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________________ णिद्धस्स णिद्धेण दुराहिएण, लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण। णिद्धस्स लुक्खेण हवेदि बंधो, जहण्णवज्जे विसमे समे वा ॥ -प्रव० ७४, की तत्व प्र० टीका अनुष्टुप छंद श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम् । द्विचतुष्पादयोहस्वं सत्तमं दीर्घमन्ययोः ॥ जहां सब चरणों में छठा अक्षर गुरु ओर पांचवां लघु होता है । दूसरे और चौथे पाद में सातवां लघु होता है और पहले तथा तीसरे पाद में गुरु । पथ्यावक्त्र का उदाहरण चेया उ पयडीयट्ट, उपज्जइ विणस्सइ । पयडीव चेययट्ट उप्पज्जइ विणस्सइ । __----सम. ३१२ अनुष्टुप-सम. ३१२,३१४,३१५, नियमसार-१०१,१२५-१३३, भावपाहुड५७,५९,६२, मोक्षपाहुड-२९,३०,७२, बारसाणुपेहा-२०, चारित्रभक्ति-५,६ ।। उक्त अनुष्टुपछन्द के छंदोनुशासन में कई भेद किए हैं, जिसके अनुसार भी छन्दों का परिचय दिया जा सकता है। अलंकार-योजना अप्रस्तुत प्रशंसा प्रशंसा क्रियते यत्राप्रस्तुतस्यापि वस्तुनः । अप्रस्तुतप्रशंसां तमाहुः कृतधियो यथा ।। जिस काव्य में वर्णनीय वस्तु से भिन्न अन्य वस्तु की प्रशंसा की जाती है, उसमें 'अप्रस्तुत प्रशंसा' अलंकार होता है । यथा-- ण मुयइ पयडि अभव्वो, सुठ्ठ वि आयणि ऊण जिणधम्म । गुडदुद्धं पि पिबंता ण पण्णया णिविसा होति ।। -भावपाहुड १३७ भाव. १३८, समयसार-१९५,१९६,१९७,३१७ । उपमा अलकार उपमानेन सादृश्यमुपमेयस्य यत्र सा । जहां उपमान (अप्रस्तुत) के साथ सादृश्य दिखाया जाता है वहा उपमा अलंकार होता है । यथागयणमिव णिरुवलेवा, अक्खोहा सायरुव्व मुणिवसहा । -आचार्य भा.६ - हरिहरतुल्ला वि णरो, सग्गं गच्छेइ एइ भवकोडी। ---सूत्र.. तुलसो प्रजा २००... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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