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शत्रुवधरूपेष्टसाधनत्वमभिचारमूलं कर्म चेति मनुनोपपातकमध्ये पाठादनिष्टसाधनत्वञ्चावगम्यते । तदेतत्कथमुपपद्यत इति चेन्नाततायिनमायांतं हन्यादेवाविचारयनित्येकवाक्यतयाततायिस्थले इष्टसाधनत्वमनाततायिस्थले त्वपपातकत्वेन बलवदनिष्टसाधनत्वमित्यविरोध: कल्प्यते पदार्थान्तरसाकाङ्क्षां विशेषमिति न्यायात्तथा च वैधेतरहिंसाया एव नरकजनकत्वमिति कल्प्यते।'
'सति विरोधे सामान्यशास्त्राद्विशेषशास्त्रं प्रबलम्' इस न्याय स्वरूप 'मा हिंस्यात' 'श्वेतं छागलमालभेत' इन दोनों वाक्यों में सामान्य विशेष भाव होने पर भी भिन्नविषयत्व होने के कारण अर्थात् विषयभेदवश कोई विरोध नहीं है। यहां सामान्यविशेषभाव होने से बाध्यबाधकभाव की जिज्ञासा भिन्नविषयत्व के कारण स्वतः ही समाप्त हो जाती है । 'मा हिंस्यात्' इस निषेध वाक्य द्वारा हिंसा का अनर्थहेतुभाव ज्ञापित होता है न कि अक्रत्वर्थता, अर्थात् इस निषेध वाक्य द्वारा प्रबल रूप से हिंसा का अनिष्टसाधनत्व सूचित होता है न कि यागानुपकारकत्व । यदि यागहिंसा से यागानुपकारकत्व भी ज्ञापित होता तो अवश्य ही सामान्य और विशेषशास्त्र में विरोध होता।
यद्यपि ‘मा हिंस्यात्' इस वाक्य द्वारा हिंसा का प्रबल रूप से अनिष्टसाधनत्व ज्ञापित होता है तथा · श्वेतं छागलमालभेत' इस विधिवाक्य द्वारा प्रबल रूप से हिंसा में अनिष्ट का अननुबन्धित्व अर्थात् इष्टसाधनत्व बोधित होता है। इस प्रकार इन दोनों सामान्य और विशेष वाक्यों में विरोध की अवश्यम्भाविता प्रतीत होती है तथापि 'श्वेतं छागलमालभेत' इस वाक्य द्वारा पशुहिंसा की ऋत्वर्थता कही जा रही है न कि अनर्थहेतुता । क्रत्वर्थता ही यागोपकारकता कहलाती है।
'मा हिंस्यात्' इस निषेध वाक्य से हिंसा पुरुषानर्थकरी है-यही बोधित होता है, न कि हिंसा यागोपकारिणी नहीं है-ऐसा भी। इसी प्रकार 'श्वेतं छागलमालभेत' इस वाक्य द्वारा 'हिंसा यागोपकारिणी है' यही ज्ञापित होता है, न कि 'हिंसा अनर्थकारी नहीं है' यह भी । इस प्रकार इन दोनों सामान्य और विशेष वाक्यों का विषय भिन्न होने के कारण इन दोनों में विरोध नहीं है।
जिस प्रकार 'आमत कोष्ठे कर्फ हन्ति' इस वाक्य का विषय इष्ट की सिद्धि करना है और 'कण्ठे च तत्तकं कर्फ करोति' इस वाक्य का विषय अनिष्ट की सिद्धि करना है। इसी प्रकार ‘मा हिस्यात् सर्वभूतानि' और 'श्वेतं छागलमालभेत' इन दोनों वाक्यों में विषयभेद के कारण परस्पर अविरोध है । कारण कि 'मा हिंस्यात्' इस निषेध वाक्य का विषय अनर्थहेतुत्व है, जबकि 'छागलमालभेत' इस विधि वाक्य का विषय ऋतूपकारकत्व है। अतः उचित तो यही है कि वैधहिंसा में भी नरकजनकत्व और ऋतूपकारकत्व ये दोनों तो हैं. लेकिन स्वर्गजनकत्व नहीं है, जबकि यज्ञ में स्वर्गजनकत्व है, अतः वैधहिंसा द्वारा परम्परया स्वर्गप्राप्ति रूप इष्ट की सिद्धि हो जाती है--अत एव वैहिंसाया अपि नरकजनकत्वं ऋतूपकारकत्वं च कल्प्यं न तु स्वर्गजनकत्वं किन्तु तोरेव स्वर्गजनकत्वं तत्तद्विशेषविध्यभिधानात् । अपि च न मा हिंस्यात्सर्वा भूतानीति सामान्यशास्त्रं विशेषशास्त्रंणाग्नीषोमीय पशुमालभेतेत्यनेन बाध्यत
खण्ड २२, अंक ३
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