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________________ कर वह गीत-पर्याय अर्थात् श्रुत-वाक भाषा बन जाता है। श्रुतज्ञान के प्रमुख दो भेद हैं--द्रव्यश्रुत और भाव-श्रुत। "द्रव्यश्रुतानुसारि" परप्रत्यायनक्षयं श्रुतं' के अनुसार भावश्रुत से पहले द्रव्यश्रुत आवश्यक है। अन्तर्जल्परूप श्रुत भावश्रुत की पूर्व पर्याय है। शब्द में ढल कर वह भावश्रुत बन जाता है । मति-श्रुत में परस्पर भेदाभेद है। वह कुंजर और परमाणु की तरह नहीं अपितु बल्क और शुम्ब की तरह है। ज्ञाता के लिए पहले मतिज्ञान होता है, फिर द्रव्यश्रुत और फिर भावश्रुत। शब्द केवल अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। उसमें निहित" संकेत ज्ञान का संवाहक बनता है। पञ्चेन्द्रिय प्राणियों की भाषा में भी अंतर है। मनुष्य सैकड़ों प्रकार की भाषाएं बोलता है। पशु भी अपनी भाषा में बोलते हैं। उनका अपना सीमित शब्दकोश होता है । बन्दर की भाषा में १८-२० शब्द होते हैं। इसी तरह पक्षियों की भी अपनी एक भाषा होती है । देवताओं में भाषा और मन एक साथ .. होते हैं। श्रुतज्ञान केवल श्रोतेन्द्रिय का ही विषय नहीं है । श्रोतेन्द्रिय का विषय तो श्रुत है, पर श्रुत केवल श्रोतेन्द्रिय का विषय नहीं है। चक्षु के द्वारा भी श्रुतज्ञान होता है। बल्कि हर इन्द्रिय के द्वारा होने वाला सूक्ष्म साभिलाष्य ज्ञान भी श्रुतज्ञान है । हर ज्ञान का अपना एक अभिलायक स्वरूप बनता है। शब्द तरंगों की ही तरह रूप, गंध आदि की भी अपनी तरंगें होती हैं। तरंगों के प्रकम्पनों का परस्पर संक्रमण भी हो सकता है। जिस तरह शब्द तरंगें श्रोतेन्द्रिय की अनुकूल आवृति का विषय बन कर, साभिलष्य बनकर श्रुतज्ञान बनती हैं उसी तरह रूप तरंगें चक्षुरिनि:य का विषय बन कर साभिलाष्यता के रूप में अव्यक्त श्रुतज्ञान बनती हैं। तरंगें ही अपनी नियत आवृतियों के रूप में इन्द्रिय ज्ञान का विषय बनती हैं । इसीलिए उनका वैविध्य इन्द्रिय ज्ञान की विविधता की ओर संकेत करता है। एकेन्द्रिय वनस्पति प्राणियों की संवेदना को हम विविध आयामों में देखते ही हैं। __ मति और श्रुत का साहचर्य है। जिस प्राणी" में मतिज्ञान होता है उसमें श्रुतज्ञान भी होता ही है। एकेन्द्रिय प्राणी में श्रोतेन्द्रिय नहीं है फिर भी श्रुतज्ञान है, इसका यही आशय है कि स्पर्श इन्द्रिय द्वारा गृहीत मतिज्ञान ही शब्दानुसार साभिलाष्य बनकर श्रुतज्ञान बन जाता है। १९२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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