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________________ तप है । गीता की मान्यता है कि यज्ञ, दान और तप रूप कर्म त्यागने योग्य नहीं हैं, किन्तु वह कर्म निःसन्देह करणीय है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप-ये तीनों ही फलासक्ति-रहित बुद्धिमान् पुरुषों को पवित्र करने वाले हैं। देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन एवं पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा---यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है । जो उद्वेग को न करने वाला प्रिय और हितकारक एवं यथार्थ भाषण है और जो वेद-शास्त्रों के पढने का एवं परमेश्वर के नाम जपने का अभ्यास है वह निःसन्देह वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है । मन की प्रसन्नता और शान्तभाव एवं भगवत्चितन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण की पवित्रतायह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है । फल को न चाहने वाला निष्काम योगी पुरुष द्वारा परम श्रद्धा से किये गये ये तीनों तप सात्त्विक तप कहलाते हैं - श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः। अफलाकाक्षिभिर्युक्तैः सात्विक परिचक्षते ।।१२ सात्त्विक, राजस् और तामस्- इन त्रिविध कर्मों में हिंसा तामस् कर्म के अन्तर्गत आती है। जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित, फल को न चाहने वाले पुरुष के द्वारा बिना राग-द्वेष से किया हुआ है वह सात्त्विक कर्म कहलाता है। जो कर्म अत्यधिक परिश्रम से युक्त है तथा फल को चाहने वाले और अहंकार युक्त पुरुष के द्वारा किया जाता है वह राजस कर्म कहलाता है । जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य का विचार न करके केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है वह तामस कर्म कहलाता है। जो विक्षेपयुक्त चित्त वाला, शिक्षा से रहित, घमंडी, धूर्त और दूसरे की आजीविका का नाशक एवं शोक करने के स्वभाव वाला, आलसी और दीर्घसूत्री (थोड़े से कार्य को बहुत समय तक भी नहीं करना) है वह तामस कर्ता कहलाता है ----- अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नष्कृतिकोऽलसः । विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।।" मनुष्य कामनावश पापपूर्णकृत्य करता है। गीता के तृतीय अध्याय में अर्जुन भगवान् श्रीकृष्ण से पूछता है कि हे कृष्ण ! यह पुरुष बलात्कार से लगाये हुए के सदश न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है ? श्रीकृष्ण ने जबाब दिया कि हे अर्जुन ! रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है। यही अग्नि के सदृश भोगों से तृप्त न होने वाला (अशन) और बड़ा पापी है । इस विषय में तू इस काम को ही बैरी जान । ज्ञानीजन विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में समभाव से देखने वाले होते हैं विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समशिनः ॥२१ नाश हो गये हैं सब पाप जिनके तथा ज्ञान के द्वारा नाश हो गया है संशय जिनका और सम्पूर्ण प्राणियों (भूत) के हित में है रति जिनकी, एकाग्र हुआ है भगवान् के ध्यान में चित्त जिनका-ऐसे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त परब्रह्म को प्राप्त होते हैं - १८० तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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