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उपसंहार
अब सोचना यह है कि 'गड़बड़' कहां हुई ? कैसे हुई ? सचाई यह है कि २२ वर्षीय अन्तराल पर दो-दो संवत् गणनाएं चल निकलीं। यथा
१. विक्रमचरित : संवत् ५८-ईसवी पूर्व । २. विक्रमादित्य : संवत् ३६-ईसवी पूर्व ।
हुआ यह, 'विक्रमचरित' नाम केवल जैन-ग्रन्थों में रह गया; उसे अपदस्थ करते हुए 'विक्रमादित्य' का नाम जनमानस पर छा गया। 'विक्रम संवत्' की ५८ ई० पू० से चली आ रही गणना स्थिर रही; परन्तु स्थानान्तरण के कारण उसकी कालगणना३६-ईसवी पूर्व-सर्वथा लुप्त हो गई।
___ अधुना शोधकोविदों को नई उपलब्धि परोस दी है। इस काम को आगे बढ़ाना, हमने उनके खाते में लिख दिया है । इति ।
-पं० चन्द्रकांत बाली
एन. डी,/२३
पीतमपुरा, देहली-११००३४ टिप्पणी
लेखक का वाग्विलास पाठकों को रुचिकर और अनुसंधित्सुजनों को उत्प्रेरक होगा-इस आशा से यह लेख प्रकाशित है।
हमारे दृष्टिकोण से 'विक्रम संवत्' के साथ ऐसी छेड़छाड़ अनावर्तक होनी चाहिए। विक्रम संवत् का शुभारंभ नक्षत्र विद्या के अनुसार भारतीय आकाश में नक्षत्रों की एक स्थिति विशेष का द्योतक है जिसका विवरण वायुपुराण (९९.४१३) भागवतपुराण (१२.३.२४) विष्णुपुराण (४.२४.१०२) और महाभारत (वन पर्व अध्याय-१९०) आदि में उपलब्ध है।
-संपादक
बंड २२, अंक ३
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