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जिनकल्प साधना के मार्ग पर चलने वाले भिक्षाचर्या से संबंधित ऋज्वी गोचरचर्या, गत्वा-प्रत्यागतिका गोचरचर्या आदि विशेष अभिग्रह नहीं करते क्योंकि जिनकल्प की साधना ही उनका यावज्जीवन अभिग्रह है। उसकी प्रतिनियत एवं निरपवाद गोचरचर्या का पालन ही उसका परम विशुद्धि स्थान है। जिनकल्प अवस्था में वे किसी को प्रवजित अथवा मुंडित नहीं करते हैं। यही उनकी कल्पस्थिति है। ध्रुव प्रव्राजी को दीक्षा का उपदेश देकर संविग्न गीतार्थ साधुओं के पास भेज देते हैं।
मन से किसी भी अनाचरणीय की वाञ्छा करने पर उनके जघन्यतः चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त है।
जिनकल्पी शरीर का प्रतिकर्म बिल्कुल नहीं करते। नेत्र के मैल को भी दूर नहीं करते तथा चिकित्सा भी नहीं करवाते। इस अवस्था में रहने वाले साधक किसी भी अपवाद का सेवन नहीं करते। इस साधना को स्वीकार करने वाले केवल तृतीय प्रहर में आहार विहार करते हैं। अवशिष्ट समय में प्रायः कायोत्सर्ग में रहते हैं । जङ्घाबल के क्षीण होने पर वह जब स्थिरवास को स्वीकार करता है तब भी अपनी इस कल्पस्थिति का परिपालन करता है। द्वितीय पद का सेवन नहीं करता।
इस प्रकार जिनकल्पी यावज्जीवन अभ्युद्यत विहार करता हुआ अभ्युद्यत मरण को स्वीकार करता है।
सन्दर्भ :
१. वृहत्कल्प भाष्य गाथा १३७९ :
आवसि निसीहि मिच्छा, आपुच्छ्वसंपदं च गहिएसु ।
अन्न सामायारी, न होंति से सेसिया पंच ।। २. वृहत्कल्प भाष्य गाथा १३८५ :
आयारवत्तइयं, जहन्नयं होइ नवमपुवस्स ।
तहियं कालण्णाणं, दस उक्कोसेण भिन्नाई। ३. वही, गाथा १३८६ :
पढमिल्लुगसंघयणा, धिईए पुण वज्जकुड्डसमाणा ।
उप्पज्जति न वा सिं, उवसग्गा एस पुच्छा उ । ४. वही, गाथा १३८७ :
जइ वि य उप्पज्जंते, सम्म विसहति ते उ उवसग्गे ।
रोगातंका चेवं, भइआ जइ होंति विसहति ।। ५. वही, गाथा १३८८ :
अब्भोवगमा ओवक्कमा य तेसि वेयणा भवे दुविहा । धुवलोआ ई पढमा, जरा-विवागाइ विइएक्को॥
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तुलसी प्रशा
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