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________________ 'कृत संवत्' का तात्पर्य महाराजा शूद्रक द्वारा स्थापित धर्म-शासन से लिया है । दोनों अर्थ गणितशास्त्र के विपरीत पड़ते हैं। गणित-शास्त्र के मुताबिक कृत=चार= ४ का ही ग्रहण होता है। 'कृत संवत्' का व्यावहारिक अर्थ है-मालव वंशधरों का चौथा संवत् । अर्थात् प्रस्तुत विक्रम संवत् से प्राग्वर्ती दो शतकों में तीन-तीन संवत्-गणनाएं स्थापित हो चुकी थीं। यथा १. साहसाङ्क संवत्-चन्द्रगुप्त मौर्य (द्वितीय) के पुत्र सिद्धसेन-साहसांक ने अपने नाम से 'साहसांक-संवत्' चलाया, जो १४६ ई० पू० से गिना जाता है । इसके प्रयोग अधिक संख्या में उपलब्ध नहीं हैं। २. विक्रम संवत् -सिद्धसेन साहसांक का पुत्र 'विक्रमार्क' ने अपने नाम से अलग से काल-गणना स्थापित की। यह संवत् ११६ ई० पू० से गिना जाता है । अनुभव में यह आया है कि ११६ ई०पू० के विक्रम संवत् के प्रयोग गिने चुने ही मिलते हैं; जबकि विक्रमार्क के मरणोपरान्त गणनाधीन 'संवत्.प्रयोग' ९४-ईसवी पूर्व से चले ढेरों की संख्या में मिलते हैं। जितने चाहो संग्रह कर लो। (स्रोत-हिमवन्त थेरावली) ३. विक्रम संवत् ५८ ई० पू०-विक्रमार्क के पौत्र 'विक्रम चरित' ने अपने नाम से संवत् अलग चलाया, जो ५८ ई० पू० से गिना जाता है और वह लोक प्रसिद्ध है। ४. विक्रम संवत् =कृत संवत् : ३६ ई० पू०-विक्रमचरित के पौत्र विक्रमादित्य ने ३६ ई० पू० से नया 'विक्रम संवत्' स्थापित किया। व्यावहारिक तौर पर यह मालव वंश का चौथा संवत् है । 'कृत-संवत्' का यही इतिहास मान्य अर्थ है। यहां प्रश्न होना स्वाभाविक है कि 'कृत संवत्' की गणना ३६ ई० पू० से प्रक्रियाधीन है-इसका क्या प्रमाण है ? प्रमाण है । हम बिना प्रमाण जुटाए बात करते ही नहीं । यथा--- ___"कृते हि ३००-३५-जरा (ज्येष्ठ) शुद्धस्य पंचदशी..." वर्णाला (जयपुर स्टेट) : विक्रमस्मृतिग्रंथ/५० उक्त संदर्भ में शुद्ध-ज्येष्ठ मास का उल्लेख है। प्रायः सभी शोध-कोविदों ने ३३५-५७=२७८ ईसवी सन् ठहराया है, जो नितान्त अशुद्ध है। ईसवी सन् २७८ में किसी अधिक मास की संभावना नहीं है । इसके विपरीत-२९९ ईसवी में श्रेष्ठ अधिक मास है। इससे यह सिद्ध होता है कि कृत संवत् ३६ ई० पू० से अस्तित्व में आया। भण्डारकर-सूचि में कृत संवत् के सभी प्रयोग इसी विधि से समन्वित होते हैं। अत: विक्रमादित्य द्वारा स्थापित 'विक्रम संवत्' पर विचार करके ही अनुसंधान करना चाहिए । मालव संवत् 'कृत संवत्' के पश्चात् और 'विक्रम संवत्' से पहले - अर्थात् मध्यान्तरवर्ती कुछ समय के लिए-इस काल-गणना का नाम 'मालव संवत्' प्रचलित रहा। हमें ... तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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