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________________ ताकिक बुद्धि के लिए 'आन्वीक्षिकी' शब्द का प्रयोग हुआ है। उत्तम वक्ता और ब्राह्मण एक दूसरे को जीतने की इच्छा से बहुत से हेतुवाद उपस्थित कर शास्त्रार्थ किया करते थे ।५४ बालकाण्ड में कई स्थलों पर विश्वामित्र को 'वाक्यज्ञः५५, शतानन्द को 'वाक्यकोविद ५६ और श्रीराम को 'वाक्यविशारद कहने से ऐसा प्रतीत होता है कि वाद-विद्या (शास्त्रार्थ) का उस समय अच्छा प्रचलन था । ६. वाल्मीकि रामायण में योग-परम्परा वाल्मीकि रामायण में स्थान-स्थान पर योगी, तपस्वी, महर्षि, ब्रह्मर्षि आदि की चर्चा मिलती है। महर्षि वसिष्ठ को जप करने वालों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । महर्षि विश्वामित्र ने अपने अखण्ड तप से 'ब्रह्मषि' पद को प्राप्त किया । वसिष्ठ के आश्रम में तपः सिद्ध, अग्निकल्प महात्मा कन्दमूल भोग करने वाले शान्त, दान्त, इन्द्रियजित् बहुत से ऋषि जप होम में लगे रहते थे। इसी प्रकार विश्वामित्र ते कन्दमूल फल खाकर उत्तम तपस्या की। इन संदर्भो से तथा यहां अकथित अन्य बहुत से संदर्भो से यह स्पष्ट है कि पातञ्जल योग में बताए गए यम, नियम आदि अष्टांग योग का उस समय प्रचुरता से ऋषि मुनि अभ्यास किया करते थे। जप और तप का विशेष महत्त्व था। १०. वाल्मीकि रामायण में कर्म-मीमांसा (यज्ञ-याग) का प्रसार अध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि रामायण काल में यज्ञ-याग की नींव बहुत गहरी थी । अयोध्या नगरी में बहुत सी यज्ञशालायें थीं। राजा दशरथ और श्रीराम में अपने-अपने शासनकाल में अश्वमेध यज्ञ किए थे । अश्वमेध यज्ञ कराने वाले वेद पारंगत याज्ञिक वहां विद्यमान थे जिन्होंने 'प्रवर्ण्य कर्म' प्रातः, माध्यन्दिन और तृतीय सवन यथाविधि कराए २ दशरथ ने पुत्र कामना से श्रौतविधि से 'पुत्रेष्टि यज्ञ' करवाया। महर्षि वसिष्ठ विश्वामित्र से कहते हैं-हे राजन् ! दर्श, पौर्णमास, प्रचुर दक्षिणा वाले यज्ञ तथा अन्य अनेक पुण्यकर्म यह कामधेनु ही है, इसी पर मेरा सब कुछ निर्भर है ।१४ उस समय केवल ऋषि, मुनि और देवता ही यज्ञ नहीं करते थे बल्कि राक्षस समुदाय भी इनमें कुशल थे । रावण वेदों का ज्ञाता और यज्ञादि में पारंगत था। अतः स्पष्ट है कि कर्म-मीमांसा उस काल में विकसित रूप में थी। निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वाल्मीकि रामायण में भारतीय दर्शन के मौलिक तत्त्व विद्यमान थे। उस समय में यद्यपि वैदिक संस्कृति का बोलबाला था तथापि नास्तिक या लोकायतिक जन भी उनका विरोध करने के लिए विद्यमान थे; कर्म-मीमांसा, योग और वादविद्या हेतुविद्या का अच्छा प्रचार-प्रसार था। लोग ईश्वर, आत्मा, भाग्य, काल, क्षणिकता=अनित्यता में विश्वास रखते थे। धर्म और मोक्ष की ओर अभिरुचि थी । २२२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524589
Book TitleTulsi Prajna 1996 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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