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________________ करते । जिनकल्पी का आहार अल्प और रुक्ष होने के कारण उनका पुरीष अल्प और अभिन्न ही होता है । इसलिए उन्हें निर्लेप की आवश्यकता नहीं होती ।" उनका वसति ( उपाश्रय) के प्रति ममत्व नहीं होता। इसलिए न वे स्वयं उसकी सारसंभाल करते हैं और न ही गृहस्थों को उपलेपन आदि का संकेत देते हैं ।" ये Hi fi को मिट्टी आदि से नहीं ढकते । गौ आदि के द्वारा तोड़ी जाती हुई वसति का निवारण नहीं करते । न वे कपाट बन्द करते हैं, न अर्गला देते हैं ।' जिस वसति में जिन कल्पी साधना करें तो यदि गृहस्वामी उसे प्रश्न करें कि आप यहां कितने दिन रहेंगे ? अथवा यह निर्देश करें कि अमुक स्थान पर उच्चारप्रश्रवण आदि कार्य करना, अमुक स्थान पर नहीं, अमुक स्थान पर रहना, हस्त संकेत से निर्दिष्ट स्थान से तृण फल आदि ग्रहण करना, दूसरे जगह से नहीं, गायों की रक्षा करना, वसति यदि टूट रही हो तो उसका पुनः संस्थापन करना, उपेक्षा मत करना ।" जिस वसति में बलि की जाती हो, दीपक जलाया जाता हो, अग्नि, अङ्गारे आदि का प्रकाश हो अथवा जहां गृहस्थ यह निर्देश दें कि हमारे गृह का ध्यान रखना, वहां जिनकल्पी निवास नहीं कर सकता । " वसति में रहने के लिए अनुज्ञा देते हुए गृहस्वामी यदि यह जिज्ञासा करे कि आप यहां कितने दिन रहेंगे तो जिनकल्प साधना करने वाला मुनि वहां नहीं रह सकता। क्योंकि ये मुनि किञ्चित् मात्र भी दूसरों की अप्रीति के कारण नहीं बन सकते 18 । जिनकल्पी मुनि नियमत: तृतीय पौरुषी में भिक्षाचर्या भिक्षषणा अभिग्रहयुक्त होती है । पानक की भी यही विधि है चणक- सौवीर आदि ग्रहण करते हैं ।" अत्यधिक मासिकी प्रतिमा, भद्रा - महाभद्रा आदि प्रतिमा स्वीकार नहीं करते किन्तु उनकी कल्पस्थिति की परिपालना ही उनका विशेष अभिग्रह होता है । ' अम्ल द्रव्य वे ग्रहण नहीं करते । १५ करता है । उसकी ये अलेपकृत वल्ल १६ जिनकल्पी जहां मासकल्प करते हैं वह ग्राम को छः वीथियों में विभाजित करते हैं । प्रतिदिन एक - एक वीथी में गोचरार्थ जाते हैं। एक वसति में उत्कृष्टतः सात जिनकल्पी एक साथ रह सकते हैं । एक स्थान पर रहते हुए भी परस्पर संभाषण नहीं करते । एक वीथी में एक जिनकल्पी यदि भिक्षार्थ जाता है तो दूसरा वहां नहीं जा सकता । " जन्म और सद्भाव की दृष्टि से जिनकल्पी पन्द्रह कर्मभूमियों में रहते हैं । यदि देव आदि के द्वारा संहरण हो जाए तो अकर्मभूमी में भी उनका सद्भाव हो सकता है ।" जन्म की दृष्टि से जिनकल्पी अवसर्पिणी के सुषम- दुःषमा, दुःषमा - सुषमा नामक तीसरे और चौथे आरे में होते हैं । सद्भाव की दृष्टि से पांचवें आरे में भी जिनकल्पी हो सकते हैं । उत्सर्पिणी काल में वे दुःषमा, दुःषम - सुषमा और सुषम- दुःषमा नामक दूसरे, तीसरे और चौथे आरे में जन्म ले सकते हैं पर जिनकल्प साधना का प्रारम्भ तीसरे और चौथे आरे में ही कर सकते हैं । " २१२ Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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