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इस प्रकार हिंसा तो हम उसे कहेंगे जो अवैदिकी हो और जिसके द्वारा अनर्थ होना निश्चित हो। वेदोक्त हिंसा के द्वारा किसी भी प्रकार का अनर्थ नहीं होता, इसलिये तो यह शिष्टों का उद्घोष स्पष्ट होता है कि 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' तात्पर्य यह है कि वेदेतर हिंसा ही नरक-जनिका होती है।
___ मीमांसक भी यह स्वीकार करते हैं कि समस्त प्राणियों में हिंसा भाव को विषय बनाना 'अग्नीषोमीयं पशुमालभेत' इत्यादि विध्यर्थक वाक्य का तात्पर्य नहीं है, अपितु मात्र यज्ञविशेष में ही पशु विशेष का आलभन इष्ट है-न खलु सर्वभूतहिंसाभावविषयक कार्यमिति निषेधो विध्यर्थस्य बाधकं बिनाऽग्नीषोमीयपश्वालम्मनविषयकं कार्य विध्यर्थमुपपद्यत इति मीमांसकाः ।
यद्यपि 'श्येनेनाभिचरन्यजेत' यहां श्येनयाग का शवधरूप इष्टसाधनत्व है। यह श्येनयाग अभिचारमूलक कर्म माना गया है । अभिचार कहते हैं-श्येनयागादि के द्वारा शत्रुमरण को। अतः प्रकृत उदाहरण का वाक्यार्थ हुआ - 'श्येनयागेन शत्रुवधं कामयमानः इष्टं भावयेत् ।' मनु ने बलवत् अनिष्ट के जनक जिन उपपातकों को निषिद्वाचरण के रूप में गिनाया है उनमें अभिचार कर्म का भी परिगणन है
गोवधोऽयाज्यसंयाज्यपारदार्यात्मक्रिया । गुरुमातृपितृत्यागः स्वाध्यायाग्न्योः सुतस्य च ॥ परिवित्तितानुजेऽनू ढे परिवेदनमेव च। तयोर्दानञ्च कन्यायास्तयोरेव च याजनम् ।। कन्याया दूषणं चैव वाधुषं व्रतलोपनम् । तडागाराम दाराणामपत्यस्य च विक्रयः ।। ब्रात्यता बान्धवत्यागो भृत्याध्यापनमेव च । भृत्या चाध्ययनादानमपण्यानां च विक्रयः॥ सर्वाक रेष्वधीकारो महायंत्रप्रर्वतनम् । हिंसौषधीनां स्त्याजीवोऽभिचारो मूलकर्म च ।। इन्धनार्थमशुष्काणां द्रुमाणामवपातनम् । आत्मार्थं च क्रियारम्भो निन्दितान्नादनं तथा । अनाहिताग्निता स्येयमृणानामनपक्रिया। असच्छास्त्राधिगमनं कौशीलव्यस्य च क्रिया ।। धान्यकुप्यपशस्तेयं मद्यपरम्त्रीनिषेवणम् ।
स्त्रीशूद्रविक्षत्रवधो नास्तिक्यञ्चोपपातकम् ॥ इसलिये 'श्येनेनाभिचरन्यजेत्' इस वेदोक्त क्रिया तथा 'नास्तिक्यञ्चोपपातकर्मा' इस मनुनिर्दिष्ट अक्रियाकथन में विसंगति रूप दोष की आपत्ति होती है, तथापि 'आततायिनमायांतं हन्यादेवाविचारयन्' इस प्रकार एकवाक्यता द्वारा आततायिस्थल पर इष्टसाधनत्व वोधित होने पर तथा अनाततायिस्थल पर उपपातक द्वारा प्रबल अनिष्ट साधनत्व वोधित होने के कारण विरोध नहीं आता है । फलतः उक्त दोष की आपत्ति का निराकरण हो जाता है-नन्वेवं श्येनेनाभिचरन्यजेतेत्यत्र श्येनस्य
तुलसी प्रज्ञा
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