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________________ इस प्रकार लेखक का यह अध्ययन दशवीं सदी के बाद के व्याकरणों पर ही आधृत है । लेखक द्वारा उद्घाटित तथ्य कि बिना शिरोरेखा के नकार पर शिरोरेखा के प्रयोग से नकार को णकार में बदलने का नियम बन गया - - विचारणीय हो सकता है। इसी प्रकार जैसलमेर भण्डार में प्राप्त 'विशेषावश्यक भाष्य' की ताड़पत्रीय प्रत् में जो प्राचीन भाषा रूप मिले हैं; उन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए। इससे घोषअघोष का ध्वन्यात्मक परिवर्तन सुधारा जा सकता है । इसी प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ में - मध्यवर्ती त=द, पब, अल्प प्राण व्यंजनों का लोप, 'य' - श्रुति, अनुनासिक व्यंजनों का अनुस्वार में परिवर्तन, स्सि और - म्हि लकार और ज्ञ का 'न्न' या 'पण' में बदलना आदि अनेकों प्रसंगों परपर्याप्त सामग्री जुट गई है । तथापि श्रुत परंपरा के गुण दोषों की कहानी और विस्तार से कही जानी चाहिए । अच्छा हो, इस विषय पर अधिकारी विद्वान् मिल बैठकर चर्चा करें और सर्व सम्मत निर्णय प्राचीन भाषा स्वरूप को सुस्थापित करें | डॉ० के० आर० चन्द्र ने इस संदर्भ में अध्यवसायपूर्वक बहुत श्रम किया है किन्तु यह कार्य एक व्यक्ति के सामर्थ्य से बाहर का है । इसलिए उनके कार्य को आगे बढ़ाने का सद् प्रयत्न होना चाहिए । २. शोध और स्वाध्याय, लेखक - हरिवल्लभ भायाणी, प्रकाशक - गुजरात साहित्य अकादमी, गांधी नगर - ३८२०११, प्रथम आवृत्ति, १९९६, मूल्य – ८५ रुपये । पृष्ठ–१९२ । प्रस्तुत कृति में भायाणीजी के शब्दों में – अपभ्रंश, अर्वाचीन भारतीय आर्य का का प्रारंभ काल, पुरानी हिन्दी, पुरानी राजस्थानी, गुजराती इत्यादि के विषय में प्रकाशित लेखादि को पुनः मुद्रित किया गया है। गुजरात हिन्दी साहित्य अकादमी अध्यक्ष के अनुसार संकलित लेखों में अपभ्रंश, अर्धमागधी, प्राचीन गुर्जर भाषा, प्राचीन राजस्थानी, प्राचीन हिन्दी, प्राचीन पंजाबी और लोक साहित्य से संबंधित महत्त्वपूर्ण लेख हैं । वस्तुतः इन लेखों से अपभ्रंश साहित्य पर व्यापक प्रकाश पड़ता है । 'अपभ्रंश भाषा और हेमचंद्रीय अपभ्रंश' शीर्षक में लेखक ने विषय की अच्छी व्याख्या की है । ' अपभ्रंश व्याकरण की कुछ समस्याएं' - - नामक अपर निबन्ध में उसने प्राकृत और अपभ्रंश की भेद रेखाएं खींचने का प्रयास किया है। लेखक की मान्यता है - "यदि हम कहें कि अपभ्रंश साहित्य अर्थात् जैनों का ही साहित्य, तो भी चलेगा।" किन्तु साथ ही वह यह भी मानता है - 'सुविस्तृत अपभ्रंश ग्रंथ भाषा शास्त्रियों से 'अनाघ्रात' पड़े हैं, जिस तरह शकुन्तला पहले थी । ' अब तक उसी भांति दुष्यन्त से मिलने से शब्दों की व्युत्पति, अर्थ चर्चा, शब्दों की कथा आदि भायाणीजी के प्रिय विषय हैं और इस संबंध में संग्रह में अनेकों लेख हैं । 'ढोला-मारू रा दूहा' - संबंधी लेख २३८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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