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करते हैं उसकी आयु लक्ष्मी, स्त्री तथा पुत्र नष्ट हो जाते हैं और अपने जन्मनक्षत्र के वृक्षों के बढ़ाने और पालन करने से आयु आदि की वृद्धि होती है। प्रसिद्ध वैद्यों के कहे हुए औषधों के उपयोग को जानकर भी जन्म नक्षत्र के वृक्षों का प्रयोग न करे । नक्षत्रों को संज्ञा
स्वादि, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषग् इन पाच नक्षत्रों की घर अथवा चल संज्ञा होती है ।
मघा, भरणी और तीनों पूर्वा इन पांच नक्षत्रों की क्रूर अथवा उम्र संज्ञा होती
है ।
रोहणी और तीन उत्तरा इन चार नक्षत्रों की स्थिर और ध्रुव संज्ञा होती है । मूल, अश्लेषा, ज्येष्ठा और आर्द्रा इन चार नक्षत्रों की दारुण अथवा तीक्ष्ण संज्ञा
होती है ।
पुष्य, हस्त, अश्विनी और अभिजित इन चार नक्षत्रों की लघु अथवा क्षिप्र संज्ञा होती है ।
रेवती, मृगशिरा, चित्रा और अनुराधा इन चार नक्षत्रों की मृदु अथवा मित्र संज्ञा होती है ।
विशाखा और कृत्तिका इन दो नक्षत्रों की मिश्र या साधारण संज्ञा होती है । जो नक्षत्र जिस संज्ञा के होते हैं उनमें वैसा कार्य करने से सिद्धि होती है । जैसे चर अथवा लघु संज्ञा वाले नक्षत्रों में प्रयाण, विद्यारंभ करने से लाभ होता है । उग्र, स्थिर और मित्र संज्ञा वाले नक्षत्रों में मांगलिक, अभिषेक या आराम आदि शांतिमय कार्य किए जाते हैं ।
यात्रा मुहूर्त
सिद्धियोग, अमृत सिद्धियोग, सर्वार्थसिद्धियोग, मृत्युयोग, ज्वालामुखीयोग, यमघंटयोग, उत्पातयोग, कुमारयोग, राजयोग, स्थिरयोग, रवियोग आदि अनेक योग, तिथि, वार और नक्षत्र इन तीनों के योग से बनते हैं, कोई योग इनमें से दो के योग से बनते हैं, ये योग मुहूर्ती में काम आते हैं ।
तप मुहूर्त, लोच मुहूर्त, विद्याभ्यास मुहूर्त, यात्रा मुहूर्त, वस्त्रधारण मुहूर्त, अनशन मुहूर्त्त, गृहप्रवेश मुहूर्त, मंत्रसाधन मुहूर्त, भूमि पूजन मुहूर्त, प्रतिष्ठा मुहूर्त, शान्तिपौष्टिक मुहूर्त्त आदि अनेक मुहूतों नक्षत्र का विशेष स्थान होता है । प्रस्तुत प्रकरण में अन्य मुहूर्ती की उपेक्षा कर केवल यात्रा मुहूर्त पर विचार कर रहे हैं । यात्रा मुहूर्त में भी केवल नक्षत्रों के भोजन पर चर्चा करना अभीष्ट है । नक्षत्र भोजन
तिथि और वार अशुभ होने पर उनके अनुपालन से उनकी अशुभता दूर हो जाती है । नक्षत्रों का अनुपान प्रचलित नहीं है। मुहूर्तचिंतामणी यात्रा प्रकरण ( श्लोक ८४.८५ में ) नक्षत्रों का भोजन दिए गए हैं। उनमें १० नक्षत्रों का भोजन पशु पक्षियों का मांस है । इसलिए प्रचलित नहीं है । सूर्य प्रज्ञप्तिसूत्र (१०।१२० ) में
खण्ड २२, अंक ३
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