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इस अनुमान द्वारा आध्यात्मिक वायु से सम्बन्ध होने पर जागरूकता के कारण व्रीहि इत्यादि बीजों में भी प्राणत्व स्वीकार करना पड़ेगा । मनु ने भी बीजों में प्राण होने की बात को स्वीकार किया
शारीरजः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः ।
वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम् ॥' अभक्ष्य का भक्षण करना, अभोज्य को भोजन का विषय बनाना, अपेय का पान करना, अयाज्य का यजन करना, असत्प्रतिग्रह, परस्त्रीगमन करना, पर द्रन्य का अपहरण करना और प्राणियों की हिंसा करना-ये शारीरिक दोष हैं। पारुष्य, अनूतत्ब, विवाद और श्रुतिविक्रय - ये वाचिक दोष हैं। किसी भी व्यक्ति को पीड़ा पहुंचाना, किसी व्यक्ति के द्रव्य का अपहरण करना, क्रोध, लोभ, मान और अहंकार -ये मानसिक दोष हैं। इन दोषों को व्यक्ति जब भी जिस उम्र में करता है वे दोष उस व्यक्ति को उसी उम्र में जकड़ लेते हैं, अतः बीजवध वस्तुतः वध ही है। इस प्रकार जहां-जहां बाह्य साधनों द्वारा कर्म साधित होते हैं वहां-वहां सर्वत्र कोई न कोई पीड़ा अवश्य होती है इसलिये हम यह नहीं कह सकते कि व्रीहि इत्यादि साधनस्वरूप यागकर्मों में परपीड़ा नहीं है।
चार प्रकार की कर्मों की जातियां हैं कृष्णा, शुक्ल कृष्णा, शुक्ला तथा अशुक्लाअकृष्णा । तमोमूलक तथा मात्र दु:ख रूप फल को उत्पन्न करने वाले ब्रह्महत्या इत्यादि कर्म कृष्णा जाति के अन्तर्गत आते हैं । ये कर्म दुरात्मा जनों के द्वारा किये जाते हैं । रजोमूलक, जिसमें दुःख गौण हो एवं सुख रूप फल विद्यमान हो, ऐसे बाह्य साधनों के द्वारा साध्य यागादि कर्म शुक्लकृष्णा जाति के अन्तर्गत आते हैं। यज्ञ इत्यादि में परपीड़ा और परानुग्रह दोनों वर्तमान रहते हैं, अतः यह शुक्ल कृष्णा जाति पाप और पुण्य दोनों की जनिका है । यह जाति याज्ञिकों का विषय है । सत्त्वमूलक तथा मात्र सुख रूप फल को ही पैदा करने वाले, मात्र मन से ही साध्य सन्ध्या, उपासना, तप स्वाध्याय, प्रणवजप इत्यादि कर्म शुक्ला जाति के अन्तर्गत आते हैं। परपीड़ा राहित्यवश तथा स्वाध्याय इत्यादि के कारण यह जाति मात्र पुण्य की जनिका है जो सभी जनों का विषय बनती है । सत्त्व, रजस् और तमो रूप गुणत्रय के अहेतुक निजानन्द रूप फल को उत्पन्न करने वाले सम्प्रज्ञात समाधि-साध्य कर्म अशुक्ला-अकृष्णा जाति के अन्तर्गत आते हैं। ये कर्म योगियों के विषय बनते हैं । इस प्रकार जैसे दक्षिणा दान इत्यादि पुण्यकर्मों द्वारा शुक्लात्मक होने के कारण यागादि की विशुद्धि है उसी प्रकार पशुवध इत्यादि पापकर्मों द्वारा कृष्णात्मक होने के कारण यागादि की अविशुद्धि भी
जिस प्रकार दक्षिणा, दान इत्यादि पुण्य कर्मों के योग के कारण ज्योतिष्टोम इत्यादि यज्ञों द्वारा धर्म की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार पशुवध इत्यादि पापकर्मों के योग के कारण अधर्म की भी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार धर्म और अधर्म का जो साहचर्य है उसकी संकर संज्ञा होती है । याग में पुण्य अधिक होता है और पाप न्यून । इस प्रकार पुण्य की अपेक्षा उस पाप का स्वल्पत्व है । संकर नामक यह पाप
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तुलसी प्रज्ञा
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