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________________ विवाह की स्वीकृति प्राप्त करने का प्रचलन भी हो चुका था। सुमेधा का प्रस्तावित पति राजा 'अनिकरत्त' स्वयं उससे विवाह की स्वीकृति लेने गया था। उस समय कभी-कभी ऐसा भी होता था कि माता-पिता के अत्यधिक अनुरोध के बावजूद भी कन्याएं विवाह सम्बन्धी प्रस्ताव को दृढ़ता पूर्वक अस्वीकार कर प्रवजित हो जाया करती थीं। आगम साहित्य के आधार पर एक और तथ्य भी स्पष्ट होता है कि उस समय विवाह योग्य अवस्था को प्राप्त कन्याओं का भी दर्शन जन-साधारण के लिए सुलभ था। उस समय की सामाजिक परम्परा के अनुसार पोटिला", देवदत्ता आदि कन्याओं का विवाह वय प्राप्त होने पर घर की छत पर गेन्द खेलने का उल्लेख प्राप्त होता है। तथा यौवनावस्था को अप्राप्त सोमा" आदि कन्याओं का राजपथ पर गेंद खेलने का उल्लेख प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट होता है कि यौवनावस्था को प्राप्त कर लेने के उपरान्त कन्याएं घर के बाहर कम जाती थीं। तात्पर्य की भाषा में आगमकालीन समाज में जन-साधारण में पुत्री का दर्शन उसके हित में अनुचित नहीं माना जाता था। वास्तविकता यह है कि कन्याओं के लिए पर्दे का प्रचलन तब तक भारत में कभी नहीं रहा। उस समय की स्थिति के अनुसार जब नारी पुत्र-वधू के रूप में गृह-जीवन में प्रवेश करती थी, तब भी पर्दे का प्रयोग नहीं करती थी। इसका मुख्य कारण यह था कि उस समय पुत्र-वधू के रूप में नारी के जो कर्त्तव्य थे, उनका पालन पर्दै में रहकर नहीं किया जा सकता था। इसके अतिरिक्त श्वसुर आदि अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के सम्मुख नारी आवश्कतानुसार उपस्थित होती थी और उनसे वार्तालाप भी करती थी। सुजाता पुत्र-वधू के रूप में बुद्ध के सम्मुख उपस्थित हुई थी।" ऋषिदासी के श्वसुर ने स्वयं उससे अपने पुत्र की विरक्ति का कारण पूछा था।" धन्ना सार्थवाह द्वारा अपने ज्ञाति एवं मित्रजनों के समुख अपनी पुत्रवधुओं को शालिकण देने की कहानी तो जैन-परम्परा में अत्यन्त विश्रुत है। इतना अवश्य था कि पुत्र-वधुएं अपने श्वसुर आदि विशिष्ट व्यक्तियों के समक्ष उपस्थिति में बहुत ही संयत होती थी। .. आगमकालीन युग में पुत्र-वधू की अपेक्षा ग्रह-स्वामिनी के रूप में नारी अधिकारों की दृष्टि से अधिक सम्पन्न होती थी। अतः उस स्थिति में उसके लिए पर्दे की आवश्यकता ही प्रतीति नहीं होती थी। गृहकार्यों के संचालन का नेतृत्व गृह-स्वामिनी करती थी, अतः समय-समय पर उसका अनेक सामाजिक व्यक्तियों से सम्पर्क होता रहता था। पति की आज्ञा से धर्म-गुरुओं के दर्शनों के लिए भी वह अकेली चली जाया करती थी।" माता के रूप में नारी को आवश्यकतावश कहीं भी जाने की स्वतंत्रता थी। उदान के अनुसार मृगार माता अकेली ही मध्याह्न में बुद्ध के पास गई थी।" थावच्चा भी अपने पुत्र की प्रव्रज्या के प्रसंग में कृष्ण के पास गई थी।" नायाधम्मकहाओ में प्राप्त कुछ संकेतों के आधार पर कुछ विद्वान् यह अंदाज खण्ड २२, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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