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मधुपर्के च यज्ञे च पितृदेवतकर्मणि । अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रत्यव्रवीन्मनुः ।। एष्वर्येषु पशून्हिसन्वेदतत्त्वार्थ विद्विजः । आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां गतिम् ।। गहे गुरावण्ये वा निवसन्नात्मवान्द्विजः । नावेदविहितां हिंसानापद्यपि समाचरेत् ।। या वेदविहिता हिंसा नियतास्मिश्चराचरे ।
अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्ब भो ।। यज के निमित्त मांस-भक्षण को देव विधि कहा है । इसके विरुद्ध मांस-भक्षण की प्रवृत्ति राक्षसी विधि है। खरीदकर या स्वयं कहीं से लाकर या सौगात की तरह किसी का दिया हुआ मांस देवता और पितरों को अर्पित कर खाये तो खाने वाला दोषी नहीं होता । विधि को जानने वाला ब्राह्मण सुखावस्था में अविधिपूर्वक मांस न खाये, क्योंकि अविधि से मांस खाने वाले को जन्मान्तर में वे प्राणी खा जाते हैं जिनका मांस उसने खाया था । धन के निमित्त मृग मारने वाले को वैसा पाप नहीं लगता जैसा वृथा मांस खाने वाले को होता है । श्राद्ध और मधुपर्क में तथा विधि नियुक्त होने पर जो मनुष्य मांस नहीं खाता वह मरने के इक्कीस जन्म तक पशु होता है । ब्रह्मण कभी मंत्रों से बिना संस्कार किये पशुओं का मांस न खाए, सनातन विधि को मानता हुआ मंत्रों से संस्कृत किये पशुओं का मांस खाय, पशु मास-भक्षण की यदि प्रबल इच्छा हो जावे तो घृत या मेदा का पशु बनाकर खाय, किन्तु कभी भी पशु को व्यर्थ मारने की इच्छा न करे अर्थात् अपने लिये कभी पशु-हिंसा न करे। देवतादि के उद्देश्य के बिना वृथा पशुओं को मारने वाला मनुष्य मरने पर उन पशुओं की रोम-संख्या के बराबर जन्म-जन्म में मारा जाता है । इसलिये वृथा पशुहिंसा न करे ---
यज्ञाय जग्धिर्मासस्यत्येष देवो विधिः स्मृतः । अतोऽन्यथा प्रवृत्तिस्तु राक्षसो विधिरुच्यते ।। क्रीत्वा स्वयं वाप्युत्पाद्य परोपकृतमेव वा । देवान् पितंश्चार्चयित्वा खादन्मांसं न दुष्पति ॥ नाद्यादविधिना मासं विधिज्ञोऽनापदि द्विजः । जग्ध्वा ह्यविधिना मांसं प्रेत्य तैरद्यतेऽवशः ।। न तादृशं भवत्येनो मृगहन्तुर्धनार्थिनः । यादृश भवति प्रेत्य वृथामांसानि खादतः ।। नियुक्तस्तु यथान्यायं यो मांसं नात्ति मानवा । स प्रेत्य पशुतां याति षंभवानेकविंशतिम् ।। असंस्कृतान्पशून्मन्त्रैर्नाद्या द्विप्रः कदाचन । मन्त्रैस्तु संस्कृतानद्याञ्छाश्वतं विधिमास्थितः॥ कुर्याद्घतपशु सङ्ग कुर्यात्पिष्टपशुं तथा । यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वोहि मारणम् । वृथापशुध्नः प्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ।'
खण्ड २२, अंक ३
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