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५. इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि जहां पर छन्द की दृष्टि से लघु मात्रा अर्थात् --हि होना चाहिए उसके बदले में --हिं का प्रयोग होने से मात्रा गुरु हो जाती है । इस अवस्था में ऐसा अनुमान भी नहीं किया जा सकता कि मूल हस्तप्रत में ...हि पाठ होगा और संपादक श्री ने उसे --हिं (अनुस्वारयुक्त हि) कर दिया हो। तब ऐसा समझ कर चलना चाहिए कि ----हिं गुरु होते हुए भी उसे लघु मानना (पढ़ना)
चाहिए। ६. परंतु इन्हीं संपादक श्री ने ऐसी अवस्था में --हिं के बदले में ---हिं विभक्ति
(चन्द्र बिन्दु युक्त/-हि) लिखने की पद्धति सुझायी है । 'लीलावईकहा' में यही पद्धति अपनाई गई है, देखिए(अ) "लीलावईकहा : कोहल' में प्रयुक्त -हि, -हिं और -हिं विभक्तियां---
१. जस्स/पिय-बंधवेहि/व/चउवयण-विणिग्गएहि/वेएहि ।
ऍक्क/वयणारविंद-ट्ठिएहिं/बहु-मण्णिओ/अप्पा ॥२१॥ २. अच्छउ/ता/णिय-छत्तं/सेसाइ/वि/जत्थ/पामरवहूहिं ।५१।
३. अहिसारियाहि/आमुक्क-मंडणाहि/पि/संचरिउ ।५६। (ब) पउमचरिउ--स्वयंभू* में भी लघु मात्रा के लिए -हिं का प्रयोग
१. गियइँ/सिर इँ/विज्जाहरेहिँ २.२१,१.१० (१४ मात्रिक छन्द)
तो/राहवेणे लइज्जइ/वाणे हि २.२१.७.७ (१६ मात्रिक छन्द) (स) पउमसिरीचरिउ : धाहिल** से उदाहरण
पउमसिरि-सहिउ/विहिहिं/कुमारु/(१६ मात्रिक छन्द) संधि २.२१.२४५ [--हिं=गुरु] वज्जते हि/तूहि (संधि २.२.२३ [-हि-लघु] ) फुडु/त/जि/वृत्त/पयडक्खरेहि (संधि १.१७.१७) उब्भिन्न-वहल-पुलयंगयेहिँ (संधि १.९.११) [यहां पर --हिं गुरु के रूप में और ----हि, हिं लघु के रूप में प्रयुक्त
७. ऐसी अवस्था में प्रवचनसार में जहां पर भी --हिं का प्रयोग है परन्तु छन्द की
दृष्टि से वह लघु हो तो ऐसे स्थलों पर हिं के बदले में – हिँ या -हि प्रयुक्त किया जाना चाहिए। यदि हस्तप्रतों में -हि का प्रयोग ही जब नहीं मिलता हो
1 संपा. डॉ० ए० एन० उपाध्ये, सिंघी जैन शास्त्र विद्यापीठ, भारतीय विद्या भवन, बंबई, ई.सं. १९४९ ।
(यह महाराष्ट्री प्राकृत में एक कथा-काव्य ग्रन्थ है ।) * डॉ० ह० चू० भायाणी, सिंघी जैन शास्त्र विद्यापीठ, भारतीय विद्या भवन, बंबई,
ई.सं. १९५३ । ** संपा. मोदी एवं भायाणी, सिंघी जैन शास्त्र विद्यापीठ, भारतीय विद्या भवन, बंबई,
ई.स. १९४८ ।
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- तुलसी-प्रज्ञा
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