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________________ भर्थात् जिस आर्या के दोनों अधों में दूसरे तथा चौथे गण जगण हों, वह आर्या पपला है। जैसे :--- समण-मुहुग्गदमट्ठ, चदुग्गति-णिवारणं सणिव्वाणं । एसो पणमिय सिरसा, समयमिमं सुण ह वोच्छामि ।। -पं०२ निय. ७५,१०७। पण्याछंद __ प्रथमगणत्रयविरतिदलयोरुभयोः प्रकीर्तिता पथ्या । अर्थात् जिस छन्द में तीन गणों के बाद यति हो वह पथ्या छन्द है --- जह राया ववहारा, दोसगुणप्पादगो ति आलविदो। तह जीवो ववहारा, दव्वगुणुप्पादगो भणिदो ॥ -सम.१०८ सम. १०८,१४७,१५१,१५२,१८६,२०६,२०८,२३२,२६८, प्रव० २७,३६, निय. ९७, द.पा. १९, सू. ६, भा. ७३ । विपुलाछंद संलय-गणत्रयमादिमं शकलयो योर्भवति पादः । अर्थात् जिस छन्द में तीन गण के बाद विराम हो उस छन्द को विपुला छन्द कहते हैं - अर्थात् जहां १२ मात्राओं के बाद विराम हो या विराम अंत में हो। अपरिच्चत्त-सहावेणुप्पादव्वय-धुवत्त-संजुत्तं । गुणव च सपज्जायं जत्नं दवत्ति वच्चंति ॥ -प्रव० जे० ३ निय -५१,५२,५६,६२,६३,६६,६७,११४ भावपाहुड-२५,२६,३५,४२,१२४ । शीलपाहुड---१६,२२,२४, द्वादशानुप्रेक्षा २१,२७,५३,६९,७० । गाहू छंद पुवढे उत्तढे सत्तग्गल-मत्त-वीसा।। छट्ठमगण पअमझे गाहू मेरुव्व जुअलाइ।। गाहू छन्द के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्ध दोनों में २७,२७ मात्राएं होती हैं। आदाय तं पि गुरुणा, परमेण तं णमंसित्ता । सोच्चा सवदं किरियं, उवट्टिदो होदि सो समणो ।। -----प्रव० चा०७ प्रव. ७,४२, मोक्ष-पाहुड-३१, लिंगपाहुड-७, द्वादशानुप्रेक्षा-८३ । उपजाति ___ इदं-उविंद-एक्क-करिज्जसु, चउअग्गल दह णाम मुणिज्जसु । उपेन्द्रवज्रा और इन्द्रवज्रा छन्द को एक करने से उपजाति छन्द बन जाता है। खण्ड २२, बंक ३ १९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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