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________________ आक्रमण किए थे जिन्हें विक्रमादित्य पौत्र शालिवाहन ने बाहर खदेड़ा और उन्हें सिंधु पार रहने को विवश किया। वह हिमालय क्षेत्र में भी गया। वहां उसने हूण देश (लद्दाख क्षेत्र) में एक श्वेत परिधान वाले गौरांग व्यक्ति को देखा तो उसे पूछा कि आप कौन हैं ? इस पर उसने जवाब दिया मैं कुमारी के गर्भ से जन्मा ईश पुत्र हूं। म्लेच्छ धर्म का प्रवक्ता हूं और सत्यव्रत का पालक हूं। राजा ने उससे उसका धर्म पूछा । उत्तर में उसने कहा कि म्लेच्छों में सत्य के क्षय होने और मर्यादा न रहने पर मैं मसीहा यहां आया है। वहां म्लेच्छ देश में ईहामसी पैदा हुई जिसे पाकर मैं मसीहा बना। म्लेच्छ देश में स्थापित धर्म में मन को निर्मल बनाकर और देह को शुद्ध करके निर्मल परम् का नैगम जाप करना होता है और न्याय, सत्य वचन के साथ एकाग्र मन से सूर्य मण्डल में संस्थित ईश का ध्यान करना होता है। इससे व्यक्ति सूर्य की भांति प्रभु में अचल आस्था वाला बन जाता है। चलायमान मन को निरोध करके समता पाने से इसी प्रकार मसीहा होता है । मैंने नित्य शुद्ध शिवंकरी ईश मूर्ति को इसी प्रकार अपने हृदय में प्रतिष्ठित किया है और मैं ईशामसी बन गया हूं। भूपाल ने यह सब सुनकर उसे वहां रहने दिया और अपने राज्य को लौट कर अश्वमेध यज्ञ किया और वह साठ वर्ष पर्यंत राज्य भोग कर स्वर्ग गया। इस पुराण में विक्रमादित्य के समय भारत वर्ष में, पश्चिम में सिंधु नदी तक, दक्षिण में सेतुबंध तक, उत्तर में बदरीस्थान और पूर्व में कपिलान्त तक कुल १८ राष्ट्र बताये गये हैं। इन्द्रप्रस्थ, पांचाल, कुरुक्षेत्र, कापिल, अन्तर्वेदी, ब्रजथी, अजयमेरू, मरुधन्व, गौर्जर, महाराष्ट्र, द्राविड़, कलिंग, आवन्ती, उडुप, बंग, गौड़, मगध और कौशल। वहां लिखा है कि विक्रमादित्य के द्वारा निष्कासन के लगभग सौ वर्ष बाद पुनः वैदेशिकों ने आक्रमण किए तो विक्रमादित्य पौत्र ने मर्यादा स्थापित की । शालिवाहन वंश में दश राजा हुए जिन्होंने ५०० वर्ष राज्य किया । दशवें राजा भोजराज ने दश सहस्र सेना लेकर सिंधुपार किया और गांधार, म्लेच्छ और काश्मीर में अपना प्रभुत्व स्थापित किया। उसके बाद म्लेच्छ देश में महामद आचार्य हुआ जिसने मरुस्थल निवासी राजामहादेव के साथ सिंधु नदी तट को पार किया। उसने लिंगच्छेदी, शिखाहीन परन्तु श्मश्रुधारी और जोर से बोलने वाले सर्वभक्षी लोगों का पैशाच धर्म प्रवर्तन किया। उस समय विध्य हिमालय के मध्य आर्यावर्त में आर्य वर्ण रहते थे और विध्यान्तर में वर्ण संकर । सिंधुपार, मुसलवन्त और तुष तथा बर्बर देशों में ईशामसी धर्मी रहते थे। उस काल में तीनों वर्गों में संस्कृत स्थापित रही किन्तु शूद्रों में प्राकृतीभाषा स्थापित हुई। -परमेश्वर सोलंकी तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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