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________________ भाषा अध्ययन: राजस्थानी भाषा में खड़ी-बोली का प्रयोग मनोहर शर्मा पिछले लगभग एक हजार वर्षों से राजस्थानी भाषा में सतत साहित्य-निर्माण हो रहा है और इस साहित्य-सामग्री में पद्य के साथ ही गद्य की भी विविध विधाएं हैं। यह सामग्री अत्यन्त सरस, शिक्षाप्रद तथा प्रेरणादायक है। अभी तक इसका बहुत ही थोड़ा अंश प्रकाश में आ पाया है परन्तु इस स्वल्पांश ने ही बड़े-बड़े विद्वानों को चमत्कृत कर दिया है। इतना ही नहीं, इसके प्रभाव से अब तो राजस्थानी भाषा में नव-निर्माण की प्रक्रिया भी बड़ी तेजी से चल पड़ी है, जो लगातार विकास को प्राप्त कर रही है। ध्यान रखना चाहिए कि राजस्थानी भाषा की विविध शैलियां हैं, जिनमें प्रचुर साहित्य-रचना हुई है। पन्द्रहवीं शती तक राजस्थानी तथा गुजराती समानरूपा थीं। ऐसी स्थिति में राजस्थानी भाषा की एक शैली में गुजराती के उपलक्षणों का प्रकट होना तो स्वाभाविक ही है। इसके साथ ही राजस्थानी में ब्रजभाषा का भी मिश्रण हुआ, जिसे 'पिंगल' नाम दिया गया और इसमें काफी रचनाएं हुई। पिंगल के साथ ही राजस्थानी भाषा की 'डिंगल' शैली भी प्रख्यात ही है, जिसके 'गीत' अनूठे तथा अनुपम हैं। इसी क्रम में यह भी ध्यान देने योग्य विषय है कि अनेक पुरानी राजस्थानी रचनाओं में पंजाबी का प्रभाव भी साफ नजर आता है, जिसके लिए यहां की 'नीसाणी' नामक रचनाएं द्रष्टव्य हैं। इसी सिलसिले में राजस्थानी भाषा की उन पुरानी रचनाओं पर भी सहज ही ध्यान चला जाता है, जिनमें खड़ी बोली का प्रयोग अथवा मिश्रण है। वहां राजस्थानी एक भाषा के रूप में समादत है और खड़ी बोली एक बोली के रूप में है। राजस्थानी भाषा की रचनाएं ऐसी भी हैं, जिनमें आद्यन्त यही शैली अपनाई गई है। इस दिशा में 'बहलीमां री बात' का नाम एक नमूने के रूप में लिया जा सकता है जो आकार में काफी बड़ी है और तत्कालीन 'उपन्यास' का रूप ग्रहण किए हुए है। ___ राजस्थानी भाषा का पुराना गद्य-साहित्य बड़ा समृद्ध है। इसमें विविध विधाएं हैं, जो बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें एक विधा राजस्थानी 'बात' है। हजारों राजस्थानी बातें पुरानी हस्तप्रतियों में अद्यावधि सुरक्षित हैं, जिनमें से बहुत ही थोड़ी सी 'बातें' प्रकाश में आ पाई हैं । राजस्थान में 'कहानी' के लिए 'बात' शब्द प्रचलित है। इसके साथ ही 'कथा' का भी अपना अलग महत्त्व है। राजस्थानी भाषा की 'जैन-कथाएं' विशेष विख्यात हैं, जिनमें अपनी कुछ अलग विशेषताएं हैं। खण्ड २२, अंक ३ २२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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