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________________ खाने से वह फल नहीं मिलता जो केवल मांस छोड़ देने से मिलता है । 'मैं यह जिसका मांस खाता हूं, परलोक में वह मुझे ही खायेगा, यही मांस का मांसत्व हैं ऐसा पण्डितों का कहना है । मां खाने, मद्य पीने और स्त्री प्रसंग करने में दोष नहीं है, क्योंकि प्राणियों की प्रकृत्ति ही ऐसी है, परन्तु उससे निवृत्त हो जाना महाफलदायी है - मोक्ष प्राप्ति में अहिंसा सहायक है । इन्द्रियों के नियन्त्रण से राग-द्वेष के त्याग से तथा प्राणियों की अहिंसा से सन्यासी मोक्ष पाता हैइन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च । न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥ अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते ।।" सन्यासी को जिस किसी भी आश्रम में रहते हुए किसी दोष से दूषित होने पर भी सब प्राणियों को समान दृष्टि से देखते हुए धर्मानुष्ठान करना चाहिये । शरीर की अस्वस्थता में भी जीवों के प्राण -रक्षार्थ दिन हो या रात सदा पृथिवी को देखकर पैर रखे । बिना जाने दिन या रात में छोटे जीवों की पैरों के नीचे दबकर हिंसा हो जाये तो उस पाप से विशुद्धि के लिये वह सन्यासी स्नान करके छः प्राणायाम करे | व्याहृति और प्रणव सहित यथाविधि तीन प्राणायाम ही ब्राह्मण के लिये परम तप जानना चाहिये । अहिंसा ब्रह्मपद की प्राप्ति में सहायक है तथा अहिंसा से व्यक्ति निरोगी रहता है । साधक अहिंसा, इन्द्रिय-संयम, वैदिक कर्मों के अनुष्ठान और कठिन तपस्या से ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं । वैश्य की वृत्ति से जीता हुआ ब्राह्मण या क्षत्रिय हिसा वाली पराधीन कृषि को यत्न से त्याग दे । कृषि कर्म श्रेष्ठ है- ऐसा कोई-कोई मानते हैं, किन्तु सज्जनों ने कृषि की निन्दा की है क्योंकि खेती और फरसा, हल इत्यादि औजार से भूमि और भूमि में रहने वाले जीवों का नाश होता है। हिंसा करने वाला रोगी तथा हिंसा न करने वाला निरोगी होता है खण्ड २२, अंक ३ जातिभ्रंशक पाप और सङ्कटीकरण पाप - इन द्विविध पापों में ब्राह्मणपीड़ा जातिभ्रंशक पाप है | अतः मनुस्मृति का कहना है कि ब्राह्मण की रक्षा ब्रह्महत्या के पाप की मोचक है । ब्राह्मण को लाठी या हाथ से पीड़ा पहुंचाना, अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त लहसुन इत्यादि तथा मदिरा का सूंघना, दुष्टता करना और पुरुष के साथ मैथुन करना—ये सभी जातिभ्रंशक पाप हैं । गधा, घोड़ा, ऊंट, मृग, हाथी, बकरा, भेड़, मछली, सांप और भैंस इनका वध करना सङ्कटीकरण पाप है । ब्राह्मण की रक्षा करने में या गो की रक्षा में व्यक्ति शीघ्र ही प्राण को त्याग दे, क्योंकि गो और ब्राह्मण की रक्षा करने वाला ब्रह्महत्या से छूट जाता है Jain Education International दीपहर्ता भवेदन्धः काणो निर्वापको भवेत् । हिंसया व्याधिभूयस्त्वमरोगित्वमहिंसया ॥" For Private & Personal Use Only १८५ www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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