SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनकल्प की 'सामाचारी' साध्वी विभुतविमा जैन आगमों में दो प्रकार की साधना का वर्णन उपलब्ध होता है-(१) संघबद्ध साधना, (२) संघमुक्त साधना। जो साधक साधना के विशेष प्रयोग करना चाहते हैं वे एक निश्चित समयावधि के लिए संघ से विमुक्त होकर साधना करते हैं। संघमुक्त साधना करने वाले अप्रमत्त साधकों की मुख्यतः तीन श्रेणियां निर्दिष्ट हैं-१. जिनकल्पी, २. यथालन्दक, ३. परिहारविशुद्धि। जैन साधुओं की एक नियत सामाचारी होती हैं। उसके दश प्रकार है- इच्छाकार, मिध्याकार, तथाकार, आवश्यिकी, नषेधिकी, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छन्दना, निमन्त्रणा और उपसम्पद् । उपसम्पद् सामाचारी दो प्रकार की है--साधु विषयक और गृहस्थ विषयक । ज्ञान आदि के लिए दूसरे गण में जाकर उपसम्पदा लेना साधु विषयक उपसम्पदा है । गृहस्थ आदि से प्रवास आदि के लिए अनुज्ञा लेना गृहस्थ विषयक उपसम्पदा है । जिनकल्पी के पांच सामाचारी का प्रयोग होता है---आवश्यिकी, नैषेधिकी, मिथ्याकार, आपृच्छा और गृहस्थ विषयक उपसम्पदा।' कुछ आचार्यों के अनुसार उनके मिथ्याकार और आपृच्छा की अपेक्षा नहीं है । जिनकल्पी का जघन्य श्रुत नौंवें पूर्व की तृतीय वस्तु तथा उत्कृष्ट श्रुत भिन्नदशपूर्व होता है। इससे अधिक श्रुत पर्याय वाला जिनकल्प साधना को स्वीकार नहीं करता किन्तु शासन प्रभावना, परोपकार आदि के द्वारा बहुत निर्जरा लाभ कर लेता है। ____ जिनकल्प की साधना केवल वे ही शक्ति संपन्न व्यक्ति कर सकते हैं जो वज्रऋषभनाराच संहनन तथा वज्रमयी धृति वाले होते हैं।' इस साधना में उपसर्ग, रोग और आतङ्क की भजना है। यदि उपसर्ग आदि आते हैं तो वे उन्हें प्रसन्नता से सहन करते हैं। वेदना के दो प्रकार हैं १. आभ्युपगमिकी वेदना-ध्रुवलोच, आतापना, तप आदि । २. औपक्रमिकी वेदना-कर्म के उदय से होने वाली वेदना । इन दोनों वेदनाओं को वे अदीन मन से सहन करते हैं।' जिनकल्प साधना करने वाले साधक ऐसे स्थान पर कभी भी उच्चार और प्रश्रवण का त्याग नहीं करते जहां लोगों का आवागमन हो अथवा जहां लोग दिखाई दें। दीर्घकालीन बहुदैवसिक उपसर्ग के कारण अनापात (आवागमन रहित) असंलोक (जहां लोग दिखाई दें) स्थण्डिल के अभाव में वे मलमूत्र का विसर्जन नहीं खण्ड २२, अंक ३ २११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy