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________________ पुस्तक समीक्षा साहित्य-सत्कार एवं पुस्तक-समीक्षा १. 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण की समीक्षा और अर्धमागधी'-लेखकडॉ० के०आर० चन्द्र, प्रकाशक-प्राकृत जैन विद्या विकास फंड, अहमदाबाद, प्रथम संस्करण-१९९५, मूल्य-५० रुपये, पृष्ठ-१५२+८ । लेखक ने 'प्रस्तावना' में कहा है कि 'परंपरागत प्राकृत व्याकरण' से उसका तात्पर्य है-'व्याकरण संबंधी वे नियम जो परंपरा से प्राप्त हुए हैं।' उसने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह उपलब्ध प्राकृत साहित्य और प्राकृत शिलालेखों में भाषा का जो स्वरूप मिलता है उसको ध्यान में लेते हुए व्याकरण के अमुक नियमों की समीक्षा कर रहा है कि वे कहां तक उन पर लागू होते हैं ? उसने प्राचीन प्राकृत और उत्तरवर्ती प्राकृत भाषा के अन्तर को व्याकरण ग्रंथों में स्पष्ट न करने तथा क्षेत्रीय प्राकृतों को एक दूसरे से अलग न करने की भी बात मानी है और इसके लिए तर्क दिया है कि उस काल के व्याकरणकारों का उद्देश्य भाषा का ऐतिहासिक या तुलनात्मक अध्ययन करने का नहीं था। उनके द्वारा तो उपलब्ध प्राकृत साहित्य की कृतियों की भाषाओं का कुछ विशेष रूप समझाने के लिए व्यावहारिक दृष्टि से, संस्कृत भाषा से उनकी विभिन्नता दर्शाना ही हेतु था। इस प्रकार डॉ. चन्द्र ने अपनी समीक्षा को सीमित और सुरक्षित कर लिया है। प्रस्तुत प्रकाशन के सभी १५ अध्याय, लेखों के रूप में 'श्रमण', 'तुलसी प्रज्ञा', 'संबोधि', 'प्राकृत विद्या', और 'जैन विद्या के आयाम' में प्रकाशित भी हो चुके हैं; इसलिए उन पर विद्वानों के मन्तव्य भी अज्ञात नहीं हैं। डॉ० चन्द्र ने मूलतः वररुचि के प्राकृत प्रकाश और हेमचन्द्राचार्य के प्राकृत व्याकरण को अपने अध्ययन का आधार बनाया है। उन्होंने पिशेल, मेहेण्डले, नीतिडोलची आदि के मत उद्धृत किये हैं और चण्ड के प्राकृत लक्षणम् भरतमुनि के नाट्य शास्त्र, मार्कण्डेय के प्राकृत-सर्वस्व से भी हवाले दिए हैं किन्तु वाल्मीकि सूत्र जिनेन्द्र व्याकरण, शाकटायन और का-तन्त्र व्याकरण आदि का कोई हवाला नहीं दिया। वररुचि के प्राकृत प्रकाश जैसा कि पूर्व कहा जा चुका है (देखें-आदिशाब्दिक और पारंपरीय प्राकृत-तुलसी प्रज्ञा, पूर्णांक ९७ पृ०७९-८७) में नौंवें अध्ययन के बाद के अध्याय प्रक्षिप्त हैं । मूल में, उसमें आठ ही अध्याय थे। खण्ड २२, अंक ३ २३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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