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________________ राम-चक्र को देख रहे थे।" इतना ही नहीं स्वयं श्रीराम के मुख से वाल्मीकि ने कहलवाया है-'एतदस्त्रबलं दिव्यं मम वा त्र्यम्बकस्य वा" अन्यत्र भरत श्रीराम के लिए कहते हैं- "हे राघव ! आप देवोपम सत्त्व से युक्त, महात्मा, सत्यप्रतिज्ञ, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और बुद्धिमान हैं। ये सभी सन्दर्भ श्रीराम के ईश्वर और सर्वज्ञ रूप को दर्शाते हैं। ईश्वर की महिमा प्रतिपादित करते हुए एक स्थान पर श्रीराम, तारा (बाली की पत्नी) को कहते हैं-तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि विधाता ने ही इस सम्पूर्ण जगत् की सृष्टि की है, वही इसे सुख-दुःख से संयुक्त करता है, तीनों लोकों के प्राणी विधाता के विधान का उल्लंघन नहीं कर सकते। ___ इन सब सन्दर्भो से ज्ञात होता है कि महर्षि वाल्मीकि श्रीराम को विष्णु का अवतार मानते हुए उन्हें सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, विभु और सर्व शक्तिमान् रूप में देखते थे और मानते थे कि ईश्वर जगत् का कर्ता, संहर्ता सब कुछ है उसके विधान का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता। २. जीवात्म-विचार पुनर्जन्म और परलोक गमन की चर्चा वाल्मीकि रामायण में अनेकशः आती है जो इस तथ्य की परिचायक है कि वाल्मीकि आत्मा की सत्यता और नित्यता को स्वीकार करते हैं, जो एक योनि से दूसरी योनि में संचरण करती रहती हैं। वाल्मीकि रामायण में जीवात्मा के लिए भिन्न-भिन्न स्थलों पर भिन्न शब्दों का प्रयोग मिलता है जैसे लिङ्गी, भूतात्मा, सत्त्व', आत्मा" आदि। ये भिन्न शब्द आत्मा के भिन्नभिन्न स्वरूपों को दर्शाते हैं। 'लिङ्गी' का अर्थ है 'लिङ्ग वाला।' आत्मा इन्द्रिय, शरीर, मनसादि लिङ्गों से युक्त होता है इसलिए उसे 'लिङ्गी' कहते हैं। इसी प्रकार पाञ्चभौतिक शरीर में रहने वाला तत्त्व 'भूतात्मा' कहलाता है। जिस तत्त्व की सदैव सत्ता हो वह 'सत्त्व' है, अतः आत्मा की नित्यता के कारण उसे 'सत्त्व' कहा गया है । इस प्रकार स्पष्ट है कि महर्षि वाल्मीकि ने आत्मा जैसे नित्य तस्व को स्वीकारा है। ३. कर्मफल, पुनर्जन्म और परलोक-विचार पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धान्त को चार्वाक के अतिरिक्त भारतीय दर्शन के लगभग सभी सम्प्रदायों ने स्वीकार किया है, जिसके अनुसार जीव को अपने शुभाशुभ कर्मों का फल इसी जन्म में या अग्रिम जन्म में अवश्य भोगना होता है ।" हमारे ये शुभाशुभ कर्म ही विभिन्न लोगों और विभिन्न योनियों की प्राप्ति के नियामक बनते हैं । संसार का लगभग प्रत्येक जीव कर्मफल व्यवस्था से आबद्ध होता है। युद्ध काण्ड में कहा गया है-जीवों को धर्म और अधर्म रूप कर्म के फल इस लोक और परलोक दोनों में सेवन करने पड़ते हैं। श्रीराम एक स्थल पर जाबाल मुनि को कहते हैंमानव जीवन रूपी इस कर्मभूमि को पाकर शुभ कर्मों का ही अनुष्ठान करना चाहिए क्योंकि अग्नि, वायु और सोम अपने-अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न फलों के भागी २१८ तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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