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________________ श्रुत-ज्ञान--एक मीमांसा मुनि सुखलाल ज्ञान जीवन की पहचान है । अजीव में ज्ञान नहीं होता। भिक्षु शब्दानुशासनम् में "ज्ञांश् अवबोधने" कह कर ज्ञान का अर्थ अवबोध किया है । हर' प्राणी में कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य होता है। यही जीव और अजीव की भेदक रेखा है। पदार्थ का लक्षण है अर्थ क्रियाकारित्व। पुद्गल तत्त्व में तरंगों के रूप में अपनी भौतिक क्रिया होती रहती है। पर प्राणी भौतिक क्रियाओं को जैव-प्रक्रिया के माध्यम से पकड़ता है। एक अवस्था ऐसी भी आती है जब ज्ञान के लिए भौतिक-रासायनिक क्रिया की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह चेतना की सर्वोच्च स्थिति है। अल्पतम विकसित प्राणी है एकेन्द्रिय । पञ्चेन्द्रियता इन्द्रिय ज्ञान के विकास की उच्चतम कक्षा है। पञ्चेन्द्रिय प्राणियों में भी ज्ञान की अनंत तरतमता है। श्रेष्ठतम ज्ञान तो केवलज्ञान ही है। वह इन्द्रिय सापेक्ष नहीं है। मति और श्रुत इन्द्रिय सापेक्ष है। वे स्पर्शन, रसन, घ्राण, दर्शन और श्रवण के माध्यम से होते हैं। सभी ज्ञान माध्यमों का अपनाअपना महत्त्व है। पर श्रोतेन्द्रिय का विषय श्रुतज्ञान, इन्द्रियज्ञान की विशिष्टतम उपलब्धि है। वही मानवीय-सम्बन्धों एवं समाज-संरचना की समायोजक कड़ी है । शब्द तो प्रसरणशील है । तरंग दैर्ध्य के रूप में वह सबसे टकराता है। पर उसे ग्रहण पञ्चेन्द्रिय प्राणी ही कर सकता है । इन्द्रिय मनोनिबन्धनम्'-'मतिः' के अनुसार मतिज्ञान ज्ञान की पहली सीढ़ी है। इसे ही आभिनिबोधक ज्ञान कहा गया है। पर सूक्ष्मता से देखें तो दोनों में भेद भी है। आभिनिबोध निकटता से होने वाले प्राप्यकारी ज्ञान का प्रतिरूपक है। वह श्रुत-निश्रित भी होता है और अश्रुतनिश्रित भी होता है। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा श्रुत-निश्रित है तथा औत्पत्तिकी वैनयिकी, कार्मिकी, पारिणामिक ये चारों बुद्धियां अश्रुत-निश्रित हैं। श्रुतज्ञान का मूल है ध्वनि । वह शब्द के रूप में भी परिणत होती है तथा भाषा के रूप में भी। शब्द" जीव, अजीव तथा मिश्र तीनों प्रकार का होता है । सहन्यमान और भिधमान पुद्गल की ध्वनि रूप परिणति को शब्द कहा गया है। भाषा', भासिज्जमाण ध्वनि परिणाम है--बोला जाता हुआ पुद्गल-परिणाम भाषा है । वह श्रुतज्ञान है । वह स्थूल, कालान्तर स्थायी तथा शब्द संकेत का विषय बनकर व्यञ्जन पर्याय बनता है। वह अक्षर-आकृति में ढलकर लिपि बन कर पीढ़ियों की अपनी परम्परा बनाता है । संगीत केवल ध्वनि-परिणाम है, अभाषा है। गीत में बंध खंड २२, अंक ३ १९१ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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