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छंदालंकाराई णिग्घंटइं जोइसाइं गहगमणपयट्टई ।
कव्वई णाडयसत्थई सुणि यई पहरणाई णीसेसई गुणियइं॥ अर्थात् 'सिद्ध भगवान् को नमस्कार करो' ऐसा कहकर नाग ने पुत्र को अट्ठारह प्रकार की लिपियां दिखलायीं और वह मेधावी कामदेव सीखने लगा । स्याही से काले अक्षर लिखना, गणित, गांधर्वविद्या, व्याकरण भी सिखाया। नागकुमार नित्य पढ़ते पढ़ते सरस्वती का निवास पंडित बन गया। उसने छन्द, अलंकार निघण्टु, ज्योतिष, ग्रहों की गमन प्रवृतियां, काव्य एवं नाट्यशास्त्र सुने एवं समस्त आयुधों का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया। शारीरिक सौन्दर्य
वह आभ्यन्तरीय शोभा से सम्पन्न तो था ही, उसका बाह्य शरीर संहनन भी अपूर्व आकर्षक था। जिस युवति ने उसके किशोरवय पर दृष्टि डाली, वह कामोद्वेगित होकर आसक्त हो गयी । योवन-धन्या कुमारियों के नेत्र भी उसके रूप-यौवन, सुगठितशरीर और दिव्य मुख को निरखकर धन्य हो जाते थे। उसके आंगिक सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कवि कहता है
सोहइ वट्ठलपानिपवट्ठहिं उग्णय पायपुट्ठिअंगुहिं । उण्णयवित्थिपणे भालयले उग्णयभुयसिहरहिं बलपवलें ॥ पेक्खइ जहिं जहिं जणु तहिं तहिं जि सुलक्खणभरियउ ।
वण्णइ काइं कईं जग वम्महु सइं अवयरियउ। वह लावण्य का पुंज था । स्वयं चन्द्रमा था। विविध गुण रत्नों की खान था मानों विश्व सुन्दरी लक्ष्मी ने ही विलास युक्त उत्तम पुरुष के शरीर को धारण किया हो :
णं लावण्णपुंजु णं ससहरु णं गुणरयणरइउ ।
णं पुरवर सिरीए णरवरतणु सग्गविलासु लइयउ ॥ क्रीडा प्रिय
कुमार विविध शास्त्रीय-विद्याओं में निष्णात तो था ही अत्यन्त क्रीड़ा-प्रिय भी था। उसकी पैतृक सम्पत्ति को एक जुआरी श्री वर्म के दौहित्र ने द्यूत में जीत लिया था। पिता की आज्ञा पाकर द्यूत क्रीड़ा में अपनी सम्पत्ति तथा श्री वर्म की सम्पूर्ण सम्पत्ति जीत लेता है, परन्तु शत्रु की सम्पत्ति को सहज रूप से लौटा कर अपनी उदारता का परिचय देता है । द्यूत क्रीड़ा का उदाहरण द्रष्टव्य है :__ मई सहुं अज्जु सलक्खण खेल्लहि देहि सारि लइ पासउ ढालहि ।
ता ति तिह करेवि खणे जित्तउ, जणण णीसेसु वि हित्तउ ॥"
युद्धवीर
वह कुमार न केवल शारीरिक सौन्दर्य में उत्कृष्ट था बल्कि वीरता, धीरता, शौर्य एवं पराक्रम में भी अद्वितीय था। अरिदमन को भी दमन करने वाला कुमार व्याल अपने स्वामी के रूप में नागकुमार को स्वीकार करता है।
गयदप्पे करिकरदीहबाहु जयकारिउ जायवि णिययणाहु ।१२
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तुमसी प्रज्ञा
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