रतिमा स्वीकार नहीं करते किन्तु उनकी कल्पस्थिति की परिपालना ही उनका विशेष अभिग्रह होता है । ' अम्ल द्रव्य वे ग्रहण नहीं करते । १५ करता है । उसकी ये अलेपकृत वल्ल १६ जिनकल्पी जहां मासकल्प करते हैं वह ग्राम को छः वीथियों में विभाजित करते हैं । प्रतिदिन एक - एक वीथी में गोचरार्थ जाते हैं। एक वसति में उत्कृष्टतः सात जिनकल्पी एक साथ रह सकते हैं । एक स्थान पर रहते हुए भी परस्पर संभाषण नहीं करते । एक वीथी में एक जिनकल्पी यदि भिक्षार्थ जाता है तो दूसरा वहां नहीं जा सकता । " जन्म और सद्भाव की दृष्टि से जिनकल्पी पन्द्रह कर्मभूमियों में रहते हैं । यदि देव आदि के द्वारा संहरण हो जाए तो अकर्मभूमी में भी उनका सद्भाव हो सकता है ।" जन्म की दृष्टि से जिनकल्पी अवसर्पिणी के सुषम- दुःषमा, दुःषमा - सुषमा नामक तीसरे और चौथे आरे में होते हैं । सद्भाव की दृष्टि से पांचवें आरे में भी जिनकल्पी हो सकते हैं । उत्सर्पिणी काल में वे दुःषमा, दुःषम - सुषमा और सुषम- दुःषमा नामक दूसरे, तीसरे और चौथे आरे में जन्म ले सकते हैं पर जिनकल्प साधना का प्रारम्भ तीसरे और चौथे आरे में ही कर सकते हैं । " २१२ तुलसी प्रज्ञा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत और ऐरक्त क्षेत्र के अतिरिक्त कर्म और अकर्मभूमि में अवस्थित काल होता है। अवस्थित काल (नो अवसपिणी उत्सर्पिणी) के चार प्रतिभाग होते हैंदेवकुरु, उत्तरकुरु में सुषम-सुषमा प्रतिभाग, हरिवर्प-रम्यकवर्ष में सुषमा प्रतिभाग, हैमवत-हैरण्यवत में सुषमा-दुषमा प्रतिभाग और महाविदेहों में दुःषम-सुषमा प्रतिभाग। महाविदेह में उत्पन्न होने के कारण जिनकल्पी मूलत: चतुर्थ प्रतिभाग में ही होता है पर संहरण की दृष्टि से वह किसी भी प्रतिभाग में हो सकता है।" भरत क्षेत्र में मध्यम बाईस तीर्थङ्करों के तथा महाविदेह में छेदोपस्थाप्य चारित्र नहीं होता । जिनकल्प की प्रतिपत्ति सामायिक चारित्र में होती है। भरत क्षेत्र में प्रथम व अंतिम तीर्थङ्कर के समय में जिनकल्प को प्रतिपत्ति छेदोपस्थापनीय चारित्र में होती है । पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी में सूक्ष्म सम्पराय आदि चारित्र हो सकते हैं। जिनकल्प साधना तीर्थ में ही होती है। इसकी स्वीकृति जघन्यत: उनतीस वर्ष की अवस्था में हो सकती है क्योंकि उसमें बीस वर्ष की मुनि पर्याय होना जरूरी है। उत्कर्षतः देशोनपूर्व कोटि अवस्था वाला जिनकल्प की साधना अङ्गीकार करता है ।२२ जिनकल्पी अपूर्वश्रुत आगम' का अध्ययन नहीं करते किन्तु पूर्व अधीत श्रुत का एकाग्रमना होकर अनुस्मरण करते रहते हैं । असंक्लिष्ट पुरुषवेदी अथवा नपुंसकवेदी ही जिनकल्प की साधना स्वीकार कर सकता है। स्त्री इस मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकती। पूर्व प्रतिपन्न जिनकल्पी अवेदी भी हो सकता है क्योंकि उपशम श्रेणी के समय नौंवें गुणस्थान के अंत में वह वेदों को उपशान्त करने से अवेदी हो जाता है। केवलज्ञानी नहीं हो सकता क्योंकि वह उस जन्म में नियमतः उपशम श्रेणी ही ग्रहण कर सकता है २६१२४ जिनकल्प स्थितकल्प (प्रथम व अंतिम तीर्थङ्कर के समय) और अस्थितकल्प (मध्यम बाईस तीर्थङ्कर के समय तथा महाविदेह में) होता है। जिनकल्प साधना करने वाले प्रारम्भिक अवस्था द्रव्यलिङ्ग (साधुवेश) और भावलिङ्ग (साधुत्व) दोनों ही होते हैं। आगे चलकर भावलिङ्ग ही रहता है । वस्त्र जीर्ण होने पर, परिष्ठापन कर दिए जाने से अथवा चोर आदि के द्वारा अपहन होने से कदाचित् द्रव्य लिङ्ग रहित भी हो जाते हैं। जिनकल्प स्वीकार करते समय तीन प्रशस्त लेश्या होती है। पूर्वप्रतिपन्न में असंक्लिष्ट अशुद्ध लेश्याएं भी हो सकती हैं : २५ प्रवर्धमान धर्म्य ध्यान की अवस्था में साधक जिनकल्प साधना स्वीकार करता है। पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी के कर्म वैचित्य के कारण कदाचित् अकुशल परिणाम का उदय हो जाने से निरनुबंध (क्षणिक) आर्त और रौद्रध्यान भी हो सकते एक समय में दो सौ से नौ सौ तथा जघन्यतः एक, दो या तीन व्यक्ति इस साधना को स्वीकार कर सकते हैं । पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी दो हजार से नौ हजार हो सकते हैं क्योंकि महाविदेह पञ्चक में उनका सदा सद्भाव रहता है।" खपड़ २२, अंक ३ २१३ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनकल्प साधना के मार्ग पर चलने वाले भिक्षाचर्या से संबंधित ऋज्वी गोचरचर्या, गत्वा-प्रत्यागतिका गोचरचर्या आदि विशेष अभिग्रह नहीं करते क्योंकि जिनकल्प की साधना ही उनका यावज्जीवन अभिग्रह है। उसकी प्रतिनियत एवं निरपवाद गोचरचर्या का पालन ही उसका परम विशुद्धि स्थान है। जिनकल्प अवस्था में वे किसी को प्रवजित अथवा मुंडित नहीं करते हैं। यही उनकी कल्पस्थिति है। ध्रुव प्रव्राजी को दीक्षा का उपदेश देकर संविग्न गीतार्थ साधुओं के पास भेज देते हैं। मन से किसी भी अनाचरणीय की वाञ्छा करने पर उनके जघन्यतः चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त है। जिनकल्पी शरीर का प्रतिकर्म बिल्कुल नहीं करते। नेत्र के मैल को भी दूर नहीं करते तथा चिकित्सा भी नहीं करवाते। इस अवस्था में रहने वाले साधक किसी भी अपवाद का सेवन नहीं करते। इस साधना को स्वीकार करने वाले केवल तृतीय प्रहर में आहार विहार करते हैं। अवशिष्ट समय में प्रायः कायोत्सर्ग में रहते हैं । जङ्घाबल के क्षीण होने पर वह जब स्थिरवास को स्वीकार करता है तब भी अपनी इस कल्पस्थिति का परिपालन करता है। द्वितीय पद का सेवन नहीं करता। इस प्रकार जिनकल्पी यावज्जीवन अभ्युद्यत विहार करता हुआ अभ्युद्यत मरण को स्वीकार करता है। सन्दर्भ : १. वृहत्कल्प भाष्य गाथा १३७९ : आवसि निसीहि मिच्छा, आपुच्छ्वसंपदं च गहिएसु । अन्न सामायारी, न होंति से सेसिया पंच ।। २. वृहत्कल्प भाष्य गाथा १३८५ : आयारवत्तइयं, जहन्नयं होइ नवमपुवस्स । तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिन्नाई। ३. वही, गाथा १३८६ : पढमिल्लुगसंघयणा, धिईए पुण वज्जकुड्डसमाणा । उप्पज्जति न वा सिं, उवसग्गा एस पुच्छा उ । ४. वही, गाथा १३८७ : जइ वि य उप्पज्जंते, सम्म विसहति ते उ उवसग्गे । रोगातंका चेवं, भइआ जइ होंति विसहति ।। ५. वही, गाथा १३८८ : अब्भोवगमा ओवक्कमा य तेसि वेयणा भवे दुविहा । धुवलोआ ई पढमा, जरा-विवागाइ विइएक्को॥ २१४ तुलसी प्रशा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. वही, गाथा १३८९ : उच्चारे पासवणे, उस्सग्गं कुणइ थंडिले पढमे । ७. वही, गाथा १३९० : अप्पमभिन्नं वच्च, अप्पं लूहं च भोयणं भणियं । दी वि उ उवसग्गे, उभयमवि अथंडिले न करे ॥ ८. वही, गाथा १३९१ : अममत्त अपरिकम्मा, नियमा जिणकप्पियाण वसहीओ । ९. वही, गाथा १३९२ : बिले न ढक्कंति न खज्जमाणि, गोणाइ वारिति न भज्जमाणि । दारे न ढक्कंति न वऽग्गलिति, १०. वही, गाथा १३९३ : कियच्चिरकालं वसहि उ, इत्थ य उच्चारमाइए कुणसु । इह अच्छसु मा य इहं, तण फलए गिहिमे मा य ॥ ११. वही, गाथा १३९४ : सारवखह गोणाई, माय पडिति उविक्खहड भंते । १२. वही, गाथा १३९५ : पाहुडिय दीवओ वा, अग्गि पगासो व जत्थ न वसन्ति । जत्थ य भणंति ढते, ओहाणं देह गेहे वि ॥ १३. वही, गाथा १३९६ : सहि अणुष्णवितो, जइ भण्णइ कइ जणत्थ तो न वसे । सुहुमं पिन सो इच्छइ परस्स अपत्तियं भगवं ॥ १४. वही, गाथा १३९७ : तउयाइ भिक्खचरिया, पग्गहिया य पुव्वत्ता । एमेव पाणगस्स वि, गिण्हइ अ अलेवडे दो वि ॥ १५. वही, गाथा १३९८ : आयंबिलं न गिues, जं च अणायंबिलं पि लेवाउ' । न य पडिमा पडिवज्जइ, मासाई जा य सेसाओ ।। १६. वही, गाथा १४०० : छवीहीओ गामं, काउं एक्किक्कियं तु सो अडइ । १७. वही, गाथा १४१२ : एक्काए वसहीए, उक्कोसेणं वसंति सत्तजणा । अवरोप्परसंभासं, चयंति अन्नोन्नवीहिं च ॥ जम्मण संती भावेसु होज्ज सव्वासु कम्मभूमीसु । साहरणे पुण भइयं, कम्मे व अकम्मभूमे वा ॥ १८. वही, गाथा १४१५ : खण्ड २२, अंक ३ २१५ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. वही, गाथा १४१६ : ओसप्पिणाइ दोसुं, जम्मणतो तीसु संतिभावेणं । उस्सप्पिणि विवरीया, जम्मणतो संतिभावे य ।। २०. वही, गाथा १४१७ : नोसप्पिणि उस्सप्पे, भवंति पलिभागतो चउत्थम्मि । काले पलिभागेसु य, साहरणे होंति सव्वेसु ॥ २१. वही, गाथा १४१८ : पढमे वा बीये वा, पडिवज्जइ संजमम्मि जिणकप्पं । पुव्वंपडिवन्नओ पुण, अन्नयरे संजमे होज्जा ॥ २२. वही, गाथा १४१९ : नियमा होइ सतित्थे, गिहिपरियाए जहन्न गुणतीसा। जइपरियाए वीसा, दोसु वि उक्कोस देसूणा ।। २३. वही, गाथा १४ : न करिति आगमं ते, इत्थीवजो उ वेदो इक्कतरो। पुव पडिवन्नओ पुण, होज्ज सवेओ अवेओ वा ॥ २४. पञ्चवस्तु, गाथा १४९८ : उवसमसेढीए खलु, वेदे उवसामियम्मि उ अवेदो। न उ खविए तज्जमे, केवलपडिसेह भावाओ । २५. वृहत्कल्प भाष्य, गाथा: ठियमट्ठियम्मि कप्पे, लिंगे भयणा उ दव्यलिंगेणं । तिहि सुद्धाहि पढमया, अपढमया होज्ज सव्वासु ॥ २६. (क) वही, गाथा १४२२ : धम्मेण उ पडिवज्जइ, इअरेषु वि होज्ज इत्थ झाणेसु । (ख) पञ्चवस्तु, गाथा १५०६ : एवं च कुसल जोगे, उद्दामे तिव्वकम्म परिणामा । रुद्दउट्टेसु वि भावो, इमस्स पायं निरणुबंधो । २७. वृहत्कल्प भाष्य, गाथा १४२२ : __ पडिवत्ति सयपुहुत्तं, सहसपुहुत्तं च पडिवन्ने । २८. वही, गाथा १४२३ : । भिक्खायरियाईआ, अभिग्गहा नेव सो उ पव्वावे । उवदेसं पुणकुणती, धुव्वपव्वावि वियाणित्ता । २९. वही, गाथा १४२४ : निप्पडिकम्मसरीरा, न कारणं अस्थि किंचि नाणाई। जंघाबलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नाडवज्जो॥ -(साध्वी विश्रुतविभा) द्वारा/वृद्ध साध्वी केन्द्र लाडनूं तुमसी महा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाल्मीकि रामायण में दार्शनिक तत्त्व विजय रानी धर्म और दर्शन भारतीय संस्कृति के दो मूल तत्त्व हैं, यों तो ये दोनों तत्त्व एक दूसरे से अविभक्त रूप से संयुक्त हैं फिर भी यदि सूक्ष्मता से विचार करें तो समझ में आता है कि धर्म की पृष्ठभूमि में दर्शन निहित है। वेद भारतीय दर्शन के मूलस्रोत हैं। वहां इन्द्र, अग्नि, सविता, विष्णु, पुरुष आदि देवों के रूप में जगत्कर्ता परमात्मा के दर्शन होते हैं, यज्ञों को अत्यन्त महत्त्व प्रदान किया गया है, सृष्टि से पूर्व कौनसा तत्त्व था, इस विषय पर भी चिन्तन उपलब्ध होता है। समस्त औपनिषदिक साहित्य भी आध्यात्मिक और दार्शनिक विचारधारा से भरपूर है। वैदिक साहित्य के बाद लौकिक साहित्य पर दृष्टि डालें तो सर्वप्रथम ग्रन्थ आदि-महाकाव्य रामायण के रूप में हमें उपलब्ध होता है जो आदिकवि वाल्मीकि की अद्भुत और रसमयी कृति है। यह मूलतः काव्य ग्रन्थ होते हुए भी उच्च मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत एक धार्मिक, राजनैतिक, आचारिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रन्थ भी है । यद्यपि प्रत्यक्षतः इसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम और माता सीता के जीवन की घटनाओं का काव्यात्मक सांगोपांग चित्रण किया गया है, तथापि एक शोधसाधक परोक्षतः इसमें दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों को भी खोज लेता है। इसी प्रवृत्ति के परिणाम स्वरूप प्रस्तुत शोध-पत्र में कतिपय उन दार्शनिक तत्त्वों की प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है, जो इस ग्रन्थ के अध्ययन से उजागर होते हैं। १. ईश्वर तत्त्व यों तो महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को मानव सुलभ भावनाओं से युक्त मर्यादापुरुषोत्तम के रूप में प्रदर्शित किया है फिर भी वे स्थान-स्थान पर उनको ईश्वर, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, विष्णु आदि परमतत्त्व के रूपों में देखने का लोभ-संवरण नहीं कर सके हैं। अयोध्याकांड के प्रथम सर्ग में ही श्रीराम के उत्तम गुणों का वर्णन करते हुए वाल्मीकिजी ने उन्हें स्वयंभू ब्रह्मा के समान बताया है और इतना ही नहीं उन्होंने उन्हें सनातन विष्णु ही माना है जिन्होंने रावण का वध करने के लिए भूलोक पर अवतार लिया। युद्ध काण्ड में रावण-सेना पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करते हुए श्रीराम का जो रूप प्रदर्शित किया गया है वह किसी दिव्य शक्ति में ही हो सकता है, कहा भी है-"जैसे प्रजा प्रलयकाल में काल-चक्र का दर्शन करती है उसी प्रकार राक्षस चण्ड २२, अंक ३ २१७ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राम-चक्र को देख रहे थे।" इतना ही नहीं स्वयं श्रीराम के मुख से वाल्मीकि ने कहलवाया है-'एतदस्त्रबलं दिव्यं मम वा त्र्यम्बकस्य वा" अन्यत्र भरत श्रीराम के लिए कहते हैं- "हे राघव ! आप देवोपम सत्त्व से युक्त, महात्मा, सत्यप्रतिज्ञ, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और बुद्धिमान हैं। ये सभी सन्दर्भ श्रीराम के ईश्वर और सर्वज्ञ रूप को दर्शाते हैं। ईश्वर की महिमा प्रतिपादित करते हुए एक स्थान पर श्रीराम, तारा (बाली की पत्नी) को कहते हैं-तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि विधाता ने ही इस सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि की है, वही इसे सुख-दुःख से संयुक्त करता है, तीनों लोकों के प्राणी विधाता के विधान का उल्लंघन नहीं कर सकते। ___ इन सब सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि महर्षि वाल्मीकि श्रीराम को विष्णु का अवतार मानते हुए उन्हें सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, विभु और सर्व शक्तिमान् रूप में देखते थे और मानते थे कि ईश्वर जगत् का कर्ता, संहर्ता सब कुछ है उसके विधान का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता। २. जीवात्म-विचार पुनर्जन्म और परलोक गमन की चर्चा वाल्मीकि रामायण में अनेकशः आती है जो इस तथ्य की परिचायक है कि वाल्मीकि आत्मा की सत्यता और नित्यता को स्वीकार करते हैं, जो एक योनि से दूसरी योनि में संचरण करती रहती हैं। वाल्मीकि रामायण में जीवात्मा के लिए भिन्न-भिन्न स्थलों पर भिन्न शब्दों का प्रयोग मिलता है जैसे लिङ्गी, भूतात्मा, सत्त्व', आत्मा" आदि। ये भिन्न शब्द आत्मा के भिन्नभिन्न स्वरूपों को दर्शाते हैं। 'लिङ्गी' का अर्थ है 'लिङ्ग वाला।' आत्मा इन्द्रिय, शरीर, मनसादि लिङ्गों से युक्त होता है इसलिए उसे 'लिङ्गी' कहते हैं। इसी प्रकार पाञ्चभौतिक शरीर में रहने वाला तत्त्व 'भूतात्मा' कहलाता है। जिस तत्त्व की सदैव सत्ता हो वह 'सत्त्व' है, अतः आत्मा की नित्यता के कारण उसे 'सत्त्व' कहा गया है । इस प्रकार स्पष्ट है कि महर्षि वाल्मीकि ने आत्मा जैसे नित्य तस्व को स्वीकारा है। ३. कर्मफल, पुनर्जन्म और परलोक-विचार पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धान्त को चार्वाक के अतिरिक्त भारतीय दर्शन के लगभग सभी सम्प्रदायों ने स्वीकार किया है, जिसके अनुसार जीव को अपने शुभाशुभ कर्मों का फल इसी जन्म में या अग्रिम जन्म में अवश्य भोगना होता है ।" हमारे ये शुभाशुभ कर्म ही विभिन्न लोगों और विभिन्न योनियों की प्राप्ति के नियामक बनते हैं । संसार का लगभग प्रत्येक जीव कर्मफल व्यवस्था से आबद्ध होता है। युद्ध काण्ड में कहा गया है-जीवों को धर्म और अधर्म रूप कर्म के फल इस लोक और परलोक दोनों में सेवन करने पड़ते हैं। श्रीराम एक स्थल पर जाबाल मुनि को कहते हैंमानव जीवन रूपी इस कर्मभूमि को पाकर शुभ कर्मों का ही अनुष्ठान करना चाहिए क्योंकि अग्नि, वायु और सोम अपने-अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न फलों के भागी २१८ तुलसी प्रज्ञा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हए।" देवराज इन्द्र ने सौ यज्ञ करके स्वर्ग लोक को प्राप्त किया, महर्षियों ने उग्र तपस्या करके दिव्य लोकों में स्थान प्राप्त किया।" महर्षि वाल्मीकि कहते हैं कि कर्म ही सब कारणों का प्रायोजक कारण होता है, क्योंकि जो व्यक्ति कर्म नहीं करता उसके धर्म, अर्थ, काम कुछ भी सिद्ध नहीं होते। जहां तक कर्मों के शुभ-अशुभ या धर्म-अधर्म विभेद-ज्ञान का प्रश्न है, वाल्मीकि कहते हैं कि धर्म का ज्ञान अत्यन्त सूक्ष्म और दुर्जेय है, सब प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा ही उस शुभ-अशुभ के विभेद को ठीक प्रकार से जानता है। गीता में भी श्रीकृष्ण कहते हैं-'गहनाकर्मणो गतिः।' वाल्मीकि रामायण में परलोक गमन सम्बन्धी उदाहरण पदे पदे उपलब्ध होते हैं । श्रीराम जाबाल मुनि को कहते हैं- सत्य, धर्म, पराक्रम, दया, प्रियवादिता. देवअतिथि और ब्राह्मणों की पूजा-इन सबको सन्तों ने स्वर्गलोक का मार्ग कहा है। भरत कैकेयी की भर्त्सना करते हुए कहते हैं कि कौशल्या को पुत्र से अलग करने पर तुम लोक और परलोक में दुःख प्राप्त करोगी ।१८ इस प्रकार कर्म-फल, पुनर्जन्म और लोक-परलोक-ये तीनों भिन्न नहीं हैं बल्कि एक ही शृङ्खला की सम्बद्ध कड़ियां हैं-भूतकाल के कर्मों का फल, वर्तमान काल में मिलता है, तो वर्तमान कालिक कर्मों का फल भविष्य काल में मिलता है, लेकिन कभी-कभी वर्तमान कालिक कर्मों का फल वर्तमान जन्म में भी मिल जाता है जैसे राजा दशरथ को अन्धमुनि की हत्या का परिणाम इसी जन्म में श्रीराम वियोग के रूप में मिलता है। कर्मफल व्यवस्था में यह भी माना गया है कि अपने पुण्यकर्मों के क्षीण हो जाने पर जीव उच्चलोक को छोड़कर पुनः पृथ्वी पर जन्म लेता है । इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए भरत कहते हैं-अयोध्या श्रीराम के चले जाने से उसी प्रकार शोभाहीन हो गई है जिस प्रकार पुण्य क्षीण हो जाने पर आकाश से भ्रष्ट हुई कोई तारिका धरती पर आकर प्रभावविहीन हो गई हो।" ४. भाग्य (देव या कृतान्त) तथा काल ___ भाग्य या कृतान्त भी दार्शनिकों का एक मुख्य विचार-बिन्दु है जिसका सम्बन्ध मौलिक रूप से जीव के शुभाशुभ कर्मों से ही है। भाग्य के विभिन्न पर्याय मिलते हैं, जैसे-अदृष्ट, दैव, प्रारब्ध, नियति, कृतान्त, अपूर्व, फलदायक शुभाशुभ पूर्वकर्म ।" ___ वस्तुतः पूर्वजन्म के कर्म इस जन्म में देखे न जाने के कारण 'अदृष्ट' नाम से अभिहित होते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि 'अदृष्ट' विद्यमान होते हुए भी प्रत्यक्षदष्ट नहीं होता, अतः पूर्वकृत कर्मों के फलस्वरूप कोई दुःख प्राप्त होता है तो हम उसे अदृष्ट या देव या भाग्य का नाम दे देते हैं। वाल्मीकि रामायण में देव के साथ-साथ 'कृतान्त' और 'काल' शब्द का प्रयोग भी भूरिशः हुआ है। धैर्यवान् और पुरुषार्थी राम सामान्य मानव के समान सुख-दुःख, भय-क्रोध, लाभ-अलाभ इत्यादि के प्राप्त होने पर इसे दैव कृत मानते हैं। इसी प्रकार राज्य खण्ड २२, अंक ३ २१९ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से निर्वासित राम मां कैकेयी को दोषी नहीं ठहराते, अपितु कृतान्त (देव) को ही इस निर्वासन का मूल कारण मानते हैं। इतना ही नहीं, शोकाकुल भरत को सान्त्वना देते हुए श्रीराम कहते हैं— मनुष्य अपना स्वामी स्वयं नहीं है, उसको कृतान्त सदैव इधर-उधर खींचता रहता है । और काल ही इसी प्रकार अन्य अनेक सन्दर्भ ऐसे मिलते हैं जो भाग्य, काल या कृतान्त की दुरतिक्रमणीयता को दर्शाते हैं । किष्किन्धा काण्ड में श्रीराम कहते हैं - " जगत् में नियति (काल) ही सबका कारण है । वही समस्त कर्मों का साधन है समस्त प्राणियों को विभिन्न कर्मों में नियुक्त करने का कारण है । * का उल्लंघन नहीं कर सकता, वह काल कभी क्षीण नहीं होता । २५ काल की किसी से बन्धुता नहीं होती, मित्र या जाति बिरादरी का कोई सम्बन्ध नहीं होता, काल कोई हेतु नहीं होता, किसी का पराक्रम उस पर नहीं चलता कारण रूप काल आत्मा (जीव ) के वश में भी नहीं है ।" काल भी काल पुनः कहा है तात्पर्य यह है कि काल, नियति या कृतान्त अटल और अलंघ्य है । ५. मानव जीवन अनित्य है मृत्यु अवश्यम्भावी संसार की प्रत्येक वस्तु अनित्य, क्षणिक और शीघ्र - विनाशी है । यह अटल सत्य है समस्त वैदिक औपनिषदिक साहित्य में भी इस तथ्य को दर्शाते हुए उद्धरण मिलते है । क्षणभङ्ग का सिद्धान्त बौद्ध दर्शन का तो आधारभूत ही है । वाल्मीकि रामायण में भी अनेक सन्दर्भ ऐसे मिलते हैं जो जीवन को विनश्वर और मृत्यु को अवश्यम्भावी घोषित करते हैं । शोकाकुल भरत को शिक्षा देते हुए राम कहते हैं— " समस्त संग्रहों का अन्त क्षय हैं, लौकिक उन्नति का अन्त पतन है, संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है । होने पर गिर जाता है उसी प्रकार मनुष्य हो जाता है ।" इस संसार में सभी प्राणियों के दिन-रात लगातार व्यतीत होते जा जैसे सुदृढ़ खम्भे वाला मकान भी पुराना जरा और मृत्यु के वश में पड़ कर नष्ट रहे हैं, आयु शीघ्रता से नष्ट हो रही है वैसे ही जैसे सूर्य की किरणें ग्रीष्म में जल को शीघ्रता से सोख लेती है ।" जैसे नदी का प्रवाह वापिस नहीं लौटता वैसे ही दिन-प्रतिदिन ढलती अवस्था नहीं लौटती, उसका क्रमशः नाश हो रहा है । " उपरोक्त सन्दर्भों से जीवन की नश्वरता और मृत्यु की अटलता का बोध होता है । ६. मोक्ष या मुक्ति की भावना मोक्ष मानव-जीवन का परम पुरुषार्थ है और भारतीय दर्शन का सर्वप्रमुख विचारणीय विषय है । मोक्ष या मुक्ति के सिद्धान्त को सभी सम्प्रदायों ने स्वीकार किया है । मोक्ष शब्द का अर्थ है - सांसारिक दुःख और आवागमन से ऐकान्तिक और आत्यन्तिक निवृत्ति और परमपद की प्राप्ति । वाल्मीकि रामायण में मोक्ष की अवधारणा बहुशः उपलब्ध होती है। यहां मोक्ष के लिए ब्रह्मलोक", निर्वाण", अमृत", निःश्रेयस, अव्ययपद" विष्णुधाम", मुक्ति, २२० तुलसी प्रज्ञा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। समुद्रमंथन के प्रसंग में 'अमृत' पद आया है जिसे 'उत्तम' कहा गया है।८ जरामरण से मुक्त होकर 'अमर' बनने की अभिलाषा से प्रेरित होकर देवों और दानवों ने समुद्र मंथन किया। रामायण के अनुसार मोक्ष हो जाने पर 'सनातन ब्रह्मलोक' की प्राप्ति होती है। श्रीराम के विषय में कहा गया है कि ग्यारह हजार वर्ष राज्य करने के अनन्तर श्रीराम अपने परमधाम ब्रह्मलोक को जाएंगे।" रामायण में इस शरीर से ही देवताओं की परमगति प्राप्त करने की बात कही गई है। इस प्रकार यहां मोक्ष को परमगति, उत्तमगति, परमसुख तथा क्षय रहित अवस्था कहा गया है। मोक्ष की प्राप्ति के साधन के रूप में सत्यवादिता और सत्य कर्मों को स्वीकार किया गया है। कहा गया है कि सत्यवादी इस लोक से परे अक्षयलोक को प्राप्त करता है। अन्यत्र भी कहा है कि जो सत्य धर्म के उपासक हैं उनको मृत्यु का भी भय नहीं होता।" अनेक उद्धरणों से ज्ञात होता है कि जप, तप को ब्रह्मलोक प्राप्ति का साधन माना जाता था। ७. वाल्मीकि रामायण में लोकायतवाद लोकायत एक भौतिकवादी विचारधारा है जिसे नास्तिक विचारधारा भी कह सकते हैं। वाल्मीकि रामायण में इसके प्रतिनिधि हैं— महर्षि जाबाल, जो श्रीराम को वन से अयोध्या लौटाना चाहते हैं और इसीलिए उन्हें तरह-तरह से भौतिकवादी बातें समझाते हैं । उनके अनुसार संसार में कोई किसी का बन्धु नहीं होता, मनुष्य अकेला ही नष्ट हो जाता है ।५ कोई किसी का माता-पिता नहीं होता ये सम्बन्ध तो निमित्त मात्र होते हैं। इन सबमें आसक्ति नहीं रखनी चाहिए। ये सब सम्बन्ध तो वैसे ही अस्थायी हैं जैसे यात्री का धर्मशाला या सराय से सम्बन्ध होता है। अष्टका आदि श्राद्ध कर्म जो पितरों के लिए किए जाते हैं, वे सभी व्यर्थ हैं क्योंकि मृत व्यक्ति अन्न कैसे ग्रहण कर सकता है। यह तो वस्तुतः अन्न का नाश ही है । यज्ञ, पूजन, दान, दीक्षा, संन्यास ग्रहण करना आदि भी मूर्तों के कार्य हैं। उनका कथन हैपरलोक कुछ नहीं है, इहलोक ही सब कुछ है। प्रत्यक्ष पर विश्वास करना चाहिए परोक्ष पर नहीं। एक अन्य स्थल पर श्रीराम भरत से पूछते हैं-"तात ! तुम कभी लोकायतिक बुद्धि वाले ब्राह्मणों का संग तो नहीं करते क्योंकि वे मूर्ख होते हुए भी अपने को पण्डित मानते हैं और परमार्थ में विश्वास नहीं रखते हैं। वे वेद आदि प्रमुख धर्मशास्त्रों के विरोधी होते हैं और निरर्थक तर्क किया करते हैं।"५१ . इन सब सन्दर्भो से स्पष्ट है उस काल में नास्तिक विचारधारा के जन भी समाज में विद्यमान थे। ८. वाल्मीकि रामायण में ताकिक दर्शन वाल्मीकि रामायण में न्याय-वैशेषिक जैसे तार्किक दर्शन के बीज भी उपलब्ध होते हैं । श्रीराम के उत्तम गुणों का वर्णन करते हुए वाल्मीकि कहते हैं कि वे न्याययुक्त पक्ष के लिए बृहस्पति के समान एक से बढ़कर एक युक्तियां देते थे। कई स्थलों पर १२१ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताकिक बुद्धि के लिए 'आन्वीक्षिकी' शब्द का प्रयोग हुआ है। उत्तम वक्ता और ब्राह्मण एक दूसरे को जीतने की इच्छा से बहुत से हेतुवाद उपस्थित कर शास्त्रार्थ किया करते थे ।५४ बालकाण्ड में कई स्थलों पर विश्वामित्र को 'वाक्यज्ञः५५, शतानन्द को 'वाक्यकोविद ५६ और श्रीराम को 'वाक्यविशारद कहने से ऐसा प्रतीत होता है कि वाद-विद्या (शास्त्रार्थ) का उस समय अच्छा प्रचलन था । ६. वाल्मीकि रामायण में योग-परम्परा वाल्मीकि रामायण में स्थान-स्थान पर योगी, तपस्वी, महर्षि, ब्रह्मर्षि आदि की चर्चा मिलती है। महर्षि वसिष्ठ को जप करने वालों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । महर्षि विश्वामित्र ने अपने अखण्ड तप से 'ब्रह्मषि' पद को प्राप्त किया । वसिष्ठ के आश्रम में तपः सिद्ध, अग्निकल्प महात्मा कन्दमूल भोग करने वाले शान्त, दान्त, इन्द्रियजित् बहुत से ऋषि जप होम में लगे रहते थे। इसी प्रकार विश्वामित्र ते कन्दमूल फल खाकर उत्तम तपस्या की। इन संदर्भो से तथा यहां अकथित अन्य बहुत से संदर्भो से यह स्पष्ट है कि पातञ्जल योग में बताए गए यम, नियम आदि अष्टांग योग का उस समय प्रचुरता से ऋषि मुनि अभ्यास किया करते थे। जप और तप का विशेष महत्त्व था। १०. वाल्मीकि रामायण में कर्म-मीमांसा (यज्ञ-याग) का प्रसार अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि रामायण काल में यज्ञ-याग की नींव बहुत गहरी थी । अयोध्या नगरी में बहुत सी यज्ञशालायें थीं। राजा दशरथ और श्रीराम में अपने-अपने शासनकाल में अश्वमेध यज्ञ किए थे । अश्वमेध यज्ञ कराने वाले वेद पारंगत याज्ञिक वहां विद्यमान थे जिन्होंने 'प्रवर्ण्य कर्म' प्रातः, माध्यन्दिन और तृतीय सवन यथाविधि कराए २ दशरथ ने पुत्र कामना से श्रौतविधि से 'पुत्रेष्टि यज्ञ' करवाया। महर्षि वसिष्ठ विश्वामित्र से कहते हैं-हे राजन् ! दर्श, पौर्णमास, प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञ तथा अन्य अनेक पुण्यकर्म यह कामधेनु ही है, इसी पर मेरा सब कुछ निर्भर है ।१४ उस समय केवल ऋषि, मुनि और देवता ही यज्ञ नहीं करते थे बल्कि राक्षस समुदाय भी इनमें कुशल थे । रावण वेदों का ज्ञाता और यज्ञादि में पारंगत था। अतः स्पष्ट है कि कर्म-मीमांसा उस काल में विकसित रूप में थी। निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वाल्मीकि रामायण में भारतीय दर्शन के मौलिक तत्त्व विद्यमान थे। उस समय में यद्यपि वैदिक संस्कृति का बोलबाला था तथापि नास्तिक या लोकायतिक जन भी उनका विरोध करने के लिए विद्यमान थे; कर्म-मीमांसा, योग और वादविद्या हेतुविद्या का अच्छा प्रचार-प्रसार था। लोग ईश्वर, आत्मा, भाग्य, काल, क्षणिकता=अनित्यता में विश्वास रखते थे। धर्म और मोक्ष की ओर अभिरुचि थी । २२२ तुलसी प्रज्ञा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ : १. स्वयम्भूरिव भूतानां बभूव गुणवत्तरः ।। -वा० रा० अयो० २. स हि देवैरुदीर्णस्य रावणस्य वधाथिभिः । अर्थितो मानुषे लोके जरो विष्णुः सनातनः ॥ ३. ददृशू रामचक्रं तत् कालचक्रमिव प्रजाः ॥ ४. वही, युद्धकाण्ड ९३.३८ ५. वही, अयोध्या काण्ड १०६.६ ६. वही, किष्किन्धा काण्ड २४.४१, ४२ ७. वा० रा० सुन्दर काण्ड १३.४२ ८. वा० रा० युद्ध काण्ड ९३.२३ 2 ९. वा० रा० युद्ध काण्ड ५९.५५ -अयो० का० १०६.६ " १०. वा० रा० अयो० काण्ड १०५.४५ - किष्किन्धा काण्ड १८.१५ -वा० रा०, अयो० ० १.७ ११. अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतं कर्म शुभाशुभम् । - वा० रा० युद्धकाण्ड ९३.३० १२. ऐहलौकिकपारक्यं कर्म पुंभिनिषेव्यते । -ब्रह्मवैवर्त पुराण, कृष्ण जन्म ४४ ० १.६ १३. कर्मभूमिमिमां प्राप्य कर्त्तव्यं कर्म यच्छुभम् । अग्निर्वायुश्च सोमश्च कर्मणां फलभागिनः ॥ -- युद्ध काण्ड ६४.९ J १४. वा० रा० अयो० काण्ड १०९.२९ १५. कर्म चैव हि सर्वेषां कारणानां प्रयोजनम् । -अयो० का० १०९,२८ १६. सूक्ष्मः परण दुर्ज्ञेयः सतां धर्म- प्लवङ्गम । हृदिस्थः सर्वभूतानामात्मा वेद शुभाशुभम् ॥ - युद्ध का० ६४.७ - किष्किभ १८.१५ १७. वा० रा० अयो० काण्ड १०९.३१ १८. व१० रा० अयो० काण्ड ७४.२९ १९. वा० रा० अयो० काण्ड ११४.११ २५. द्र० मोनियर विलियम कृत कोश तथा आप्टे कृत संस्कृत हिन्दी कोश खण्ड २२ अंक ३ २२३ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. सुख दुःखे भयक्रोधी लाभालाभो भवाभवो । यस्य किञ्चित् तथाभूतं ननु देवस्य कर्मकृत ॥ २२. कृतान्त एव सौमित्रे द्रष्टव्यो मत्प्रवासने । राज्यस्य च वितीर्णस्य पुनरेव निवर्तने ॥ २३. नात्मनः कामकारो हि पुरुषोऽयमनीश्वरः । इतश्चेतरश्चैनं कृतान्त: परिकर्षति ॥ २४. वा० रा० किष्कि० काण्ड २५.४ २५. न कालः काममत्येति न कालः परिहीयते ॥ २८. वही, १०५. १८ २९. वा० रामा०, अयो० काण्ड १०५.२० ३०. वही, १०५.३१ ३९. वही, बाल०, १.९७,३४.४,५७.७ -अयो० ३०.१७ ३२. वही, बाल • ३६.१३ — अयो० ७७.८ -अयो० २२.१५ और भी वही, २२.१६,१७,१८,३० ३३. वही बाल० ४५.३९ २६. वही २५.७ २७. सर्वे क्षयान्ता निचयाः पतनान्ता समुच्छ्रयाः । संयोग वियोगान्ता मरणान्तं च जीवितम् ॥ -अयो० २५.३३,३०.१५ ३४. वही किष्कि० १२.१७;२०.११ ३५. वही अयो० का० १०१.२७; १०९.११ ३६. वही उत्तरकाण्ड १११.१६,२१ ३७. वही रा० माहात्म्यम् १.२०; ५.३५ ३८. उदतिष्ठन्नरश्रेष्ठ तथैवामृतमुत्तमम् । --अयो० का० १०५.१५ २२४ -अयो० २२.२२ ३९. वही, बालकाण्ड, अध्याय ४५ ४०. जगामाकाशमाविश्य ब्रह्मलोक सनातनम् ॥ ४१. वा० रा० बालकाण्ड १.९७ ४२. गच्छेयं स्वशरीरेण देवतानां परां गतिम् । वही २५.६ -अयो० १०५.१६ - बालकाण्ड ४५.३९ - बाल० ३४.४ -वही, बाल० ५७.११ तुलसी प्रशा Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. अयो. का. १.९.११ ४. युद्ध काण्ड ४६.३३ ४५. अयो० काण्ड १०८.०३ ४६. वही १०८.४-६ ४७. वही १०८.१४ ४८. वही १०८.१६ ४९. वा. रा०, भयो० काण्ड १.६.१७ ५०.वही १००.३८ ५१. वही १००.३९ ५२. वा० रा. अयो० काण्ड १.७ ५३. वही १००.३९ ५४. बालकाण्ड १४.१९ ५५. बालकाण्ड ५१.१० ५६. वही ५७. बालकाण्ड ५३.८,१६ ५८. बालकाण्ड ५२.१,२० ५९. बालकांड ५१.१४ ६०. वही १५.२७ ६१. वही ५७.०३ ६२. वही १४.४-७ ६३. वही सर्ग १५ ६४. वही ५३.२४ --(डॉ० (श्रीमती) विजय रानी) रीडर, संस्कृत विभाग कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र बड २२, बैंक ३ २२५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा अध्ययन: राजस्थानी भाषा में खड़ी-बोली का प्रयोग मनोहर शर्मा पिछले लगभग एक हजार वर्षों से राजस्थानी भाषा में सतत साहित्य-निर्माण हो रहा है और इस साहित्य-सामग्री में पद्य के साथ ही गद्य की भी विविध विधाएं हैं। यह सामग्री अत्यन्त सरस, शिक्षाप्रद तथा प्रेरणादायक है। अभी तक इसका बहुत ही थोड़ा अंश प्रकाश में आ पाया है परन्तु इस स्वल्पांश ने ही बड़े-बड़े विद्वानों को चमत्कृत कर दिया है। इतना ही नहीं, इसके प्रभाव से अब तो राजस्थानी भाषा में नव-निर्माण की प्रक्रिया भी बड़ी तेजी से चल पड़ी है, जो लगातार विकास को प्राप्त कर रही है। ध्यान रखना चाहिए कि राजस्थानी भाषा की विविध शैलियां हैं, जिनमें प्रचुर साहित्य-रचना हुई है। पन्द्रहवीं शती तक राजस्थानी तथा गुजराती समानरूपा थीं। ऐसी स्थिति में राजस्थानी भाषा की एक शैली में गुजराती के उपलक्षणों का प्रकट होना तो स्वाभाविक ही है। इसके साथ ही राजस्थानी में ब्रजभाषा का भी मिश्रण हुआ, जिसे 'पिंगल' नाम दिया गया और इसमें काफी रचनाएं हुई। पिंगल के साथ ही राजस्थानी भाषा की 'डिंगल' शैली भी प्रख्यात ही है, जिसके 'गीत' अनूठे तथा अनुपम हैं। इसी क्रम में यह भी ध्यान देने योग्य विषय है कि अनेक पुरानी राजस्थानी रचनाओं में पंजाबी का प्रभाव भी साफ नजर आता है, जिसके लिए यहां की 'नीसाणी' नामक रचनाएं द्रष्टव्य हैं। इसी सिलसिले में राजस्थानी भाषा की उन पुरानी रचनाओं पर भी सहज ही ध्यान चला जाता है, जिनमें खड़ी बोली का प्रयोग अथवा मिश्रण है। वहां राजस्थानी एक भाषा के रूप में समादत है और खड़ी बोली एक बोली के रूप में है। राजस्थानी भाषा की रचनाएं ऐसी भी हैं, जिनमें आद्यन्त यही शैली अपनाई गई है। इस दिशा में 'बहलीमां री बात' का नाम एक नमूने के रूप में लिया जा सकता है जो आकार में काफी बड़ी है और तत्कालीन 'उपन्यास' का रूप ग्रहण किए हुए है। ___ राजस्थानी भाषा का पुराना गद्य-साहित्य बड़ा समृद्ध है। इसमें विविध विधाएं हैं, जो बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें एक विधा राजस्थानी 'बात' है। हजारों राजस्थानी बातें पुरानी हस्तप्रतियों में अद्यावधि सुरक्षित हैं, जिनमें से बहुत ही थोड़ी सी 'बातें' प्रकाश में आ पाई हैं । राजस्थान में 'कहानी' के लिए 'बात' शब्द प्रचलित है। इसके साथ ही 'कथा' का भी अपना अलग महत्त्व है। राजस्थानी भाषा की 'जैन-कथाएं' विशेष विख्यात हैं, जिनमें अपनी कुछ अलग विशेषताएं हैं। खण्ड २२, अंक ३ २२७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब राजस्थानी भाषा की 'बातों' पर विचार किया जाता है तो उनकी भाषाशैली सामने आती है । बातें राजस्थान की बोलचाल की भाषा में लिखी गई हैं । असल में वे मौखिक परम्परा से चली आ रही राजस्थानी लोक-कथाएं ही हैं, जिनको संवार - सजाकर लिखित रूप में प्रस्तुत कर दिया गया है। यही कारण है कि प्रायः लिखित बातों में लेखकों के नाम नहीं हैं और उनको लोक-सम्पत्ति ही माना गया है । इतना ही नहीं, एक ही बात के छोटे और बड़े कई रूप भी मिलते हैं, जिनमें घटनाओं का विवरण बढ़ा दिया गया है और भाषा-शैली में भी विभिन्नता है । साथ ही यह भी स्थिति है कि एक ही पात्र अनेक 'बातों' में उपस्थित दृष्टिगोचर होता है । यह सब राजस्थानी जनता के इतिहास-बोध का द्योतन है । राजस्थानी 'बात - साहित्य' में ऐतिहासिक सामग्री प्रचुर मात्रा में समाविष्ट है । यही कारण है कि अनेक 'बातों' को यहां की 'ख्यातों' (इतिहासों) में भी स्थान दिया गया है। राजस्थानी बातों पर ध्यान देने से यह भी सहज ही प्रकट होता है कि इनमें अनेकशः खड़ी बोली और राजस्थानी का मिश्रण हुआ है । इस प्रकार की मिश्रित भाषा का प्रयोग सामान्यतया नाथ-जोगी पात्रों के मुख से करवाया गया है । इनके साथ ही मुसलमान पात्रों के साथ भी ऐसा ही हुआ है । एक ही 'बात' में जहां लेखक का वक्तव्य एवं अन्य पात्रों का वचन राजस्थानी में है, वहीं यदि कोई मुसलमान पात्र है तो वह खड़ी बोली- मिश्रित राजस्थानी बोलता है । इस विषय में आगे कुछ विस्तार से सोदाहरण चर्चा की जाती है । सर्वप्रथम मुसलमान पात्रों की वाणी देखिए १. सो इण दोहे री किहीं बादशाह नुं चुगली कीवी, "जे केशरीसिंहजी कुंवर चारण पास किस तरह कहावता है ।" तह बादशाह चारण नुं बुलवाय फुरमायो, “तैने केसरिये कुंवर कूं किस तरह कहा ?" वह चार वारेक ती नटियो पण बादसाह फेर गाढ कर पूछो, तद चारण बांह चाढ दूहो कहियो, सो बादसाह सुण घणां माणसां रै सुणतां फरमाई, जे उस रोज तो केसरिया ऐसा हीज हुवा ।" तो सगला देखता ही रह गया । चुगलखोरां रो मूंह फीको पड़ गयौ फेर एक दिन बकसी ₹ नायब बादशाह सूं मालूम कीवी, “जे केसरिया कुंवर गैर-हाजिर ।" तो बादसाह सुण फरमाई, "केसरिया हाजर था, उस रोज तुम न थे ।" वह नायब फीको मूंह कर खड़ो रहियो । ( पदमसिंघ री बात ) | २. हि अठै बेगम पातिसाह सूं अरज कीधी, "मैं बीरमदे सोनिगरा ने कबूल कीधो । मेरा ब्याह - नका करो। मेरा खावंद सिरपोस जालोर का धणी है ।" पातिसाह की, "बेगम, ऊ तो हिन्दू है । मेरी तरफ सूं गाढ भांति-भांति सूं करिसूं । पिण मेला तो खुदाय के हाथ है ।" ऐ वातां करि पातिसाहजी अंबखास तखत विराजिया खान सुलतान दरीखाने मिलिया । कानड़देजी पण आया | जर्दै पातिसाहजी रावजी ने घणो आदर सूं सगाविध सूं बतला - वण कीधी ने कह्यो, “रावजी, हमारी लड़की तमारा लड़का के दीधी । तुलसी प्रज्ञा २२५ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलाम करो। हम तुम समधी का नाता है। हमारे तुम बडे रवेस हो।" रावजी कह्यो, “पातिसाह दीन-दुनी रा छौ । हूं पाधरियो घर रौ धणी रजपूत हूं। पातिसाहां सगावल करो। रोम-सूम विलोयदा रा धणी है। हूं तौ वंदगी करूंछु । (वीरमदे सोनगरा री वात)।। ऊपर दो उद्धरण दिए गए हैं। इनमें एक साथ ही बात लेखक के अतिरिक्त हिन्दू तथा मुसलमान पात्रों का वार्तालाप है। इसमें मुसलमान पात्रों की भाषा खड़ी बोली-मिश्रित राजस्थानी साफ है । ___इसी प्रकार नाथ-जोगी पात्रों से सम्बन्धित एक उद्धरण भी नमूने के लिए देखिए तह गोरखनाथजी आय बैठा। तठे देपाल आदेस कर अर गोरखनाथजी नूं आसणदे अर बोलाया। आयस कन्है बैठा। इतरै कहीं केहीक कही, राज, गोठ तयार हुइ छ।" तद देपाल कही, पहिलै आपसजी नूं जिमावो।" तह कह्यो, "आपसजी, मांस है। आरोग सो ?" तह गोरखजी कही, "बाबा, हम अतीत छां। आवै, सो खावां । अतीत कू क्या पूछणा ? अलख का घर है। अब ही गोठ सब खावां ।" तद देपाल कही, "तो नहीं काटूं ? जीमी।" तह ये पुरसण गया अर गोरखनाथजी जीमता गया। तह सारी ही जीमीयो । तह देपाल पूछियौ, "आपसजी, धापीया ?" तह गोरख कही, "बाबा, अतीत का क्या धागा ? (देपाल घंघ री बात) __ अनेक राजस्थानी 'बातें' मुसलमानों के जीवन पर आधारित हैं। उनमें आदि से अंत तक इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग हुआ है । उदाहरण देखिए१. पांच पैकंबर उरस-थें उतरे। उतरि के वनवास के विष तपस्या करते थे। सवा पांच मण भोग, पचास मण दूध का गैव का प्याला पक्कै का। चार पैकंबर लेटे-लेटे दोपहरै उठे। एक पैकंबर गैब का घोड़ा बणाय के, गैब का आयुध बणाय सिकार खेले। दोपहर छोड़े, तव सिकार ले आवै। आय प्याला पीये। पांच मिलिकर बैठे, खेल-रमै । कितने हेक रोज यूं तपस्या करतां हो गया। एक दिन रायब का घोड़ा बणाया। पैकंबर सिकार खेलता था। त्रिखा लागी। उरहां-परहां जोया। कहां आब होई तो आब पीजै । यूं करितां निजरि दौड़ाई। एक ठौर देख ज्यू बगली उड़ती निजर आई। उबाहां घोड़ा दौड़ाय करि गया । (बहलीमा री बात) प्रथम मयी देश को पातसाह । मयी पातसा तिसके छोरो नहीं। तब नीठीनीठी कैयेक महल के ताही पेट रह्या । फिर पूरे महीने हुए। पीड़ लागी। तद लड़की, सू मूला में हुई । तद काजी कह्या, “यह लड़की राखणी नहीं। ए बुरे नक्षत्र हुई।" तब हजरत ने कहा, "हम लड़की कू मार तो नहीं । हमारे नीटो-नीटी हुई है। जो हमारे ताही पूछते हो तो मोहर गज का कपड़ा लेहू, तिसमें लपेट कर, काठ के पंजरे में सुवाय कर दरियाव में बहाय देहुं । (ससी-पुन्नू की बात) मुसलमानी-जीवन से सम्बन्धित सभी 'बातों' में इस प्रकार की भाषा-शैली को बल २२, बंक ३ २२९ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ अपनाया गया हो, ऐसी चीज नहीं है। इस श्रेणी की अनेक बातों में शुद्ध राजस्थानी भाषा का प्रयोग भी हुआ है। उदाहरण इस प्रकार हैं१. उत्तराखंड देस, तीके में जवालापुर नांवैनगर। तीकै में बांवनपाड़ पातसा राज कर छ । चौरासी तो बजार, चौसठ खैड़, बार कोड़ घरां ही बसती । टीका बस छ। बांवन कीरोड़ केकाण, दस लाख हसती, पन कोड़ पायदल । चाकर चाकरी में हाजर खड़ा छ। सत्तर खांन, बोहत्तर अमराव, बंका देस, पासता सुख-सुख राज कर छ। (बयान समसेर री बात) पिरोजसा पातसा गढ गजनी राज कर छ। सु पांतसा विचारयो के बीजापुर रो गढ लीजै, पात्तसोही लीजै। पातसा फौज ले ने बीजापुर रै गढ लागो। मास आठ ताईं गढ रौ रोळो हुवी। नै पर्छ गढ पिरोज पातसा लीधो। ने बीजापुर में दाखल हुवा। नै आय तखत पे बैठा। नै छत्र-चंवर ढुलै छ । (बहलीमां ही बात) ऊपर प्रस्तुत किए गए उद्धरणों की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्द (तपस्या, आयुध, देश, नक्षत्र, मास आदि) उर्दू के शब्द (गैर-हाजिर, खावंद, गयब, आब, दरियाव, पातसा आदि) और ठेठ राजस्थानी शब्द (धणी, गोठ, नीठी, छोरा, केकाण, रोळो आदि) प्रयुक्त हुए हैं। साथ ही उर्दू के शब्दों का राजस्थानी-करण भी हो चुका है । यह भाषा-मिश्रण ध्यान देने योग्य है। इस प्रयोग से राजस्थानी बातों के वातावरण को स्वाभाविक स्वरूप देने की चेष्टा की गई है, जो उचित ही है। बातों में भील आदि विशिष्ट वर्गों के पात्र सामने आते हैं तो उनके मुख से भी कथोपकथन की यही स्वाभाविकता प्रस्तुत करने हेतु भीलों की बोली का प्रयोग देखा जाता है । यह राजस्थानी बातों की एक अपनी विशेषता है। इस प्रकार सामाजिक समन्वय के साथ-साथ साम्प्रदायिक एकता का भी आश्चर्यजनक रूप सामने आया है, जो श्लाघ्य है। हिन्दी भाषा (खड़ी बोली) का इतिहास लिखने वाले विद्वानों को राजस्थानी बातों की ओर भी पूरा ध्यान देना चाहिए । सतरहवीं शताब्दी में 'बातों' का लिखा जाना प्रारम्भ हो चुका था परन्तु इस कार्य को विस्तार अठारहवीं शती में मिला। इस प्रकार खड़ी बोली के विकास के अध्ययन हेतु राजस्थानी बातों की विशेष उपयोगिता है। -(डॉ. मनोहर शर्मा) कैलाश निकुंज, भारती बगीची रानी बाजार, बीकानेर २३० तुलसी प्रज्ञा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समीक्षा : 'णायकुमार चरिउ' का नायक D हरिशंकर पाण्डेय नागकुमार चरित (णायकुमार चरिउ) अपभ्रंश काव्यधारा के धौरेय-धृति, समुल्लसित प्रतिभा और महनीय मेधा सम्पन्न सुप्रतिष्ठित महाकवि अभिमानमेरू पुष्पदंत की सुन्दर, सुबोध लावण्यमण्डित एवं कमनीय कला कलित रचना हैं, जिसमें महच्चरित्र नागकुमार के माध्यम से कर्तव्याकर्तव्य निर्देश एवं आहत-धर्म की प्रतिष्ठा रूप महदुद्देश्य ही मुख्य अभिलक्ष्य एवं परमकाम्य रूप में निरूपित है। साहित्य सिंधु की सौवीर्य साधना से समुत्थित रत्नमणियों की माला को सृजित कर महाकवि पुष्पदन्त ने शेष रसिक अथवा सहृदयचेतना संपन्न जीवित संसार के लिए 'नायकुमार चरिउ' को प्रस्तुत किया, जिसमें दर्शन का सत्य, विज्ञान का तथ्य रमणीयता और क्षण-क्षण अभिनवता से युक्त सुन्दर के रूप में अभिव्यक्त हुआ है, जो लोकोत्तर आह्लाद जननसमर्थ एवं 'कांतासम्मिततयोपदेशयुजे' की सात्विक सरणि में अधिष्ठित है । काम और अर्थ का प्रभूत भोगकर एवं उनकी ह्रस्वता सिद्धकर धर्मसाधित मार्ग का अनुगमन करते हुए अन्त में परम शिवस्वरूप मोक्ष में प्रतिपन्नता का प्रतिपादन इस चरित्र काव्य का केन्द्रीय विदु है । नागकुमार इस ग्रन्थ का नायक है । वह कनकपुर के राजा जयंधर का पुत्र है। उसकी विमाता का पुत्र श्रीधर था, जो अत्यन्त क्रूर एवं दृष्ट प्रकृति का था। उसी के कारण नागकुमार राज्य छोड़कर बाहर चला जाता है । अपने बुद्धि-कौशल एवं धैर्यादि गुणों के द्वारा प्रभूत धन दौलत के साथ यश का अर्जन करता है और बाद में पिता द्वारा पुनः बुलाये जाने पर राज्याभिषिक्त होता है । शास्त्रीय दृष्टि से नायकत्व जो व्यक्ति कथानक को मुख्य उद्देश्य या फलागम तक ले जाता है तथा मुख्य फल का अधिकारी होता है वह नायक कहलाता है। नागकुमार उत्थान-पतन के थपेड़ों को सहता है, और अन्त में संपूर्ण कथा को मोक्ष-धर्म में प्रस्तुत करता है तथा स्वयमेव उस धर्म का अधिकारी बनता है। काव्य शास्त्र में सामाजिक आधार पर नायक के तीन भेद किए गये हैंपति, उपपति और वैशिक । नागकुमार पति श्रेणी का नायक है। जो नायिका (स्वकीय) का विधिवत् पाणिग्रहण करता है । वह पति नायक है । रसमंजरीकार ने उल्लेख किया खण्ड २२, अंक ३ २३१ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिवत्पाणिग्राहकः पतिः। नागकुमार अनेक कन्याओं के साथ विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार करता है तथा उनके यौवन का प्रभूत भोग करता है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं(१) कश्मीर की राजकुमारी के साथ विवाह विहिओ सुयणाणं उच्छाहो दुण्डं पुरणाहेण विवाहो।' अहिणवमुग्गमणोहरवयणा बहुलायण्णा दिण्णा कण्णा । णायकुमारहो संगें लग्गा अज्झासा इच्छियसंसग्गा । (२) गिरिशिखर नामक नगर के वनराज की पुत्री लक्ष्मीमति के साथ पाणिग्रहण अण्णहिं दिणे करिवरगइ परिणाविय लच्छीमइ ।' सो वम्महु सा रइ सई किं वण्णमि हडं जडकइ ।। (३) उज्जैनी की राजकुमारी तिलकसुन्दरी के साथ विवाह-- तो दिण्ण कण्ण जाइउ विवाहु सिरिसंगे णं तुट्ठउ विकाहु । थिउ रामई सहुं रामाहिरामु णावई सीयई सहुँ देउ रामु ।' कामप्रवृत्ति के आधार पर नायक की चार श्रेणियां स्वीकृत हैं - अनुकूल दक्षिण, शठ और धृष्ठ । नायकुमार दक्षिण-नायक के अन्तर्गत परिगणित किया जा सकता है। दक्षिण-नायक का स्वरूप है दक्षिण नायक अनेक नायिकाओं का स्वामी होता है तथा सबसे अनुकूल व्यवहार करता है । कविराज विश्वनाथ ने लिखा है एषु त्वनेकमहिलासु समरागो दक्षिणः कथितः । भानुदत्त ने रसमंजरी में निर्देश किया है ___सकलनायिकाविषयकसमसहजानुरागो दक्षिणः ।' अर्थात् सभी नायिकाओं के साथ समान रूप से व्यवहार करने वाला दक्षिण नायक है। नागकुमार अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह करता है लेकिन सबके साथ समान व्यवहार करता है । जिन कुमारी युवतियों के साथ वह विवाह करता है उनमें कश्मीर की राजकुमारी [५.१०], लक्ष्मीमति [६.९], मामा की पुत्री [७/९], उज्जैन की राजकुमारी [८.८], दन्तीपुर की राजकुमारी [९.१] तथा अन्य राजकुमारियां [८.१६] आदि प्रमुख हैं । सबके साथ नागकुमार सम्मान जनक व्यवहार करता है । शील की दृष्टि से नायक के चार भेद स्वीकृत हैं-धीरोदात्त, धीरललित धीरोद्धत और धीरप्रशांत । नागकुमार धीरोदात्त नायक है । धीरोदात्त का लक्षण महासत्त्वोऽतिगंभीरः क्षमावानविकत्थनः । स्थिरो निगुढाहंकारो धीरोदात्तो दृढव्रत ।' अर्थात् धीरोदात्त पराक्रमशाली, गंभीर, क्षमावान्, आत्मश्लाधा से रहित, स्थिर, निगूढाहंकार और दृढ़वती होता है। नागकुमार में ये सारे गुण प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं। वह अत्यन्त पराक्रमशाली है। अपने शौर्य, पराक्रम, बल एवं वीर्य २३२ तुलसी प्रशा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के आधार पर चतुर्दिक विजय लाभ करता है। जन्म परम्परा के आधार पर नायक की दो श्रेणियां हो सकती हैं-१. उच्चवंशोद्भव और २. निम्नवंशोद्भव नागकुमार उच्चवंशोद्भव है क्योंकि उसका जन्म धरती पर प्रसिद्ध कनकपुर के राजवंश में हुआ है । वह गिरिनगर की अनिंद्य सुन्दरी राजकुमारी पृथ्वी देवी और कनकपुर के राजा जयंधर का पुत्र था। योनि के आधार पर नायक के तीन भेद माने जाते हैं :-- मनुष्य, दिव्य और दिव्यादिव्य । नागकुमार मनुष्य योनि का नायक है। पुरुषार्थ के आधार पर नायक के चार भेदों की संकल्पना की जा सकती है :-१. अर्थासक्त, २. कामासक्त, ३. धर्मासक्त और ४. मोक्षासक्त । नागकुमार के मोक्षपथानुगामी होने से वह मोक्षासक्त नायक के अन्तर्गत परिगणित किया जा सकता चारित्रिक विकास नागकुमार के चरित्र का विकास संघर्षमय वातावरण में होता है । वह विमाता से तिरस्कृत होकर जीवन यात्रा प्रारंभ करता है तथा अपने पुरुषार्थ के बल पर सब कुछ प्राप्त कर लेता है । नायक का यह चरित्र वाल्मीकि रामायण के राम और भागवत पुराण के ध्रुव से मिलता जुलता है । विमाता कैकेयी के कारण राम वन-वन भटकते हैं, अपने-वीर्य का प्रदर्शन करते हैं तथा अन्त में अपना पुरुषोतमत्व को प्रतिष्ठापित करते हैं । बालक ध्रुव विमाता से तिरस्कृत होकर परमपद, परमचक्रवतित्व को प्राप्त करता है, उसी प्रकार नागकुमार विमाता के कारण राजा का कोप भाजन होता है, कारागार में डाला जाता है तथा कारागार से निकलकर अपने पुरुषार्थ के बल पर सब कुछ साध लेता है। नामकरण को सार्थकता ऊच्च, स्थूल और सघन स्तनों वाली किंकणी लटकती हुई मेखलाएं धारण करने वाली गजगामिनी कामिनियां बालक को गोद में लेकर वापी जल को देख रही थीं कि अचानक बालक वापी में गिर गया। भीतर बैठे एक नाग ने उसको बचाया। नाग के द्वारा रक्षित होने के कारण देवों ने उसे नागकुमार तथा पिता ने प्रजाबंधुर कहकर पुकारा __ जणणेण पयाधुरु सुदिसु देवेहिं वि णाय कुमार सिसु ॥ मेधा सम्पन्न राजकुमार• वह कुशल प्रज्ञा सम्पन्न बालक था। अल्पकाल में ही वह विविध विद्याओं में निष्णात हो गया : सिद्धं णमह भणेवि अट्टारह लिविउ भुअंगउ । दक्खालइ सुयहो सिक्खइ मेहावि अणंगउ ।। कालक्खरइं गणियइं गंधव्वई वायरणाई सिक्खिउ । सो णिच्चं पढंतु हुउ पंडिउ वाएसरिणिरिक्खिउ ।। खण्ड २२, अंक ३ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छंदालंकाराई णिग्घंटइं जोइसाइं गहगमणपयट्टई । कव्वई णाडयसत्थई सुणि यई पहरणाई णीसेसई गुणियइं॥ अर्थात् 'सिद्ध भगवान् को नमस्कार करो' ऐसा कहकर नाग ने पुत्र को अट्ठारह प्रकार की लिपियां दिखलायीं और वह मेधावी कामदेव सीखने लगा । स्याही से काले अक्षर लिखना, गणित, गांधर्वविद्या, व्याकरण भी सिखाया। नागकुमार नित्य पढ़ते पढ़ते सरस्वती का निवास पंडित बन गया। उसने छन्द, अलंकार निघण्टु, ज्योतिष, ग्रहों की गमन प्रवृतियां, काव्य एवं नाट्यशास्त्र सुने एवं समस्त आयुधों का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया। शारीरिक सौन्दर्य वह आभ्यन्तरीय शोभा से सम्पन्न तो था ही, उसका बाह्य शरीर संहनन भी अपूर्व आकर्षक था। जिस युवति ने उसके किशोरवय पर दृष्टि डाली, वह कामोद्वेगित होकर आसक्त हो गयी । योवन-धन्या कुमारियों के नेत्र भी उसके रूप-यौवन, सुगठितशरीर और दिव्य मुख को निरखकर धन्य हो जाते थे। उसके आंगिक सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि कहता है सोहइ वट्ठलपानिपवट्ठहिं उग्णय पायपुट्ठिअंगुहिं । उण्णयवित्थिपणे भालयले उग्णयभुयसिहरहिं बलपवलें ॥ पेक्खइ जहिं जहिं जणु तहिं तहिं जि सुलक्खणभरियउ । वण्णइ काइं कईं जग वम्महु सइं अवयरियउ। वह लावण्य का पुंज था । स्वयं चन्द्रमा था। विविध गुण रत्नों की खान था मानों विश्व सुन्दरी लक्ष्मी ने ही विलास युक्त उत्तम पुरुष के शरीर को धारण किया हो : णं लावण्णपुंजु णं ससहरु णं गुणरयणरइउ । णं पुरवर सिरीए णरवरतणु सग्गविलासु लइयउ ॥ क्रीडा प्रिय कुमार विविध शास्त्रीय-विद्याओं में निष्णात तो था ही अत्यन्त क्रीड़ा-प्रिय भी था। उसकी पैतृक सम्पत्ति को एक जुआरी श्री वर्म के दौहित्र ने द्यूत में जीत लिया था। पिता की आज्ञा पाकर द्यूत क्रीड़ा में अपनी सम्पत्ति तथा श्री वर्म की सम्पूर्ण सम्पत्ति जीत लेता है, परन्तु शत्रु की सम्पत्ति को सहज रूप से लौटा कर अपनी उदारता का परिचय देता है । द्यूत क्रीड़ा का उदाहरण द्रष्टव्य है :__ मई सहुं अज्जु सलक्खण खेल्लहि देहि सारि लइ पासउ ढालहि । ता ति तिह करेवि खणे जित्तउ, जणण णीसेसु वि हित्तउ ॥" युद्धवीर वह कुमार न केवल शारीरिक सौन्दर्य में उत्कृष्ट था बल्कि वीरता, धीरता, शौर्य एवं पराक्रम में भी अद्वितीय था। अरिदमन को भी दमन करने वाला कुमार व्याल अपने स्वामी के रूप में नागकुमार को स्वीकार करता है। गयदप्पे करिकरदीहबाहु जयकारिउ जायवि णिययणाहु ।१२ २३४ तुमसी प्रज्ञा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक स्थल पर उन्मत्त हाथी को अपन भुजदंडों से वश में कर लेता है। गोविंदे तुलिउ गोवट्टणु णं जयकारणु । जित्तउ तेण गउणं पुप्फयंत दिसिवारणु ।।" अर्थात् जिस प्रकार गोविंद ने गोवर्धन को उठाकर अपना जय जयकार कराया था उसी प्रकार नागकुमार ने उस गज को जीत लिया जैसे पुष्पों के समान दांतवाले दिग्गज को जीता हो। यायावरीवृत्ति विभिन्न देशों एवं नगरों के परिभ्रमण से ज्ञानपूर्णता एवं नीतिकुशलता की प्राप्ति होती है इसीलिए चरितकाव्यों के नायक सामान्यतया देश भ्रमण के लिए निकलते है। सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट ने देश भ्रमण से ही प्रभूत ज्ञान राशि को प्राप्त किया था। महाकविदंडी के दशकुमार चरित के सभी कुमार देशाटन से ही धन-समृद्धि एवं ज्ञानसम्पदा को प्राप्त करते हैं। नायक नागकुमार भी अनेक देशों, राज्यों एवं नगरों का परिभ्रमण करता है। अनेक विवाह नागकुमार के अनेक विवाहों का उल्लेख मिलता है। वह जहां भी जाता उस राज्य की राजकुमारी उसके रूप सौन्दर्य पर आकृष्ट हो जाती थी । कश्मीर की राजकुमारी [५.१०], लक्ष्मीमति [६/९], मामा की पुत्री [७.९[, उज्जनी की राजकुमारी [८.६], तिलकासुन्दरी [८.८], पवनवेग से मुक्त करायी गई अनेक कन्याओं के साथ [८.१६] तथा दंतीपुर की कन्या के साथ वह विवाह करता है। धर्मरुचि सम्पन्न-- वह धार्मिक प्रवृत्ति का नायक है । अनेक स्थलों पर उसकी जिन भक्ति, दानदया आदि गुणों का निदर्शन मिलता है । ९ वी संधि में नागपंचमी व्रत के प्रति श्रद्धामान् के रूप में नागकुमार दृग्गोचर होता है। राज्याभिषेक विमाता एवं विमाता पुत्र के कारण नागकुमार पित-राज्य से बाहर निकलकर राज्यों में भ्रमण करता हुआ प्रभूत मान, धन एवं ज्ञान का अर्जन करता है। बाद में उसके पिता के मंत्री नयन्धर राज्य में उसे वापस लाता है तथा पिता श्री जयंधर योग्य काल में उसका राज्याभिषेक करते हैं। वैराग्यवान् एवं मोक्षमार्ग में प्रतिष्ठित अत्यन्त संरम्भ और पराक्रम के साथ पृथ्वी का उपभोग कर नागकुमार अपने गुणवान् पुत्र देवकुमार को अपना राज्य समर्पित कर संसार से विरक्त होकर जिन भगवान् के शरण में प्रविष्ट हो जाता है । अनेक योद्धाओं एवं अमात्यों के साथ जैन दीक्षा लेकर कठोर तप प्रतिपन्न हो जाता है । अन्त में मोक्ष में प्रतिष्ठित होता है, अंग के विकार से रहित हो जाता है :-- खग २२, अंक ३ २३५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्ति अगं अगंग हुड पत्तउ मौक्खु अनंग वियारउ । १४ पुप्फयंत सुरण मिउ पहु पसियउ णायकुमारु भडारउ ॥" इस प्रकार चरितनायक नागकुमार धर्म, अर्थ, काम का प्रभूत उपयोग कर अन्त में मोक्ष प्रतिपन्न होता है । संदर्भ : १. रसमंजरी पृ० १७१ २. नायकुमार चरिउ ५:१०.१-३ ३. तत्रैव ६.९.१० ४. तजैव ८.८.४-५ ५. साहित्य दर्पण ३.३५ ६. रसमंजरी पृ० १७४ ७. दशरूपक २.४, ५ ८. नायकुमार चरिउ २.१४.१ ९. तत्रैव ३.४ १०. ३.५ ११. ३.१३ ४.१३ १२. १३. ३.१७ १४. ,, ९.२५ २३६ " "" "" "" - डॉ. हरिशंकर पाण्डेय सह आचार्य प्राकृत भाषा एवं साहित्य जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं तुलसी प्रशा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक समीक्षा साहित्य-सत्कार एवं पुस्तक-समीक्षा १. 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी'-लेखकडॉ० के०आर० चन्द्र, प्रकाशक-प्राकृत जैन विद्या विकास फंड, अहमदाबाद, प्रथम संस्करण-१९९५, मूल्य-५० रुपये, पृष्ठ-१५२+८ । लेखक ने 'प्रस्तावना' में कहा है कि 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण' से उसका तात्पर्य है-'व्याकरण संबंधी वे नियम जो परंपरा से प्राप्त हुए हैं।' उसने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह उपलब्ध प्राकृत साहित्य और प्राकृत शिलालेखों में भाषा का जो स्वरूप मिलता है उसको ध्यान में लेते हुए व्याकरण के अमुक नियमों की समीक्षा कर रहा है कि वे कहां तक उन पर लागू होते हैं ? उसने प्राचीन प्राकृत और उत्तरवर्ती प्राकृत भाषा के अन्तर को व्याकरण ग्रंथों में स्पष्ट न करने तथा क्षेत्रीय प्राकृतों को एक दूसरे से अलग न करने की भी बात मानी है और इसके लिए तर्क दिया है कि उस काल के व्याकरणकारों का उद्देश्य भाषा का ऐतिहासिक या तुलनात्मक अध्ययन करने का नहीं था। उनके द्वारा तो उपलब्ध प्राकृत साहित्य की कृतियों की भाषाओं का कुछ विशेष रूप समझाने के लिए व्यावहारिक दृष्टि से, संस्कृत भाषा से उनकी विभिन्नता दर्शाना ही हेतु था। इस प्रकार डॉ. चन्द्र ने अपनी समीक्षा को सीमित और सुरक्षित कर लिया है। प्रस्तुत प्रकाशन के सभी १५ अध्याय, लेखों के रूप में 'श्रमण', 'तुलसी प्रज्ञा', 'संबोधि', 'प्राकृत विद्या', और 'जैन विद्या के आयाम' में प्रकाशित भी हो चुके हैं; इसलिए उन पर विद्वानों के मन्तव्य भी अज्ञात नहीं हैं। डॉ० चन्द्र ने मूलतः वररुचि के प्राकृत प्रकाश और हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण को अपने अध्ययन का आधार बनाया है। उन्होंने पिशेल, मेहेण्डले, नीतिडोलची आदि के मत उद्धृत किये हैं और चण्ड के प्राकृत लक्षणम् भरतमुनि के नाट्य शास्त्र, मार्कण्डेय के प्राकृत-सर्वस्व से भी हवाले दिए हैं किन्तु वाल्मीकि सूत्र जिनेन्द्र व्याकरण, शाकटायन और का-तन्त्र व्याकरण आदि का कोई हवाला नहीं दिया। वररुचि के प्राकृत प्रकाश जैसा कि पूर्व कहा जा चुका है (देखें-आदिशाब्दिक और पारंपरीय प्राकृत-तुलसी प्रज्ञा, पूर्णांक ९७ पृ०७९-८७) में नौंवें अध्ययन के बाद के अध्याय प्रक्षिप्त हैं । मूल में, उसमें आठ ही अध्याय थे। खण्ड २२, अंक ३ २३७ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार लेखक का यह अध्ययन दशवीं सदी के बाद के व्याकरणों पर ही आधृत है । लेखक द्वारा उद्घाटित तथ्य कि बिना शिरोरेखा के नकार पर शिरोरेखा के प्रयोग से नकार को णकार में बदलने का नियम बन गया - - विचारणीय हो सकता है। इसी प्रकार जैसलमेर भण्डार में प्राप्त 'विशेषावश्यक भाष्य' की ताड़पत्रीय प्रत् में जो प्राचीन भाषा रूप मिले हैं; उन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए। इससे घोषअघोष का ध्वन्यात्मक परिवर्तन सुधारा जा सकता है । इसी प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ में - मध्यवर्ती त=द, पब, अल्प प्राण व्यंजनों का लोप, 'य' - श्रुति, अनुनासिक व्यंजनों का अनुस्वार में परिवर्तन, स्सि और - म्हि लकार और ज्ञ का 'न्न' या 'पण' में बदलना आदि अनेकों प्रसंगों परपर्याप्त सामग्री जुट गई है । तथापि श्रुत परंपरा के गुण दोषों की कहानी और विस्तार से कही जानी चाहिए । अच्छा हो, इस विषय पर अधिकारी विद्वान् मिल बैठकर चर्चा करें और सर्व सम्मत निर्णय प्राचीन भाषा स्वरूप को सुस्थापित करें | डॉ० के० आर० चन्द्र ने इस संदर्भ में अध्यवसायपूर्वक बहुत श्रम किया है किन्तु यह कार्य एक व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर का है । इसलिए उनके कार्य को आगे बढ़ाने का सद् प्रयत्न होना चाहिए । २. शोध और स्वाध्याय, लेखक - हरिवल्लभ भायाणी, प्रकाशक - गुजरात साहित्य अकादमी, गांधी नगर - ३८२०११, प्रथम आवृत्ति, १९९६, मूल्य – ८५ रुपये । पृष्ठ–१९२ । प्रस्तुत कृति में भायाणीजी के शब्दों में – अपभ्रंश, अर्वाचीन भारतीय आर्य का का प्रारंभ काल, पुरानी हिन्दी, पुरानी राजस्थानी, गुजराती इत्यादि के विषय में प्रकाशित लेखादि को पुनः मुद्रित किया गया है। गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी अध्यक्ष के अनुसार संकलित लेखों में अपभ्रंश, अर्धमागधी, प्राचीन गुर्जर भाषा, प्राचीन राजस्थानी, प्राचीन हिन्दी, प्राचीन पंजाबी और लोक साहित्य से संबंधित महत्त्वपूर्ण लेख हैं । वस्तुतः इन लेखों से अपभ्रंश साहित्य पर व्यापक प्रकाश पड़ता है । 'अपभ्रंश भाषा और हेमचंद्रीय अपभ्रंश' शीर्षक में लेखक ने विषय की अच्छी व्याख्या की है । ' अपभ्रंश व्याकरण की कुछ समस्याएं' - - नामक अपर निबन्ध में उसने प्राकृत और अपभ्रंश की भेद रेखाएं खींचने का प्रयास किया है। लेखक की मान्यता है - "यदि हम कहें कि अपभ्रंश साहित्य अर्थात् जैनों का ही साहित्य, तो भी चलेगा।" किन्तु साथ ही वह यह भी मानता है - 'सुविस्तृत अपभ्रंश ग्रंथ भाषा शास्त्रियों से 'अनाघ्रात' पड़े हैं, जिस तरह शकुन्तला पहले थी । ' अब तक उसी भांति दुष्यन्त से मिलने से शब्दों की व्युत्पति, अर्थ चर्चा, शब्दों की कथा आदि भायाणीजी के प्रिय विषय हैं और इस संबंध में संग्रह में अनेकों लेख हैं । 'ढोला-मारू रा दूहा' - संबंधी लेख २३८ तुलसी प्रज्ञा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में लेखक ने 'वाग्भटालंकार' के टीकाकार सिंहदेवगणि के कथन-'इसमें क्वचिद् मूल में अविद्यमान होने पर भी रेफ का आगम होता है'-को उद्धृत करके निम्न दोहे को संशोधित किया है चारूद तुहु अइमां डि अउ, दीसइ सव्व पढन्तु । कहि मा कई अहं आविसइ, अम्हं के रनु कन्तु ॥ भायाणीजी द्वारा संशोधित चात्रग (चात्रुग) तुहं अइ पंडियउ, दीसहि सव्व पढंतु । कहि मा कइ अहँ आविसइ, अम्हहँ केरउ कंतु ।। इस संशोधन में 'चारूद' को जबरन 'चात्रग' बना दिया गया है। वस्तुतः यह 'चाउल्लड़' का दूसरा रूप है जिसमें रेफागम हो गया है । 'चाउल्लड़' को राजस्थानी में 'अड़बो' भी कहते हैं। यह नकली पुतला पशु-पक्षियों से अनाज की सुरक्षा हेतु किसानों द्वारा खेतों में बना दिया जाता है। दोहे में खेत रुखालने वाली एक युवती ऐसे ही एक पुतले को संबोधन कर रही है कि हे चारुद ! तूं सब कुछ पढ़ा-लिखा दीखता है इसलिए लिख-मांड कर बता कि मेरा पति कब आयेगा? ___'राउरवेल'-शिलालेख के भाषा-स्वरूप पर टीका करते हुए लेखक ने उसमें पुरानी मैथिली, पुरानी मराठी, पश्चिमी हिन्दी, पंजाबी, गौड़ प्रदेश और मालवी बोली के अवशेष खोजने की चेष्टा की है। इस विषय में हम उनका समर्थन नहीं कर सकते । शिलालेख में जो भाषा है उसमें मैथिली, मराठी, पश्चिमी हिन्दी के अवशेष नहीं हैं। हिन्दी साहित्य अकादमी, गांधी नगर को इस प्रकाशन के लिए धन्यवाद दिया जाना चाहिए जिससे हिन्दी पाठकों को डॉ० भायाणी के विचारों को जानने का सुअवसर मिल गया है। ३. निग्रंथ (प्रवेशांक) संपादक-एम. ए. ढाकी एवं जितेन्द्र शाह, प्रकाशक-शारदा बेन चिमनभाई एज्यूकेशनल रीसर्च सेन्टर, शाही बाग, अहमदाबाद-४, सन्, १९९५ मूल्य-१५० रुपये। हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी--तीन भाषाओं में प्रकाशित निग्रंथ का प्रवेशांक पं. दलसुखजी मालवणिया को समर्पित है। वार्षिक अंक के रूप में प्रकाशित होने वाले इस जर्नल में जैन शोध को सुसंपादन के साथ प्रकाश में लाने का संकल्प लिया गया है किन्तु पहले ही अंक में संपादकों को अपने संकल्प-पूर्ति में दरपेश आई मजबूरी का इजहार भी करना पड़ा है । जर्नल में के. आर. चन्द्र, बी. एम. कुलकर्णी, एच. सी. भायाणी, एन. पी. जोशी, एम. ए. ढाकी जैसे मूर्धन्य विद्वानों के साथ जगदीशचन्द्र जैन एवं अगरचंद नाहटा जैसे दिवंगत लोगों के भी लेख हैं। गुजराती खंड में वादीन्द्र मल्लवादी श्रमाश्रमण के समय पर जितेन्द्र शाह का महत्त्वपूर्ण लेख है। इसी प्रकार मधुसूदन ढाकी का 'वादी-कवि बप्पभट्टि सूरि'-लेख भी सूचनाओं से भरापूरा है। खण्ड २२, अंक ३ २३९ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती खंड में ही शिलालेख एवं मूर्ति शिल्प संबंधी अति महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। हिन्दी खण्ड में नय विचार एवं काव्य प्रकाश के अनूठे टीकाकारआचार्य माणिक्य चन्द्र सूरि अच्छे लेख हैं। अंग्रेजी एक्शन में ललितकुमार का गुजराती चित्रकला पर लिखा लेख भी नयी जानकारी देता है। उनके इस कथन में सचाई है कि गुजराती जैन चित्रकला की अपनी स्वतंत्र शैली थी। सब मिलाकर निर्ग्रन्थ के प्रवेशांक का स्वागत है। वस्तुतः ऐसे विविधतापूर्ण जैन शोध जर्नल की जैन जगत् को प्रतीक्षा बनी थी। शारदाबेन चिम्मनभाई केन्द्र ने इस कमी पूर्ति के लिए जो शुरूआत की है वह श्लाघ्य और प्रशंसनीय है। -परमेश्वर सोलंकी ४. अड़बो (श्याम महर्षि री कवितावां)-श्याम महर्षि । प्रकाशक-राजस्थानी विभाग, राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़ (चूरू) । संस्करण-१९९६ । मूल्य-८० रुपये। प्रस्तुत संग्रह में श्याम महर्षि की ४९ कविताओं का संग्रह है। थे, बो; टाबर, रमतियां; कुतियो, धीणाप; मेह, डांफर; गांव री लुगायां, कुवै रो पाणी; भोभर; आभैरा मोती; आंधी, द्रोणपुर–इत्यादि कविताओं में आपसी तालमेल है। वैसे सभी कविताएं गांव की निश्च्छल संस्कृति के आसपास कवि मन की भटकन की तरह लगती हैं। ___ इन कविताओं में थली के गांवों पर बीती घटनाओं की छाप है। कवि कर्म की आधुनिक सोच के अनुसार इन कविताओं में व्यक्त अनुभूतियां जानी पहचानीसी लगती हैं। शास्त्रीय दृष्टि से इनमें कितना कुछ तत्त्व है ? यह प्रश्न अलग कर दें तो श्याम महर्षि की ये कविताएं आधुनिक राजस्थानी कविता के पाठक को बहुत आकर्षक लगेगी---इसमें संदेह नहीं । अच्छा हो, श्याम महर्षि कोई खण्ड काव्य की सर्जना में श्रम करें। उसमें उन्हें सफलता मिलेगी-ऐसी पूर्ण आशा है। 'अड़वो' से विलग इस प्रकार वे अपना निजी प्रतीक खड़ा कर सकेंगे। ५. मूकमाटी : चेतना के स्वर--डॉ० भागचन्द्र जैन 'भास्कर', प्रकाशक-जेजानी चेरिटेबल ट्रस्ट एवं आलोक प्रकाशन, न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर । प्रथम संस्कर-१९९५ । मूल्य--५० रुपये । पृ० ३४४ । प्रस्तुत प्रकाशन लेखक के पूर्व प्रकाशित 'मूक माटी : एक दार्शनिक महाकृति' का नया संस्करण है जिसमें तीन नये अध्याय जुड़े हैं। वस्तुतः यह काव्य 'नित नवतामुपैति'-के अनुसार उत्तरोत्तर अभिनव उद्घाटनों से पाठकों को आप्लावित कर रहा है। लेखक ने उसमें राष्ट्रीय चेतना के अन्तः स्वर खोजे हैं। आतंकवाद की प्रतिध्वनि देखिए २४. तुलसी प्रज्ञा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब तक जीवित है आतंकवाद शान्ति का श्वास ले नहीं सकती धरती यह ये आंखें अब आतंकवाद को देख नहीं सकती ये कान अब आतंक का नाम सुन नहीं सकते यह जीवन भी कृत संकल्पित है कि उसका रहे या इसका यहां अस्तित्व एक का रहेगा । इसी प्रकार भारत-पाक संघर्ष की पृष्ठभूमि में कवि ने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष को संबोधित किया था उसकी पंक्तियां देखिए परस्पर कलह हुआ तुम लोगों में बहुत हुआ, वह गलत हुआ । मिटाने मिटने में क्यों तुले हो इतने सयाने हो । जुटे हो प्रलय कराने विष से धुले हो तुम सदय बनो । अदय पर दया करो अभय बनो । 1 समय पर किया करो अभय को अमृत-मय वृद्धि सदा सदा सदाशय दृष्टि रे जिया, समष्टि जिया करो । 'मूक माटी' एक प्रतीक काव्य है, जहां माटी के माध्यम से व्यक्ति की उपादान शक्ति को अभिव्यंजित किया गया है । डॉ० भास्कर ने उसमें से सामुदायिक चेतना की पृष्ठभूमि में छिपी आध्यात्मिकता को उजागर किया है । इसका अभिव्यंजना शिल्प बेजोड़ है, उसमें और भी अनेकों रत्न जड़े हैं जो जब तब अपनी चमक देते हैं । - परमेश्वर सोलंकी खण्ड २२, अंक ३ २४१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्ति स्वीकार १. जैन कर्म - सिद्धान्त और मनोविज्ञान - डॉ० रत्नलाल जैन, प्रकाशक - बी. जैन पब्लिशर्स (प्रा.) लि., १९२ / १० चूना मण्डी, पहाड़गंज, नई दिल्ली- ५५, मूल्य – २५५ रु० । २. स्वरूपसम्बोधन — पंचविशति - डॉ० सुदीप जैन, प्रकाशक - २४२ 1:3 भारतीय जैन युवा फैडरेशन, अलवर । मूल्य – १५ रुपये । ३. जैन धर्म-संक्षेप में प्रो० ए० चक्रवर्ती लिखित पंचास्तिकायसार की अंग्रेजी प्रस्तावना का अनुवाद | प्रकाशक - श्री दिगंबर जैन साहित्य संस्कृति, डी - ३०२, विवेक विहार, दिल्ली - ६५ । मूल्य - २५ रुपये । ४. यशोधरचरितम् – हिन्दी अनुवाद - पं० पन्नालाल जैन | प्रकाशकश्री आचार्य शिवसागर दिगम्बर जैन ग्रंथ माला, शान्तिवीर नगर, श्री महावीरजी । मूल्य – १५ रुपये । ५. परमात्मा होने का विज्ञान -- जैन धर्म । लेखक - बाबूलाल जैन, प्रकाशक -- प्रभात जैन, ९ / १३२९ गली - १२, कैलाशनगर, दिल्ली - ३१ । मूल्य - एक रुपये का डाक टिकट । ६. कुल का दीप - सामाजिक, ऐतिहासक एवं पौराणिक एकांकियों की प्रस्तुति श्री माधुरी जैन, 'ज्योति' । प्रकाशक - जैन संस्कार भारती, संघीजी का -श्री अखिल रास्ता, जयपुर- ३ । ७. ख्यात इतिहास, कला एवं संस्कृति की शोध पत्रिका । संपादक - वी. एल. भादानी, प्रकाशक --- मरुभूमि शोध संस्थान, श्रीडूंगरगढ़ । तुलसी प्रज्ञा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालक्रम और इतिहास १. भारत में ईशामसीह का आगमन -परमेश्वर सोलंकी २. विक्रम संवत् : ३६ ईसवी पूर्व -चन्द्रकान्त बाली ३. वेद और आगमकाल में पर्दा-प्रथा -मुनिश्री गुलाबचन्द्र निर्मोही Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में ईशामसीह का आगमन श्री वेंकटेश्वर प्रेस, बम्बई से मुद्रित भविष्यपुराण प्रतिसर्ग पर्व के चौथे खण्ड के द्वितीय अध्याय में (२१वें श्लोक से ३३वें श्लोक तक) ईशामसीह का वर्णन एकदातु शकाधीशो हिमतुंगं समाययौ ।।२१ हण देशस्यमध्येवै गिरिस्थं पुरुषं शुभम् । ददर्श बलवान्राजा गौरागं श्वेतवस्त्रकम् ।।२२ को भवानिति तं प्राह सहोवाचमुदान्वितः । ईशपुत्रं च मां विद्धि कुमारी गर्भसंभवम् ।।२३ म्लेच्छधर्मस्य वक्तारं सत्यव्रतपरायणम् । इति श्रुत्वा नृपः प्राह धर्मे किं भवतो मतम् ।।२४ । श्रुत्वोवाच महाराज प्राप्ते सत्यस्य संक्षये । निर्मर्यादेम्लेच्छ देशे मसीहोऽहं समागतः ।।२५ ईहामसी च दस्यूनां प्रादुर्भूता भयंकरी। तामहं म्लेच्छतःप्राप्य मसीहत्वमुपागतः ।।२६ म्लेच्छेषु स्थापितो धर्मोमयातच्छृणभूपते । मानसं निर्मलं कृत्वामलं देहे शुभाशुभम् ।।२७ नैगमं जापमास्थाय जपेत निर्मलं परम् । न्यायेन सत्य वचसा मनसक्येन मानवः ।।२८ ध्यानेन पूजयेदीशं सूर्यमंडलसंस्थितम्। अचलोऽयं प्रभुः साक्षात्तथा सूर्योऽचलः सदा ॥२९ तत्त्वानां चलभूतानां कर्षणः ससमं ततः। इति कृत्येन भूपाल मसीहा विलयंगताः ।।३० ईशमूर्तिह दि प्राप्ता नित्य शुद्धाशिनकरी । ईशामसीह इति च मम नाम प्रतिष्ठितम् ।।३१ इति श्रुत्वा स भूपालो नत्वा तं म्लेच्छ पूजकम् । स्थापयामास तं तत्र म्लेच्छ स्थाने हि दारुणे ॥३२ स्वराज्यं प्राप्तवान्राजा हयमेधमचीकरत् । राज्यकत्वा स षष्टयब्दं स्वर्गलोकमुपाययौ ॥३३ भविष्य पुराण में बताया गया है कि चीन, तैत्तिरि, वाह्लीक, काम रूप, रोमज, खुरज आदि वैदेशिकों ने भारत पर सिन्धु नदी पार से अथवा बोलन-खेबर दरों से खंर २२, अंक ३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आक्रमण किए थे जिन्हें विक्रमादित्य पौत्र शालिवाहन ने बाहर खदेड़ा और उन्हें सिंधु पार रहने को विवश किया। वह हिमालय क्षेत्र में भी गया। वहां उसने हूण देश (लद्दाख क्षेत्र) में एक श्वेत परिधान वाले गौरांग व्यक्ति को देखा तो उसे पूछा कि आप कौन हैं ? इस पर उसने जवाब दिया मैं कुमारी के गर्भ से जन्मा ईश पुत्र हूं। म्लेच्छ धर्म का प्रवक्ता हूं और सत्यव्रत का पालक हूं। राजा ने उससे उसका धर्म पूछा । उत्तर में उसने कहा कि म्लेच्छों में सत्य के क्षय होने और मर्यादा न रहने पर मैं मसीहा यहां आया है। वहां म्लेच्छ देश में ईहामसी पैदा हुई जिसे पाकर मैं मसीहा बना। म्लेच्छ देश में स्थापित धर्म में मन को निर्मल बनाकर और देह को शुद्ध करके निर्मल परम् का नैगम जाप करना होता है और न्याय, सत्य वचन के साथ एकाग्र मन से सूर्य मण्डल में संस्थित ईश का ध्यान करना होता है। इससे व्यक्ति सूर्य की भांति प्रभु में अचल आस्था वाला बन जाता है। चलायमान मन को निरोध करके समता पाने से इसी प्रकार मसीहा होता है । मैंने नित्य शुद्ध शिवंकरी ईश मूर्ति को इसी प्रकार अपने हृदय में प्रतिष्ठित किया है और मैं ईशामसी बन गया हूं। भूपाल ने यह सब सुनकर उसे वहां रहने दिया और अपने राज्य को लौट कर अश्वमेध यज्ञ किया और वह साठ वर्ष पर्यंत राज्य भोग कर स्वर्ग गया। इस पुराण में विक्रमादित्य के समय भारत वर्ष में, पश्चिम में सिंधु नदी तक, दक्षिण में सेतुबंध तक, उत्तर में बदरीस्थान और पूर्व में कपिलान्त तक कुल १८ राष्ट्र बताये गये हैं। इन्द्रप्रस्थ, पांचाल, कुरुक्षेत्र, कापिल, अन्तर्वेदी, ब्रजथी, अजयमेरू, मरुधन्व, गौर्जर, महाराष्ट्र, द्राविड़, कलिंग, आवन्ती, उडुप, बंग, गौड़, मगध और कौशल। वहां लिखा है कि विक्रमादित्य के द्वारा निष्कासन के लगभग सौ वर्ष बाद पुनः वैदेशिकों ने आक्रमण किए तो विक्रमादित्य पौत्र ने मर्यादा स्थापित की । शालिवाहन वंश में दश राजा हुए जिन्होंने ५०० वर्ष राज्य किया । दशवें राजा भोजराज ने दश सहस्र सेना लेकर सिंधुपार किया और गांधार, म्लेच्छ और काश्मीर में अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसके बाद म्लेच्छ देश में महामद आचार्य हुआ जिसने मरुस्थल निवासी राजामहादेव के साथ सिंधु नदी तट को पार किया। उसने लिंगच्छेदी, शिखाहीन परन्तु श्मश्रुधारी और जोर से बोलने वाले सर्वभक्षी लोगों का पैशाच धर्म प्रवर्तन किया। उस समय विध्य हिमालय के मध्य आर्यावर्त में आर्य वर्ण रहते थे और विध्यान्तर में वर्ण संकर । सिंधुपार, मुसलवन्त और तुष तथा बर्बर देशों में ईशामसी धर्मी रहते थे। उस काल में तीनों वर्गों में संस्कृत स्थापित रही किन्तु शूद्रों में प्राकृतीभाषा स्थापित हुई। -परमेश्वर सोलंकी तुलसी प्रज्ञा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम संवत् : ३६ ईसवी पूर्व D चन्द्रकान्त बाली "ज्योतिषियों का संवत् शककाल के ५८७ वर्ष पश्चात् आरंभ होता है । ब्रह्मगुप्तकृत खण्डखाद्यक – जो मुसलमानों में अल् अर्कन्द नाम से प्रसिद्ध है -- इसी संवत् पर अवलंबित है । " -- अबूरिहां अल्बैरूनी प्रकृत लेखक का यह निश्चित मत है कि भारत-संग्राम ३१४८ ई० पू० में हुआ था । उसका आकलन यह भी है कि आचार्य वराहमिहिर के कथनानुसार, भारतसंग्राम से २५२६ वर्ष पश्चात्, अर्थात् ६२२ ई०पू० से प्राचीन शककाल स्थापित हुआ था । परन्तु अपने एक कठोरधर्मा आलोचक ने हमारी इन दोनों स्थापनाओं को निरस्त करते हुए कहा है कि- " ३१४८ ई० पू० का संग्रामकाल सिद्ध नहीं, अभी साध्य कोटि का है । विद्वज्जनों ने उस पर प्रश्न चिह्न लटका रखा है । ३१३७ ई० पू० से २५२६ वर्ष बाद ६१९ ई० पू० का समय वृद्ध गर्ग का रचनाकाल है । " हम कभी अपने कठोरधर्मा आलोचक की मनमानी टिप्पणियों से विचलित नहीं हुए, प्रत्युत् अक्षय उत्साह से प्रेरित होकर अपने अनुसंधान - मार्ग पर चलते रहते हैं । हमें कदम-ब-कदम सफलताएं भी मिल रही हैं। इसी संदर्भ में हमारी एक उपलब्धि अधुना प्रासंगिक है हम गत १५ वर्षों से निरन्तर यह घोषणा कर रहे हैं कि ५८ ई० पू० से चलने वाला 'विक्रम संवत्' अपने आप में इकलौता विक्रम संवत् नहीं है, बल्कि उससे पूर्व और पश्चात् चलने वाले विक्रम संवत् भी विचाराधीन हैं । पूर्ववर्ती विक्रम संवत् ११६ ई० पू० का है; परवर्ती विक्रम संवत् ३६ / ३५ ई० पू० का है । वही विक्रम संवत् इस निबंध का प्रतिपाद्य विषय है । कृत संवत् प्रस्तुत 'विक्रम संवत्' का नाम शुरू-शुरू में 'कृत संवत्' नाम चरितार्थ हुआ । 'कृत संवत्' का क्या अर्थ है ? इसे ठीक ढंग से न समझ कर कुछ एक काल-विद् पंडितों ने अपनी-अपनी 'पतंगें' उड़ाई हैं । उज्जयिनी के प्रसिद्ध पंडित सूर्यनारायण व्यास ने 'कृत' का संबंध कार्तवीर्य से जोड़ते हुए विक्रमादित्य को पुराण- प्रसिद्ध राष्ट्र - वंशधरों से जोड़ा है । ठीक इसी तरह पंजाब के ख्यातनामा पं० भगवद्दत्त ने खण्ड २२, अंक ३ ५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कृत संवत्' का तात्पर्य महाराजा शूद्रक द्वारा स्थापित धर्म-शासन से लिया है । दोनों अर्थ गणितशास्त्र के विपरीत पड़ते हैं। गणित-शास्त्र के मुताबिक कृत=चार= ४ का ही ग्रहण होता है। 'कृत संवत्' का व्यावहारिक अर्थ है-मालव वंशधरों का चौथा संवत् । अर्थात् प्रस्तुत विक्रम संवत् से प्राग्वर्ती दो शतकों में तीन-तीन संवत्-गणनाएं स्थापित हो चुकी थीं। यथा १. साहसाङ्क संवत्-चन्द्रगुप्त मौर्य (द्वितीय) के पुत्र सिद्धसेन-साहसांक ने अपने नाम से 'साहसांक-संवत्' चलाया, जो १४६ ई० पू० से गिना जाता है । इसके प्रयोग अधिक संख्या में उपलब्ध नहीं हैं। २. विक्रम संवत् -सिद्धसेन साहसांक का पुत्र 'विक्रमार्क' ने अपने नाम से अलग से काल-गणना स्थापित की। यह संवत् ११६ ई० पू० से गिना जाता है । अनुभव में यह आया है कि ११६ ई०पू० के विक्रम संवत् के प्रयोग गिने चुने ही मिलते हैं; जबकि विक्रमार्क के मरणोपरान्त गणनाधीन 'संवत्.प्रयोग' ९४-ईसवी पूर्व से चले ढेरों की संख्या में मिलते हैं। जितने चाहो संग्रह कर लो। (स्रोत-हिमवन्त थेरावली) ३. विक्रम संवत् ५८ ई० पू०-विक्रमार्क के पौत्र 'विक्रम चरित' ने अपने नाम से संवत् अलग चलाया, जो ५८ ई० पू० से गिना जाता है और वह लोक प्रसिद्ध है। ४. विक्रम संवत् =कृत संवत् : ३६ ई० पू०-विक्रमचरित के पौत्र विक्रमादित्य ने ३६ ई० पू० से नया 'विक्रम संवत्' स्थापित किया। व्यावहारिक तौर पर यह मालव वंश का चौथा संवत् है । 'कृत-संवत्' का यही इतिहास मान्य अर्थ है। यहां प्रश्न होना स्वाभाविक है कि 'कृत संवत्' की गणना ३६ ई० पू० से प्रक्रियाधीन है-इसका क्या प्रमाण है ? प्रमाण है । हम बिना प्रमाण जुटाए बात करते ही नहीं । यथा--- ___"कृते हि ३००-३५-जरा (ज्येष्ठ) शुद्धस्य पंचदशी..." वर्णाला (जयपुर स्टेट) : विक्रमस्मृतिग्रंथ/५० उक्त संदर्भ में शुद्ध-ज्येष्ठ मास का उल्लेख है। प्रायः सभी शोध-कोविदों ने ३३५-५७=२७८ ईसवी सन् ठहराया है, जो नितान्त अशुद्ध है। ईसवी सन् २७८ में किसी अधिक मास की संभावना नहीं है । इसके विपरीत-२९९ ईसवी में श्रेष्ठ अधिक मास है। इससे यह सिद्ध होता है कि कृत संवत् ३६ ई० पू० से अस्तित्व में आया। भण्डारकर-सूचि में कृत संवत् के सभी प्रयोग इसी विधि से समन्वित होते हैं। अत: विक्रमादित्य द्वारा स्थापित 'विक्रम संवत्' पर विचार करके ही अनुसंधान करना चाहिए । मालव संवत् 'कृत संवत्' के पश्चात् और 'विक्रम संवत्' से पहले - अर्थात् मध्यान्तरवर्ती कुछ समय के लिए-इस काल-गणना का नाम 'मालव संवत्' प्रचलित रहा। हमें ... तुलसी प्रज्ञा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा प्रतीत हुआ कि कृत संवत् - मालव संवत् - विक्रम संवत् - यह नामावलि कड़ियों के रूप में सटी हुई है । उक्त मालववंश का मूल 'मौर्यवंश' है। चूंकि मौर्य वंश राष्ट्रीय सत्ता पर अधिकार किए हुए था, अतः उसे मालव भूमि पर अधिकार होने पर भी 'मालवेश' कहना उचित नहीं हैं । कुणालपुत्र सम्प्रति से यह वंश विधिपूर्वक 'मालवेश' था; परन्तु उसका मालवाधिपति होने पर भी किसी घटक (राजा) को 'मालवेश' किसी ने नहीं लिखा । परन्तु विक्रमचरित पोत्र विक्रमादित्य — को उसके आश्रित ज्योतिर्विद् कालिदास ने मालवेश लिखा है- इससे मालूम पड़ता है, 'मालव संवत्' नाम से प्रचलित कालगणना भी ३६ईसवी पूर्व से मान्य रही होगी । ब्रह्म संसद् यत्तोऽधुना कृतिरियं सति मालवेन्द्रे । श्री विक्रमाकर्क- नृपराजवरे समासीत् ॥ भारतीय नरेशों की यह परम्परा रही है कि उनके राजदरबार में कलाकारोंकवियों-गुणियों - पण्डितों का खासा जमावड़ा रहता था । संयोगवश ज्योतिर्विद् कालिदास 'विक्रमचरित' तथा 'विक्रमादित्य' की ब्रह्म संसद में वर्तमान था और दोनों पक्षों का स्पष्ट विवरण देते हुए कालिदास लिखता है १. विक्रम (चरित) - धन्वन्तरिः क्षपणकामरसिंह - शक्रः वेताल भट्ट-खटखर्पर- कालिदासाः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य || - ज्योतिर्विदाभरण; श्लोक ७ खण्ड २२, २. विक्रमादित्य - शक्रः सुवाग्वररुचिर्मणिरङ्गु दत्तः जिष्णुः त्रिलोचनहरी घट खर्पराख्यः । अन्येऽपि सन्ति कवयोऽमरसिंह पूर्वा यस्यैव विक्रमनृपस्य सभासदोऽभी ॥ - पूर्ववत् श्लोक ८ कितने नाम छूट गए, कितने नाम जुड़ गए - यह विश्लेषण कठिन नहीं है । अलबत्ता - -- ज्योतिविद् कालिदास उभय ब्रह्म संसद का घटक है; एक स्थान पर वह राजाश्रित ज्योतिर्विद् मात्र है; अन्यत्र वह राजाश्रय निवृत्त राजसखा है । उसने अपना समय कलि संवत् ३०६८ ३३ ईसवी पूर्व का बताया है । अथ प्रमाणीकरण अंक २ हमने प्रासंगिक 'विक्रम संवत्' ३६ ई० पू० से गणनाधीन माना है । हम इसे साक्ष्य से प्रमाणित करते हैं । - पूर्ववत्, १० Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमने भारत-संग्राम ३१४८ ई०पू० का स्थापित किया है। हम इस मान्यता पर स्थितप्रज्ञ हैं। परन्तु प्रमाणान्तर या प्रकारान्तर से उपस्थित मान्यताओं पर चर्चा करना शोध-सिद्धान्त के विपरीत नहीं पड़ता। हम जानते हैं, 'सुमतितंत्र' की गणना में 'भारत-संग्राम' ३१४९ ई० पू० में घटित हुआ था। हम उसी बिन्दु से गणनाविस्तार में उतरना चाहते हैं । यथा(१) भारत संग्राम ३१४९ ई.पू. (२) वराहमिहिर के मतानुसार २५२६ वर्ष पश्चात् वर्ष पश्चात् शककाल स्थापित हुआ ६२३ ई०पू० (३) प्रसिद्ध अरबयात्री अबूरिहां के कथनानुसार शककाल के ५८७ वर्ष पश्चात् विक्रम संवत् -५८७अस्तित्व में आया : ३६ ई०पू० अरब यात्री अबुरिहां के विरुद्ध कोई तर्कवादी अभी तक हमारी जानकारी में नहीं है । हम इस प्रमाण को अंतिम और अखण्डनीय प्रमाण मानते हैं। पहचान प्रस्तावित 'विक्रम संवत्' से प्राग्वर्ती दो विक्रम संवत् पहले से विद्यमान हैं। कालगणना की दौड़ में घावमान तीन-तीन विक्रम संवतों में ३६ ई०पू० की गणना की पहचान क्या है ? यह प्रश्न नितरां साम्प्रत नज़र आता है। पहले कुछ उदाहरण सामने रख लें, फिर परिचायक सिद्धान्त स्थिर करें। यथा १. श्री विक्रमार्क नृप राजवरे.. २. श्री विक्रमार्क नृप संसदि"" ३. श्री विक्रमः सोऽधिभूः ॥ ४. श्रीमद् विक्रम भूभुजः। ५. श्री विक्रमार्को नृपः ६. श्रीमद् विक्रम भूभृता" ७. श्री विक्रमार्कोऽवनिपः ८. सदा विक्रम मेदनी शे... (सभी संदर्भ 'ज्योतिविदाभरण' के हैं, अंतिमाध्याय ७-१८ श्लोक) ९. श्री विक्रमादित्य भूभृता १०. श्री विक्रमार्क नूप कालातीत... ११. विक्रम नप कालातीत" (भंडारकर सूची, क्रमांक ८०,१६९,२४०) १२. श्रीमतोऽवन्तिनाथस्य विक्रमस्य क्षितिशितुः । -शतपथ ब्राह्मण का टीकाकार 'हरिस्वामी' इन उदाहरणों को देख/पढ़कर यह निश्चित होता है कि विक्रम' "विक्रमादित्य' अथवा "विक्रमार्क' प्रभूति नामों के साथ-साथ 'नुप' 'भूभत्' 'मेदनीश' आदि विशेषणों को देखकर ३६-ईसवी पूर्व के "विक्रम संवत्' की पहचान सहज हो गई है। तुलसी प्रमा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार अब सोचना यह है कि 'गड़बड़' कहां हुई ? कैसे हुई ? सचाई यह है कि २२ वर्षीय अन्तराल पर दो-दो संवत् गणनाएं चल निकलीं। यथा १. विक्रमचरित : संवत् ५८-ईसवी पूर्व । २. विक्रमादित्य : संवत् ३६-ईसवी पूर्व । हुआ यह, 'विक्रमचरित' नाम केवल जैन-ग्रन्थों में रह गया; उसे अपदस्थ करते हुए 'विक्रमादित्य' का नाम जनमानस पर छा गया। 'विक्रम संवत्' की ५८ ई० पू० से चली आ रही गणना स्थिर रही; परन्तु स्थानान्तरण के कारण उसकी कालगणना३६-ईसवी पूर्व-सर्वथा लुप्त हो गई। ___ अधुना शोधकोविदों को नई उपलब्धि परोस दी है। इस काम को आगे बढ़ाना, हमने उनके खाते में लिख दिया है । इति । -पं० चन्द्रकांत बाली एन. डी,/२३ पीतमपुरा, देहली-११००३४ टिप्पणी लेखक का वाग्विलास पाठकों को रुचिकर और अनुसंधित्सुजनों को उत्प्रेरक होगा-इस आशा से यह लेख प्रकाशित है। हमारे दृष्टिकोण से 'विक्रम संवत्' के साथ ऐसी छेड़छाड़ अनावर्तक होनी चाहिए। विक्रम संवत् का शुभारंभ नक्षत्र विद्या के अनुसार भारतीय आकाश में नक्षत्रों की एक स्थिति विशेष का द्योतक है जिसका विवरण वायुपुराण (९९.४१३) भागवतपुराण (१२.३.२४) विष्णुपुराण (४.२४.१०२) और महाभारत (वन पर्व अध्याय-१९०) आदि में उपलब्ध है। -संपादक बंड २२, अंक ३ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेद और आगमकाल में पर्दा-प्रथा मुनि गुलाबचन्द्र निर्मोही' विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी-"ह्वेन आई वाज चाइल्ड"-पुस्तक में लिखा है-'पर्दे से लिपटी हुई औरत ऐसी लगती है मानो कोई जीवित कब्र चली जा रही हो।' इंगलैण्ड के महान् निबन्धकार श्री बेकन ने एक निबन्ध में लिखा है--'कपड़ों से ढका हुआ मुंह नारी जाति का सबसे बड़ा पतन है। लगता है कि ईश्वर के दरबार में उसने सबसे बड़ा पाप किया था जो आज मुंह छिपाकर चलना पड़ रहा है।' किपलिंग ने इस सम्बन्ध में अपनी व्यंग्यात्मक भाषा में कहा ---'नारी गृहस्थ जीवन में इतनी आलिप्त रहती है कि बेचारी को सूर्य देखना भी नसीब नहीं हैं।' पश्चिम के अन्य विचारक मिल्टन ने 'पैराडाइज लॉस्ट' में एक स्थान पर लिखा है-'पर्दे से तो अच्छा है कि नारी जाति चक्षुहीन ही पैदा हो ताकि देखने की भी आवश्यकता नहीं।' उक्त अभिमत पर्दे की अनुपादेयता को अविकल्पतः अभिव्यक्त करते हैं किन्तु एक ऐसा युग आया जिसमें नारीमात्र के लिए पर्दा अनिवार्य माना जाने लगा। इसका प्रारम्भ कब हुआ, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन होगा। एक अभिमत के अनुसार मुगलकाल से इसका प्रारम्भ माना जाता है किन्तु तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि मुगलकाल से पहले भी पर्दाप्रथा का प्रचलन रहा है।' महाकवि कालिदास के शब्दों में महर्षि कण्व के दो शिष्य शाङ्गधर और शारद्वत जब गौतमी के साथ शकुन्तला को लेकर राजा दुष्यन्त के पास जाते हैं तब दुष्यन्त शकुन्तला को लक्ष्य करके जिज्ञासा करता है केयमवगुंठनवती नातिपरिस्फुटशरीरलावण्या। __ मध्ये तपोधनानां किसलयमिव पाण्डुपत्राणाम् ॥ यहां अवगुंठनवती शब्द पर्दे वाली नारी के लिए प्रयुक्त हुआ है। अतः पर्दे का प्रचलन मुगलकाल से भी पूर्व रहा है-ऐसा मानने में किसी प्रकार का संकोच नहीं होना चाहिए। कालिदास से भी पूर्व इतिहास एवं सामाजिक परंपराओं का अध्ययन और अनुसंधान करते हुए जब हम आगम, त्रिपिटक एवं वेद के युग में पहुंचते हैं तब पर्दा-प्रथा के सम्बन्ध में भिन्न तथ्य प्राप्त होते हैं। वैदिक काल में पर्दा प्रथा के प्रचलन का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। उस समय खण्ड २२, अंक ३ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंवर की प्रथा थी । नारी को स्वतंत्रता थी कि वह स्वयंवर मंडप में किसी भी व्यक्ति का वरण कर सके । वेद वाक्य के अनुसार विवाह के समय उपस्थित लोग कन्या को देखते थे और उसे आशीर्वाद देते थे। उस समय की सामाजिक परिस्थिति के अनुसार स्त्रियां न्याय प्राप्त करने के लिए न्यायालय में भी जाती थी।' इस प्रकार अन्य अनेक सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि वैदिक काल में नारी के लिए पर्दा आवश्यक नहीं था । पाणिनि ने अपने संस्कृत व्याकरण में 'असूयं पश्या' शब्द का उल्लेख किया है । ' कुछ विद्वानों का मत है कि यह उस समय प्रचलित पर्दा प्रथा या उससे मिलती-जुलती किसी अन्य प्रथा का सूचक है । 'असूयं पश्या' शब्द का प्रयोग उस नारी के लिए होता था जो सूर्य के द्वारा भी नहीं देखी जा सकी हो । बहुधा यह शब्द राजा की रानी के लिए प्रयुक्त होता था । रामायण और महाभारत में भी ऐसे अनेक स्थल और सन्दर्भ प्राप्त होते हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि उस समय विशिष्ट कुल की नारियों का सामान्य जनता के बीच आना स्थल पर महर्षि वाल्मीकि ने अधिक उत्तम नहीं माना जाता था । कहा है- 'आज सड़क पर चलते हुए को देख रहे हैं जो पहले आकाशगामी प्राणियों के द्वारा भी नहीं वाल्मीकि ने एक अन्य स्थल पर कहा है कि में स्त्रियों का अदर्शन दोषकारक नहीं है ।" स्त्रियों को सभा कि पाणिनि एवं नारी वैदिक कालीन नारी की तरह सामान्य छोड़कर विचरण नहीं करती थी तथा राज्यनहीं देख पाते थे । महाभारत में कहा है कि प्राचीन काल में लोग विवाहित आदि में नहीं ले जाते थे । इन सन्दर्भों और तथ्यों से स्पष्ट होता है रामायण और महाभारत के काल में मनुष्यों के बीच कुछ विशेष अवसरों को परिवार की स्त्रियों को साधारण मनुष्य आगम एवं त्रिपिटक साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि उस समय नारी के लिए पर्दे का प्रचलन नहीं था । तथ्य यह है कि उस समय पुरुष अपने अन्तःपुर के सौन्दर्य पर गौरव अनुभव करता था और यदा-कदा उसका प्रदर्शन भी करता था ।" पुत्री के रूप भी नारी किसी व्यक्ति से पर्दा नहीं रखती थी एवं धर्म गुरु व साधुओं को भिक्षा देने आदि कार्यों में भी वह अन्य पारिवारिक व्यक्तियों के समान ही भाग लेती थी । " उस समय व्यक्ति-स्वातंत्र्य का सम्मान होता था । व्यक्ति की इच्छा और भावना का आदर किया जाता था । यही कारण है कि आगम और त्रिपिटक साहित्य में कन्या के विवाह के विषय में आग्रह सूचक नियमों का सर्वथा अभाव है । ऐसी कन्याओं के माता-पिता जो अपनी पुत्री का विवाह करने में असमर्थ रहते थे धार्मिक दृष्टि से भयभीत नहीं हुआ करते थे । कन्याएं भी विवाह करने या न करने के विषय में अपने को स्वतंत्र समझती थी तथा आजीवन अविवाहित रहने में भी किसी प्रकार के सामाजिक आक्षेप का अनुभव नहीं करती थी । " विवाह योग्य पुत्री भी अपने प्रस्तावित पति के सम्मुख किसी प्रकार के पर्दे के बिना ही अपना अभिमत व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र थी । उस समय पुत्री से उसके १२ 'तुलसी प्रज्ञा रामायण में एक लोग उस सीता देखी गई थी । विपत्ति, युद्ध, स्वयंवर, यज्ञ तथा विवाह Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह की स्वीकृति प्राप्त करने का प्रचलन भी हो चुका था। सुमेधा का प्रस्तावित पति राजा 'अनिकरत्त' स्वयं उससे विवाह की स्वीकृति लेने गया था। उस समय कभी-कभी ऐसा भी होता था कि माता-पिता के अत्यधिक अनुरोध के बावजूद भी कन्याएं विवाह सम्बन्धी प्रस्ताव को दृढ़ता पूर्वक अस्वीकार कर प्रवजित हो जाया करती थीं। आगम साहित्य के आधार पर एक और तथ्य भी स्पष्ट होता है कि उस समय विवाह योग्य अवस्था को प्राप्त कन्याओं का भी दर्शन जन-साधारण के लिए सुलभ था। उस समय की सामाजिक परम्परा के अनुसार पोटिला", देवदत्ता आदि कन्याओं का विवाह वय प्राप्त होने पर घर की छत पर गेन्द खेलने का उल्लेख प्राप्त होता है। तथा यौवनावस्था को अप्राप्त सोमा" आदि कन्याओं का राजपथ पर गेंद खेलने का उल्लेख प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट होता है कि यौवनावस्था को प्राप्त कर लेने के उपरान्त कन्याएं घर के बाहर कम जाती थीं। तात्पर्य की भाषा में आगमकालीन समाज में जन-साधारण में पुत्री का दर्शन उसके हित में अनुचित नहीं माना जाता था। वास्तविकता यह है कि कन्याओं के लिए पर्दे का प्रचलन तब तक भारत में कभी नहीं रहा। उस समय की स्थिति के अनुसार जब नारी पुत्र-वधू के रूप में गृह-जीवन में प्रवेश करती थी, तब भी पर्दे का प्रयोग नहीं करती थी। इसका मुख्य कारण यह था कि उस समय पुत्र-वधू के रूप में नारी के जो कर्त्तव्य थे, उनका पालन पर्दै में रहकर नहीं किया जा सकता था। इसके अतिरिक्त श्वसुर आदि अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के सम्मुख नारी आवश्कतानुसार उपस्थित होती थी और उनसे वार्तालाप भी करती थी। सुजाता पुत्र-वधू के रूप में बुद्ध के सम्मुख उपस्थित हुई थी।" ऋषिदासी के श्वसुर ने स्वयं उससे अपने पुत्र की विरक्ति का कारण पूछा था।" धन्ना सार्थवाह द्वारा अपने ज्ञाति एवं मित्रजनों के समुख अपनी पुत्रवधुओं को शालिकण देने की कहानी तो जैन-परम्परा में अत्यन्त विश्रुत है। इतना अवश्य था कि पुत्र-वधुएं अपने श्वसुर आदि विशिष्ट व्यक्तियों के समक्ष उपस्थिति में बहुत ही संयत होती थी। .. आगमकालीन युग में पुत्र-वधू की अपेक्षा ग्रह-स्वामिनी के रूप में नारी अधिकारों की दृष्टि से अधिक सम्पन्न होती थी। अतः उस स्थिति में उसके लिए पर्दे की आवश्यकता ही प्रतीति नहीं होती थी। गृहकार्यों के संचालन का नेतृत्व गृह-स्वामिनी करती थी, अतः समय-समय पर उसका अनेक सामाजिक व्यक्तियों से सम्पर्क होता रहता था। पति की आज्ञा से धर्म-गुरुओं के दर्शनों के लिए भी वह अकेली चली जाया करती थी।" माता के रूप में नारी को आवश्यकतावश कहीं भी जाने की स्वतंत्रता थी। उदान के अनुसार मृगार माता अकेली ही मध्याह्न में बुद्ध के पास गई थी।" थावच्चा भी अपने पुत्र की प्रव्रज्या के प्रसंग में कृष्ण के पास गई थी।" नायाधम्मकहाओ में प्राप्त कुछ संकेतों के आधार पर कुछ विद्वान् यह अंदाज खण्ड २२, अंक ३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगाते हैं कि उस समय पर्दे का प्रचलन था किन्तु आगमकालीन युग के उन सन्दर्भो का पूर्वापर प्रसंग के साथ सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषण किया जाए तो वास्तविकता सहज ही प्रकट हो जाती हैं। नायाधम्मकहाओ के एक प्रसंग के अनुसार महारानी धारिणी द्वारा देखे गए स्वप्नों का फल जानने के लिए स्वप्न-पाठकों को आमंत्रित किया जाता है। स्वप्न पाठकों द्वारा स्वप्न फल बताने के समय जब महारानी राज्यसभा में उपस्थित होती है तो उसके आसन के सामने एक यवनिका लगा दी जाती है।" महारानी उस यवनिका की ओट में बैठकर स्वप्न-फल के तथ्यों का ज्ञान करती है । यवनिका मात्र को पर्दे का प्रतीक मान लेना व्यावहारिक नहीं होगा। क्योंकि राज्यसभा की मानमर्यादा और शिष्टता के पालन के लिए उसका प्रयोग किया जाता था। उस समय राज्यसभा में स्त्रियों की उपस्थिति नहीं होती थी। अतः उस मर्यादा का पालन करने के लिए यवनिका को काम में लिया जाता था। एक अन्य प्रसंग के अनुसार किसी नारी विशेष के वस्त्रों के लिए नाक की हवा से उड़ने का कथन है । इनको पर्दे का प्रतीक मान लिया गया है। क्योंकि पर्दा मुख पर रहता है और जब श्वास लिया अथवा छोड़ा जाता है, तब वह हिलता है। नासिका की हवा से कपड़े के हिलने मात्र से उसे पर्दे का प्रचलन मानना वास्तविकता नहीं होगी। उक्त सन्दर्भ में वस्त्र के लिए नाक से उड़ने का कथन एक साहित्यिक विशेषण है जो उसकी गरिमा को व्यक्त करता है। इस प्रकार के कुछ अन्य प्रसंग भी हो सकते हैं किन्तु यदि उनके मूल संदर्भ को खोजा जाए तो वास्तविकता का सम्यग् बोध हो सकता है। अतः यह मानने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि आगमकालीन युग में स्त्रियां पर्दे का प्रयोग नहीं करती थी। सन्दर्भ : 8. The position of women in Hindu civilization p. 166 २. अभिज्ञान शाकुन्तलम् ५।१४ ३. Vedic Index 1.474 ४. ऋग्वेद संहिता १०८५।३३ : सुमंगलीरियं वधूरिमा समेत पश्यत । सौभाग्यमस्यदत्वायाऽथास्तंवि परतेन ॥ __ -अथर्ववेद संहिता २।३६।१, १४।१११२१ ५. निरुक्त ३।५१ : तं तत्र या पुत्रा यापतिका सारो हति। तां तत्राक्षराहघ्नन्ति सा रिक्थं लभते। ६. पाणिनि व्याकरण ३।२।३६ ७. वाल्मीकि रामायण २।३३।८ : या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि । तामद्य सीतां पश्यन्ति राजमार्गगताः जनाः ।। तुलसी प्रज्ञा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. वही, ६।११७।२७: भ्यसनेषु न कृच्छणु न युद्धेषु स्वयंवरे । न क्रतो न विवाहे च दर्शनं दुष्यन्ति स्त्रियः ।। ९. महाभारत २०६९।९ : धयां स्त्रियं सभां पूर्व न नयन्तीति नः श्रुतम् । स नष्टः कौरवेषु पूर्वो धर्मः सनातनः ।। १०. नाया धम्मकहाओ ११८ : तं अत्थियाइं ते कस्सइ रन्नो वा जाव एरिसए ओरोहे दिट्ठ पुव्वे जारिसए णं इमे मयं आरोहे-विदेहवररायकन्नाए छिन्नस वि पायंगुट्ठस्स इमे दव ओरोहे समसहस्सइमंपि कलं न अग्घइ ।-तए णं से जियसत्तू दूयं सद्यावेइ ---जइ वि य णं सा सयं रज्जसुंका। ११. परमत्थदीपिनी (थेरगाथाकी अट्ठ कथा, बर्मी लिपि), पृ० ४६१ १२. Women under primitive Budhism p. 25 A woman no longer felt bound to marry to save herself respect and that of her family but, on the contrary found that she could honourably remain unmarried without running the gaug plank of public scorn. १३. थेरीगाथा १६१८१४ : ........"अनीकरत्तो च आरुही तुरितं । मणिकनकभूसितङ्गो कतञ्जली याचति सुमधं ॥ १४. थेरीगाथा १६।११४६७ : अथ ते भणति सुमेधा मा एदिसिकानि भवगतमसारं । पव्वज्जा वा होहिति मरणं वा मे न चेव वारेय्यं ॥ १५. णायाधम्मकहाओ १।१४।८ : तए णं सा पोट्टिला दारिया अण्णया कयाइ व्हाया सव्वालंकार विभूसिया चेडियाचक्कवाल-संपरिवुडा उप्पि पासायवरगया आगासत लगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी-कीलमाणी विहरइ । १६. विपाक १२९।३४ : तए णं सा देवदत्ता दारिया अण्णया कया हायाइ जाव विभूसिया बहूहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ता उप्पि आगासतलगंसि कणगतिदूसएणं कीलमाणी विहरइ । १७. अन्तगसदसाओ ३८६४२ : तए णं सा सीमा दारिया अण्णया कयाइ विभूसिया बहूहिं खुज्जाहिं महत्तरविंद-परिक्खित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायमगो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायमगंसि कणगतिंदूसएणं कीलमाणी चिट्ठइ । १८. अंगुत्तरनिकाय २।३०३; थेरीगाथा १५।२।४१०-४१४ १९. अंगुत्तर निकाय ३।२२३ : "एवं भंते' ति खो सुजाता घरसुण्हा भगवतो पटिस्सुत्व येन भगवा तेनुपसंकमि। चण्ड २२, अंक ३ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. थेरीगाथा १५३१४१९: तस्स वचनं सुणित्वा, सस्सु ससुरो च में अपुच्छिसु । किस्स तया अपरद्धं, भण विस्सट्ठा यथाभूतं । २१. उवासगदसा-१ : तए णं सिवणंदा--कोडुंबियपुरिसे—खिप्पामेव लहुकरण पज्जुवासइ। २२. उदान २।९ : अथ खो विसाखा मिगारमाता दिवा दिवस येन भगवा तेनुपसंकमि। २३. नायाधम्मकहाओ १।५।२० : तए णं सा थावच्चा आसणाओ अम्भुढेइ, अब्भुठेत्ता महत्थं महग्धं महरिहं शयारिहं पाहुंड गेण्हइ, गेण्हित्ता मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणेणं सद्धि संपरिवुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवर-पडिदुवार देसभाए तेणेव उवागच्छइ। २४. नायाधम्मकहाओ १।१।२५ : अभितरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता अत्थरग मउअ-मसूरग-उत्थइयं धवल-वत्थ-पच्चुत्थुयं विसिट्ठ-अंगसुह फासयं सुमइयं धारिणीए देवीए भद्दासणं रमावेइ। २५. नायाधम्मकहाओ १२११३३ :...."नासा-नीसासवाय-वोझ...। तुलसी प्रमा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकम् १. वद्धि नवकार मंत्रकल्प -परमेश्वर सोलंकी २. नक्षत्र-भोजन के मांसपरक शब्दों का अर्थ -मुनि श्रीचंद 'कमल' -झूमरमल बंगाणी ३. णमोसिद्धाणं : नाद सौन्दर्य -जयचन्द्र शर्मा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्धि नवकार मंत्र कल्प - अखिल भारतीय श्री जैन श्वेतांबर खरतरगच्छ महासंघ, नई दिल्ली के मुखपत्र -ज्योति संदेश वार्ता (४.९) अंक में यति गौतमचन्द्र , बालोतरा (बाड़मेर) ने "णमुत्थुणं के मंत्र"-शीर्षक से कतिपय मंत्र प्रकाशित किए हैं । इन मंत्रों में प्रथम के नौ मंत्र वृद्धि नवकार मंत्रकल्प के हैं जिसकी एक प्रतिलिपि (लगभग १८वीं सदी विक्रमी उत्तरार्द्ध की ग्रंथलिपि में लिखी) वर्द्धमान ग्रंथागार में उपलब्ध है । उसके अनुसार मंत्रों का मूलपाठ निम्न प्रकार से है १. ॥ॐ नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं आइगराणं तित्थगराणं __ॐ ह्रीं ह्रीं हूँ ह्रः स्वाहाः ।। २. ॥ॐ नमो सयं संबुद्धाणं ह्रीं भ्रों स्वाहाः ।। ३. ॥ॐ ह्रीं पुरिसोत्तमाणं अणलियपोरुसाणं अह्र असि आउसाहु नमः॥ ४ ॥ॐ ह्रीं नमो अरिहंताणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरियाणं . पुरिसवरगंधहत्थाणं ॐ ह्री ग्रां स्वाहाः ।। ५. ।।ॐ ह्रीं नमो जिणाणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपइवाणं लोगजोयराणं मम शुभाशुभं दर्शय दर्शय कर्णपिशाची स्वाहाः। ६. ॥ॐ नमो अरिहंताणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाणं ऐ ही सर्व भयं निद्राणायै नमः ।। ७. ।।ॐ नमो बोहिदयाणं धम्मदेसियाणं धम्म देसियाणं अरिहंताणं ॐ नमो भगवइए देवयाए सव्व सुयभायाए बार संगजणणिए " अरिहंत सिद्धरीए भवीं क्ष्वीं स्वाहाः ।।। ८. ॥ॐ ह्रीं नमो अरिहंताणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंत चक्कवट्टीणं मम परमऐश्वर्यं कुरु कुरु स्वाहाः ।। ॐ ह्रीं हंसः स्वाहाः। ९. ॥ॐ नमो अरिहंताणं अप्पडिययवर नाणदंसणधराणं वियट्ट छउमाणं ऐ स्वाहाः ॥ इस मूलपाठ में किंचित् अन्तर है। यति गौतमचन्द्र ने अपने मंत्रपाठ का कोई संदर्भ नहीं दिया है किन्तु उनके मंत्रपाठ में जाप आदि का जो विधान बताया गया है वह प्रायः वृद्धि नवकार मंत्रकल्प के विधान से मेल खाता है। खंड २२, अंक ३ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. यति गौतमचन्द्र ने तीन मंत्रों का पाठ और मुद्रित कराया है जो इस प्रकार है १. ॐ नमो जिणाणं जावयाणं केवलिजिणणं परमोहिजिणणं सर्व रोष प्रशमिनी जंभिणि स्तंभणि मोहिनि स्वाहा ।। २. ॐ नमो अरहंताणं तिन्नाणं तारयाणं अy स्वाहा ॥ ३. ॐ नमो अरहंताणं बुद्धाणं बोहिआणं स्वाहा ॥ -ये तीनों मंत्र वृद्धि नवकार मंत्रकल्प के नहीं हैं; किन्तु ये मंत्र 'शक स्ववामनाय शुचिनाधेय' के हस्तलेख में मिलते हैं। उस हस्तलेख में ये इस प्रकार लिखे हैं १. ॐ नमो जिणाणं जवियाणं केवलिजिणाणं परमोहिजिणाणं सर्वरोषप्रसमि नि जंभिणि स्तंभि मोहिनी स्वाहाः ॥ २. ॐ नमो अरूहंताणं तिन्नाणं तारयाणं क्ष्य» स्वाहाः ॥ ३. ॐ नमोऽरिहं ताणं बूधाणं बोहीयाणं स्वाहाः ।। ३. 'शक स्ववामनाय शुचिनाधेय' के हस्तलेख का मूलपाठ निम्न प्रकार श्री गोतमाय नमः ॐ नमो भगवो गोयमस्स सिद्धस्स बूधस्स अक्खीण महाणसीलद्धिस ह्रीं अवजर २ आनय २ मनोवांछितार्थ कुरु कुरु स्वाहा । पाठो तंदुलान् समभिमंत्र्य यंत्र क्षिप्यते तन्न हीयते सर्वथा वर्धते चः छः। ॐ नमो भगवो गोयमस्स सिद्धस्स वुस्स (?) अषीण महांणस्स भगवन् भास्कारांश्रिय ह्रीं न्मः । ॐ नमो भगवो गोयमस्स गणहारिस्स अषीणमहाणस्स सव्वाणं बत्थणं अखीण महाणसिया लद्धीहवउम स्वाहा ।। प्रीतरूपं योगवेलाया विहरणवेलायं चितनीयं स्मरणीयं वा वार २१ मंत्राभिमंत्रणं देयं वस्तु अभिमंत्रदीयं ॐ ह्रीं बाय बुधाणं संभिन्नसोयाणं अखीण हा गोयमाणं सव्वलद्धीणं स्वाहा वार १०८ वा वल १०० जपी राषीजे जे वस्तुमेमु कीजै अष्टः ।।श्री।। _ ॐ नमो जिणाणं जावियाणं केवलिजिणाणं परमोहिजिणाणं सर्व रोषप्रसमिनि जंभिनि स्तंभि मोहिनी स्वाहाः ॥ पाठ मंत्र लिखित्वा जापो १०८ दीयते तत्काले वस्तु खंडं मयुरशिखा संयुत्तं पतिजाय वामपाव ध्रियतेरा जावस्यो भवति । ॐ नमो अरुहंताणं तिन्नाणं तारयाणं म्यूँ स्वाहा। जाप १०८ तु संकटादारण्या ज्जुलपूर प्लना चनिस्तारयति । ॐ नमोऽरिहंताणं बूधाणं वोहीयाणं स्वाहा । जाप षण्मासान् यावत् काकेष्वनुनुत्थितिष्ठेकाग्र मनसा जाप १०८ स्वपरमया स्वार्थे वेदित्वं पर पूर्णासुक्लाः श्चित्यां ।।१२।। ॐ नमो जिणाणं मुत्ताणं मोयगाणं म्ल्यूँ स्वाहा असि आउसा नमः १०८ -बंदि मोक्ष कुरु कुरु स्वाहा रात्रौदिवा सहश्रत्द्वंदिमो ॥१३॥ ॐ नमो सवन्नणं सव्वदरिसिणं अमुग समम वानाणाइ सयं कुरु कुरु ह्रींसः १०८ प्रत्यहं जाप प्रतिज्ञा ज्ञानातिशयाय कल्पते ।।१४।। तुलसी प्रज्ञा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमोऽरिहंताणं सिवमयलमरुयमणंतमक्खय मव्वा वाह मयुण रावति सिधिगइ नामधेयं गणं संयत्ताणं मम शांति निरुपाद्रव्यं निर्भयं कुरु कुरु स्वाहा ।। श्री पादिक्षीरभरु फलकेथीले वा श्रीखंडद्रवेणकरपूरामिश्रेण मंत्र लिखिलयुष्पसंपुज्य जाप १०८ उत्पन्नो पइ वश्यं शांति भवति दिन ७ वार २१॥ कर्तव्य ।।१५।। ॐ नमो जिणाणं जियभयाणं कि त्रणेण सव्व भयाइ उवसम तु ह्रीं स्वाहा कुंकुंमगोरोचनादिद्रव्यै भूर्जे लिखित्वा कन्या सूत्रेण वंट्यमणी कृत परिधपास लीला नलादि सर्वभय रक्ष भवति ॥१६॥ इति शक्र स्व वामनाय शुचिनाधेय संपूर्ण । -परमेश्वर सोलंकी पण्ड २२, बंक ३ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खगोल विद्या नक्षत्र-भोजन के माँसपरक शब्दों का अर्थ मुनिश्री श्रीचंद 'कमल' - झूमरमल बैंगानी ब्रह्माण्ड जितना हम देखते हैं या देख सकते हैं उतना ही नहीं है। यह अति विशाल ब्रह्माण्ड तारों से भरा है। बिना दूरबीन की सहायता के करीबन छः हजार तारे देखे गए हैं। दूरबीन के आगे वाला लैंस का व्यास १ इन्च हो तो एक लाख तारे देखे जा सकते हैं और अगर दूरबीन के लैंस का व्यास १० इन्च का हो तो पचास लाख तारे गिने जा सकते हैं। ___वर्तमानकाल में सबसे बड़ी ज्योतिष संबंधी वेधशाला मौण्ट विलसन पर है, जिसमें सबसे बड़ा दूरवीक्षण (१०० इन्च लैस वाला) है । इस यंत्र के द्वारा आकाश में आठ सौ चौरासी महाशंख मील (८४०००००००००००००००००००) दूरी के पदार्थ दिखलाई देते हैं। जो तारा पृथ्वी के सबसे अधिक निकट है, उसकी दूरी ७६ अरब मील है और जो तारा हमारे सबसे निकट है उसका प्रकाश हमारे पास आने में ४३ वर्ष लगते हैं । प्रकाश एक सैकड में १८६७७२ मील चलता है। जैसा हमारा सूर्य है ऐसे ही इन तारों में भी बहुत से सूर्य हैं और उनके चारों ओर तारे घूमते हैं जो अत्यन्त दूर होने से केवल तारों के समान दिखाई देते हैं । नक्षत्र आकाश में एक ही स्थान पर अनेक तारे एकत्रित होकर जो आकाश बनाते हैं उसे नक्षत्र कहते हैं। नक्षत्र २७ हैं-अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्व फाल्गुनी, उत्तर फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा, रेवति । इनके अलावा आकाश में एक नक्षत्र और दिखलाई देता है उसका नाम अभिजित् है । ज्योतिष के कई आचार्य मानते हैं कि उत्तराषाढा नक्षत्र की १५ घड़ियां और श्रवण नक्षत्र की चार घड़ियां-कुल १९ घड़ियां अभिजित् नक्षत्र का कालमान है। खण्ड २२, बंक ३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ا س س م م س م ه س م م ع ه नक्षत्रों का आकार उपरोक्त नक्षत्रों के तारे और उनसे बनने वाले आकार इस प्रकार हैनक्षत्र व तारों की संख्या आकार जो बनता है १. अश्विनी घोड़े के मुख के समान २. भरणी योनि के समान ३. कृत्तिका छुरे के समान ४. रोहिणी गाड़ी के समान ५. मृगशिरा हरिण के मुख के समान ६. आर्दा मणि के समान ७. पुनर्वसु गृह के समान ८. पुष्य वाण के समान ९. अश्लेषा चक्र के समान १०. मघा भवन के समान ११. पूर्वफाल्गुनी चारपाई के समान १२. उत्तरफाल्गुनी शय्या के समान १३. हस्त हाथ के समान १४. चित्रा मोती के समान १५. स्वाति मूंगा के समान १६. विशाखा तोरण (फाटक) के समान १७. अनुराधा भात की बलि के समान १८. ज्येष्ठा कुण्डल के समान १९. मूल सिंह पुच्छ के समान २०. पूर्वाषाढा हाथी दांत के समान २१. उत्तराषाढा मञ्च के समान २२. अभिजित् त्रिकोण के समान २३. श्रवण वामन रूप तीन चरणों के समान २४. धनिष्ठा मृदङ्ग के समान २५. शतभिषग् वृत्त के समान २६. पूर्वभाद्रपदा मंच के समान २७. उत्तरभाद्रपदा जुड़े हुए दो बालकों के समान २८. रेवती मृदङ्ग के समान م مه » » سه مه م س س س و و س س ہے तुलसी प्रज्ञा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवनी (बारा) अपमुखमम भरणी (तारा) योनिसाश. कतिका । ६ तारा ) सुरसरश रोहिणी (१ तारे Neeraार मृगशिर (तारा) हरिजमुखमदत भाई (१ )मलियन | पुनर्वस ( ५ नारा ) गृहमाल (नारा) Aणकार mun de पा(५ तार) साकार महास) बनाम - - पण २२, अंक ३ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १० F पुतारा ) मज ९४ १३ 2 ● * *** हस्त ( १ तारा ) हस्तसरा चित्रा (१ तारा) मुक्राकार स्वाती ( १ तारा ) विदुम RE PO 榮 देवा (तारा) बहिद्वारमा को बलिस TE 20 ........ १२ नुराधा ( ४ तारा ) भा शतभिषा (100शारे ) कृष सदस " उत्तराकानी (४ लाग) राज्य : महश 000 (तारा) अविजित (साथ) त्रिकोश वासबाबत के दर भ उत्तराभाद्रपदा ( २ तारा ) यमलसदृश मन ( तारा सिंह (पूर्वाषाढा (१ तारा) गजदन्त उत्तराषाढा (तारा) मञ्च 32 arto at ज्येष्ठा ( ३ तारा ) कुण्डलाकर *. २१ पूर्वाभाद्रपदा ( २ बारा • उर्मिला (७ तारा ) हृद संस, दूसरे भत से (११४ सात प्रक्रियों में * • • • • " • 1 • • . रेवती (३२ तारा ) मृदङ्गलवश • मासरश ★ तुलसी प्रशा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान स्थिति राजस्थान राज्य के किसी भी स्थान से देखने पर पुनर्वसु, मृगशिरा, आर्द्रा, ज्येष्ठा, अनुराधा, हस्त, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा और मूल इन नक्षत्रों के तारे आकाश में दक्षिण दिशा की ओर दिखलाई देते हैं। ___ कृत्तिका, रोहिणी, पुष्य, चित्रा, अश्लेषा, रेवती, शतभिषग्, धनिष्ठा और श्रवण ये नौ नक्षत्र आकाश के मध्य भाग में दिखलाई देते हैं। अश्विनी, भरणी, स्वाति, विशाखा, पूर्वफाल्गुनी, उत्तरफाल्गुनी, मघा, पूर्वभाद्रपदा, उत्तरभाद्रपदा ये नौ नक्षत्र उत्तर में दिखलाई देते हैं। नामकरण ज्योतिष शास्त्र में नक्षत्रों का प्रमुख स्थान है । जिस समय जातक का जन्म होता है उस समय के नक्षत्र के आधार पर नामकरण, राशि और महादशा का निर्धारण किया जाता है । इसके लिए नक्षत्रों के साथ अक्षर जुड़े हुए हैंचूचे चो ला अश्विनी ली ल ले लो भरणी आ ई उ ए कृत्तिका ओ वा वी व रोहिणी वे वो क की मृगशिरा आद्रों के को ह ही पुनर्वसु पुष्य अश्लेषा मघा पूर्व फाल्गुनी उत्तरफाल्गुनी डी डू डे डो मा मी मू मे मो टा टी टू टे टोप पी पू ष ण ठ पे पो रा री रू रे रो ता ती तू ते तो ना नीन ने नो या यी यु ये यो भा भी भूधा फा ढा भे भो जा जी खी खू खे खो गा गी गूगे गो सा सी सू से सो द दी दू थ झन . दे दो च ची 14 चित्रा स्वाति विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मूला पूर्वाषाढा उत्तराषाढा श्रवण धनिष्ठा शतभिषग पूर्वभाद्रपदा उत्तरभाद्रपदा रेवती बंद.२२, अंक ३ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहों के जन्म नक्षत्र सामान्य जातक की तरह ग्रहों के भी जन्म नक्षत्र हैं । यम्यचित्रोत्तराषाढा धनिष्ठोत्तरफाल्गुनी, ऐन्द्रपीष्येऽर्क वारादिकदिग्रह रोहो स्तु भरणीज्ञेया केतोः सार्धं जन्मतिथी तु म शुभकर्म शुभग्रहाणां जन्मक्ष शुभकर्म पापग्रहाणां जन्मर्क्ष शुभं जन्मम् ॥ तथैव च शुभावहम्, चाप्यशुभं भवेत् ॥ सूर्य का भरणी नक्षत्र, चन्द्रमा का चित्रा, मंगल का उत्तराषाढा, बुध का धनिष्ठा, बृहस्पति का उत्तरफाल्गुनी, शुक्र का ज्येष्ठा, शनि का रेवती, राहु का भरणी केतु का अश्लेषा जन्म नक्षत्र हैं । ग्रहों की जन्मतिथि तथा जन्मनक्षत्र में शुभ कार्य वर्जित है । शुभग्रहों के जन्मनक्षत्रों में शुभकर्म फलदायक होता है । पापग्रहों के जन्म नक्षत्र में शुभ कर्म भी अशुभ हो जाता है । नक्षत्र वृक्ष विवर्जयेत् ॥ वृक्षों में कुछ वृक्ष नक्षत्रों से संबंधित होते हैं । जातक का जन्म जिस नक्षत्र में होता है उस जातक को उस नक्षत्र वृक्ष को दवा आदि में प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि वैद्य यदि उस वृक्ष संबंधी कोई दवा दे भी तो वह उसके लिए लाभप्रद नहीं होती। आयुर्वेद में कहा गया है विषद्रु धात्रीतरु हेमदुग्धा जम्बूस्तथा खदिरकृष्णवंशाः, अश्वत्थनागौ च वटः पलाश: प्लक्षस्तथाऽम्बष्ठतरुः क्रमेण ॥ ४२ ॥ विल्वार्जुनौ चैव विककंतोऽथसकेसराः शम्बर सर्जवञ्जु लाः । सपानसार्काश्च शमीकदम्बास्तथाऽऽम्रनिम्बी, मधुकद्रुमः क्रमात् ॥ ४३ ॥ अमी नक्षत्र देवत्या वृक्षाः स्युः सप्तविंशतिः, अश्विन्यादि क्रमादेषामेषा नक्षत्र पद्धतिः यस्त्वेतेषामात्मजन्मर्क्ष भाजां मर्त्यः कुर्याद्भेषजादीन् मदान्धः ॥ तस्यायुष्यं श्रीकलत्रञ्च पुत्रो नश्यत्येषा वर्द्धते वर्द्धनाद्यैः ॥ ४५ ॥ (राजनिघंटु धरण्यादि वर्ग श्लोक ४२ से ४५ ) १. विषद्र (विष तन्दुक) (२) धात्री ( आंवला) ३. तरु (वृक्ष) ४. हेम दुग्धा ( औदुम्बर वृक्ष ) ५. जम्बू ६. खदिर ७. कृष्णवंशा ( कालावास ) ८. अश्वत्थ ( पीपल) ९. नाग ( नागकेसर वृक्ष ) १० वट ११ ( अम्बष्ठा) १४. विल्व १५. अर्जुन वृक्ष ( नागकेशर ) १८. शम्बर (अर्जुन) २१. सपानस ( निचुल) २२. अर्क २६. निम्बू २७. मधुक (महुआ ) ये सब क्रमश: अश्विनी आदि यही नक्षत्रों की पद्धति है । जो मदान्ध अपने जन्मनक्षत्र वाले पलाश १२. प्लक्ष ( पकडी ) १३. अम्बष्ठ तरु १६. विकंकत ( कटाई - रामवबूर ) १७. सकेशर १९. सर्ज ( राजवृक्ष) २०. वञ्जुल (बैत) (मदार ) २३. शमी २४. कदम्ब २५. आम नक्षत्रों के देव वृक्ष हैं । वृक्षों का औषध आदि तुलसी प्रशा १२ ॥४४॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं उसकी आयु लक्ष्मी, स्त्री तथा पुत्र नष्ट हो जाते हैं और अपने जन्मनक्षत्र के वृक्षों के बढ़ाने और पालन करने से आयु आदि की वृद्धि होती है। प्रसिद्ध वैद्यों के कहे हुए औषधों के उपयोग को जानकर भी जन्म नक्षत्र के वृक्षों का प्रयोग न करे । नक्षत्रों को संज्ञा स्वादि, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषग् इन पाच नक्षत्रों की घर अथवा चल संज्ञा होती है । मघा, भरणी और तीनों पूर्वा इन पांच नक्षत्रों की क्रूर अथवा उम्र संज्ञा होती है । रोहणी और तीन उत्तरा इन चार नक्षत्रों की स्थिर और ध्रुव संज्ञा होती है । मूल, अश्लेषा, ज्येष्ठा और आर्द्रा इन चार नक्षत्रों की दारुण अथवा तीक्ष्ण संज्ञा होती है । पुष्य, हस्त, अश्विनी और अभिजित इन चार नक्षत्रों की लघु अथवा क्षिप्र संज्ञा होती है । रेवती, मृगशिरा, चित्रा और अनुराधा इन चार नक्षत्रों की मृदु अथवा मित्र संज्ञा होती है । विशाखा और कृत्तिका इन दो नक्षत्रों की मिश्र या साधारण संज्ञा होती है । जो नक्षत्र जिस संज्ञा के होते हैं उनमें वैसा कार्य करने से सिद्धि होती है । जैसे चर अथवा लघु संज्ञा वाले नक्षत्रों में प्रयाण, विद्यारंभ करने से लाभ होता है । उग्र, स्थिर और मित्र संज्ञा वाले नक्षत्रों में मांगलिक, अभिषेक या आराम आदि शांतिमय कार्य किए जाते हैं । यात्रा मुहूर्त सिद्धियोग, अमृत सिद्धियोग, सर्वार्थसिद्धियोग, मृत्युयोग, ज्वालामुखीयोग, यमघंटयोग, उत्पातयोग, कुमारयोग, राजयोग, स्थिरयोग, रवियोग आदि अनेक योग, तिथि, वार और नक्षत्र इन तीनों के योग से बनते हैं, कोई योग इनमें से दो के योग से बनते हैं, ये योग मुहूर्ती में काम आते हैं । तप मुहूर्त, लोच मुहूर्त, विद्याभ्यास मुहूर्त, यात्रा मुहूर्त, वस्त्रधारण मुहूर्त, अनशन मुहूर्त्त, गृहप्रवेश मुहूर्त, मंत्रसाधन मुहूर्त, भूमि पूजन मुहूर्त, प्रतिष्ठा मुहूर्त, शान्तिपौष्टिक मुहूर्त्त आदि अनेक मुहूतों नक्षत्र का विशेष स्थान होता है । प्रस्तुत प्रकरण में अन्य मुहूर्ती की उपेक्षा कर केवल यात्रा मुहूर्त पर विचार कर रहे हैं । यात्रा मुहूर्त में भी केवल नक्षत्रों के भोजन पर चर्चा करना अभीष्ट है । नक्षत्र भोजन तिथि और वार अशुभ होने पर उनके अनुपालन से उनकी अशुभता दूर हो जाती है । नक्षत्रों का अनुपान प्रचलित नहीं है। मुहूर्तचिंतामणी यात्रा प्रकरण ( श्लोक ८४.८५ में ) नक्षत्रों का भोजन दिए गए हैं। उनमें १० नक्षत्रों का भोजन पशु पक्षियों का मांस है । इसलिए प्रचलित नहीं है । सूर्य प्रज्ञप्तिसूत्र (१०।१२० ) में खण्ड २२, अंक ३ १३ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत्तिका से लेकर अश्विनी तक २८ नक्षत्रों के लिए भोजन दिया गया है। उसमें लिखा है उस नक्षत्र में उसका भोजन कर जाने से कार्य की सिद्धि होती है। जैनों में मांस अभक्ष्य है, फिर यह कथन कहां तक संगत है। हर व्यक्ति असमंजस में आना स्वाभाविक है । जैन आगम वनस्पति कोश में इस मांस शब्द की आयुर्वेद के निघंटुओं के माध्यम से सटीक व्याख्या की गई है। आयुर्वेद निघंटुओं में वनस्पति की मज्जा, अस्थि, गर्भाशय और मांस शब्द का प्रयोग हुआ है । यह प्रयोग द्रष्टव्य है भल्लातकस्य त्वग मांसबृहणस्वादुशीतलम् ॥ भिलावे की छाल और मांस बृहण (रस रक्तादि वर्धक) स्वादु तथा शीतल होते हैं । भिलावे के मांस का अर्थ है भिलावे का गुदा। (श्रीमद् वृद्धवाग्भट्ट विरचित अष्टांग संग्रह सूत्रस्थान सप्तमोध्याय श्लोक १९८) दूसरा उदाहरण कैयदेव निघंट का है कृमि श्लेष्मानि लहरा मांस स्वादु हिमं गुरु, बृहण श्लेष्मलं स्निग्धं पितमारुतनाशनम् ॥२५६।। कैयदेवनिघंटु के श्लोक २५३ और २५४ में बिजौरे के पर्यायवाची नाम हैं। श्लोक २५५ और २५६ में उसके गुणधर्म है । बिजौरे का मांस- फल का गुदा स्वादिष्ट शीतल, गुरु, बृहण (धातुवर्धक) कफवर्धक स्निग्ध तथा वात पित को नष्ट करता है। (कैयदेव निघंटु औषधि वर्ग पृ. ५१) ऊपर लिखे दोनों संदर्भो से स्पष्ट है कि मांस शब्द का प्रयोग वनस्पति के गूदे के अर्थ में होता है। सूर्यप्रज्ञप्ति में उल्लिखित नक्षत्र भोजनों (मांसपरक शब्दों) पर अनेक साधुओं ने अपनी-अपनी व्याख्या दी है। उन नक्षत्र भोजनों का प्रचलन आज उसी रूप में चल रहा है। कुछेक व्याख्याएं हमें उपलब्ध हुई हैं। वह व्याख्या किनकी है, इसका उल्लेख नहीं मिला है। हमें जिस व्यक्ति के द्वारा उपलब्ध हुई है हम उसी के नाम से प्रस्तुत कर रहे हैं। १. मुहूर्त चिंतामणी २. सूर्य प्रज्ञप्ति ३. जैन आगम वनस्पति कोश ४. पुराना संग्रह ५. मुनिश्री सागरमलजी 'श्रमण' ६. अमोलक ऋषिजी ७. स्वर्गीय श्री मोहनलालजी बंगानी (बीदासर) ८. श्री सुमेरमलजी चोपड़ा (गंगाशहर) १४ तुलसी प्रज्ञा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र अश्विनी खण्ड २२, अंक ३ भरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिरा आदी पुनर्वसु भीगे उड़द तित्तिरिमांस मेथी अश्वगंधा गुड़ का पूआ सीताफल सीताफल सीताफल उड़द, जो तिल तिलतंदुलक तिल, चावल तिल तिल, चावल तिल चावल तिल चावल तिली तेल तिल मिश्री या चावल चावल चावल दही दही दही दही उड़द की दही गुड़ मिलाकर दही दाल दही उड़द वृषभमांस वृषभकंद - गोरोचन घृत घृत घृत गाय का दही मृग मांस कस्तूरी के कस्तूरी मिला कस्तूरी कस्तुरी कस्तूरी कस्तूरी दाने पक्व अन्न गाय का घृत नवनीत नवनीत नवनीत नवनीत नवनीत नवनीत नवनीत गाया दूध घृत घृत घृत घृत कस्तूरी घृत घृत घृत हरिण मांस खीर खीर दूध दूध, खीर खीर काली गाय खीर के दूध की खीर मग रक्त दीवग मांस चित्रक कैसर मिश्रित शक्कर केसर कमल कवच कवच पक्वान्न गुड़ कसार खीर कसार कसार केसर केसर कसार केसर कसार केसर चषया मांस मेडक मांस मेंढासिंगी का जीवक उड़द, इलायची इलायची आल इलायची आल इलायची गुदा आलू मृग मांस नखी मांस बड़े वेर का नखी द्रव्य उड़द, लहसुन लहसुन आलु लहसुन आलू लहसुन उड़द गुदा आलु, प्याज दाल खरहा मांस वत्सादनीय गिलोय अजमोद सिंघाड़ा बिनोला सिंघाडा सिंघाडा सिंघाडा पुष्य अश्लेषा मघा पूर्व फाल्गनी उत्तरफाल्गुनी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नक्षत्र चित्रा स्वाति विशाखा अनुराधा अन्न ज्येष्ठा मूल १ २ ३ ४ साठी का मुद्ग सूप मूंग की दाल मूंग की मूंग की दाल मूंग की दाल मूंग की दाल मूंग की दाल चावल दाल प्रियंगु फल फल फल मोती अबींध फल मीठा फल फल पूडा अगत्थिया अगत्थिया खाजे अगस्ति बीज आडलीया आडलीया आडली आंवला साग जीवंती साग अनेकवर्ण मिश्राकूर कस्तूरी मिला खिचड़ी मिश्री दाख मिश्रकूरो मिश्रकूरोधान कुरोधान्य का पक्षी कच्छुआ कोलास्थिक बेर की खोडी मधुयष्टि कोला, शक्कर कोला शकर बाजरा, शक्कर कोला का मांस मिश्रकरो धान्य घी का चूरसा । मैना का मांस मूलापर्ण सहिजन ..... मूली की गांदल मूली या मोगरा मूली या मोगरे मूली सांगरी का साग का पत्ता गोह का मांस आमलक आमला आमला आंवला, मिश्री आमला आंवला आमला सारिक सेह का मांस विल्व बला के मिश्री, नींबू बेल बिल्ली फल बेल, पका पका नींबू बीज कुचीला पका नींबू । खिचड़ी पुष्प । गुलकंद सुगंधी पुप्प पुष्प पुष्प पुष्प मूंग खीर खीर दूध दूध, खांड खीर खीर खीर मूंग चावल जूस - मांडू, मूंग करेला या करेला या करेला भाव करेला शकर कोला शकर कोला जो का सतू तुवरी तुवर की अरहर की तुंबे के बीज तुम्बे की दाल तुम्बा पकाई तुवर दाल पूर्वाषाढा उत्तराषाढा नाबू नींब पुष्प अभिजित श्रवण धनिष्ठा तुलसी प्रज्ञा शतभिषग् Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड २२, अंक ३ १७ नत्रत्र पूर्व भाद्रपदा उत्तरभाद्रपदा रेवती मछली का मांस अनेक वर्ण चावल दही भात २ करेला वराह मांस ३ करेला ४ ५ करेला, दही करेला वाराहीकंद शकरकंद उडद की बड़ी कपूर चीलड़ा, दही करेला कपूर ६ जलचर फूलन या पानी ७ करेला कपूर 5 करेला कपूर जलचर फूलन जलचर या पानी जलयर मांस नारियल फल जलचर का गुदा नामक वृक्ष संख्या नं० ६, ७, ८ का वर्गीकरण प्राय: समान है । नं० ६ का प्रतिपादन किस आधार पर हुआ है, यह ज्ञात नहीं है । नं ० ३ का प्रतिपादन आयुर्वेद के ग्रंथों के आधार पर हुआ है । अधिक जानकारी के लिए जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्रकाशित जैन आगम वनस्पति कोश का अवलोकन किया जा सकता है। - मुनि श्रीचन्द 'कमल' झूमरमल बैंगानी सेवाभावी कल्याण केन्द्र जैन विश्व भारती, लाडनूं Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " णमोकार - महामंत्र" की पांच पंक्तियों में " णमो सिद्धाणं" द्वितीय पंक्ति है । महामंत्र की प्रत्येक पंक्ति अपने आप में एक पद है । पद का संबंध मात्राओं से होता है । द्वितीय पद (पंक्ति) पांच मात्राओं का है। प्रथम, तृतीय और चतुर्थ पद सात-सात मात्राओं के तथा अन्तिम पद नौ मात्राओं का है । इस प्रकार महामंत्र में कुल ३५ मात्राएं हैं । साधारण दृष्टि से देखने पर उक्त पदों से कोई महत्त्वपूर्ण जानकारी नहीं मिलती है । केवल पांच महान् शक्तियों को नमन करने के भाव हैं । नमन की क्रिया प्रभावशाली है अगर नमन समर्पित भाव से किया गया हो । महामंत्र प्रत्येक पद (पंक्ति) में विशिष्ट शक्ति एवं गुण हैं । द्वितीय पद के पांचों अक्षर साधक के हृदय में पंच-तंत्री वीणा के तारों की भांति संकृत होते रहते हैं । इन अक्षरों का सही प्रकार से लयबद्ध उच्चारण करने पर हृदय में स्वयम्भू - नाद की उत्पत्ति होती है, जिसका संबंध सुमधुर-नाद अर्थात् सांगीतिक स्वरों से है । और स्वर की संवादात्मक ध्वनियां नाद - सौन्दर्य को प्रकट करती है, जिसका ज्ञान साधक को नहीं होता पर वह उक्त नाद-तरंगों की लय में लीन होकर आनन्द प्राप्त करता रहता है । आगे इसी विषय पर प्रकाश डाला जा रहा है । शब्द णमो सिद्धाणं : नाव सौन्दर्य जयचन्द्र शर्मा शब्द की उत्पति 'नाद" से हुई है और नाद की उत्पत्ति वायु और अग्नि के संयोग से । "संगीत रत्नाकर" ग्रंथकार लिखते हैं (सांसारिक व्यक्तियों के लिए) नाद के विषय में प्राचीन एवं आधुनिक विद्वानों ने बहुत कुछ लिखा है । संसार को नादाधीन कहा है, इसीलिये नाद को ब्रह्म कहा गया है । नाद सुमधुर खण्ड २२, अंक ३ नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदुः । जातः प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते ॥ आहन अमधुर अनाहन समस्त ( योगियों के लिए) १९ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहत नाद से समस्त संसार का व्यापार चलता है। शब्द और स्वरोत्पत्ति आहत-नाद से हुई है। आहत-नाद के दो भेद हैं, सुमधुर और अमधुर-नाद । सुमधुरनाद से मन प्रसन्न होता है और अमधुर-नाद मस्तिष्क में चिड़चिड़ापन पैदा होता है । हमारे कानों की श्रवणेन्द्रियां उसे सुनना पसन्द नहीं करती हैं। महामंत्र की द्वितीय पंक्ति में शब्द-नाद के साथ स्वर-नाद भी तरंगित होता है, जिसका ज्ञान मंत्र-साधक को नहीं होने से वह नाद के सौन्दर्य स्वरूप का आनन्द प्राप्त नहीं कर पाता। उक्त पद के प्रत्येक शब्द (अक्षर) में सुमधुर-नाद का स्वरूप निम्न प्रकार हैं • प्रथम अक्षर "ण" । "ण" का प्रयोग "न" के तौर पर करते हैं, जैसे, नमन, नमस्कार आदि । “ण” की ध्वनि वीणा, मृदंग एवं शास्त्रीय नृत्य कत्थक की अनेक रचनाओं में पायी जाती है। वीणा वाद्य के तार पर मिजराव द्वारा उल्टा-सीधा प्रहार किया जाता है। प्रहार की इस क्रिया को डा, डिड, डाणा अथवा डा, डिण, डाणा के शब्दों को उपयोग में लिया जाता था, जो वर्तमान में दा, दिर, दार बन गया है। मृदंग की रचनाओं में डेडे डिण, डिण के बोल आज भी बजाये जाते हैं। मृदंग के बोलों के आधार पर ही नृत्य कला की रचनाएं होती हैं। इन रचनाओं में झिण, झण णण, झिणकिट, किण कत्तान, घणणण, आदि अनेक प्रकार से ध्वनियों को प्रकट किया जाना है। महामंत्र के 'ण" अक्षर में संगीतकला का सप्तम स्वर न (निषाद) की ध्वनि का बोध कराता है। मंत्र साधक को इसका ज्ञान नहीं होता है किन्तु मानव शरीर में अन्तर-नाद के तौर पर स्वतः ही मधुर तरंगें प्रकट होती हैं, जो नाद-सौन्दर्य के कारण साधक के हृदय में आनन्द की तरंगें तरंगित करती हैं। ० द्वितीय अक्षर "मो" । "म" अक्षर की ध्वनि अति मधुर है । सर्व प्रथम शिशु "मा" शब्द का उच्चारण करता है। इस अक्षर में ममत्व की भावना है। प्रभु प्रसन्न होते हैं "म'' की मधुर तरंगों को सुनकर । संगीत कला के सप्तस्वरों में इसका चतुर्थ स्थान है। जिसे मध्यम स्वर कहते हैं। चार श्रुति वाले इस स्वर के पूर्व में सा, रे, ग स्वर और बाद में प, ध, नि स्वर स्थित हैं। सा से भ ए श्रत्यांतर पर मध्यम-भाव तथा म से तार सप्तक के सा स्वर १३ श्रुत्यान्तर पर पंचम-भाव दरसाते हैं। ये दोनों भाव शब्द एवं स्वरों में नाद-सौन्दर्य की सष्टि करते हैं। अत: णमो (नमो) शब्द में संगीत के निषाद और मध्यम स्वर के दोनों भाव नाद-सौन्दर्य की दृष्टि से विद्यमान हैं। • तृतीय अक्षर सि :-'सि' अक्षर तो स्वयं सा का स्वरूप है। सिधि प्राप्त करने के लिए सा की मधुर तरंगें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। यह अचल स्वर सप्तक के समस्त स्वरों का राजा है। किसी भी मंत्र की साधना कीजिये इस स्वर की मधुर तरंगें उन शब्दों के साथ स्वयम्भू नाद के तौर पर नाद २० तुलसी प्रज्ञा Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौन्दर्य को प्रकट करती हैं। • चतुर्थ अक्षर धा:-हिन्दी वर्णमाला में "" अक्षर १९वां है। १+९=१० का अंक संख्या एक की जानकारी कराती है। एक का अर्थ है परमात्मा एक है। यही औंकार है। सर्व शक्तिमान है। संगीत कला में धा की मधुर ध्वनि का विशिष्ट महत्त्व है। सप्त स्वरों में धैवत वादी स्वर वाले रागों के गाने का समय सुबह का है। ताल और नृत्य रचनाओं को प्रभावी बनाने का कार्य करने वाला 'धा' अक्षर अति महत्त्वपूर्ण माना गया है । अत: 'धा' की ध्वनि नाद-सौन्दर्य को प्रकट करने में निरन्तर सहयोग करती है। ० पांचवां अक्षर ‘णं'-'ण' अक्षर पर बिन्दु लगाने से ण से णं की ध्वनि में काफी अन्तर आ जाता हैं। 'ण' की ध्वनि में संगीत कला के तृतीय स्वर गंधार का निवास है। 'णं' अक्षर को उच्चारित करने पर स्वयंभू-नाद के रूप में गंधार स्वर का बोध होता है। इस प्रकार "णमो सिद्धाणं" पद के पांचों अक्षरों में नाद-सौदर्य को प्रकट करने वाले संगीत कला के पांच स्वर महत्त्वपूर्ण हैं। इन स्वरों का क्रम हैं- सा, ग, म, ध, नि । इन पंच-स्वरों द्वारा अनेक रागों की जानकारी मिलती है। जैसे-ग, ध, नि कोमल स्वरों से मालकोश, तीव्र होने पर 'हिण्डोल' सभी शुद्ध स्वरों से । भिन्न षड्ज राग बनता है। पांच स्वरों के राग को ओडव-जाति का राग कहते हैं। मूर्च्छना पद्धति के माध्यम से जब औडव-चक्र के द्वारा पांच नये रागों की उत्पत्ति होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि 'णमो सिद्धाणं' पद अपने आप में एक राग है, जिसकी लयबद्ध साधना करने पर नाद-सौन्दर्य का उस स्थिति में बोध होता है, जब साधक की साधना "सिद्धों" के स्तर तक पहुंच जाती है । संदर्भ : १. संगीत रत्नाकर २. संगीत पारिजात ३. नाद-रूप ४. नाद योग ५. ॐ नाद ब्रह्म ६. भारतीय श्रुति स्वर राग शास्त्र - (डा० जयचन्द्र शर्मा) निदेशक श्री संगीत भारती, बीकानेर-३३४००१ खण्ड २२, अंक ३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ English Section Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RELIGION & SCIENCE* Hulaschand Golchha The 'religion' I am referring to here is not Hinduism, Buddhism, Jainism, Christianity or Islam, but the “Dharma" or religion itself. Dharma or Religion cannot be labeled because dames refer to the sects only. Religion is the essence of life and the true religion is the Purification of soul. All the philosophies and rituals are centered around this essence of life. Therefore, there cannot be any difference of opinion among its followers in the essential elements of religion. The aim and destination of different religions are the same but only the path to reach there, are different according to their prescribed ideologies. It is unfortunate that people quarrel on the rightfulness of their own path. It is an irony that even the learned people of religion are doing the greatest disservice to it by insisting on the dogmatic fundamentals rather than prioritising the truth which is imbibed in the basic principles of religion, may it be known by any name. Lord Mahavira, the last prophet of Jainism, said that "what I say is truth, but what others say might also be truth". This gives much larger dimension to the thinking and also gives freedom from "insistence". The true religion teaches us to strive for truth. There is a vast difference between what you believe and what you know. Believing is done by our heritage and by what we learn from the people who have experienced the truth. But unless and until we experience the truth by our own efforts it cannot be said that we know it. When we don't actually know and insist on just for what we believe in, then it becomes a reason to fight. Can this fight be considered as a part of the religion ? I understand that no religion or true sect ever teaches us to fight. A man of science does not fight without any ground for belief. If you insist on something, you must prove it or else your fight will not sustain. You can go on insisting that what I believe is true but no body will be ready to believe you unless and until you prove it. Similarly, today's religion will attract the edu* Based on the speech delivered by self at the Seminar on Spiritua lity and Religion organised at Kathmandu on 5 Oct. 1996, Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 TULSI-PRAJNA cated people only if we give them sufficient reasoning behind our teachings or teach them how to explore the truth themselves. Actually speaking the aims of both science and religion are identical and which are to explore the unknown and the trut whats, hows and the whys. The early man started to discover things as per his needs and this process went on improving on the things discovered earlier. This was the beginning of science. Today's science has explored so many truths or half truths, and has puzzled the common man. He has started thinking that religion is only limited to rituals and that the science is there to discover things. He seldom realises that both are meant to explore the truth but one is more busy in the materialistic world and other one for spiritualism. We must fully understand the principle that whatever truth is explored and is put into black and white, are all relative. There is no denying from either side from the fact that there cannot be any absolute truth. Prof. Albert Einstein propounded in his famous "theory of relativity that truth is subject to certain parameters and is always relative. Similarly, Lord Mahavira in his famous principle known as "Syadwad" or "Anekant" said that every truth is relative to something. Nothing is moving or stationary without relation to something. Nothing is big or small without relation to something. The same event is good for one and bad for another. Not only that, the same event is good and bad for the same person in different aspect, situation and time. Having said that, I would like to stress on the need for the people of religion to gladly accept the apparent truth which science has discovered and proved. Educated people loose faith in the religion when they examine the negative comments by religious leaders on apparent truths like (a) Earth is round, (b) Earth and planets rotate round the Sun, (3) Eclipse takes place because of the positioning of the Sun, Moon & the Earth, and (4) the most vivid happening of the twentieth century, the spectacular landing by Neil Armstrong on the moon. Similarly, the people of science should also learn to accept the importance of most apparent Truths & the human values taught by the religion, without wbich the man will become demon and destroy the entire planct by its sheer madness. This is equally important with the view of "'unity in diversity", otherwise the distance between science and religion will increase to the extent that it will be detrimental to our very existence. We must realise the fact that science and religion are not competitive but complementary to each other. Scientist Prof. Albert Einstein, who proclaimed in his last wish that in his next birth, he Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 109 would like to know the knower or gyata, i.e., "my own-self by myself”. It is here that religion and science have a perfect meeting point. Nowadays, medical science is doing miracles for saving life of people but some experiments might prove devastating. The genetic engineering is making bewildering advances. The potential threat of Nuclear, Chemical and Biological Warfare Materials is lurking round the corner. If these advances are allowed to go ahead undeterred and devoid of human touch, the time will not be very far when there will be no future generation left in order to blame us for our blunders. It is high time now to meditate on the words of wisdom expressed by Prof. Einstein that Science without religion is blind and religion without science is lame. The more the science delves deep into the truth, the fidings of the earlier times are proving to be incomplete or false. We do not yet know as to how deep is the truth and whether it is fathomable or not. The question whether science will ever reach the atman or the soul, also seems to be unanswerable. As the science cannot visualise the end of the vast universe, it is equally inconceivable that the science will ever be able to fathom the inner universe. Under these perspectives, it has become extremely imperative that science and religion cooperate with each other, as it is said earlier, the two must be considered complimentary and not competitive to each other. There is however a silver lining when we find that some scientists are looking seriously at the religion for cooperation and same is the case with the people of religion. People of religion have started giving due importance to science and writing about their experiences and wisdom using the scientific researches in explaining their philosophies. The people of medical science are experimenting with the effects of mental powers, meditation, yoga and diets nearer to nature for not only stopping of advance of disease but also for its treatment. Experiments in the USA have revealed that Angina Prectoris or the blockage of heart arteries can be reversed by the combined use of meditation, stringent vegetarian dict and yoga exercise. In this very direction, experiments are going on in Delhi in the Adhyatma Sadhana Kendra under the strict medical supervision of Prof. Manchanda of the All India Institute of Medical Sciences, Delhi, with the help of preksha meditation developed by a famous Jain monk, Acharya Mabaprajya. Several big business houses have subjected their executive core to the classes of Preksa Meditation which has revealed that the concentration power and efficiency of their executives increased several fold. This has also helped some of them in Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 TULSI-PRAJNA getting rid of drinking and smoking habits. It has proved on myself also to reduce mental tension. May I once again reiterate that time has definitely come when science and religion must try to understand each other and forge their mutual cooperation. In this respect, I would like to highlight the efforts of Anuvrat sponsor and great Jain saint Ganadhipati Tulsi, who is trying to build “Adhyatmic Vaijyanic Vyakttiwa” (3TTETTfc astifiat cufthra) i.e., scientific-cum-religious personality. I would like to end by citing certain religious teachings and practices which prove their great value in today's life style and in the scientific considerations as well : 0 Any form of violence gives birth to violence. : Science says-Every action has equal & opposite reaction. 0 Don't hurt innocent beings. Don't cut green trees : To Science, it is a serious question of Ecology & Environment. 0 Limit your requirements and don't waste resources : Again an Ecological question. O Be honest and dedicated to your purpose : An essence of pro gress and modern management practice. O Observe celibacy limiting to your spouse: World is now facing the menace of AIDS virus. -Hulaschand Golchha Golcbba House Ganba hal Kathmandu (Nepal) Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCIENCE OF CONSCIOUSNESS-A WAY TO HARMONY AND GLOBAL PEACE Muni Dharmesh 1. Who am I? What separates me from the non-living material world? These questions and many others have been asked from time immemorial. A probable answer, which is based on intuition, commonsense and ageold wisdom has an appeal that it almost seems axiomatic. 2. Basic concept of Jainology is that the essential entities of cosmos can be divided into two categories: matter or material body, and consciousness. In terms of ecology, nature consists of biotic factor and abiotic factor. In popular terms it can be called nonliving and living. In the terminology of spiritual science, conscious and non-conscious elements. 3. Not only the nature but each biotic factor is not purely conscious entity. It is composite of conscious and non-conscious elements. Each of the species has consciousness with non-conscious material body. There are certain characteristics attributed by spiritual science to the conscious element. It has three properties namely, to know (i.e. to be aware of and to acquire information), to feel and to exercise free will. These properties are not displayed by material objects even as complicated as a computer or a robot. So a living-being knows the surroundings, feels the sensations of pleasure and pain and executes his or her free will to retain or reduce sensations. 4. But what about the material world? What is matter? If we look at it with the views of quantum physics, there is no matter. The whole world is an energy continuum; the reality beyond space and time. But if we see it through classical physics, it has certain properties like heat, light, etc. There can't be a predication of the absolute reality, without any frame of reference. This should not be misinterpreted: There is no negation of absolute reality, but negation of predication of the absolute without any frame of reference. 5. If we become more pragmatic and percieve the world through senses, from which consciousness looks towards the world, we find different characteristics of the matter. These are colour, smell, taste and touch. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 TULSI-PRAINA 6. These are the inputs through which our experiences are recorded. Every conscious being tends to hold on pleasing colour, smell, taste and touch These are properties from which human being is affected most. Usually, if a person succeeds in retaining the desired sensual pleasure giving material, he finds himself in a happy psychological state. If not he feels frustrated and dejected. 7. It is true that without matter sustenance of life is not possible. mere indulgence, sensual pleasure does not lead one to truth or reality. The more the indulgence in material pleasures, the more sorrowful and painful will be the result. It will lead to dissipation of energy leading to fatigue and tension. Ultimately it will cause minimized awareness of reality. Such person gets entangled in prosperity of self-alone. Selfish out-look pervades his personality. He accumulates more and more defying other's good, becomes more violent and cruel, loozes peace and internal bliss, creates artificial demands which damages the natural resources. Social and personal health also gets vitiated. Nature of Our Existence CONSCIOUSNESS, MATTER Colour To know to be Aware Smell To feel, Bliss, Taste Free will-power Touch Over indulgence in materialistic world Results IN Consciousness Personality Society and Environment 1. Minimized awarenes Fatigue & tension Social disparity 2. Distorted Bliss Selfish outlook Damage to nature 3. Lack of will-power Accumulation of Wealth Lavish life-style Violent and cruel behaviour Lack of Peace and Bliss Disintegration of Personality Personality disintegration 8. Each person is a composite of conscious and non-conscious elements. Our awareness to environment and intended information is retained in our consciousness. The nonconscious element attached with our consciousness is in the form of material body. According to spiritual science, the material body is in three forms which occupy the spectrum from the gross to the subtle. The subtle-most body is Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 called the causal body or microbody. The subtle body is called electric body or astral body while the gross one is called physical body. 9. The consciousness pervades throughout non-conscious material bodies. But we are not always aware or conscious of subtle and subtle-most bodies. Our awareness is just limited to physical body. But a few spiritual masters have vast awareness from gross to subtle bodies. And even to intangible self, the consciousness. 10. Due to our awareness of the environment, all input information gets recorded in our subtle most layers of material body. It emerges from within and motivate for further action. Many kinds of motivations attack on the mental layers at every moment. It sometimes results in internal conflict and sometimes in proper decision. Inability to carryout a decision leads one to fall in the pit of frustration and failure. Repeated conflicts and failure in life lead to maladjustment in personality. It may further lead to broken family relationships and disintegration of personality, sometimes culminating in criminal anti-social behaviours. Personality Disintegration Flow of Consciousness Casual Body Astral Body Physical Body Emotional Plane Mental Plane Vocal Plane Physical Plane 0. 0." 0. Environmental Damage ↑ Social Disparity & Disorder ↑ Broken Family Relationships Maladjustment Motivations Confict I → → Decision → Failure 113 Unability - ← | Ability Success Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 TULSI-PRAJNA 11. Development of integrated personality through Preksha-Meditation Excessive pressure of mundane desires disturbs the balance of endocrine, nervous, and muscular systems. This leads to emotional unstability causing imbalance and over activation in the sympathetic nervous system. Mounting tension in the muscular system and impaired interpersonal relationships are the ultimate outcome of the cycle. To build an integrated personality we have to utilize the freewill power of consciousness and recycle the whole internal physiological systems of physical body towards more emotional stability, tranquility of nervous system and relief from muscular tension. 12. Preksha Meditation Preksha meditation is a powerful means to remedy the above maladies. It is a process that utilizes the properties of our consciousness, awareness and free will to transform our personality. One of the key characteristics of our consciousness is awareness leading to perception. Therefore, awareness to different levels of consciousness and resulting perception constitutes a major part of Preksha meditation system. It can be called an applied science of consciousness. Preksha Meditation is composed of eight main techniques, four sub-techniques and three advanced techniques. Eight main techniques are 1. Relaxation with awareness 2. Internal trip 3. Perception of breathing 4. Perception of body 5. Perception of psychic centres 6. Perception of psychic colours 7. Contemplation 8. Auto-suggestion. Four sub-techniques are 1. Recitation of sound 2. Mudra 3. Yogasanas and 4. Pranayam-breathing exercises. Titree advanced techniques are1. Perception of present-moment 2. Perception of thought 3. Perception without blinking the eyes. (Animesh Preksha) Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 Vol. XXII, No. 2 115 Personality Formation By Preksha Meditation Flow of Consciousness Casual Body Perception of Thoughts Astral Body Perception of Psychic Colours Physical Body -Perception of Psychic Centres Emotional Plane Perception of Body Mental Perception of Breathing Vocal Sound Recitation Physical Relaxation with Awareness Preksha Meditation At action : If consciousness (C) and materialness" M were two measurable entities, the following diagram schematically illustrates the various bodies on the C-M axis. Action of Preksha Meditation CONSCIOUSNESS Relaxation with Self Awareness Perception of Breathing ----- Perception of. Body -------- P. of. Psychic Centres-- P. of. Psychic Colours + P. of. T - --+ Endocrin Nervous S Respiratory. S. Muscular System 1. Personality - - M Causal Body Astral Body Physical Body 13. Preksha meditation is believed, felt and experienced to facilitate the transition of the self from the gross body to total consciousness, It starts with relieving tension from muscular system by the technique of 'Relaxation with self-awareness. It slows down the rate of hasty and fast breathing by 'Perception of breathing'. It tranquilizes and balances the vital energy in the nervous system by 'Perception of Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 body'. Harmonizes the hormones by 'Perception of psychic centres'. Management of aura is taken care of by Perception of psychic colours'. Ultimately at the level of consciousness there is a experience of unity in diversity. It brings more and more understanding of self and nature leading to universal friendship and amity. TULSI-PRAJNA Conclusion: Much of personal dissatisfaction afflicting todays high-tech society can be traced to lack of self-awareness rather than technology. Preksha meditation, which is a system specifically designed and refined over ages to increase self-awareness, is ideally suited to alleviate dissatisfaction at a personal level. It requires no capital investment nor to become an ascetic at the expense of wordly life. All that is required is a desire to learn the self, to dive deeper into ones being and unearth the mystries that lie within. Several studies have been conducted to quantify the benefits of PM, not only on intangible things such as personal satisfaction but on measurable entities like blood pressure, heart-rate, etc. The results are unequivocally astounding. For example, in one study conducted by cardiologist Dr. Manchanda and Dr. Vimal Chhajed of AIIMS, PM resulted in cardio-vascular benefits comparable to many clotbusting drugs or more invasive procedures such as baloon Angioplasty. Similar results have been achieved in other fields. The results are especially noteworthy because of the minimum expenses and discomfort to the patient in practising PM as opposed to more invasive procedures. Experience at JVB, and other similar institutions has revealed that the discipline required for Preksha Meditation can be developed over time. And once developed, it benefits all spheres of life and not just mental and spiritual well-being. Awareness to consciousness and utilization of its power is the prime need of the time. There is a need for a new science of consciousness to bring out more and more self-understanding to alleviate and eliminate human sufferings. It is essential for building a new generation with scientific outlook and spiritual amity to all. All these, are key ingredients that lead to global peace and harmony with nature. -Muni Dharmesh Monk educator in JVBI Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Epigraphic Soarces of History JAINA EPIGRAPHY--1 Prof. P. B. Desai Vast and varied is the Jaina epigrapbic literature. Its antiquity goes back to the centuries before the advent of Christianity. Jaina inscriptions are found in almost all parts of India, in the North, South, East and West. They are engraved on the rocks of hills, slabs of stone, copper plates and pedestals of images. The scripts cmployed are different and varying according to the age and the region. Their languages are many, such as Sanskrit, Prakrit, Kannada, Tamil and Telugu. As for their dimensions, they range from simple names of devotees or pilgrims to lengthy descriptions of prominent personages including teachers and pontiffs, running into several pages. Some of the records offer excellent specimens of prose and poetic compositions. All these records are highly useful for reconstructing the illuminating history of this pervasive religion with its philosophy and ethics. Outstanding among the early epigraphs of North India is the famous gratis inscription of st-arda, the lord of Kalinga. Inscribed in a cavity in the Udayagiri Hill near Bhubaneswar in Orissa, this record has revealed for the first time the existence of a unique emperor of Jaina persuasion who belonged to the महा-मेघवाहन family of the oat clan and flourished in the second or first century B.C. Besides being an implicit adherent of Jainism, artan was its enthusiastic supporter and contributed for its prosperity. He brought back the Jaina image formerly snacthed away by a king of the Nanda dynasty from Kalinga. He excavated caves for the Jaina monks in the कुमारीपर्वत, i.c. खंडगिरि hill and also built a monastery. The epigraph concludes with the significant words: "The prince of welfare, king of prosperity, mendicant monarch, ruler of piety, supremely triumphant is he, the glorious emperor ara". arca's qucen was also an ardent follower of Jainism. The following inscription caused to be engraved by her in the Manchapuri cave in the Udayagiri Hill stands testimony to her picty and devotion to the faith. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 TULSI-PRAJNA “This temple of the Arbats and cave for the shop of Kalinga has been made by the chief queen of the illustrious ada, the overlord af Kalinga, who was the daughter of king aan. Originally confined to a small area, Jainism soon started on a career of conquest and there is reason to believe that Agrate himself moved to Kalinga to preach his gospel. In the statyst inscription cited above occurs an expression mentioning the setting in motion of the wheel of conquest of the First Hills and this seems to contain an allusion to the visit of the great teacher to the Kalinga country. The migration of saferent wag along with his disciple, the Maurya em peror Chandragupta, to the southern part of Mysore in the third century B.C. constitutes an important landmark in the history of Jainism in South India. This episode is narrated in an inscription at श्रवण बेलगोल' as follows: "Success : Be it well, Victory has been achieved by the venerable an, the establisher of the glorious holy faith and the embodiment of the nectar of happiness resulting from the perfection attained.” Now indeed, after the sun gerate has completely set, IQTE-Fatalt who came in regular descent from the venerable supreme Rishi Taar, who was acquainted with the true nature of the eightfold great omens and was a seer of the past, the present and the future, having learnt from an omen and foretold in Ujjayini a calamity lasting for a period of twelve years, the entire Sangha set out from the North to the South and reached by degrees a country containing many hundreds of villages and filled with happy people, wealth, gold, grain and heards of cows, buffaloes, goats and sheep". Jainism, however, seems to have journeyed to the Tamil country through Kalinga and 1787, prior to its advent into far. This is indicated by epigraphic sources. In the southern parts of the Tamil country, particularly in the areas of the Pudukkottai, agar and Tinnevelly districts, are found a large number of ancient relics in the form of beds popularly attributed to the Five qisars. They are carved in hills and caverns, some of them bearing inscriptions in peculiar atat characters of about the third or second century B.C. As some of these beds are associated with Jaina symbols, it is possible to conclude that they were the creations of Jaipa monks who had settled in those areas for the propagation of their faith before the third century B.C. Epigraphy has largely contributed to the historical study of the Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No.-3 119 Jaina Churcb in the Tamil land. It is revealed by inscriptions that in course of time the Jaina monks organised monastic orders and developed a large oumber of strongholds for spreading their doctripes all over the area. They popularised their faith among the masses by introducing new devices such as the ceremonial worship of the secondary deities like यक्ष and यक्षिणी. From pumerous references in inscriptions to the teachers and lay followers of the fair sex, we come to know that Jainism claimed a considerable quantity of womaofolk in its fold. Conspicuous among the monastic orders of the Tamil church are fFUTTS (feminine of Sanskrit Guru) or ordained lady teachers who appear to have enjoyed greater measure of freedom here than in other parts. Jainism wielded influence to the farthest limits of peninsular India and we may note with interest that this faith was entrenched in the cornerland of Kerala. Worthy of mention as Jaina centres in the southern part of this region are Tiruchchanattumalai and Nagarkoyil which have treasured Jaina vestiges to the present day. The former name which in its full form 'Tiruchcharanattumalai' means 'the sacred hill of the aos', is reminiscent of the Jaina tradition relating to the arcos who were Jaina monks indowed with supernatural powers. This place possesses prominetly carved on its rock a figure of अम्बिका, the यक्षिणी of नेमिनाथ तीर्थङ्कर, who is mentioned as भटारि i.e. goddes, in an inscription found near the spot. We now pass on to Fafea where there is profusion of Jaina monuments and epigraphs. It is generally believed that the land south of the Vindhyas was monopolised by the Digambara order of the Jainas. But epigraphy shows that the followers of the raatae school also existed here side by side with the Digambaras from the early times, though not predominantly. By way of illustration one piece of epigrapic evidence may be cited in support of this view. A copper plate charter of the Kadamba king of anna? of about the 5th century announces the grant of a village in favour of the Jaina gods and the Jaina recluses. Among the latter, distinction is made between the great congregation of monks with white robes, i.e. the areas, and the great congregation of the far ascetics, i.e. Digambaras. The Jaina scholars made substantial contributions to Sanskrit and some of their contributions are in the form of epigraphs. From the literary as well as historical point the Aihole areas of the 19 king gufu II is a rare piece of Sanskrit composition in an ornate style inscribed on stone and its author and Jaina poet fortfa is entit Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 TULSI-PRAJNA led to an exalted place along with frere and arafa. The Jaina inscriptions of Fufen generally commence with the following Sanskrit verse in praise of the जिनशासन. श्रीमत् परमगम्भीर-स्याद्वादमोघलांछनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनम्, जिन-शासनम् ॥१॥ "May the doctrine of Lord Jina be victorious-the doctrine which is the commandment of the overlord of three words and which bears the glorious and supremely profound Fara (theory of may-be) as its infallible characteristic mark". A good number of inscriptions are devoted to the descriptions of Jaina scholars and teachers belonging to various monastic orders and their geneological accounts in Sanskrit. Here is a specimen passage praising a precepter. "His disciple, an emperor of philosophy, lord of great fame overspreading the whole sea-girt earth, a lion adorned with the pearls scattered in splitting the frontal globes of the rutting elephants, the five senses, honoured by the learned, favourite of सरस्वती, was कलधौतनन्दी Munipa". A profound scholar and adept in polemic contests the renowned teacher Samantabhadra, is described in the following speech attribu. ted to bim in an epigraph. 10 "At first the drum was beaten by me within the city of arzforga; afterwards in the country of मालवा, सिन्धु and ठक्क, at कांचीपुर and at fast. I have now arrived at #TET® which is full of learned men, profound in scholarship and crowded with Pcole. Desirous of disputation, O King, I exhibit the sporting of a tiger". “When the disputant ant stands in court, Oking, even the tongue of a#27, i.e. f414, who talks clearly and skilfully, turns back quickly towards the nape of the neck. What hope can there be for others ?” Spoor here is a renowned sacred centre visited by thousands of Jaipa devotees from all parts of India. But few are aware of the fact that there flourished in the South another holy place that equalled, nay, even excelled to date in sanctity and eminence. Explorations carried on at Koppal during the past years have revealed the importance of the place as a supremely sacred resort of the Jains. According to the testimony of epigraphs and tradition, Kopana was adorned by an exceedingly large number of Jaina temples and shrines. The veracity of this statement is brought home to the Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 121 explorer through the Jaina epigraphs and other relics that have survived to the present day at modern Koppal after the devastating activities of the hostile elements. Allusions to go as a Jaina ata par excellence are found in many inscriptions at sparer datant, one of which refers to its immense wealth of Jaina temples11. An inscription in the Shimoga district1: extols it as "distinguished among the millions of Jaina sacred places". Kopana is mentioned as Koppam in the inscription of the Tamil country which testify to its sanctity and eminence. This sacred place maintained its reputation for nearly one thousand years, from the seventh to the sixteenth century, after which period it passed under a spell of oblivion, as Let us now proceed to staru datter itself. This Jaina centre is famous on account of the monolithic colossus of the epic personage बाहुबलि, popularly known as गोम्मटेश्वर, carved out of rock and perched on the top of a hill. This wonder of the world is the creation of चामुण्डराय, minister and general of the western Ganga ruler राजमल्ल (circa 983 A.D.). The story and legend associated with the erection of this unique image are graphically narrated in an inscription at श्रवण बेलगोला thus: “The emperor Bharata, son of grea caused to be made near Paudanapura an image, 525 bows high, resembling the form of the victorious-armed agafa fast. After the lapse of a long time, a world-terrifying mass of innumerable as having sprung up in the region near that Jina, that enemy of sin obtained the name stras. Afterwards that region became invisible to the common people, though seen even now by many skilled in spells and charms. On hearing from people of the celebrated supernatural power of that Jina, a desire arose in his (i.e. chamundaraya's) mind to see Him; when he prepared himself to go, he was told by his preceptors that the region of that city was distant and inaccessible; whereupon, saying in that case I will cause to be made an image of that god, The (i e, nestra) had this god made. Combining in himself learning, purity of faith, power, virtuous conduct, liberality and courage, the moon of the Ganga family, THCS, was celebrated in the world. Was it not that king's matchless power viz. TOUTO alias TC, an equal of Mapu, that thus caused this god to be made with a great effort ?”. The image tb'us created has combined in itself the unsurpassed Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 TULSI-PRAJNA virtues not only of loftiness, but also of beauty and supernatural power. This unique feature of the image is further described in the inscription cited below. “When an image is very lofty, it may not have beauty; when possessed of loftiness and real beauty, it may not bave supernatural power : loftiness, real beauty and mighty supernatural power being all united in it, how worthy of worship in the world is the glorious form, comparable to itself, of advar Jina.". As in South India, a series of Jaina centres and holy spots have also thrived in North India. One such is Girnar in Kathiawar. On this sacred hill arose shrines dedicated to the eminent Jaina deities and details about these foundations are recorded in inscriptions. Two brothers afgun and aware, of the smart family, who were ministers of the Chalukya king aroun, bave immortalised their names by their religious zeal and munificent endowments for the promotion of the Jaina faith at forcar and other holy places. A verse in a Sanskrit epigraph of 1230. A.D. at Girnar, while recounting the memorable services of agera, praises his generosity in the following terms. 16 "After king witor has passed away piercing through the sun and the illustrious Munja has acquired the supremacy of Heaven, here stands alone solitary aegara intent upon wiping out the flow of tears of the poor and the needy". Soon after the establishment of the great Vijayanagara empire, Jainism which was reduced to a faith of the minority at this time was threatened by a crisis. This was, however, averted by the foresighted and statesmanly action of the king from I. who safeguarded the interests of its adherents and assured them a place of honour and status of equality among his subjects 16 Under the benign patronage of the Vijayanagara rulers. Jainism raised its head once again. Jaina temples and institutions were erected in the city of Vijayanagara, the very heart of the empire. One such shrine was dedicated to the rare deity Kuathu, the seveniccnth ant. This event is related in an inscription at Vijayayanagara,17 dated 1385 A.D. through the following charming phrases. “There is a city named Vijaya, which is resplendent with wonderful jewels, and wbich exbibits the spectacle of an unexpected moonshine by y the multitude of its whitewashed palaces. There the girls play on roads paved with precious stones, stopping by embankments of pearl-sand and the water poured out at donations. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 123 In this city the general Iruga caused to be built of fine stones a temple of the blessed Kunthu, the Lord of Jinas. Let there be prosperity to the religion of Jina !" The general Iruga or Irugapa, a Jaina by persuasion, was a minister of king Harihara II. He is credited with the authorship of the Sanskrit lexicon मानार्थरत्नमाला. Within half a century after this beneficient foundation, another temple dedicated to पार्श्वनाथ, the twentythird तीर्थंकर, came into being in this capital through the catholic act of the king a II. The passage describing this transaction in another epigraph of 1426. A.D. at Vijayanagar18 runs as follows. "The illustrious lord Devaraja who was famed both for wisdom and modesty, caused to be built in a street of the above-mentioned city in the a-gar amare a temple of stone, which gives delight to the good, which is a bridge of entire merit, to the blessed, the lord of Jains." 口 Reference: 1. Ep. Ind., Vol. XX, p. 72 f. 2. Ibid., Vol. XIII, p. 159. 3. The expression reads - सुपवत्त- विजय- चक्क कुमारी-पव्वते, For explanation see my. Jainism in south India, and some Jaina Epigraphs. 4. Ep. Carn. Vol. II. Ins. No. 1. The inscription has been roughly assigned to A.D. 600. 5. For a detailed discussion of their interesting problem and different views held by scholars. see. Jainism in South India, etc. (op. cit.), pp. 27 ff. and 93. 6. The question has been surveyed in all its aspects in my article ‘gefaure in afar, see the Journal of Indian History, Vol. XXXVI, Part II, August 1958. 7. Ind Ant., Vol. VII, p. 37. 8. Ep. Ind., Vol. VI, pp. 1 ff. 9. Ep. Cara Vol. II, No. 66. 10. Ibid., No. 67. 11. Ep. Carn., Vol. II, Sh. No. 127. 12. Ibid. Vol. VII (Part I), Sh. No. 64. 13. For details about the antiquities and importance of Kopana see 'Jainism in South India', etc. (op. cit.), pp. 200-206 & 338 ff. 14. Ep. Carn., Vol. II, No. 234. 15. प्राचीनलेखमाला, part III, p. 186. 16. Ep. Carn, Vol. II, No. 344. 17. South Indian Inscriptions, Vol. 1, No. 152. 18. Ibid., No. 153. This and the above record are in Sanskrit. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEW LIGHT ON EPIGRAPHS FROM CHITTAMUR A. Ekambaranathan The Sambhuvarayas were feudatories of the Colas, ruling over an area comprising the modern districts of Chittor, North Arcot, South Arcot and Chingleput, During the reign of Rajadhiraja II, a civil war broke out in the Pandya country and the timely intervention of Sengeniammaippan on the orders of the Cola emperor, restored Kulasekbara on the Pandya throne. Later on, Kulasekhara with the support of the Ceylon king Parakramabahu, rose in revolt against the Colas, hence Rajadhiraja sent a powerful army under the same Sambhuvaraya chief and captured the Pandyan territory. It was this victory over the Pandya earned the chieftain the title "Pandyanadukondan'. The inscription from Chittamur echose the same political episode wherein he is styled as Pandyanadukondan Sengeni Mummalaraya. The epigraphic records from Chittamur throw some new light on the religious history of this region and supplement to our knowledge of the Cola conquest of the Pandyan territory. Hitberto, it was believed that Jainism had its origin at Chittamur only in the late medieval period, but the foregoing study would push back the antiquity of Jainism to the 9th century A.D. The magnificient sculptures of Neminatha, Adinatha, Parsvanatha and Bahubali, carved on the boulder in the Malaipatha temple, exhibiting typical early Cola style of art of the 9th century A.D. corraborates the date arrived at from epigraphs. The patronage extended by the Colas and their feudatories, particularly the Sambhuvarayas, to the Jain sect is obvious from these records. Inspite of their adherence to Saivism, liberal grants had been made to jain institutions and the Chittamurd temple received its due share from them. The queen of Aditya had taken special interest to revive an endowment which was discontinued for reasons unknown. Cola queens making rich endowments to jain temples was an important feature that was continued even in the later period. Chittamur had attracted devotees even from far off places like Puttambur like Puttamburd in Pudukkottai as early as the 9th century A.D. Matiyan Arintigai of Puttambur, a place nearly 300 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 125 kilometres south-east of Chittamur, had made provision for burning a perpetual lamp in the Malainatha temple. Incidentally, this reveals the active intercourse between Chittamur and other Jain centres Lithic records of Rajadhiraja II are also found in places like Viranamur 'and Melsevur' in the Gingee taluk itself. But it is the one from Chittamur that echoes the political episode of the Colas conquerring the Pandya country under the leadership of Sengeni Sambuvaraya. The same chieftain had endowed some lands to the Chittamur temple. Thus, the epigraph from Chittamur attract special attention as that throw significant light on the religious and political history of this region. References : 1. K.A. Nilakanta Sastri, pp. 367-373. 2. Jain Shrines of Tamilnadu, p. 17. 3. ARE., 326/1937-38. 4. Ibid., 222/1904. -A. Ekambaranathan Clo Jain Youth Forum 3, Boag Rd. Chennai-600 017 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HEART DISEASE: CAUSE & PREVENTION V. P. Singh Generally all heart attacks occur when a narrowed coronary artery is closed by a blood clot, cutting off blood to the area fed by the clogged artery. But no one knows the exact cause of heart disease. A heart attack is signaled by moderate to severe angina, which is not relieved by rest. Angina occurs when the heart, because of narrowed arteries or some other circulatory problem, does not get enough oxygen. Thus angina pain is the heart's way of warning. This pain starts from the centre of the chest and spreads to the shoulders and down the insides of the arms. So when some one susPain in the chest can have many causes. pects he has angina pain, he should lie down with his head and shoulders raised to relieve the heart of stress, enabling it to replenish itself. If the bain does go away after resting it is further evidence of angina. The human heart is a pump. Like most pumps, the heart needs to exert a certain amount of force to push the blood through circulatory system. But the main thing is that the heart has to work against the arterioles. The arterioles restrict the blood flow, forcing it through the capillaries, some of which are so small that blood cells can only move through them one cell at a time. Furthermore the human body is a complex factory, capable of synthesizing many diffect substances. One of those substances is cholesterol. Cholesterol is present in every cell of the body. The body regulates its own blood chalesterol level through an elaborate and complex system. Attempts to tamper with this system may reduce blood cholesterol but can also upset the body's natural balance, causing a series of problems much more hazardous than high cholesterol. There are actually two forms of cholesterol: HDL (high density lipoprotein) and LDL (low density lipoprotein). The level of LDL in the body is controlled by the liver, which makes both LDL and HDL. The body also gets LDL from the food it digests. HDL goes Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 TULSI-PRAJNA into the body and attaches itself to an LDL molecule, which it back carries to the liver, effectively taking it out of the body. It the liver ditermines there too is much LDL ia the body, it will manufacture more HDL. Likewise if there is too little LDL, it will reduce the amount of HDL and manufacture more LDL. That is how the liver controls the level controls the level of cholesterol in the body. Risk Factors : Risk factors of Heart disease are based entirely on statistics. Certain characteristics are shared by people who have heart disease. These characteristics are called risk factors. While this may seem an ideal way to predict future heart trouble, the statistical evidence is often inconsistent. Statistics can not tell us if a given person will get heart disease. They only indicate risk. Even if a person is at risk for all the factors possible, still there is no guarantee of his developing heart disease, Conversely even if a person has no risk factors still he may get a heart attack. A diabetic, chain smoker with high blood pressure could quite possible live well in to bis nineties, while a trim, healthy person may have a fatal heart attack at 40. High blood pressure, stress, smoking, unbalanced diet and life style heredity are the causes to angina and arteriosclerosis. Arteriosclerosis is a thickening and hardening of the arteries. It can be caused by smoking, cholesterol, high blood pressure or free radicals. The irritation may cause due to some virus also. No one is sure what causes arteriosceleosis, though it is thought the process begins with demage or irritation to the middle layer of the artery. The body attempts to heal the injury by making more smooth muscle cells. This causes the arterial wall to bulge inward. The bulge acts as a snag, accumulating cholesterol, fatty deposits and dead cell tissues and it further may make the artery so narrow that a blood clot can plug it completely, cutting off the blood supply and causing a heart attack. Simillarly stress can be a contributing factor to the development of arteriosclerosis. In response to stress, the muscles of the arteries constrict, raising blood pressure and diaking the heart work harder to keep up. Narrowing of the arteries can be especially dangerous in arteries that are already partially blocked by arteriosclerosis, taking them one step closer to being totally blocked by a blood clot, Again, the carbon monoxide in cigarette smoke attaches itself to blood cells, so they can not carry oxygen to the beart and other parts of the body. Free radicals are found in tobacco smoke and Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 129 other common irritants. They cause lesions in the arteries that provide the foundation for arterial deposits of minerals, cholesterol and other debris. In this way smoking affects adversely to the circulatory system and in a circulatory system already hampered by arteriosclerosis, smoking can push it beyond its capacity to meet the body's needs. Prevention The key to heart attack prevention, is healthy, clean arteries and other circulatory channals. It is revealed by siatistical siudies that most of heart attacks start on Monday morning. So, it is a good time to load up on cayenne. It keeps arteries open and prevents blood clots that cause heart attacks. Garlic and Ginger also prevent blood clots by lowering the level of fibrin, the clotting material. Cayenne dissolves the clot & opens the artery. It can stop a heart attacks by giving in warm water or putting it under the tongue, of the patient is unable to swallow. Cayenne jumps starts heart with a shot of strengthening energy. It opens wide arteries and does not raise heart beat or blood pressure. Another safe way to clean the arteries is Lecithin. It's choline liquefics cholesterol and dissolves deposits. Nutritionists recommend taking three table spoons of lecithin granules at one time every day for 12 days, with light exercise about two hours after you take it. Lecithin is actually a type of water-soluble fat derived from eggs and soybeans, used in chocolate bars and many other food products. It makes water and oil mix. Surgical procedures like bypass and angioplasty are expensive and debilitating. Surgery will never make you as good as new or even as good as you were before the operation. So one should use caynne and garlic. Cayone works better when combind with Ginger, it's facilitator Opin facilitates garlic, helping it work better. Myrrh facilitates the anti-biotic herb Goldenseal. These herbs synergize when blended. Synergistic herbs work together with actions that complement one another, making each strontger and more effective. V.P. Singh Dy. Registrar (Finance) JVBI, Ladaun--341 306 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Origin of Untouchability (IV) THE DHARMASHASTRAS AND UNTOUCHABILITY Upendranath Roy We We already discussed the antiquity of untouchability. mentioned Manu and Apastamba there but did not base ourselves on them. There are reasons for the precaution. First, due to interpolations that took place from time to time, it is difficult to ascertain the date of a passage in the Dharmasastras and conclusions based on such a passage do not pass beyond doubt. Secondly, most of what we find in the Dharmashastras is ambiguous and disputed and therefore demands separate treatment. Now we are in a position to discuss it. Ambedkar believes untouchability had not come about during the days of the Dharmasastras. Briefly' he opines as follows: 1. The words Antya, Antyaja, Antyaväsin and Bahya occur in the Dharmasutras and Smṛtis but it is not clear which the groups referred to by those terms are. 2. The word "Aspṛśya" occurs in the Vişņu Dharmasutra and the Katyayana Smrti but there is no indication as who they are.1 3. There were no untouchables in the age of the Dharmaśāstras in the present sense of the term. There were certain Communities which were deemed impure at the time. They were avoided by the Brahmanas and their touch caused pollution on a ceremonial occasion only. 4. The 'Impure' class of the Dharmashästras is not the same as the untouchable of modern India. Terms under Dispute The term 'Aspṛśya' used by Visņu and Katyayana does mean 'untouchable' etymologically but as the 'Aspṛśya' groups are not specified therein, Ambedkar exploits the opportunity to raise two questions were they the same as untouchables in modern India ? Did the term connote the same thing in the age of the Dharma. śăstras as it does today? He answers both in negative. The terms Bahya and Antya occur in the Dharmasastras but it is not stated Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 TULSI-PRAJNA therein clearly who they were. The words Anty aja and Antyavāsin are the only exceptions. The Madhyamāngirasa Smrti gives a list of seven castes called Antyajas while Vedavyāsa Smrti enumerates twelve castes of the Antyajas. D.R Ambedker finds a lot of differences in these lists and concludes that it is difficult to ascertain if the communities called Antyavāsin, Antyaja and Bāhya were untouchables. Ambedkar's views warrant two comments. First, even when the Dharmaśāstr s do not explain the terms they use, internal evidence can be used to ascertain the meaning. Such an attempt may not succeed in each case but neither can we deem it entirely useless Secondly, a few more or less names in the lists mean too much to DR. Ambedkar, so we have to consider if the Dharmaśāstras aimed at preparing-exhaustive lists. That alone can lead to a correct conclusion. Who were the Bāhyas Ambedkar believes that Manu used the term Varna-Bāhya' or merely Bahya' for Anuloma Varna-Sankaras and Hina' for Prati. loma Varna-Sarkaras. "The Hinas are lower than the Bāhyas. But neither the Bābyas not the Hinas does Manu regard untouchables"2 Ambedkar does not care to prove that assertion. One who cares to read will find that Manu uses the terms Bāhya and Hina in the same sense, both connote the offspring of the Pratiloma marriages that is, the varņa-sankara jātis alleged to be born of fathers of lower varna and mothers of higher varna. Thus, Manu says, "just as a Brāhmaṇa woman gives birth to a Bāhya child from (her marriage to a) Süura, similarly the Bāhyas beget Bāhyataras from their marriage to women of) four varņas. Thus from the Pratiloma relations the Bāhyas beget Bāhyataras with the result that the Hinas beget fifteen Hina varņas''s, So Ambedkar is mistaken in his assertion that Manu uses the term “Bāhya" for Anuloma Varna-sarkaras. He is not, however, mistaken when he claims that the term Bāhya does not mean untouchable. It was used for a large number of groups (i.e. Pratiloma Varņa-sankara jātis) and social status of all of them need not be the same. It is clear from the Dharmaśāstras that the Bāhyas were a heterogeneous mats. The possibility remains, therefore, that some of the groups called Bāhyas were untouchables while the rest were not. Antya and Antyaja Ambedkar treats Antya and Antyaja as two different categories As a matter of fact, they are ideatical. If a Brahmana is called 'son Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No.-3 133 of a Brāhmaṇa' a Ksatriya called Son of a Ksatriya' or a Vaisya is called 'son of a Vaisya' nobody rushes to the conclusion that 'son of a Brahmana', 'son of a Ksatriya' and 'son of a Vaisya' are categories different from Brahmaņas. Ksatriya and Vaisya. Similarly, Antyaja and Antyayoni mean 'offspring of Antya' and no body with an average knowledge of Sanskrit grammar would argue that Antyaja' and 'Antyayoni' are castes other than the Antyas. The words 'Antya' and 'Antyaja' are used in two senses in the Dharmasastras. In a broad sense it connotes the entire śūdra va na as in the Chapter VIII, verse 279 of Manu. The topic under discussion there is what punishment should be given to a sudra for crimes committed by him. First, it is laid down that the tongue of a śüdra is to be chopped off if he dares to use harsh words against a twiceborn4. Then comes the above verse prescribing amputation of the limb an 'Antyaja' uses to offend a person of a superior varņa. Under the circumstances, the term 'Antyaja' cannot mean anything but śūdra. The terms Antya' and 'Antyaja', therefore, connote all people who are not twice-born, that is, who are not deemed fit for upanayana and who have to reside on the periphery of village. The words were used in a narrow sense too. The śūdras were divided in two strata and the words then indicated the lower stratum of the sudras. We come to know of this usage, for example, from the following: "Women shall testify for women, twice-born of equal varna for the twice-born, 'good' (Sat) sūdras for the śūdras and Antyajas for the Antyas".5 Obviously, 'Antya' or 'Antyaja' in such case means 'asat sudras' i.e. all the śūdras who were deemed not-'good'. We find the word 'Antya' used in a narrower sense too in the Manusmrti. In a verse Manu forbids residing with the Caṇḍālas, the Pulkasas, the Antyas, and the Antyavasayins etc. As the three castes, namely, the candalas, the Pulkasas and the Antyavasayins are mentioned separately, the connotation of the term 'Antya' becomes That is done, it seems, to imply that the three castes mentioned are worse than the rest of the Antyas. narrower. narrow sense. Generally, the words Antya or Antyaja are not used in such a Even the literature of the age bears testimony to it. Bhasa, the dramatist, was a predecessor of Manu. He was a contemporary of Nārāyaṇa (53-1 B.C.), the ruler of the Kanva dynasty." In the first act of his drama Avimāraka, the hero introduces himself Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 TULSI-PRAJNA as 'Antyaja' while it is learnt from the sixth Act that his parents had become Shvapākas as a result of the curse of a sage. The śvapakas were, therefore, included in the category of the Antyajas since long before Manu, Madu too includes the Candalas, Pulkasas and Antyāvasayias in that category in the rest of his work. This we have to infer from the fact that nowhere does he say who testify for them or how they are to be punished for various crimes. It is simply incredible to conclude that Manu was forgetful enough to omit such details. Equally inconceivable is the hypothesis that they were never involved in cases, never appeared as witnesses before a law-court and never committed a crime. So we are forced to conclude that Manu included them in a broad category called "Antya' or Antvaja' and laid down rules for evidence, punishment and inheritance etc. for them by referring to that category. "Antya' and 'Antyaja' are therefore, like Bāhya, a big category. Depending on the nature of its usage (broad or narrow sense) it may or may not include untouchables. Generally, it does. "Antyavāsin" DR. Ambedkar believes the word 'Antyavāsin' occurs in five works, namely, Gautama Dharmasútra, Vasistha Dharmasutra, Manu Smrti Mahābhārat and Madhyamāngirasa Smrti. As a matter of fact, the term is not "Antyavasin", but Antyāvasāyin. According to Manu, it is the name of a particular varņa-sankara jāti born of a Nişāda woman and a Candāla males. In the Mahābbārata (Anusbāsanaparva) the same caste is called Antyavasāyin'. Vasiştha Dharmasūtra traces the origin of Adityavasāyin from sūdra father and Vaisya mother, though other smstis name offspring of such a marriage Āyogava instead. 10 But whatever the differences among them, all the Dharmaśāstras except the Madhyamāngirasa Smsti agree in regarding Antyāvasãyin as the name of a caste. It is Madhyamāngirasa Smộti alone that mentions Antyāvasãyin as the name of a group consisting of seven castes. The very name 'Madhyamangirasa Smộti' signifies there were three Smstis of the same name at a certain time and they were identified with the help of the epithets Věddha, Laghu and Madhyama attached to them. Madhyamāngirasa Smộti is no longer available. Nobody could have even heard its name but for quotations from the work in the Mitakşara commentary of the Yājnavalkya Smrti (belon. ging to the 12th century). It is difficult to say when and why the Madhyamāngirasa Smrti picked up seven out of the fifteen Bähya castes of Manu and gave them a new name (Antyāvasāyin). As Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 135 Madhyamängirasa is not mentioned or cited by earlier works we can safely assign a late date to it and regard it as useless from historical point of view. To take stock of the situation, out of the terms discussed so far, only Antyavasayin is the name of a caste and the rest are names of big categories. The terms are, therefore, not necessarily synonyms of untouchable. Impure Vs. untouchable Are we to conclude, then, that there were no untouchables in the age of the Dharmasastras? That is what Ambedkar believes. There are indications that some of the Bahyas and Antyajas were untouchables. But Ambedkar refuses to admit that. His arguments are as follows: 1. The Mahabharata mentions Antyaja soldiers in Santiparva11. 2. Sarasvati-vilāsa names seven castes (like Rajaka) Prakṛti and Sangamner Plate of Bhillama II of sakābda 922 mentions trade-guilds of washermen etc. as eighteen Prakṛtis. 3. According to Viramitrodaya, eighteen castes like Rajaka etc. are called śreņis (trade-guilds) and are collectively known as Antyajas. What do these arguments mean? Are the Antyajas to be taken as Ksatriyas on the ground that the Mahabharata mentions Antyaja soldiers? Or are they to be taken as Vaisyas on the ground of other pieces of information ? Is there or can there be any consistency between the evidence of the Mahabharata and that of later sources ? Ambedkar does not answer these questions. He does not think such questions can ever arise. Even the Mlehchhas (barbarians) and demons are said to have taken sides in the great war described in the Mahābhārata. As there were and even now are hunters among the untouchables, it is not proper to conclude that the mention of Antyaja soldiers excludes the possibility of their being untouchables. Surely Ambedkar would not claim the untouchables had ever been incapable of using weapons but that is exactly where his logic leads to. 'Prakrti' in Sanskṛta is equivalent of 'subject'. People belonging to 'higher' castes were once deemed lords and those belonging to 'lower' castes were taken to be their subjects. So even an ordinary cultivator in the villages of U P. is called 'rājā' (king) and barber, washerman, blacksmiths, potters, kahāras etc. are his 'praja' (subjects). Not all of them are untouchables but the Rajaka' who is mentioned in all the three sources referred to above is included in the list of the Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 TULSI-PRAJNA untouchable castes in the provinces of Bengal, U.P., Bihar, Assam, Orissa. The list was prepared and adopted by the Government of India in 1935 and is quoted by DR. Ambedkar in his work on pages 14 to 20. Why should trade-guilds be excluded from the class of untouchables? We do not find organised guilds in higher' castes The 'lower' castes, including untouchables, mostly pursue some trades and they do have their guild-like organisations called 'pañcāyata.' Judging people belonging to their caste, punishing the offenders, deciding purificatory measures for sinful deeds-everything falls within the jurisdiction of these caste pañcāyatas. Obviously, they are the relics of their trade-guilds. It is unwarranted, therefore, that belonging to a trade-guild cxcludes the possibility of being untouchable. The Antyāvasāyins are labelled Antyavāsins by Ambedkar They were not untouchables according to him. He advances two arguments to establish his contention. One of the arguments is as follows: "......the Mitākṣara says they are a sub-group of the Antyajas which means that the Antyavāsins were not different from the Antyajas, what is therefore true of the Antyajas may also be taken as true of the Antyavāsias". 12 That is right. We have seen that the Antyaja in a broad sease includes untouchables and in a narrow sense is used exclusively for Candālas, sva pacas etc. No more comments are needed now. The other and the main argument is as follows: "A Brahmacāti was referred to as Antyavásin. It probably meant one who was served last. Whatever the reason for calling a Brahmacārī Antyavāsin it is beyond dispute that the word in that connection could not connote Untouchability. How could it when only Brāhmaṇas, Ksatriyas and Vaisyas could become Brahmacäris''18 ? To admit the argument we must be sure if the word 'Antyavāsin' is used for 'a Brahmacāri'. Not only that, we must agree with Ambedkar that what applies to 'a Brahmacāri' applies to the group labelled as ‘Antyavāsin' also. Unfortunately, we cannot agree with Ambedkar on either of the two points. Ambedkar's authority for the contention that a Brahmacāli was called 'Antyavāsin' in the Amarkośa. But Kända II, Brahmavarga, verse 11 (Ambedkar says verse II erroneously) therein gives the word 'antevāsin' for a Brahmacāri (chhātrāntevāsinau šişye). Nowhere do we find the terms 'Antyavasin' and 'Aniyavasāyin' used for a Brahmacāri. What we find instead is that Amarakośa mentions .Antyavasayin' as a word used for a barber, Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol, XXII, No. 3 137 while 'Antevnsin' occurs as a word used for the Caņdalas. As we are concerned here with the use of the term of Antyāvasãyin and its relation with a Brahmacäri only, we need not divert our attention to them. 'The use of the term Anevāsin for a Cāndāla though mentioned in the Amarakosha is rare and I do not remember having come across such usage in literature. Still, if the term is used that way, it means a person residing at the end of village. The meaning of term, however, must differ when it is used for a student (Brahmacārī). The word 'ante' is used in the sense of near' in the Närada Smộti (ācāryasya vasedante) and the term Antevāsin, therefore, must mean ‘one who lives near a teacher'. The pupil is enjoined by Nārada to stay near his teacher and the latter is to spare time for him and teach him regularly, to feed him and to treat him as own son15. The word 'ante' cannot mean anything but near' in this context as the pupil is further enjoined to serve the teacher and his wife and son attentively which is hardly possible by staying at a good distance.16 The term Antyāvasãyin cannot mean anything like that. How can one compare a Brahmacāri with that Antyāsāyin who is called 'vile even among the Bāhyas' and a dweller of cremation ground17 ? A person going to cremation ground even for a while becomes polluted and requires purification by bathing. How can then a caste reside in the cremation ground for ever and yet remain touchable ? To equate Antyāvasãyın with Antavāsin and then to pick up one of the senses of the term 'Antevāsin' (i.e. Brahmacāri) and to argue on the ground of that sense that the word connot possibly cannote untou. chability-that is what Ambedkar's logic amounts to. Such a logic we find it difficult to accept. The Antyāvasāyips are not the only outcastes mentioned in the Dharmashästras. Manu has indicated the residence of Andhras and Medās, the two castes of the Bābya group, outside the village18. The Cândalas and sva pacas are forbidden entry into villages and towns during night'. Mounds, cremation grounds, hills, forests and gardens are said to be the dwellings of Nisāda, Āyogava, Chunchu, Madgu, Kşair, Ugra, Pukkasa, Dhigvaga, Veņa etc. 20 Why they were not allowed to enter and reside in villages and town requires explanation. DR. Ambedkar can explain that away. But we come across the term 'Apa patra' in at least three Dharma Sūtras21. They were people who could not touch and use the food vessels of higher' castes. If they used them, the vessels could not be purified by any means and had to be thrown away. Manu uses the term for Candalas and Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 TULSI-PRAINA Svapacasa. While we are aware of a class who could make foodvessels polluted beyond purification, is it sensible to deny the existence of untouchability at the time ? As a matter of fact, the Dharmashăstras are so full of details about untouchability (particularly about the Cāndalas), that one cannot easily believe there was no untouchability at the time. So Ambedkar argues that there were not untouchables as such at the time, there was simply a class of impure persons: "The distinction between Impure and Untouchable is very clear. The untouchable pollutes all while the Impure pollutes only the Brāhmaṇā. The touch of the Impure causes pollution only on a ceremonial occasion. The touch of the untouchable causes pollution at all times'*28. In order to establish it, Ambedkar quotes some rules of atonement prescribed by the śāstras to dispel pollution caused by the touch of a Câņdāla and draws the following conclusions : 1. "That the pollution by the touch of the Cándāla was obscr ved by the Brāhmaṇa only." 2. "That the pollution was probably observed on ceremonial occasions only" 24 However, there is nothing in the passages quoted by him to suggest that the pollution was observed on ceremonial occasions only. We have reason to believe that slackening of the rules regarding pollution was permitted on special occasions while observance of pollution was the general practice. Atri permits discarding its observance in temple, in religious procession and during marriage, sacrifice and festivals.25 Similar permission is given by śātätapa and BỊbaspati. Smộtyarthasāra, a work of late 121h century enume. rates the following occasions as unfit for observing the rules of pollution-battle, market-passage, religious processions, temples, festivals, sacrifices, sacred places, calamities, invasions, bank of a big reservior, presence of great men, sudden fire. Moreover, there is nothing in the passages from Gautama, asistha and Manu quoted by him to suggest that the pollution was observed by the Brāhmanas only. It is only the passage from Bodhayana that contains the word 'Brāhmana'26. Ambedkar studied the Dharmaśāstras through Eoglish translations and translations lead to confusions some times. Generally the words 'Dvijati' and 'Dvija' are used in the Dharma śāstras for the first three varnas and whenever the Brāhmaṇas alone are intended, the words Vipra' and 'Brahmana' are used. Translators are not always caroful in rendering Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 139 these terms which mislead the researchers too. That seems to be the case here too. We shall now, therefore, collect the evidence that shows pollution was observed not only by Brahmaņas but by Kṣātriyas and Vaigyas also. Yajnavalkya prescribes a hundred pana as fine if a Câṇḍāla dares touch the higher three varņas27. Visņu Dharmasūtra says the untouchable deserves beating for the same offences. Hemadri quotes from Garuḍapurāṇa and Parāśara to show that sixteen castes are to be treated as candālas in matter of sight, conversation and touch". They include Rajaka, Nata, Buruḍa, Kaivarta, Meda and Bhilla as well as blacksmith, goldsmith, barber, carpenter etc. Angirasa Smrti enumerates seven castes as Antyajas, namely, Rajaka, Charmakara, Naţa, Buruḍa, Kaivarta, Meda and Bhilla. Eating cooked food of these castes requires atonement for purification, Candrāyaṇa Kṛchchha and ardha-kṛchchha are prescribed for Brahmanas, Ksatriyas and Vaisyas respectively in this connection". Angira prescribes purificatory measures for all the four varṇas separately in case they dip their pots and take water from a Canḍāla's well by mistakes. Apastamba Smrti enjoins atonement as a must for all the varņas if they drink water from a Canḍāla's well or pot3s. It is also stated there that Cāṇḍālas touch pollutes every varṇa and all of them require atonement. Despite such statements in the Dharmasastras we are expected to believe there were no untouchables at the time ! There are stronger objections to Ambedkar's thesis and basic ones at that time. The distinction between Impure and untouchable mentioned by Ambedkar in Chapter XV of his book goes against the well-known concepts of sociology and does not agree with the distinction between the two drawn by Ambedkar himself in Chapter II of his work. So we turn now to the distinction between Impure and untouchable pointed out in Chapter II and examine how far that distinction is applicable in case of Caṇḍāla etc. 1. Impure person is isolated for a certain period on occasions like birth, marriage, death etc. while untouchable is avoided always. 2. After the expiry of a certain period or after performance of certain rites, the impure is allowed to mix with others in society. But untouchability is permanent. People polluted by the contact of untouchable become pure by bathing etc. but there is nothing that purifies the untouchable. 3. Impurity is caused by certain factors to particular persons or at most to their close relations while untouchability is attached to entire groups: Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 TULSI-PRAJNA 4. Impure people are isolated only for a certain period while untouchables are compelled to live outside the village perma nently. These distinctions are perfectly clear and sociologically sound. Ambedkar should have procecded with them to establish his thesis. Instead, he reduces the distinctions to bare two, namely, "untouchable pollutes all while the Impure pollutes only the Brāhmaṇa", and "the touch of the Impure causes pollution only on ceremonial occasion". That is an unsound way of procedure in historical research and smacks of a lawyer's trick as he does not care to explain the reasons for discarding the criteria for distinguishing between the Impure and untouchable given by himself at the outset of his work. However, an examination of the social conditions of the $hvapacas and Canndālas etc. reveals their similarity with uptouchables in characteristics pointed out in items nos. 3 and 4 above, Ambedkar admits there were entire communities of impure people. It is also beyond dispute that they lived outside the villages. The Dharmaśāstras have indicated residence outside the villages and towns in respect of several groups like śvapacas, Cándalas, Medas, Aodbras, Antyāvasāyins etc. That leaves the first two characteristics. As for the first, we have seen there is no ground for the claim that the Cāņdālas etc. were deemed impure on ceremonial occasions only and by the Brāhmaṇas only. There is nothing in the Dharmaśāstras to indicate that a Candāla could become pure after so many days or after performing such and such purificatory rites. Even Ambedkar dares not claim that the Children of the Candalas etc. were not deemed impure in the age of the Dharmaśāstras. They were born impure, they remained impure while they lived, they died the death of the impure and they gave birth to children who were born with the stigma of impurity affixed to them. So we find in the Dharmaśāstras impurity attached to entire groups since birth, permanent and hereditary. There is no provision for dispelling it after a certain period or after performance of certain purificatory rituals. Finally the Impure" are asked to reside outside the villages. It is not sensible, therefore, that the Cândālas etc. were not untouchables. We must conclude that the alleged Impure were untouchables. Sa Government lists Vs. Untouchability To establish his contention, Ambedkar invokes the authority of the schedule attached to the Order-in-Council issued under the Government of India Act, 1935 by thep Government of India. The Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 141 Schedule is "taken to be both exhaustive and authentic" list of the "vast number of communities which are regarded as hereditary untouchables by Hindus". Ambedkar couterposes the list to the names in the Smṛtis and observes that. 1. Antyaja castes in the Smrtis do not number more than twelve, while the untouchable castes and tribes in the Schedule number 429. 2. Out of the castes mentioned in the schedule only three, namely, Nata, Rajaka and Carmakara are found in the Smrtis. 3. Many communities mentioned in the Smṛtis do not find a place in the Schedule. 4. Only one caste, namely, Carmakara is mentioned in the Smrtis as well as in the Schedule and regarded as untouchable throughout India. Nata and Rajaka appear in both lists but they are regarded as untouchables in part of India only. These facts are "so significant and so telling" according to Ambedkar that they cannot but force the conclusion that people mentioned in the Dharma sastras do not belong to the same category as people mentioned in the Schedule, so he argues that the Smrtis enumerate the 'Impure' while the Schedule lists the untouchable'. Rejection of such interpretation leads to insurmountable difficulties in his opinion35. These difficulties as pointed out by him are as follows: 1. "If these 429 communities belong to the same class as the 12 mentioned by the sastras why none of the sastras mention them ?" 2. "If the Impure are the same as the untouchables why is it that as many as 42 out of 429 should be unknown to the Smrtis"? 3. "If the Impure and the untouchables are one and the same, why those communities which find a place in the Smrtis do not find a place in the list given in the Order-in-Council" ? It is worthwhile to remind here that we have opined that there was untouchability during the age of the Dharmasastras but that is not based on the lists given in the Smrtis. We have established the existence of untouchability during the age independently, not by taking the words like 'Antyaja' and 'Antyavasayin' to chable. Moreover, we have expressed doubts as to how old and reliable the Madhyamängirasa Smrti and Atri Smrti are. So the quesBut we turn to tions raised above do not affect our position at all. mean untou Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 TULSI-PRAJNA discuss the questions in order to further investigate the truth. The first two questions raised by Ambedkar are one and the same in fact. Both are concerned with the vast number in the official list. So it must be clarified at the outset that the schedule of 1935 is a single list divided in nine parts from the legal point of view only. Actually it is a collection of nine lists prepared separately for nine different parts of India. A single list can contain the name of a caste only once, not five, seven or nine times. But the name of the same caste occurs several times in different parts of the Schedule. Such recurrence gives an unreal picture. Sometimes, the name of the same caste occurs with nominal changes in spelling Again, branches of the same caste are often treated as separate castes; eg. Bhântu. Habārā and Sāns are the branches of one caste and the Dherkars and Bansphor are the branches of the other caste but they are all mentioned separately. So the very procedure of preparing the list has inflated the number in the schedule and we cannot expect such a big number anywhere else. It was not possible in the days of the Dharmaśāstras to prepare a list after conducting a census throughout the country. Instead, they wrote about different castes according to social conditions of their own region guided by their own knowledge, experience and whims. The Mahābhārata and the Manusmrti did not intend to prepare a list of untouchables. Their passages referred to above were written simply for registering certain castes as Vrātya, Vrsala or Varnasarkara. Atri, Angira and Yama mention seven castes called Antyajas and say they are untouchables36, but the internal evidence shows they regard other castes like Candāla, śvapaca etc as untouchables too. The Vedavyāsa Smộti enumerates twelve castes and adds and others who eat beef are called Antyajas''87. That means the list is not exhaustive. The rest of the Dharmaśāstras do not attempt to prepare a list as they did not deem it necessary. Even the British who ruled over the whole of the country for a long time did not experience the need of such a list before 1935. How then the authors of the Dharmaśāstras find it necessary ? Names of few castes are mentioned in the Dharmaśāstras as exception and that is done to confirm their status and remove doubts about them. How are we to explain the fact that the names mentioned in the Smrtis do not find a place in the Schedule ? One of the reasons is the change in the names that has taken place due to lapse of time and difference of place. Certain castes are undoubtedly known by new names today and it is not difficult to trace them in the Schedule. For example, Buruda is the same as Basor and it is mentioned in the Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 AB parts of the Schodule meant for U.P., C.P. and Orissa. Kaivarta is mentioned as Dhivara ctc. in different parts of the Schedule. Candála is listed as such in Madras and otherwise elsewhere. The list prepared by a government, however, bears the impact of different pressures, while there are people who strive to include their castes in the list with the hope of ensuring certain advantages, there are others who regard it as something against the dignity of their caste and oppose the enlistment. Such pressures being absent in case of Dharmaśstras, the government list cannot but differ from the list of the Dharmaśāstras. DR. Ambedkar refers of the fact that Nața and Rajaka are not regarded as untouchables in the whole of India and explains it with the contention that they were merely Impure during the age of the Dharmaśāstras. But there are many castes other than Naţa aad Rajaka which are listed as untouchable only in a few provinces or regions. It may be due to the fact that they inhabit these regions only or are known by other names elsewhere. There is also the possibility that they resisted enlistment successfully. What is more important, however, is the fact that they are regarded as untoucha. bles in the major part of the country. Nața is listed as untouchable in Bengal, Bihar, U.P. and Punjab while Rajaka finds a place in the lists for Orissa, Assam, C.P., Bihar, U.P. and Bengal. DR. Ambedkar emphasizes the fact only Camāra of the 12 communities mentioned in the Smstis is regarded as untouchable throughout India and explains it with the thesis that the Camara was impure during the age of the Dharmashāstras but became untouchable subsequently unlike the rest of the communitics mentioned in the Smstis. Why did the Camara alone become untouchable? Ambedkar explains it as follows: "Of the twelve communities mentioned in the Smstis as Impure communities only the Camāra should have been degraded to the Status of an untouchable is not difficult to explain. What has made the difference between the Camara and other Impure communities is the fact of beef-eating. It is only those among the Impure who were eating beef that became untouchables, when the cow become sacred and beef-eating became a sin. The Camara is the only beefcating community. That is why it alone appears in both the lists". 48 That there were no untouchables in the age of the Dharma. sastras has been proved mistaken in the preceding pages. That beef-cating made Impure people Untouchables subsequently is a new point. We reserve the examination of that point for a subsequent Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJAA chapter. For the present, we conclude by summing up what we have discussed in this chapter : 1. Bahya does not mean untouchable. It is used for the so called varņa-sankara-jātis which include the untouchables. 2. The words 'Antya' and 'Antyaja' are interchangeable and they are used in a broad sense for the entire südra Varna and in a narrow sense for untouchables. 3. The existence of untouchability in the age of the Dharmaśāstras is proved independently. Whatever the meanings of Bāhya, Antya or Antyaja may be, that does not affect it. 4. The government list is a political document. certainly not a scientifically prepared list of a sociologist. So it is not wise to base a conclusion solely on the Schedule. Availability of non-availability of names in the Schedule is not that impor tant. 5. Generally the Dharmaśāstras do not care to give any lists. The lists we find despite that are seceptions to the general rule and by no means exhaustive. 6. That there were no untouchables but only 'impure' people during the age of the Dharmaśāstras is a contention based on tortuord and confused logic as well as denial of a lat of facts, References : 1. Vişnu, V. 104 and Katyāyana, 433; 783 The Untouchables, p. 133 3. Manu, X. 30-31 4. Manu, VIII. 270 5. Manu, VIII. 68 6. Do, IV. 79 7. K.P. Jayaswal, Jouernal of Asiatic Society of Bengal, 1913, p. 259 8. Manu, X. 39 9. Anušā sana parva, XLVIII. 10-13 10. Vasisthadharma sūtra, XVIII. 3 11. Mahabharata, śāntiparva, CIX. 9 12. The Untouchables, p. 137 13. Do, p. 137 14. Amarakośa, Kanda II, südravarga, verses 10 and 20 15. Narada, Vivāda peda V. 15-16 16. Do, V.8 17. Manu, X. 39 . 18. Do, X. 36 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 3 19. Do, X. 54 20. Do, X. 50 21. Apastamba (1/7/21 & 1/5/16); Vasistha (20/16); Bodhāyana (1/21/15; 2/2/13) 22. Manu, X. 51 23. The Untouchables, pp. 139-140 24. Do, p. 139 25. Atri, Verse 249 26. Bodhāyana, 1/5/6/5 27. Yajnavalkya, II. 234 28. Visņu, V. 104 29. Kane, History of Dharmashästra, Vol. IV, Chap. IV 30. Angirasa Smrti, Verse 3 31. Do, Verse 4 32. Do, Verses 5-11 33. Apastamba Smrti, IV. 1-3 34. Do, V. 1-5 35. The Untouchables, pp. 140-141 36. Atri, 195-196; Angtrasa, Verse 3; Yama, 33 37. Vedavyasa Smrti, I. 12-13 38. The Untouchables, p. 142 145 -(Upendranath Roy) V & Post-Matteli Jalpaiguri (W.B.) Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registration Nos. Postal Department : NUR-08 Registrar of News Papers for India: 28340/75 TULSI-PRAJNA 1996-97 Vol. XXII Annual Subs. Rs 60/- Rs. 20/- Life Membership Rs. 600/प्रकाशक-संपादक : डॉ. परमेश्वर सोलंकी द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (भारत)-३४१३०६ में मुद्रित कराके प्रकाशित किया गया। ,