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भरत और ऐरक्त क्षेत्र के अतिरिक्त कर्म और अकर्मभूमि में अवस्थित काल होता है। अवस्थित काल (नो अवसपिणी उत्सर्पिणी) के चार प्रतिभाग होते हैंदेवकुरु, उत्तरकुरु में सुषम-सुषमा प्रतिभाग, हरिवर्प-रम्यकवर्ष में सुषमा प्रतिभाग, हैमवत-हैरण्यवत में सुषमा-दुषमा प्रतिभाग और महाविदेहों में दुःषम-सुषमा प्रतिभाग। महाविदेह में उत्पन्न होने के कारण जिनकल्पी मूलत: चतुर्थ प्रतिभाग में ही होता है पर संहरण की दृष्टि से वह किसी भी प्रतिभाग में हो सकता है।"
भरत क्षेत्र में मध्यम बाईस तीर्थङ्करों के तथा महाविदेह में छेदोपस्थाप्य चारित्र नहीं होता । जिनकल्प की प्रतिपत्ति सामायिक चारित्र में होती है। भरत क्षेत्र में प्रथम व अंतिम तीर्थङ्कर के समय में जिनकल्प को प्रतिपत्ति छेदोपस्थापनीय चारित्र में होती है । पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी में सूक्ष्म सम्पराय आदि चारित्र हो सकते हैं।
जिनकल्प साधना तीर्थ में ही होती है। इसकी स्वीकृति जघन्यत: उनतीस वर्ष की अवस्था में हो सकती है क्योंकि उसमें बीस वर्ष की मुनि पर्याय होना जरूरी है। उत्कर्षतः देशोनपूर्व कोटि अवस्था वाला जिनकल्प की साधना अङ्गीकार करता है ।२२
जिनकल्पी अपूर्वश्रुत आगम' का अध्ययन नहीं करते किन्तु पूर्व अधीत श्रुत का एकाग्रमना होकर अनुस्मरण करते रहते हैं । असंक्लिष्ट पुरुषवेदी अथवा नपुंसकवेदी ही जिनकल्प की साधना स्वीकार कर सकता है। स्त्री इस मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकती। पूर्व प्रतिपन्न जिनकल्पी अवेदी भी हो सकता है क्योंकि उपशम श्रेणी के समय नौंवें गुणस्थान के अंत में वह वेदों को उपशान्त करने से अवेदी हो जाता है। केवलज्ञानी नहीं हो सकता क्योंकि वह उस जन्म में नियमतः उपशम श्रेणी ही ग्रहण कर सकता है २६१२४
जिनकल्प स्थितकल्प (प्रथम व अंतिम तीर्थङ्कर के समय) और अस्थितकल्प (मध्यम बाईस तीर्थङ्कर के समय तथा महाविदेह में) होता है। जिनकल्प साधना करने वाले प्रारम्भिक अवस्था द्रव्यलिङ्ग (साधुवेश) और भावलिङ्ग (साधुत्व) दोनों ही होते हैं। आगे चलकर भावलिङ्ग ही रहता है । वस्त्र जीर्ण होने पर, परिष्ठापन कर दिए जाने से अथवा चोर आदि के द्वारा अपहन होने से कदाचित् द्रव्य लिङ्ग रहित भी हो जाते हैं। जिनकल्प स्वीकार करते समय तीन प्रशस्त लेश्या होती है। पूर्वप्रतिपन्न में असंक्लिष्ट अशुद्ध लेश्याएं भी हो सकती हैं : २५
प्रवर्धमान धर्म्य ध्यान की अवस्था में साधक जिनकल्प साधना स्वीकार करता है। पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी के कर्म वैचित्य के कारण कदाचित् अकुशल परिणाम का उदय हो जाने से निरनुबंध (क्षणिक) आर्त और रौद्रध्यान भी हो सकते
एक समय में दो सौ से नौ सौ तथा जघन्यतः एक, दो या तीन व्यक्ति इस साधना को स्वीकार कर सकते हैं । पूर्वप्रतिपन्न जिनकल्पी दो हजार से नौ हजार हो सकते हैं क्योंकि महाविदेह पञ्चक में उनका सदा सद्भाव रहता है।"
खपड़ २२, अंक ३
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