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श्रीवर्द्धमानाय नमः
अंक
HINI
७-८
जनहितैषी
जुलाई, अगस्त १९१६
जैनसमाज। तीर्थक्षेत्रोंके झगड़े, स्त्रियोंकी अज्ञानमय-दु:खमय दशा, शास्त्रोंकी रक्षा और प्रचारके काममें लापरवाही और अगुओंकी भेडियाधसान' बुद्धिके अन्धेर; ये सब बातें देखकर शासनदेवी धनवानों, पण्डितों और बाबुओंको सम्मिलित शक्तिसे उद्योग करनेके लिए समझा रही है।
सं०-नाथुराम प्रेमी।
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विषय-सूची।
नियमावली। १. वार्षिक मूल्य उपहारसहित ३) तीन रुपया पेशगी
है। वी. पी. तीन रुपया एक आनेका भेजा जाता है।
२. उपहारके बिना भी तीन रुपया मूल्य है। १ जैनतीर्थकरोंका शासनभेद-लेखक,
३. ग्राहक वर्षके आरंभसे किये जाते हैं और बीचसे श्रीयुत जुगलकिशोरजी मुख्तार। ... ३२५ अर्थात् ७ वें अंकसे । बीचसे ग्राहक होनेवालाको २लुभाव या लालच-ले०,श्रीयुत दया
उपहार नहीं दिया जाता। आधे वर्षका मूल्य चन्दजी गोयलीय बी ए.। ... ... ३३२ १) रु. है। ३ सुखका उपाय (कविता)-ले०, श्रीयुत ४. प्रत्येक अंकका मूल्य पाँच आने है ।
जुगलकिशोरजी। ... ... ... ३३५ ५. सब तरहका पत्रव्यवहार इस पतेसे करना चाहिए। ४ जैनलेखक और पंचतंत्र-ले०, मैनेजर-जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय.
श्रीयुत मोतीलालजी बी. ए.। ... ३३६ ५बिधिका प्राबल्य और दौर्बल्य
हीराबाग, पो० गिरगांव-बंबई। ( कविता )-श्रीयुत जुगलकिशोरजी । ३४४
प्रार्थनायें। ६ काश्मीरका इतिहास-ले०, श्रीयुत
सुपार्श्वदासजी गुप्त बी. ए.। ... ... ३४५ १. जनहितैषी किसी स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर निजी ७ शाकटायनाचार्य-... ... ... ३४९ लाभके लिए नहीं निकाला जाता है। इसमें जो समय ८ पुस्तकपरिचय- ... ... ... ३६२ । और शक्तिका व्यय किया जाता है वह केवल अच्छे ९ जैनकर्मवाद और तद्विषयक विचारों के प्रचार के लिए। अत: इसकी उन्नतिमें
साहित्य-ले..श्रीयुत मुनिजिनविजयजी। ३७३ हमारे प्रत्येक पाठकको सहायता देनी चाहिए। १० प्रतिदान ( गल्प ) - लेखक, श्रीयुत २. जिन महाशयों को इसका कोई लेख अच्छा मालूम - ज्वालादत्तनी शर्मा । ... ... ... ३८४ हो उन्हें चाहिए कि उस लेखको जितने मित्रोंको ११ अहिंसा परमो धर्मः-ले०, श्रीयुत वे पढ़कर सुना सकें अवश्य सुना दिया करें।
लाला लाजपतराय। ... ... ... ३९४ ३. यदि कोई लेख अच्छा न म लूम हो अथवा विरुद्ध १२ विश्वास ( कविता )-श्रीयुत प्रेमी मालूम हो तो केवल उसीके कारण लेखक या
हजारीलालजी। ... ... ... ३९८ सम्पादकसे द्वेष भाव न धारण करने के लिए सवि. १३ तीर्थों के झगड़े कैसे मिटें :-ले०, नय निवेदन है।
श्रीयुत वाडीलाल मोतीलाल शाह। ... ३९९ ४. लेख भेजनेके लिए सभी सम्प्रदायके लेखकोंको १४ तीन देवियोंका संवाद ( कविता ) आमंत्रण है। -सम्पादक। ले०, श्रीयुत मित्रसेनजी जैन, मेरठ
दूसरे उपहारकी सूचना । कालेज। ... ... ... ... ४०३ ।
दूसरा उपहार अभीतक नहीं दिया गया, इसका १५ विविध प्रसङ्ग- ... ... ४०५ कारण यह है कि जिन लेखक महाशयने उस लिख १६ शिक्षितोंकी उदारता-ले०, श्रीयुत
देना कहा है वे अवकाशाभावके कारण अब तक अशिक्षित ... ... ... ... ४१७ लिख नहीं सके हैं। तकाजा किया जा रहा है । ज्यों २७ व्यास और भीष्म- ... ... ४१८ श्रीलिख देंगे. त्यांही उसके छपानेका प्रबन्ध कर १८परोपदेश-कुशल ( कविता )-ले०,
दिया जायगा । कागज खरीदा हुआ रक्खा है। एक श्रीयुत मोहनचन्द सिंघई
धर्मात्मा सज्जनने इस पुस्तकके छपानेका पूरा खर्च देनेकी स्वीकारता दे दी है।
१५ विविध प्रसदारता-ले०, श्रायु. ४१७ लिख नहीं सकारत्याही उसके
रखा है । एक
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हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।
बारहवाँ भाग।
अंक ७-८.
जैनहितैषी।
आषाढ,श्रावण २४४२ । जुलाई, अगस्त १९१६.
REASNCATEasranASTASTASTCASESASRAER
सारे ही संघ सनेहके सूतसौं, संयुत हों, न रहे कोउ द्वेषी । ? है प्रेमसौं पालैं स्वधर्म सभी, रहैं सत्यके साँचे स्वरूप-गवेषी ॥ a बैर विरोध न हो मतभेदतें, हों सबके सब बन्धु शुभैषी । भारतके हितको समझें सब, चाहत है यह जैनहितैषी ॥
जैनतीर्थकरोंका शासन-भेद ।।
(ले०-बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार।) जैनसमाजमें, श्रीवट्टकेराचार्यका बनाया अर्थात्-अजितसे लेकर पार्श्वनाथपर्यंत • हुआ ' मूलाचार ' नामका एक यत्याचारवि- बाईस तीर्थकरोंने सामायिक संयमका और षयक प्राचीन ग्रंथ सर्वत्र प्रसिद्ध है । मूल ऋषभदेव तथा महावीर भगवान्ने — छेदोग्रंथ प्राकृतभाषामें है और उस पर वसु- पस्थापना ' संयमका उपदेश दिया है। नन्दि सैद्धान्तिककी बनाई हुई 'आचारवृत्ति' यहाँ मल गाथामें दो जगह 'च' (य) शब्द नामकी एक संस्कृत टीका भी पाई जाती है। आया है । एक चकारसे परिहारविशुद्धि इस ग्रंथमें, सामायिकका वर्णन करते हुए, आदि चारित्रका भी ग्रहण किया जा सकता ग्रंथकर्ता महोदय लिखते हैं किः
है । और तब यह निष्कर्ष निकल सकता है "बावीसं तित्थयरा सामाइयं कि ऋषभदेव और महावीर भगवान्ने संजमं उवदिसंति।
सामायिकादि पाँच प्रकारके चारित्रका प्रतिछेदोवहावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य॥७-३२॥" पादन किया है, जिसमें छेदोपस्थापनाकी
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mmmmmmmmATAWALARI
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१
जैनहितैषी
यहाँ प्रधानता है । शेष बाईस तीर्थकरोंने कठिनतासे निर्वाह करते हैं; क्योंकि वे अतिकेवल सामायिक चारित्रका प्रतिपादन किया शय वक्र स्वभाव होते हैं। साथ ही इन दोनों है। अस्तु । आदि और अन्तके दोनों तीर्थ- समयोंके शिष्य स्पष्टरूपसे योग्य अयोग्यकरोंने छेदोपस्थापन-संयमका प्रतिपादन क्यों को नहीं जानते हैं । इस लिए आदि और किया है ? इसका उत्तर आचार्य महोदय नीचे- अन्तके तीर्थमें इस छेदोपस्थापनाके उपकी दो गाथाओंमें इस प्रकार देते हैं:- देशकी जरूरत पैदा हुई है। यहाँ पर "आचक्खि, विभजिदूं
यह भी प्रगट कर देना जरूरी है कि छेदोविण्णादु चावि सुहदरं होदि। पस्थापनामें हिंसादिकके भेदसे समस्त सावद्य एदेण कारणेण दु
कर्मका त्याग किया जाता है। इस लिए महव्वदा पंच पण्णत्ता ॥३३॥ आदीए दुव्विसोधणे णिहणे
छेदोपस्थापनाकी 'पंचमहावत ' संज्ञा भी तह सुट दुरणुपालेया। है और इसी लिए आचार्य महोदयने पुरिमाय पच्छिमा विहु
गाथा नं० १३ में छेदोपस्थापनाका ‘पंचमहाकप्पाकप्पं ण जाणंति ॥३४॥", व्रत' शब्दोंसे निर्देश किया है । अस्तु । इसी टीका-"...... यस्मादन्यस्मै प्रतिपादयितुं
तु ग्रंथमें, आगे प्रतिक्रमणका वर्णन करते हुए, स्वेच्छानुष्ठातुं विभक्तुं विज्ञातुं चापि भवति सुखतरं सामायिकं तेन कारणेन महाव्रतानि पंच प्रज्ञप्तानीति॥३३॥" "आदितीर्थे शिष्या दुःखेन शोधंते सुष्टु ऋजुस्वभावा “सपडिक्कमणो धम्मो यतः । तथा च पश्चिमतीर्थे शिष्या दुःखेन प्रतिपाल्यंते
पुरिसस्सय पच्छिमस्स जिणस्त। सुष्टु वक्रस्वभावा यतः । पूर्वकालशिष्याः पश्चिमकाल
अवराहपडिक्कमणं शिष्याश्च अपि स्फुटं कल्पं योग्यं अकल्पं अयोग्यं न
मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ ७-१२५॥ जानंति यतस्तत आदौ निधने च छेदोपस्थानमुप
जावेदु अप्पणो वा दिशत इति ॥ ३४॥"
अण्णदरे वा भवे अदीचारो। अर्थात्पाँच महाव्रतों ( छेदोपस्था तावेदु पडिक्कमणं पना ) का कथन इस बजहसे कियागया है
मज्झिमयाणं जिणवराणं ॥ १२६॥
इरिया गोयर सुमिणादि कि इनके द्वारा सामायिकका दूसरोंको उन
सव्व माचरदु मा व आचरदु। देश देना, स्वयं अनुष्ठान करना, पृथक् पृथक् । पुरिम चरिमादु सवे रूपसे भावनामें लाना सुगम हो जाता है। सव्वे णियमा पडिक्कमादि ॥ १२७॥" आदि तीर्थमं शिष्य मुश्किलसे शुद्ध किये अर्थात्-पहले और अन्तिम तीर्थकरका जाते हैं; क्योंकि वे अतिशय सरल स्वभाव धर्म अपराधके होने और न होनेकी अपेक्षा होते हैं। और अन्तिम तीर्थमें शिष्यजन न करके प्रतिक्रमण सहित प्रवर्त्तता है। - इससे पहले टीकामें गाथाका शब्दार्थ मात्र पर मध्यके बाईस तीर्थकरोंका धर्म दिया है।
अपराधके होनेपर ही प्रतिक्रमणका विधान
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SHAHMANOHABBAUMBAMBOMB IHARI
जैनतीर्थकरोंका शासन-भेद । MimitTTTTTimi mirthETIMES
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करता है । क्योंकि उनके समयमें अपरा- शिष्य चलचित्त और मूढमना होते हैंधकी बाहुल्यता नहीं होती । मध्यवर्ती तीर्थ- शास्त्रका बहुत बार प्रतिपादन करने पर भी करोंके समयमें जिस व्रतमें अपने या दुस- उसे नहीं जानते । उन्हें क्रमशः ऋजु-जड गेंके अतीचार लगता है उसी व्रतसम्बधी और वक्र-जड समझना चाहिए-इस लिए अतीचारके विषयमें प्रतिक्रमण किया जाता उनके समस्त प्रतिक्रमण-दंडकोंके उच्चारणहै । विपरीत इसके आदि और अन्तके का विधान किया गया है और इस विषयमें तीर्थकरों ( ऋषभ और महावीर ) के शिष्य अंधे घोडेका दृष्टान्त बतलाया गया है । ईर्या, गोचरी और स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए टीकाकारने इस दृष्टान्तका जो स्पष्टीकरण समस्त अतीचारोंका आचरण करो या मत किया है उसका भावार्थ इस प्रकार है:करो उन्हें समस्त प्रतिक्रमण दंडकोंका “किसी राजाका घोडा अंधा हो गया । उच्चारण करना होता है। आदि और अन्तके उस राजाने वैद्यपुत्रसे घोड़ेके लिए ओषधि दोनों तीर्थकरोंके शिष्योंको क्यों समस्त प्रति- पछी। वह वैद्यपुत्र वैद्यक नहीं जानता था और क्रमण-दंडकोंका उच्चारण करना होता है वैद्य किसी दूसरे ग्राम गया हुआ था । अतः और क्यों मध्यवर्ती तीर्थंकरोंके शिष्य उनका उस वैद्य-पत्रन घोडेकी आँखको आराम आचारण नहीं करते हैं ? इसके उत्तरमें
करनेवाली समस्त ओषधियोंका प्रयोग किया आचार्य महोदय लिखते हैं:
और उनसे वह घोड़ा नीरोग हो गया । " मज्झिमया दिढबुद्धी
इसी तरह साधु भी एक प्रतिक्रमण दंडकमें एयग्गमणा अमोहलक्खाय।। तम्हा हु जमाचरंति
स्थिरचित्त नहीं होता हो तो दूसरे होगा, तं गरहंता विसुज्झंति ॥१२८॥ दुसरेमें नहीं तो तीसरेमें, तीसरेमें नहीं तो पुरिम चरिमादु जम्हा
चौथेमें, इस प्रकार सर्व प्रतिक्रमण-दंडकोंचलचित्ता चेव मोहलक्खाय ।
का उच्चारण करना न्याय है । इसमें कोई तो सब्व पडिक्कमणं अंधलय घोड-दिहंतो ॥ १२९॥" विरोध नहीं है; क्योंकि सब ही प्रतिक्रमणअर्थात्-मध्यवर्ती तीर्थकरोंके शिष्य दंडक कर्मके क्षय करनेमें समर्थ हैं।" विस्मरणशीलतारहित दृढबुद्धि, स्थिरचित्त मूलाचारके इस सम्पूर्ण कथनसे यह
और मूढतारहित परीक्षापूर्वक कार्य करने- बात स्पष्टतया विदित होती है कि समस्त वाले होते हैं । इस लिए प्रगटरूपसे वे जिस जैनतीर्थकरोंका शासन एक ही प्रकादोषका आचरण करते हैं उस दोषसे रका नहीं रहा है । बल्कि समयकी आत्मनिन्दा करते हुए शुद्ध हो जाते हैं। आवश्यकतानुसार-लोकस्थितिको देखते पर आदि और अन्तके दोनों तीर्थंकरोंके हुए-उसमें कुछ परिवर्तन जरूर होता
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HOBHABEILITARILALBUL RA
जैनहितैषीand in mommmmmmmm En
रहा है। और इस लिए जिन लोगोंका ऐसा से २५०० वर्ष पहले हिंसा, झूठ, चोरी, खयाल है कि जैनतीर्थंकरोंके उपदेशमें कुशील और परिग्रहमें अत्यन्त गृद्धता आदि परस्पर रंचमात्र भी भेद या परिवर्तन पापोंने स्वर्गमयी इस भारत भूमिको कलंनहीं होता-जो वचनवर्गणा, एक तीर्थकरके कित नहीं किया था, बादको इनका प्रचार मुँहसे खिरती है वही दूसरे तीर्थकरके मुँह- देखकर श्रीमहावीर स्वामीने इनके विरोधी से निकलती है, उसमें जरा भी फेरफार व्रत, समिति और गुप्तिरूप चारित्रका नहीं होता-वह खयाल निर्मूल जान पड़ता निरूपण किया ।" है। शायद ऐसे लोगोंने तीर्थंकरोंकी वाणी- तत्त्वबुभुत्सुजीका यह समस्त कथन छपे हुए को फोनोग्राफके रिकार्डोंमें भरे हुए मजमूनके ज्ञानार्णवके इन दो श्लोंकों पर अवलम्बित है:सदृश समझ रक्खा है ! परन्तु वास्तवमें “सामायिकादिभेदेन ऐसा नहीं है । ऐसे लोगोंको मूलाचारके पंचधा परिकीर्तितम् । उपर्युक्त कथन पर खूब ध्यान देना चाहिए। ऋषभादिजिनैः पूर्व
चारित्रं सप्रपंचकम् ॥ ८-२॥ ___ यहाँ पर उन तत्त्वबुभुत्सुजीका ध्यान
पंचमहाव्रतमूलं भी आकर्षित किया जाता है जिन्होंने 'जैनसि- समितिप्रसरं नितान्तमनवद्यम । द्धान्तभास्कर' की चौथी किरणमें 'आव- गुप्तिफलभारनदं श्यकता' शीर्षक लेख दिया था और जिन्होंने
सन्मतिना कीर्तितं वृत्तम् ॥३॥" बादको अपने पूर्व लेखका स्पष्टीकरण करनेके इन श्लोकों परसे तत्त्वबुभुत्सुजीने जो लिए " सत्यखोजी ध्यान दें । इस नामका सिद्धान्त निकाला है उसका इन दोनों श्लोएक दूसरा लेख जून सन् १९१५ के · जैन- कॉमें कहीं भी स्पष्टोल्लेख नहीं है । परन्तु तत्वप्रकाशक' में प्रकाशित कराया था। मूलाचारका उपर्युक्त कथन एक विशेष तत्त्ववभत्सजीने अपने इन लेखों द्वारा यह सुहेतुक और स्पष्ट ऐतिहासिक कथन प्रतिपादन किया है कि, “पंच महाव्रतादि है । उसके साथ-उसकी रोशनीमें-इन तेरह प्रकारका चारित्र श्रीमहावीर स्वामीके श्लोकोंको पढ़नेसे इस विषयमें कोई समयसे चला है। इसके पहले ( ऋषभ संदेह नहीं रहता और न यह कहनेमें कुछ देवके समयसे ) सामायिकादि पंच प्रकार ही संकोच ही होता है कि इन श्लोकोंका वह चारित्र था।" साथ ही अपनी ऐतिहासिक अभिप्राय कदापि नहीं है जो तत्त्ववुभुत्सुजीने दृष्टिसे यह नतीजा भी निकाला है कि, समझा है और जिसे उन्होंने खींच खाँचकर " श्रीमहावीरस्वामीके पहले हिंसा आदि दूसरोंको समझानेकी चेष्टा की है। वास्तवमें पापोंको व्रतरूपसे ( विशेषरीतिसे ) निरूपण इन श्लोकोंका विषय एक सामान्य और चलकरनेकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि आज- ताहुआ कथन है-किसी ऐतिहासिक दृष्टि से ये
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जैनतीर्थकरोंका शासन-भेद । HTRATIMmmmmmmmmmmittainin
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श्लोक लिखें हुए मालूम नहीं होते । साथ ही त्रका उपदेश दिया-एक ही बातको प्रतिपादन ज्ञानार्णवमें इनकी स्थिति भी बहुत संदेह- करनेवाले दो श्लोकोंके इस तरह पर एक जनक जान पड़ती है । आश्चर्य नहीं कि ये साथ रक्खे जानेकी कोई वजह नहीं होसदोनों श्लोक वहाँ पर क्षेपक हों । क्योंकि कती । इनमेंसे किसी एकका ही संगठन यहाँ पहले श्लोक ( नं० २ ) में जिस सामायि- पर ठीक बैठता है । हो सकता है कि श्लोक कादि पंचप्रकारके चारित्रका उल्लेख है उसका, नं० ३ क्षेपक न हो बल्कि शेष तीनों श्लोक तेरह प्रकारके चारित्रकी तरह, क्रमशः अलग ही क्षेपक हों। क्योंकि ऐसा होने पर भी अलग वर्णन इस ग्रंथमें आगे या पीछे कहीं कथनके सिलसिले और सम्बंधादिमें कुछ भी नहीं है और न वर्णन न करनेके विष. बाधा नहीं पड़ती । परन्तु कुछ भी हो इसमें यमें कोई शब्द ही दिया है । इससे पहला संदेह नहीं कि विवादस्थ श्लोकों (नं० श्लोक कुछ अनावश्यक और असम्बंधित २-३ ) की स्थिति संदेहजनक जरूर है। जान पड़ता है। और दूसरे श्लोक (नं० ३) अस्तु । इन सब बातोंके सिवाय जब पहले में जो तेरह प्रकारके चारित्रका कथन है वही श्लोक ( नं. २ ) में ऋषभादि जिनके कथन उसके बादके इन दो श्लोकोंमें भी द्वारा सामायिकादि पंच प्रकारके चारित्रका पाया जाता है:
विस्तारसहित वर्णन किया जाना लिखा है "पंचपंचत्रिभिर्भदैर्यदुक्तं मुक्तसंशयैः। और पंच प्रकारके चारित्रमें छेदोपस्थापना भवभ्रमणभीतानां चरणं शरणं परम् ॥ ४॥ भी एक भेद है, जिसे तत्त्वबुभुत्सुजीने पंचव्रतं समिपंच गुप्तित्रयपवित्रितम् । स्वीकार किया है. तब फिर तत्त्वबभत्सजीश्रीवीरवदनोद्गीर्ण चरणं चन्द्रनिर्मलम्॥५॥"
" का यह कहना कि, महावीर स्वामीके सम___ इन दोनों श्लोकोंके मौजूद होते हुए यसे ही पंचमहाव्रतका कथन चला है, स्लोक नं० ३ बिलकुल व्यर्थ पड़ता है और कहाँ तक यक्तिसंगत और विचारपूर्ण इस व्यर्थताका तब और भी अधिक समर्थन हो सकता है, इसे पाठक स्वयं समझ होता है जब ज्ञानार्णवकी एक हस्तलिखित सकते हैं। मालूम होता है कि तत्त्ववुभुत्सुप्रतिमें, जो कि विक्रम संवत् १८१६ की जीका ध्यान छेदोपस्थापनाके स्वरूप पर ही लिखी हुई है और प्रायः शुद्ध है, श्लोक नहीं पहुँचा । अन्यथा, उन्हें इतना कष्ट नं० ३ से पहले श्लोक नं० ५ को देखते उठानेकी जरूरत न पड़ती। छेदोपस्थापहैं । श्लोक नं. ३ और नं० ५ दोनोंका नाका अर्थ ऊपर साफ शब्दोंमें यह बतविषय एक है-दोनोंमें लिखा है कि महावीर लाया गया है कि ' जिसमें हिंसादिकके स्वामीने ( महावीर स्वामीने ही, ऐसा नहीं) भेदसे समस्त सावद्य कर्मका त्याग किया पाँच व्रत, पाँच समिति आरै तीन गुप्तिरूपी चारि- जाता है उसे छेदोपस्थापना कहते हैं।'
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CHAIMARITALIMILAIMARATHI
जैनहितैषी
साथ ही मूलाचारके आधार पर यह भी किया है उसको छेदोपस्थापना या छेदोप्रगट किया गया है कि ' छेदोपस्थापनाकी पस्थापन कहते हैं । समस्त सावद्यके त्यागमें पंचमहाव्रत संज्ञा भी है।' अस्तु । 'तत्त्वार्थ- छेदोपस्थापनाको हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन राजवार्तिक में भट्टाकलंकदेवने भी छेदोप- और परिग्रहसे विरतिरूप व्रत कहा है। स्थापनाका ऐसा ही स्वरूप प्रतिपादन किया यहाँपर यह बात समझमें आसकती है कि
यदि यह माना जाय कि आजसे ढाई हजार वर्ष "सावयं कर्म हिंसादिभेदेन- पहले सावद्य कर्ममें हिंसादिक भेदोंकी कल्पना विकल्पनिवृत्तिः छेदोपस्थापना।" नहीं थी तो साथ ही यह भी मानना पड़ेगा इसी ग्रंथमें अकलंकदेवने यह भी लिखा कि उस वक्त छेदोपस्थापना चारित्रका भी है कि सामायिककी अपेक्षा व्रत एक है अस्तित्व नहीं था। क्योंकि छेदोपस्थापनाका और छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा उसके पाँच त्यागभाव हिंसादिक भेदोंकी अपेक्षा रखता भेद हैं । यथाः
है। इसी प्रकार यदि यह कहा जाय कि “सर्वसावधनिवृत्तिलक्षणसामायिका महावीर स्वामीसे पहले हिंसादिक पापोंका पेक्षया एकं व्रतं, भेदपरतंत्रच्छेदोपस्था- अस्तित्व ही नहीं था तो उसके साथ ही नापेक्षया पंचविधं व्रतम् ।”
यह भी बतलाना होगा कि वह कौनसा सावद्य इसके सिवाय श्रीवीरनन्दि आचार्यने, कर्म था जिसका उस वक्त सामायिक द्वारा ' आचारसार ' ग्रंथके पाँचवें अधिकारमें, छे. त्याग कराया जाता था ? अन्यथा, सामायिक दोपस्थापनाका जो निम्नस्वरूप वर्णन किया है चारित्रके अस्तित्वसे भी इनकार करना होगा उससे इस विषयका और भी स्पष्टीकरण और इस तरह पंच प्रकारके चारित्रका हो जाता है। यथाः
ही लोप करना पड़ेगा । आश्चर्यकी बात है "व्रतसमितिगुप्तिगैः
कि तत्त्वबुभुत्सुजी महावीर स्वामीसे पहले, पंच पंच त्रिभिर्मतैः।
ऋषभ आदिके समयमें, पंचप्रकारके चारित्रछेदैर्भदैरुपेत्यार्थ स्थापनं स्वस्थितिक्रिया ॥६॥
का तो अस्तित्व मानते हैं, परन्तु हिंसादिक छेदोपस्थानं प्रोक्तं
पापों और उनके विरोधी पंचमहाव्रतादिसर्वसावद्यवर्जने।
कोंका अस्तित्व स्वीकार नहीं करते ! व्रतं हिंसाऽनृतस्तेया।
इससे कहना पड़ता है. कि उनका यह सब ब्रह्म संगेष्वसंगमः॥७॥
कथन बिलकुल निःसार और भ्रममूलक है। अर्थात्—पाँच व्रत, पाँच समिति और इसमें कुछ भी तथ्य नहीं है । जरूरत होनेतीन गुप्ति नामके छेदों-भेदोंके द्वारा अर्थको पर ऐसे बहुतसे प्रमाण उपस्थित किये जा प्राप्त होकर जो अपने आत्मामें स्थिर होनेरूप सकते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है
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HARIRINITIATIMILAIMAHARRAImp
जैनतीर्थकरोंका शासन-भेद ।
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कि महावीर स्वामीसे पहले हिंसा, संचार होता है, कभी वक्र-जडताका और झूठ, चोरी और मैथुनादिक पापोंका कभी इन दोनोंसे अतीत अवस्था होती है। बहुत कुछ प्रचार था । वास्तवमें हिंसादिक किसी समयके मनुष्य स्थिरचित्त, दृढबुद्धि पाप भी हमेशासे हैं और उनके विरोधी व्रत और बलवान् होते हैं और किसी नियमादिकोंका अस्तित्व भी (किसी न कि- समयके चलचित्त, विस्मरणशील और सी रूपमें ) हमेशासे पाया जाता है । यह निर्बल । कभी लोकमें मूढ़ता बढ़ती है और दूसरी बात है कि कोई उन्हें थोड़ेहीमें कभी उसका ह्रास होता है । इस लिए जिस समझ लेता है और किसीके लिए उनका समय जैसी जैसी प्रकृति और योग्यविशेष खुलासा करनेकी जरूरत होती है। ताके शिष्योंकी-उपदेशपात्रोंकी-बहुलता कोई ‘रागादिक भावोंका उत्पन्न होना होती है उस समय उस वक्तकी हिंसा और उनका उत्पन्न न होना अहिंसा' जनताको लक्ष्य करके तीर्थकरोंका उसके इतने परसे ही हिंसा अहिंसाका अथवा पाप- उपयोगी वैसा ही उपदेश तथा वैसा ही सावद्य और व्रत-चारित्रका संपूर्ण रहस्य सम- व्रतनियमादिकका विधान होता है। झकर अपना आचरण यथेष्ट बना लेते हैं उसीके अनुसार मूलगुणोंमें भी हेर फेर
और किन्हींके वास्ते उनके भेद-प्रभदोंका हुआ करता है । परन्तु इस भिन्न प्रकारके बहुत कुछ तफसीलके साथ वर्णन करना उपदेश, विधान या शासनमें परस्पर उद्देश्यहोता है । यहाँ तक कि उन भेद-प्रभेदोंको भेद नहीं होता। समस्त जैनतीर्थकरोंका अलग अलग नियम करार देनेकी ( स्थापित वही मुख्यतया एक उद्देश्य 'आत्मासे करनेकी ) जरूरत पड़ती है और फिर उन कर्ममलको दूर करके उसे शुद्ध, सुखी नियमोंमें भी जिनका आचरण सर्वोपरि निर्दोष और स्वाधीन बनाना' होता है। प्रधान और अधिक आवश्यक जान पड़ता दूसरे शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि, है उन्हें मूलगुण करार दिया जाता है संसारी जीवोंको संसार-रोग दूर करनेके मार्ग
और शेषको उत्तर गुण, तब कहीं उनसे पर लगाना ही जैनतीर्थकरोंके जीवनका यथेष्ट आचरण बन सकता है। इसीसे सर्व प्रधान उद्देश्य होता है। अस्तु । एक रोगको समयोंके मूल गुण कभी एक प्रकारके नहीं दूर करनेके लिए जिस प्रकार अनेक ओषहोसकते । किसी समयके शिष्य संक्षेपप्रिय धियाँ होती हैं और वे अनेक प्रकारसे व्यवहोते हैं और किसी समयके विस्ताररुचि- हारमें लाई जाती हैं; रोगशांतिके लिए वाले । कभी लोगोंमें ऋजु जडताका अधिक उनमेंसे जिस वक्त जिस जिस ओषधिको
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३३२
जैनहितैषी
प्रयोग
जिस जिस विधिसे देनेकी जरूरत होती है RasatanARATHI वह उस वक्त उसी विधिसे दी जाती है- लभाव या लालच इसमें न कोई विरोध होता है और न कुछ SEASUREMESERSEASER बाधा आती है, उसी प्रकार संसाररोग [ले०-बाबू दयाचन्द्रजी गोयलीय बी. ए. ] या कर्मरोगको दूर करनेके भी अनेक साधन आकांक्षा मनुष्यको स्वर्गमें अवश्य ले जा और उपाय होते हैं और जिनका अनेक प्रकारसे
सकती है, परंतु वहाँ रहनेके लिए मनुष्यको
अपने मनको सर्वथा स्वर्गीय पदार्थोंकी ओर
कर दव लगा देना चाहिए; कारण कि लालच मनुष्यको अपनी अपनी समयकी स्थितिके अनुसार जिस अपनी ओर खींचता है, पवित्रतासे अपवित्रताकी जिस उपायका जिस जिस रीतिसे प्रयोग ओर ले जाता है और आकांक्षासे वासनाकी करना उचित समझते हैं उसका उसी रीतिसे ओर मनको आकर्षित करता है । जब तक प्रयोग करते हैं। उनके इस प्रयोगमें किसी ज्ञानमें विशुद्धि और विचारोंमें पवित्रता नहीं प्रकारका विरोध या बाधा उपस्थित होनेकी हो जाती, आकांक्षाका स्थिर रहना कठिन संभावना नहीं हो सकती। इन्हीं सब बातों हैं । आकांक्षाकी प्रारम्भिक अवस्थामें लोभ
र प्रबल होता है और शत्रु समझा जाता है, पर मूलाचारके विद्वान् आचार्य महोदयने,
' परन्तु स्मरण रहे इसी अपेक्षा यह शत्रु है अपने ऊपर उल्लेख किये हुए वाक्यों द्वारा,
' कि जिसको यह लुभाता है वह स्वयं अपना अच्छा प्रकाश डाला है और अनेक युक्ति- "
ई भार अनक युक्त शत्रु है। परंतु इससे मनुष्यकी निर्बलता और योमें जैनतीर्थंकरोंके शासन-भेदको भले प्रकार अपवित्रताका पता लगता है, इस अपेक्षा प्रदर्शित और सूचित किया है। इसे मनुष्यका मित्र और आत्मिक उन्नतिके
आशा है कि इस लेखको पढकर सर्व लिए आवश्यक समझना चाहिए । बुराईको साधारण जैनी भाई, तत्त्ववभत्सजी और दूर करने और भलाईको ग्रहण करनेके अन्य ऐतिहासिक विद्वान्, ऐतिहासिक क्षेत्रमें, ..
' उद्योगमें यह साथ रहता है । किसी बुराईको
सर्वथा दूर करनेके लिए यह आवश्यक है कुछ नया अनुभव प्राप्त करेंगे और साथ ही
ग और साथ हा कि वह बुराई साफ जाहिर हो जाय और इस बातकी खोज लगायँगे कि जैनतीर्थंकरोंके यह काम अर्थात् बुराईको जाहिर कर देना शासनमें और किन किन बातोंका परस्पर लुभाव या लालचका है। भेद रहा है।
___ लोभ उस वासनाको भड़काता है जिस को मनुष्यने अपने वशमें नहीं किया है और जब तक वह उसे वशमें नहीं कर लेगा
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MAHABHARAMAITHILIATILLI
लुभाव या लालच ।
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तब तक बराबर लोभ मनुष्यको दबाता आकांक्षा इस बातको सूचति करती है रहेगा । अपवित्रता पर लोभका असर होता कि मनुष्यने कुछ उन्नति की है और इस है। पवित्रता पर लोभका वश नहीं चलता। लिए वह फिर नीचे गिर सकता है। इसी
_ भावका नाम जो फिर मनुष्यको ऊँचेसे नीचे ___ लोभ उस समय तक आकांक्षायुक्त उतार लाता है, लालच या लभाव ( Temptमनष्यके मार्ग बाधक रहता है जब
है। मनष्यको लभानेवाली चीज तक कि वह ईश्वरीय ज्ञानके संसारमें प्रवे- अपवित्र विचार और इन्द्रियोंके भोग विलानहीं पाता । वहाँ पहुँच कर लोभ उसका सोंकी इच्छायें होती हैं। यदि हृदयमें कामपीछा नहीं कर सकता । जब मनुष्यको की इच्छा नहीं है तो लालचका कुछ असर आकांक्षा उत्पन्न होने लगती है तभीसे वह नहीं हो सकता । लालच मनष्यके भीतर हैं लुभाया जाने लगता है । आकांक्षा मनुष्य- न कि बाहर । जब तक मनुष्यको इस बातकी बुराई और भलाई दोनोंको प्रगट कर का अनभव नहीं हो जाता लालचका समय देती है कि जिससे मनुष्यको अपनी वास्तविक बढता जाता है। जब तक मनुष्य बाहरी दशाका हाल मालूम हो जाय; कारण कि जब
१ चीजोंसे यह समझ कर बचता रहता है कि
जो यह समयक । मनुष्य अपनका अच्छा तरह नहा लालच इनमें है और अपनी अपवित्र वासजान लेता, अपनी बुराई भलाईको नहीं नाओंको नहीं त्यागता, तब तक उसका समझ लेता, तब तक वह अपने ऊपर जय लालच बढता जाय
ऊपर जय लालच बढ़ता जायगा और उसका पतन नहीं प्राप्त कर सकता । जो मनुष्य विषय होता रहेगा। जब मनुष्य इस बातको स्पष्ट वासनाआमें लिप्त हो रहा है उसके विषय- रूपसे देख लेता है कि वराई मेरे अंदर है में यह नहीं कहा जा सकता कि वह नीचे- बादा नदी तब वह उन्नति कर सकेगाकी ओर लुभाया जा रहा है। कारण कि लुभाव ही इस बातको प्रगट कर रहा है कि शीघ्र अपनी लोभकषाय पर पूर्ण जय प्राप्त वह उच्चावस्थाके लिए उद्योग कर रहा है। कर सकेगा। विषयलम्पटता उसी मनुष्यमें होती है लालच दुःखमय है परंतु यह नित्य नहीं जिसे अभी आकांक्षा भी उत्पन्न नहीं हुई है। है। यह केवल नीचेसे ऊपर जानेका मार्ग उसे केवल भोगविलासोंकी इच्छा है और है। जीवनकी पूर्णता आनंदमय है दुःखमय वह उन्हींकी प्राप्तिसे प्रसन्न होता है । ऐसा नहीं । लोभ निर्बलता और पराजयके साथ मनुष्य नीचेकी ओर नहीं लुभाया जा सकता; रहता है, परंतु मनुष्य शक्ति और विजयके कारण कि वह गिरेगा क्या, अभी अपने लिए है। दुःखकी उपस्थिति इस बातका स्थानसे उठा भी नहीं है
चिह्न है कि उन्नति की जाय । जो मनुष्य
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लालच घट जा
वहत
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TAImmummam
जैनहितैषी। ARTISTITUTINE
नित्य प्रति अपनी आकांक्षाओंको बढ़ाता है चाहिए कि किस तरह उसकी उत्पत्ति हुई वह कभी यह ख्याल नहीं करता कि लोभ और किस तरह उसे दूर किया जा सकता है । पर कभी विजय नहीं प्राप्त की जा सकती। मनुष्यकी कषायें जितनी तीव्र होती हैं,उतना वह अपने ऊपर विजय प्राप्त करनेके लिए ही भयंकर उसे लालच होता है और जितना दृढ़ संकल्प रखता है । बुराई पर सन्तोष गहरा मनुष्यका स्वार्थ और अभिमान होता कर लेना अपनी पराजयको स्वीकार कर है, उतना ही प्रबल उसका लोभ होता है। लेना है और उससे सूचित होता है जो युद्ध यदि मनष्य सत्यके जाननेका इच्छुक है अपनी वासनाओंके विरुद्धमें किया गया था तो उसे पहले अपने आपको जानना चाहिए। उसे छोड़ दिया है, भलाईको त्याग दिया है यदि अपने आपको जाननेका उद्योग करते और बुराईको ग्रहण कर लिया है। समय अपनी त्रुटियाँ अथवा अपने अवगुण
जिस तरह उत्साही मनुष्य विघ्नबाधा- प्रगट हों, तो उनसे घबराना नहीं चाहिए ओंकी परवा नहीं करता किंतु सदा उन पर कितु उनका हृदयस
मटा किंतु उनका हृदयसे स्वागत करना चाहिए। विजय प्राप्त करनेकी धुनमें लगा रहता है उनके प्रगट होनेसे उसे अपना ज्ञान उसी तरह निरंतर आकांक्षा रखनेवाला मनुष्य होगा और अपना ज्ञान होनेसे आत्माको लोभसे लुभाया नहीं जाता, किंत इस बातकी संयम और इंद्रियदमनमें सुभीता होगा। जोहमें रहता है कि किस तरहसे अपने जो मनुष्य अपनी भूलों और त्रुटियोंको मनकी रक्षा करे । लुभाया वही जाता है जो प्रगट होते नहीं देख सकता, किंतु उन्हें सबल और सुरक्षित नहीं होता। छिपाया चाहता है, वह सत्यमार्गका अनु
मनष्यको उचित है कि लोभ लालचके गामी नहीं हो सकता । उसके पास लालचको भाव और अर्थपर अच्छी तरहसे विचार करे; पराजित करनेके लिए काफी सामान नहीं है। कारण कि जब तक उसका अच्छी तरह जो मनुष्य अपनी नीच प्रकृतिका निर्भय ज्ञान प्राप्त नहीं किया जायगा, तब तक उस होकर सामना नहीं कर सकता वह त्यागके पर जय प्राप्त नहीं की जा सकती । जिस ऊँचे पथरीले शिखर पर नहीं चढ़ सकता । तरह बुद्धिमान् सेनापति विरोधी दल पर लुभाये जानेवाले मनुष्यको यह जानना आक्रमण करनेसे पहले शत्रुकी सेनाका पूरा चाहिए कि वह स्वयं अपनेको लुभाता है, पूरा हाल जाननेका उद्योग करता है, उसी उसके शत्रु उसके भीतर हैं। चापलूस जो उसे तरह जो मनुष्य लोभको दूर करना चाहता है बहकाते हैं, ताने जो उसे दुख देते हैं और उसे इस बात पर पूर्ण रूपसे विचार करना शोले जो जलाते हैं, वे सब उस अज्ञानताके
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सुखका उपाय।
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भीतरी क्षेत्रसे निकलते हैं जिसमें वह अब धीरे अपने आत्मिक शत्रु पर विजय प्राप्त तक रहा है। यह जान कर उसे इस बातका कर लेगा और अंतमें उसे सत्यका ज्ञान निश्चय होना चाहिए कि मझे बराईपर विजय हो जायगा । शत्रु कौन है ? हमारे ही काम, प्राप्त करना है।
स्वार्थ और अभिमान हमारे शत्रु हैं । यदि
। इन्हें नष्ट कर दिया जाय, तो बुराई भी नष्ट जब मनुष्य खूब लुभाया जाय तो उसे
' हो जाती है और भलाई पूर्ण कांति और प्रभाशोक नहीं करना चाहिए किंतु हर्ष मनाना के लाथ प्रगट हो जाती है । * चाहिए कि इससे उसकी शक्तिकी परीक्षा होती है और उसकी निर्बलता प्रगट होती है। जो मनुष्य अपनी कमजोरीको ठीक
Prastavasthaaicanteedsanileoteastuvsauga ठीक जानता है और उसको मानता है, वह शक्तिके प्राप्त करनेमें आलस न करेगा। सुखका उपाय है
sharnerrormergraEArgengrnar marwarrants ___ मूर्खजन अपने पापों और अपनी त्रटि
(ले०-बाबू जुगलकिशोरजी मुख्तार ।) योंके लिए दूसरोंको दोष दिया करते हैं, परंतु सत्यके प्रेमी अपने आपको दोष दिया
जगके पदार्थ सारे, करते हैं । अपने चालचलनकी जिम्मेवारी मनु- वर्ते इच्छानुकूल जो तेरी। प्यको अपने ऊपर लेनी चाहिए और यदि
तो तुझको सुख होवे,
पर ऐसा हो नहीं सकता। कभी गिर जाय, तो यह कभी न कहना
(२) चाहिए कि यह चीज अथवा वह चीज, यह क्योंकि परिणमन उनका, मनुष्य अथवा वह मनुष्य दोषके भागी हैं। शाश्वत उनके अधीन ही रहता। दूसरे लोग हमारे लिए अधिकसे अधिक यह
जो निज अधीन चाहे,
वह व्याकुल व्यर्थ होता है। कर सकते हैं कि वे हमारी बुराई अथवा
(३) भलाईके प्रगट होनेके अवसर उपस्थित कर
इससे उपाय सुखका, देवें, किंतु वे हमें अच्छे या बुरे नहीं सच्चा, स्वाधीन वृत्ति है अपनी। बना सकते।
राग-द्वेष-विहीना,
क्षणमें सब दुःख हरती जो ॥ - पहले पहले लोभ बहुत तीव्र होता है और उसके दबानेमें बड़ी कठिनाई मालूम
* जेम्स एलनकी From Passion to Peace होती है । परंतु यदि मनुष्य दृढ़ बना रहे
नामक पुस्तकके Temptation शीर्षक निबंधका और उसके बहकावेमें न आवे, तो वह धीरे भाषानुवाद ।
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जैन लेखक और पंचतंत्र | (गताङ्ककी पूर्ति | )
ले० - बाबू मोतीलालजी जैन बी. ए. । कोज गार्टनने इस पंचाख्यानका ही लैटिन नाम 6 टैक्सट सिम्प्लिसिअर ' अर्थात् ' सरलावृत्तिं ' रक्खा था और
इस ग्रंथको एक प्राचीन बौद्ध ग्रंथका किसी ब्राह्मणद्वारा किया हुआ रूपान्तर समझा था । इस सरलावृत्ति और प्राचीन तंत्राख्यायिकामें इतनी अधिक भिन्नता है कि हम इसे एक सर्वथा नया ग्रंथ कह सकते हैं जो तंत्राख्यायिकाके आशयकों लेकर लिखा गया है । निस्संदेह यह ग्रंथ किसी राजा या उसके मंत्रीकी आज्ञासे लिखा गया होगा । उस राजा या मंत्रीको उस समय जो पंचतंत्र प्रचलित था उसकी एक नई आवृ त्तिकी आवश्यकता हुई होगी ।
सरावृत्तिके कर्ता ने अपने ग्रंथ में प्राचीन ग्रंथकी अधिकांश कथाओं को शामिल किया और बहुतसी नये ढंगकी नई कथायें अपनी ओरसे बढ़ा दीं। इसके सिवाय उसने कामंद कीय नीतिसारसे भी - जिसका तंत्राख्यायिकाके कर्ताको पता भी न था - बहुत कुछ उद्धृत किया । यहाँ पर यह बात ध्यान देने योग्य और उत्तर-पआवृत्तिके कर्ताने
1
भाषा श्चिम भारतीय संक्षिप्त
१ Textus Simplicior. २ जिसका पाठ सरल हो अर्थात जो बहुत पेचीदा और अलंकृत न हो।
प्राचीन गद्य-पाठका केवल अनुवाद किया अथवा उसको संक्षेपमें लिख दिया, परन्तु सरलावृत्तिके कर्ताने अपना ग्रंथ एक नये ढंगसे और एक नई शैलीसे लिखा । वह ऊँची श्रेणीका कथाकार हैं, जो यह जानता है कि श्रोताओं अथवा पाठकोंको मनोविनोद द्वारा किस तरह उपदेश दिया जा सकता है; और उसने अपनी ओर से जो कथायें बढ़ाई हैं वे पंचतंत्र के समस्त कथा-संग्रह में सर्वोत्तम हैं । प्राचीन आवृत्तियोंमें चौथे और पाँचवें तंत्र बहुत ही संक्षेपमें दिये हैं; सरलावृत्तिके कर्ताने, जिसके नामतकका पता नहीं है, उनको बढ़ा कर पहले तीन तंत्रों के बहुत कुछ समान कर दिया । यह काम उसने इस तरह किया है। उसने तीसरे और चौथे तंत्रोंकी और प्राचीन पाँचवे तंत्रकी, - जिसमें दो कथायें पीछे से मिलाई हुई जान पड़ती हैं- कथाओं के कुछ अंशोंको निकाल कर उनकी जगह पर एक सर्वथा नई कथा रख दी, जिसमें व्यापक कथाके सिवाय ग्यारह अवान्तर कहानियाँ और हैं ।
इस आवृत्तिका प्रायः ठीक ठीक ज्ञान केवल कीलहार्न और बुल्हरके संस्करणसे हो सकता है, जो बम्बईकी संस्कृत सीरीज के पहले, तीसरे और चौथे
अक्रोंमें प्रकाशित
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जैन लेखक और पंचतंत्र।
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हुआ है । परन्तु इन दोनों विद्वानोंको केवल दुर्भाग्य समझना चाहिए कि मुझे इन एक हस्तलिखित प्रति प्राप्त हुई थी और यह प्रतियोंके देखनेकी आज्ञा न मिली । मैं प्रति भी प्राचीन न थी और उसमें कमसे कम दावेके साथ कह सकता हूँ कि पंचतंत्रकी आठ कथायें पीछेसे जोड़ी हुई थीं। इस भिन्न भिन्न आवृत्तियाँ इतनी किसीने भी नहीं संस्करणका सन् १८८४ ई० में लबविग देखीं जितनी मैंने देखी हैं । यदि पाटन फ्रिगने जर्मन भाषामें और सन् १८८५-७९ और अहमदाबाद इत्यादिकी प्रतियाँ मेरे ई० में एच. जी. बान डर वाल्सने डचभाषा- पास परक्षिाके लिए भेज दी जाय, तो मैं में अनुवाद किया।
थोड़े ही समयमें इस प्रसिद्ध ग्रंथके इतिहासमें इस आवृत्ति ( सरलावृत्ति ) की बहतसी इन प्रतियोंकी उपयोगिताको दिखानेके हस्तलिखित प्रतियोंकी मैंने परीक्षा की और योग्य हो जाऊँगा । सार्वजनिक संस्थाओं उनके पाठमें बहुत अंतर पाया। नई प्रति- और भारतीय तथा यूरोपीय विद्वानोंद्वारा मिली योंके तैयार करनेमें प्राचीन ( हस्तलिखित) हुई अनेक प्रतियोंका जो उपयोग मैंने किया प्रतियोंसे बार बार नकल करनी पडी है है वह सिद्ध करता है कि मैं ऐसी सहा
और मिलान करना पड़ा है, इस लिए प्राचीन यताका पात्र हूँ और मेरी खोजोंसे प्रतियाँ जीर्ण हो गई हैं । जैन विद्वानोंका जनसाहित्यको र
जैनसाहित्यकी ख्यातिमें बहुत वृद्धि कर्तव्य है कि वे अपने संप्रदायके एक हुई है। अत्यन्त सफल लेखकके उपकारका 'सरलावृत्ति' ने बड़ी भारी सफलता बदला चुकानेके लिए इस आवृत्ति प्राप्त की । इसके बाद पंचतंत्रके जितने रूपा(सरलाटत्ति ) की उत्तम और प्राचीन न्तर हुए-चाहे वे जैनोंने अथवा हिन्दुओंने, प्रत्तियोंकी-ऐसी प्रतियोंकी जिनमें प्रशि- साधुओंने अथवा श्रावकोंने लिखे हों और स्ति हो-खोज करें; तभी यह संभव चाहे गुजरातमें, महाराष्ट्रमें, दक्षिणमें, ब्रह्मामें होगा कि लेखकके नाम और समयका अथवा नैपालमें लिखे गये हों वे सब या तो पता लगाया जाय और 'सरलात्ति' सरलावृत्तिके आधार पर ही लिखे गये या जैसे भद्दे और अनुपयुक्त नामको दूर उनके लिखनेमें इस आवृत्तिसे बहुत सहायता कर दिया जाय । निस्संदेह ऐसी हस्त- ली गई । लिखित प्रतियाँ अब भी मौजूद होंगी। समय-क्रमसे सरलावृत्तिके पश्चात् जैन___ पाटन और अहमदाबादके उपाश्रयोंमें मुनि पूर्णभद्र सूरिकी आवृत्तिका नम्बर है। अब भी पंचाख्यानकी बहुत सी प्रतियाँ मौ- उन्होंने अपना ग्रंथ सन् ११९९ ई० अर्थाजूद हैं, परन्तु इसको जैनसाहित्यका त् संवत् १२५५ में लिखा था। उन्होंने
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mmuTURAImamIIIIRAM
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अपनी प्रशस्तिमें लिखा है कि एक राज-मंत्री- लाकर निर्माण की गई हैं। उनमेंसे कुछ मने उनको प्राचीन शास्त्र पंचतंत्रकी, जो नोरंजक हैं क्योंकि उनमें नई कथायें भी ‘विशीर्ण कर्ण' हो गया था, संशेधित लिखी गई हैं । इन मिश्रित आवृत्तियों से आवृत्ति तैयार करनेकी आज्ञा दी । वे आगे एक आवृत्ति के कुछ अंशका अनुवाद यूनानी चलकर लिखते हैं कि उन्होंने यह काम भाषामें एक यूनानी व्यापारी डैमैट्रीओस बड़ी सावधानीके साथ किया और ग्रंथका गेलेनोस द्वारा हो चुका है। यह व्यापारी केवल संशोधन ही न किया, किन्तु उसमें सन् १७८६ ई० में कलकत्ता गया था और नई बातें भी बढाई । उनके ग्रंथकी ध्यान- वहाँपर ब्राह्मणोंके साथ रहकर उनके दर्शनपूर्वक देख-भाल करनेसे और ग्रंथोंका मिलान शास्त्र और साहित्यका अध्ययन करता रहा करनेसे मालूम होता है कि उनका कथन और उसने अपनी मृत्यु तक, जो सन् सर्वथा ठीक है। पूर्णभद्रने मुख्यतः सरला- १८८३ ई० में हुई, कई संस्कृत ग्रंथोंका वृत्तिको तंत्राख्यायिकाके साथ मिला दिया, अनुवाद अपनी मातृभाषामें किया । परन्तु उन्होंने इनसे प्राचीन ग्रंथोंकी भी देख बैनफेका जर्मन अनुवाद ( १८५८ ई०), भाल अवश्य की होगी, क्योंकि उनके ग्रंथका ई. लासेरौका फ्रेञ्च अनुवाद ( १८७१ ई०), पाठ कई स्थानोंमें केवल पहलवी अनुवाद आई पिज्जीका इटालियन अनुवाद (१८९६ अथवा सोमदेवकृत संक्षिप्त आवृत्ति अथवा ई०), और एच. रसमुस्सेनका डेनिश अनुवाद क्षेमेन्द्रकी आवृत्तिसे ही मिलता है । इसके (१८९३ई०)ये सब कोजगार्टनके भ्रष्ट पाठसे सिवाय उन्होंने सोलह कथायें अपनी और किये गये हैं, और शिमिटका जर्मन अनुवाद से बढ़ा दीं । चूंकि मुझे कई अति प्राचीन (१९०१ ई० .) पूर्णभद्रकी आवृत्तिके दो
और अलभ्य हस्तलिखित प्रतियोंके देख- रूपान्तरोंके आधार पर हुआ है। नेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था, इस लिए मैं मैं यहाँपर अत्यन्त प्राचीन जैन आव. अपने पंचतंत्रमें ऐसा पाठ देनेको समर्थ हुआ त्तियोंके संस्कृत रूपान्तरों और उनसे मिल हूँ जो स्वयं ग्रंथकर्ताके लिखे हुए पाठसे कर बनी हुई मिश्रित आवृत्तियोंके विषयमें बहुत ही मिलता जुलता है। मेरे इस ग्रंथ- कुछ कहना नहीं चाहता। इन रूपान्तरोंमें का अँगरेजी अनुवाद पाल एलमर मोरने कई संक्षिप्त आवृत्तियाँ हैं और एक ऐसा किया है और वह हारवर्ड ओरिएंटल सीरी. संग्रह भी है जिसमें मूल (व्यापक ) कथाको जमें प्रकाशित होगा।
निकाल कर केवल वे ही कथायें फुटकर रूपमें पंचाख्यानकी बहुतसी हस्तलिखित प्रतियाँ लिखी हुई हैं, जो मूल कथाके अंतर्गत हैं। जो उत्तर-पश्चिम भारतवर्षमें प्रचलित हैं स- जैनग्रंथावली, पृष्ठ २२५, नं. ७९ के रलावृत्ति और पूर्णभद्रके पाठोंके अंशोंको मि• अनुसार पंचाख्यान-तारोद्धार नामक एक
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SHARMATIALA M ILITARA
जैन लेखक और पंचतंत्र ।
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ग्रंथ है, जिसमें ३७०० श्लोक हैं । यदि क्योंकि इस ग्रंथकी भाषा प्राचीन गुजराती है कोई महाशय मुझे इस ग्रंथका कुछ हाल जिसमें यत्र तत्र मारवाड़ी शब्दोंके रूप भी लिख भेजें अथवा इसकी एक प्रति मेरे पास मिलते हैं । उसने मूलकथाको छोड़कर देखनेके लिए भेज दें, तो मैं उनका बड़ा अंतर्गत कथाओंको एक एक करके लिख आभार मानूँगा।
दिया है। प्रत्येक कथाके शीर्षक पर संस्कृतपरन्तु जैनोंने केवल संस्कृतमें ही पंचा- का एक कथा-श्लोक है । चूंकि इनमेंसे ख्यानकी आवृत्तियाँ नहीं लिखीं-जिन्हें बहुतसे श्लोक अशुद्ध हैं और उनका अर्थ केवल 'शिष्ट' ( विद्वान् ) ही समझ सकते हैं- भी उनके नीचे दी हुई कथाओंके उपयुक्त किन्त उन्होंने इस ग्रंथका प्रचार सर्वसाधा- नहीं है, इससे जान पड़ता है कि ग्रंथरण जनतामें भी उनकी मातृभाषा द्वारा कतो विद्वान् न था । इस लिए उसने वे किया । पूनाकी डैकन-कालिज-लाइब्रेरीके कथायें भी ( जिनकी संख्या २७ है ) दे
और कलकत्ताकी संकृत-कालिज-लाइब्रेरी- दी हैं, जो सरलावृत्ति अथवा पूर्णभद्रकी के बहमूल्य हस्तलिखित ग्रंथोंके संग्रहोंमें कई आवृत्तिमें हैं । हाँ, इनमेंसे अधिकांश कथाआवृत्तियाँ 'देशीभाषाओं में हैं। ये सब ओंका रूप बदल दिया गया है और निस्संआवृतियाँ और इन्हींके साथ इन पुस्तकाल- दह इसा रूपम व
हीके साथ काल- देह इसी रूपमें वे उस समय उत्तर गुजरातयोंकी पंचाख्यान और पंचतंत्रकी अन्य सभी की जनताम जनश्रुतियोंके आधार पर प्रचहस्तलिखित प्रतियाँ मेरे पास परीक्षाके लिए लित होंगी, और निस्संदेह यह एक ऐसी आगई थीं । इस परीक्षाके परिणाम ये हैं:- बात है, जिससे इस ग्रंथका मूल्य बहुत बढ़
गया है। डैकन कालिजके सन् १८८५ ई० के डैकन-कालिज-लाइब्रेरीके दो और हस्त७४१ नं० के ग्रंथमें कथाओंका एक संग्रह लिखित ग्रंथोमें, जिनका नं० ४२४ ( सन् है, जिसका नाम पंचाख्यानवार्तिक, अथोत् १८७९-८० ई० ) और २८९ (सन् पंचाख्यानकी टीका अथवा अनुवाद है। १८८२-३ई.)है एक जैन विद्वान् यशोधीरयह ग्रंथ बड़े महत्त्वका है, क्योंकि इसमें कृत पंचाख्यान है। कर्ता का नाम सची२२ नई कथायें हैं, जिनमेंसे कुछ कथायें पत्रमें यशोधर लिखा है, जो अशुद्ध है। पंचतंत्रकी एक मराठी आवृत्तिमें, यह ग्रंथ सरलावृत्ति और पूर्णभद्रकी आवृत्तिदक्षिण-भारतकी एक आवृत्तिमें और एक का मिश्रित अनुवाद है। अनुवादकी भाषा नैपाली आवृत्तिमें भी मिलती हैं। इसका प्राचीन गुजराती है। यह अनुवाद गद्यमें है कर्ता अवश्य एक जैनश्रावक होगा, जो और इसकी लेखन-शैली पंचाख्यान वार्तिककी गुजरातमें मारवाड़की सीमा पर रहता होगा। शैलीसे बहुत अच्छी है। कई स्थानों पर
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mmmmmmmmmom जैनहितैषी।
यशोधीरने प्राचीन काश्मीरी आवृत्ति अर्थात् कर्ताका नाम तक नहीं दिया, किन्तु कर्तातंत्राख्यायिकास भी काम लिया है। के नामके स्थानमें केवल 'श्रीगुणमेरुसरि
डैकन-कालिजके दो हस्तलिखित ग्रंथोंमें -शिष्य' लिखा है। (नं०३१, सन् १८९८-९ और नं० २८८ रत्नसुन्दरने मुख्यतः सरलावृत्तिके आधार सन् १८८२-३ ), कलकत्ताकी लाइब्रेरीके पर अपना ग्रंथ लिखा है और उसमें दो एक हस्तलिखित ग्रंथमें, और एक और कथायें और बढ़ाई हैं, जो वच्छराज और हस्तलिखित ग्रंथमें, जो मुझे मेरे एक जैनध- मेघविजयकी आवृत्तियोंमें भी मिलती हैं । मानुयायी मित्रने दिया था, प्राचीन गुजराती कलकत्तेकी विस्तृत आवृत्तिमें तीन कथायें भाषामें लिखी हुई पंचतंत्रकी तीसरी आवृत्ति और दी हैं, जो अन्य जैनग्रंथोंमें भी मिल. मिलती है। इस आवृत्तिके कर्ता गुणमेरुके नेके कारण प्रसिद्ध हैं । ये कथायें इस ग्रंथके शिष्य जैनमुनि रत्नसुन्दर हैं । यह ग्रंथ कथामुख अर्थात् प्रस्तावनामें लिखी हैं । चौपाइयों और दोहोंमें लिखा है और इसका उपर्युक्त कवियोंके समान देशी भाषाके नाम कथा-कल्लोल है । रत्नसुन्दर, कवियोंका एक समुदाय और भी था। बच्छराज, जिनका नाम केवल कलकत्ताके ग्रंथमें जिन्होंने अपना पंचाख्यान-चौपई संवत् दिया है, पूर्णिमा-पक्ष गच्छके थे और १६४८ ( अर्थात् सन् १९९१-९२ ) में उन्होंने अपना ग्रंथ संवत् १६२२ में अह. लिखा था, इसी समुदायमें थे। वे तपमदाबादके पश्चिममें सानन्द ग्राममें लिखा था। गच्छके थे और रत्नचन्द्र के शिष्य थे, जिनके उन्होंने लिखा है कि मैंने यह ग्रंथ ' गुरुके संबंधों बच्छराजने लिखा है कि वे पवित्र प्रसादसे ' लिखा है।
और सुन्दर भजनोंका प्रचार कर रहे थे। इन ग्रंथोंके आधारपर हम अब यह बच्छराजने अपना ग्रंथ रत्नसुन्दरके ग्रंथके मनोज्ञ बात कह सकते हैं कि जैनसाधुओं- आधार पर लिखा है; क्योंकि उनका ग्रंथ में एक समदाय ऐसे कवियोंका हो गया रत्नसुन्दरके ग्रंथसे बहुतसे अंशोंमें और है जिन्होंने अपनी देशी भाषाओंमें कविता छंदोंके अन्त्यानुप्रासोंमें मिलता है; परन्तु की है। कलकत्तेके ग्रंथमें संशोधित और उनके ग्रंथमें रत्नसुन्दरके ग्रन्थसे १६ कथायें संवर्धित पाठ है; कदाचित् यह रत्नसुन्दर- अधिक हैं। के किसी शिष्यका लिखा हुआ है । इस बच्छराजके ग्रंथका उचित सत्कार हुआ। ग्रंथकी प्रशस्तिमें रत्नसुन्दरकी बहुत किसी कविने, जिसके नामका पता नहीं है, प्रशंसा की गई है, परन्तु दूसरे ग्रंथोंके पाठ- उसका अनुवाद संस्कृत-पद्यमें किया । दुर्भामें इतनी नम्रता प्रकट की गई है कि उनमें ग्यवश मुझे यह अनुवाद नहीं मिल सका
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AABHILARIATIMILAIMILAILE
जैन लेखक और पंचतंत्र ।
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है, परन्तु उसका कुछ अंश एक और संस्कृत पंचाख्यानका एक अनुवाद और भी है
जैनग्रंथ, अर्थात् मेघविजयकृत पंचाख्यानमें जो नवीन गुजरातीमें हैं और जिसके कर्ता मिला है । मेघविजय तपगच्छके थे और के नामका पता नहीं है। इसके तीन पाठ उन्होंने अपना ग्रंथ संवत् १७१६ ( अर्थात् मिलते हैं, जिनमेंसे दो लीथो ( पत्थरके १६५९-६० ई० ) में नवरंग-नगरके बाल- छापे ) के छपे हुए हैं और एक टाइपसे कोंको उपदेश देनेके लिए लिखा था। उनके छपा हुआ है । ये क्रमसे १८३२-३, ग्रंथमें सब कथायें वे ही हैं जो बच्छराजके १८४० और १८८२ के छपे हुए हैं। ग्रंथमें मिलती हैं। केवल अंतर यह है कि इस बातका कोई प्रमाण नहीं है कि इस मेघविजयने अपने ग्रंथके अंतमें रत्नपालकी अनुवादका कर्ता जैनधर्मानुयायी था; परन्तु कथा बढ़ा दी है। इस कथाके अन्य रूपान्तर उसने जिस पाठका अनुवाद किया है सोमनन्दनकृत रत्नपालकथामें, जो लगभग वह जैन आत्तिके दोनों अत्यन्त संवत् १५०३ में लिखी गई थी, और धर्म- प्राचीन संस्कृत पाठोंका मिश्रण है ।। कल्पद्रुम (द्वितीय सर्ग, ४ थे और ५ वे अब गुजरातसे महाराष्ट्रकी ओर अपनी श्लोक ) में भी मिलते हैं । मेघविजयने इस दृष्टि फेरिए । महाराष्ट्रमें पंचाख्यानके संस्कृकथाको संस्कृत छंदोबद्ध अनुवादसे लिया त और मराठीके कई रूपान्तर मिलते हैं। अथवा उसको स्वयं लिखा, इस बातका पता ये सब या तो पंचाख्यानकी दोनों उस समय तक नहीं लग सकता जब तक अत्यन्त प्राचीन जैन आवृत्तियोंके आधार कि कहीं वह आवृत्ति न मिल जाय। पर लिखे गये हैं अथवा उनके शब्दशः ___ पंचाख्यानकी एक और जैन आवृत्ति है, अनवाद हैं। जो निर्मल श्रावककी लिखी हुई है । इस
इन रूपान्तरोंमें अनन्त नामक किसी आवृत्तिकी एक प्रति मुझे मेरे एक जैन
वैष्णव ब्राह्मणका एक संस्कृत रूपान्तर है। धर्मानुयायी मित्रने भेजी है। उसमें केवल
कर्ताने प्रस्तावनाके श्लोकोंमें अपने आपको प्रथम तंत्रका अधिकांश है; परन्तु यह अंश
नागदेव भट्टका शिष्य बतलाया है। नागभी पाँच तंत्रोंमें विभाजित है । इस ग्रंथकी भाषा गुजराती नहीं किन्तु व्रजभाषा है और
" देव भट्ट कण्वके वेदानुयायी संप्रदायके थे । संपूर्ण ग्रंथ छदोबद्ध है। परन्तु चकि इस अनन्तने अपने ग्रंथका नाम कथामृतग्रंथमें कई जगह गुजराती महाविरे और निधि अर्थात् कथारूपी अमृतका समुद्र रक्खा क्रियाओंका गुजराती रूप आया है, इस है, परन्तु यह ग्रन्थ असलमें सरलावृत्तिका लिए यह स्पष्ट है कि इसका कर्ता एक बहुत संक्षिप्त और निकम्मा रूपान्तर गुजराती था।
है। कर्ताने जहाँ कहीं मूल ग्रंथके आशयको
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ALLIALITAIHITTOTHARAMINATIBITALAIMERA
तिषी
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Tumnturnima
बदला है वहीं अपनी निकम्मी रुचिका परि- निर्मल पाठकको संस्कृतका बोध बहुत थोड़ा था। चय दिया है। यह ग्रंथ मूल जैनग्रंथसे इसी लिए उन्होंने पंचाख्यानकी कथाओंको उस बहुत निम्न श्रेणीका है।
___ रूपमें दिया है जिस रूपमें वे जनतामें प्रचलित ___ एक और संस्कृत रूपान्तर है, जिसके थीं, और जैन आवृत्तियोंमें जो रूप दिये हैं कर्ता रामचन्द्र वैष्णव हैं। यह ग्रंथ अपूर्ण उनको छोड़ दिया है । तथापि उन्होंने जैन है। इसकी प्रशस्ति रामचन्द्रके पुत्र वसुदेवने आवृत्तियोंके आधार पर अपना ग्रंथ लिखा है संवत् १८३० अर्थात् शक् १६९५ में लिखी और संभव है कि उन्होंने पंचाख्यानकी सर्व थी। यह ग्रंथ सरलावृत्तिके पहले और पाँच- साधारणमें प्रचलित जैनकथाओं जैसे उपवें तंत्रोंको और दक्षिणी पंचतंत्रके—जिसका र्युक्त पंचाख्यान वार्तिकसे भी सहायता उल्लेख ऊपर हो चुका है-चौथे और पाँचवें ली हो; क्योंकि उनकी कई कथायें जो पंचातंत्रोंको मिला कर लिखा गया है। ख्यानके प्राचीन संस्कृत रूपान्तरमें नहीं मि
प्राचीन मराठी भाषाके रूपान्तरोंमें लती हैं, पंचाख्यान वार्तिककी कथाओंसे एक रूपान्तर है जिसके कर्ताके नामका मिलती जुलती हैं। पता नहीं हैं। इस रूपान्तरकी दो आवृत्ति- यही बात निम्न लिखित आवृत्तियोंके वियाँ मिलती हैं। इन दोनोंमें संस्कृतके श्लोक षयमें, जो दक्षिणभारत, नैपाल और ब्रह्माहैं जिनमेंसे कुछ मराठी अनुवादसहित हैं आदिमें मिलती हैं, सत्य है।
और कुछ बिना अनुवादके हैं । यह ग्रंथ उत्तर-पश्चिम-भारतीय संक्षिप्त आवृत्तिको दोनों * अत्यन्त प्राचीन जैन रूपान्तरोंका जो संभवतः एक वैष्णवकी कृति है, जैनमिश्रित अनुवाद है । इस ग्रंथकी एक पंचाख्यानके भिन्न भिन्न रूपान्तरोंने उत्तर-प. आवृत्तिको शक १८२९ में विनायक लक्ष्म- श्चिमसे बहिष्कृत कर दिया। परन्तु इसकी णने इन्दुप्रकाश प्रेस बम्बई द्वारा मुद्रित एक प्रति, जिसमें बहुतसी अशद्धियाँ थीं और महाराष्ट्र-कवि-सीरीजके ३५ वें अंकसे लेकर कई स्थानोंपर पाठ छूटा हुआ था, दक्षिण ४६ वें अंक तक प्रकाशित किया था। भारतमें आई और यहाँपर उसकी बहुतसी ___ एक भागवतने, जिनका नाम निर्मल प्रतियाँ और अनुवाद हुए जो अब भी मिलते हैं। पाठक था, प्राचीन मराठी भाषामें एक ये अनुवाद तैलंग, कन्नड, तामिल, मलयालम छंदोबद्ध आवृत्ति लिखी थी । इस आवृत्तिकी और मोडी (?) भाषाओंमें हैं; और इनमें भी केवल एक प्रति, जो मैंने देखी है, लंदनकी कुछ गद्यमय हैं और कुछ छंदोबद्ध हैं। अभी इंडिया आफिस लाइब्रेरीमें है । यह स्पष्ट है कि तक इन अनुवादोंका बहुत कम हाल मालम * अर्थात् सरलावृत्ति और पूर्णभद्रकी आवृत्ति। हुआ है। परन्तु उनमें से कुछ तो दक्षिणी
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KAROBICILLI ONILIATURE SE जैन लेखक और पंचतंत्र।
HinfINE
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THINTIN
पंचतंत्रके संस्कृत पाठके आधारपर लिखे गये का तामिल ग्रंथ इसी मराठी ग्रंथका शब्दशः हैं और कुछ इस संस्कृत और पंचतंत्रके अन्य अनुवाद है । तंदवरयका ग्रंथ दक्षिण भारतपाठोंके मिश्रित अनुवाद हैं।
के स्कूलोंका सर्वप्रिय ग्रंथ है और इसका __इनमेंसे एक आवत्तिकी संस्कृत बहुत अनुवाद अगरेजीमें हो चुका है। निकम्मी है। यह आवृत्ति दक्षिणी पंचतंत्र मेरे पास एक हस्तलिखित ग्रंथकी एक
और तामिलके एक अथवा कई पाठोंके मेलसे प्रति और भी है । इस प्रतिके स्वामी काशीलिखी गई है । इस आवृत्तिका पता निवासी एक ब्राह्मण हैं । इस प्रतिकी मूल मुझे ताड-पत्र पर लिखी हुई एक विचित्र प्रति तैलंग लिपिमें हैं, अतएव यह ग्रंथ प्रतिसे लगा है, जिसे तंजौर निवासी टी. एस. कर्नाटक देशमें लिखा गया होगा। यह ग्रंथ कुप्पूस्वामी शास्त्रीने स्वर्गीय अध्यापक वोन धर्म पंडितकी रचना है और अपूर्ण है। मन कौसकाको प्रदान किया था और जो यह ग्रंथ संपूर्ण अंशमें नहीं परन्तु सुख्यतः अब लैपजिगकी यूनीवर्सिटी-लाइब्रेरीमें संग्रहीत दोनों अत्यन्त प्राचीन जैन आवृत्तियोंके है । इस वृत्तिमें कई नई कथायें हैं, जिन- आधार पर लिखा गया है। मेंसे कुछ पंचाख्यानकी भिन्न भिन्न जैन- एक ग्रंथ और है, जिसका नाम तंत्राख्यान आवृत्तियोंमें मिलती हैं।
है, (तंत्रख्यायिका नहीं)। इस ग्रंथके तीन अब्बे ड्यूबोइस कृत फ्रेञ्च भाषाका पंच- रूपान्तर आजकल नैपालमें मिलते हैं। तंत्र, जो तैलंग, तामिल और कन्नड भाषाओं- इनमें से एकमें जो सबसे प्राचीन और मूल की तीन प्रतियोंसे मिला कर तैयार किया है केवल कथाकल्लोल है; दूसरेमें उसके गया है, इस संस्कृत आवृत्तिसे बहुत कुछ सिवाय कुछ कथायें नेवारी (नेपाली ?) में हैं। समामता रखता है। क्योंकि कई विशेष कथायें मालूम होता है कि इनमेंसे पहला रूपान्तर इन दोनों ही ग्रंथों में मिलती हैं। दक्षिणसे नैपालमें लाया गया है। चूंकि
उन्नीसवीं शताब्दीमें तंदवरय मदा- इसमें एक स्थान पर तारागोंको देवता माना लियरने मराठी अनुवादसे एक अनुवाद गया है, इस लिए यह निश्चय है कि इसका तामिल भाषामें तैयार किया। यह मराठी कता जैनधर्मानुयायी था । अनुवाद लीथोमें बिना मुखपृष्ठके छपा ब्रह्मा इत्यादि पूर्वीय देशोंमें-दक्षिणी था और दक्षिणी पंचतंत्र, हितोपदेश और पंचतंत्रके तामिल रूपान्तरके अनुवादके अतिदोनों अत्यन्त प्राचीन जैन आवृत्तियों, अर्थात् रिक्त -कई ग्रंथ ऐसे हैं, जो पंचतंत्रके सरलावृत्ति और पूर्णाभद्रकी आवृत्तिके मेलसे आशयको लेकर लिखे गये हैं । यद्यपि इन तैयार किया गया था। तंदवरय मुदालियर- ग्रंथोंके विषयमें बहुत कम मालूम है, परन्तु ।
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mmum जैनहितैषी
वे प्राचीन जैन आवृत्तियोंके प्रभावके समस्त भारतवर्षके लिए, बल्कि यों कहिए सूचक हैं।
कि एशिया और यूरोपके लिए अतीव महत्त्वजो कुछ इस निबंधमें कहा गया है वह का होगा। मैंने अपनी पंचतंत्र विषयक बहुत ही संक्षेपमें है। इस विषयका संपूर्ण उपर्युक्त पुस्तकमें यह भी दिखाया है कि तृतीविवरण मेरी पुस्तकमें मिलेगा, जिसका नाम नामा, जिसका अनुवाद एशिया और यूरो• पंचतंत्र, उसका इतिहास और उसका पकी भिन्न भिन्न भाषाओंमें हो चुका है,शुकसप्तति भौगोलिक विभाग' है । यह पुस्तक प्रेसमें दी (शुकबहत्तरी) नामक जैनग्रंथका ही अनुवाद है। जा चुकी है। यदि इस पुस्तकके विषयके संसारमें भ्रमण करनेवाले जितने समूचे जैनसंबंधमें जो कुछ इस लेखमें लिखा जा चुका ग्रंथोंका अब तक पता लगा है उनमें यही है उससे भी अधिक जानना हो, तो मेरे ग्रंथ सबसे प्राचीन है । जैन विद्वानोंने समय तंत्राख्यायिका नामक ग्रंथकी प्रस्तावना समय पर अब तक मुझे जैसी सहायता दी देखनी चाहिए । इस ग्रंथका संपादन मैंने है यदि ऐसी ही सहायता वे मुझे भविष्यकिया है और यह लेपजिगमें हारवर्ड ओरि- में भी देते रहें, तो मुझे आशा है कि कथायण्टल सीरीजके लिए छप रहा है। साहित्यके क्षेत्रमें जैनसाहित्यका उच्च महत्त्व - यद्यपि यह निबन्ध बहुत ही संक्षिप्त है, निपट अंधोंपर भी प्रकट हो जायगा । * तथापि इसके द्वारा पाठकोंको यह मालूम हो जायगा कि जैनकथासाहित्यका समस्त वाचका मा
म विधिका प्राबल्य और दौर्बल्य । भारतवर्ष पर कितना प्रभाव था । पहले इस
se: बातका मालूम होना असंभव था, क्योंकि
ले०-बाबू जुगलकिशोरजी, मुख्तार । जैनग्रंथभंडारों तक यूरोपीय विद्वानोंकी जीवनकी औ धनकी, पहुँच न थी। परन्तु सौभाग्यकी बात है आशा जिनके सदा लगी रहती। कि आज कलके जैनी उस लाभको समझने
विधिका विधान सारा,
उनहीके अर्थ होता है ॥१॥ लगे हैं जो उन्हें अपने सरस्वतीभंडारों द्वारा
विधि क्या कर सकता है ? पश्चिमी और पूर्वी विद्वानोंकी सहायता कर- उनका, जिनके निराशता आशा। नेसे होता है। यदि जैनी इस काममें अधिक
भय-काम वश न होकर,
जगमें स्वाधीन रहते जो ॥ २॥ उदारता दिखलाते चले जायँ, तो हम आशा
* यह जर्मनीके सुप्रसिद्ध डाक्टर जुहानीज़ हर्टलके
एक लेखका अनुवाद है । पाठकोंको इस लेखके पढ़त्यके इतिहासके दर्शन होंगे। ऐसा इति
नेसे यह भी मालूम होगा कि स्वाध्याय किसे हास केवल जैनोंके ही लिए नहीं, किन्तु कहते हैं ।-अनुवादक। .
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काइमीरका इतिहास । (ले०-श्रीयुत बाबू सुपार्श्वदास गुप्त बी. ए.।)
कई ऐतिहासिकोंने विशेष कर असंस्कृतज्ञ घटनाओंका हाल लिपिबद्ध करते थे । जिन यरोपियनोंने भारतवर्षके साहित्य पर यह लोगोंने महाकवि कल्हणकी राजतरंगिणी देखी निन्दनीय आक्षेप किया है कि इसके भक्तोंने है उन्हें मालूम होगा कि, उसने प्रथम अध्याइसके ऐतिहासिक अंग पर कुछ भी ध्यान यमें किस प्रकार इतिहासलेखकोंकी प्रशंसा नहीं दिया और उन्हें साहित्य लिखनेका करते हुए कई पुराने इतिहासवेत्ताओं और ढंग मालूम न था; परन्तु उनकी यह सम्मति लेखकोंका हवाला दिया है और स्थान स्थानइतिहासकी भिन्न भिन्न समयोंमें, भिन्न भिन्न पर उनके ग्रन्थोंकी समालोचना की है। कल्हपरिभाषा होनेके कारण मान्य नही हो सकती। णने वहाँ पर जो कुछ लिखा है उसका जिस प्रकार आधुनिक समयमें यूरोपवाले भावार्थ यह है:-" सच्चे कवियों ( इतिहासइतिहास लिखते हैं हमारे पूर्वज उस तरह वेत्ताओं ) की वह शक्ति प्रशंसा करने योग्य नहीं लिखा करते थे। जिन अठारह पुराणों- है जो अमृतकी धारासे भी बढ़कर है; क्यों को लोग झूठे किस्से कहानियोंका भाण्डार कि इसीके कारण उन कवियों और अन्य कह कर तिरस्कृत करते हैं उन्हींका यदि लोगोंका शरीर अमर हो जाता है। प्रजापतिका ऐतिहासिक दृष्टिसे अध्ययन किया जाय मुकाबला करनेवाले और सुन्दर ग्रन्थ लिखने
और परम्परागत मिथ्या कथन जो लेखकों- वाले कवियोंके सिवा और कौन ऐसा है जो की अज्ञानतासे उनमें घुस गये हैं उनसे साधारणकी आँखोंके सामने भूतकालकी घटनानिकाल दिये जाँय तो प्राचीन भारतवर्षके ओंका चित्र खींच सकता है ! वही उच्च इइतिहासके लिए बहुतसा सामान मिल सकता विचारवाला कवि प्रशंसनीय है जिसके शब्द है। हर्षकी बात है कि भारतीय विद्वानोंका ध्यान न्यायाधीशोंके शब्दोंकी तरह पूर्वकालिक बातोंइस ओर गया है और उनके अनुसंधानोंसे के वर्णनमें प्रेम और घृणा दोनोंसे अलग रहते भारतके माथे पर अकारण लगे हुए कलंकके हैं। प्राचीन राजाओंके इतिहासविषयक मिट जानेकी बहुत कुछ आशा है। पुराने बड़े बड़े ग्रन्थ खण्डरूपमें रह गये हैं;
इतना ही नहीं बल्कि, हमारे पूर्वज इति- क्योंकि सुव्रतने उसे अपनी छोटीसी पुस्तकमें हासके बड़े प्रेमी थे और इतिहासकी प्रसिद्ध इस प्रकार दूंस दिया है कि उसका आशय पक्षपात शून्यताके साथ सामयिक और विगत आसानीसे याद रह सके । यद्यपि उसकी
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जैनहितैषी --
पुस्तकका नाम बहुत निकल गया है तो भी यह कहना पड़ता है कि विषयके प्रतिपाद नमें उसने अपनी बुद्धिसे काम नहीं लिया है । असावधानी के कारण क्षेमेन्द्रकी नृपावलीका एक भाग भी अशुद्धियोंसे रहित नहीं है । मैंने पुराने पंडितोंके इतिहासविषयक ग्यारह ग्रन्थ और नील ऋषिकी सम्मतियाँ उनके नीलमत-पुराण में देखी हैं । प्राचीन प्रशंसाविषयक तथा पुराने राजाओंके दानपत्रों और मन्दिरस्थापनसम्बन्धी लेखों और ग्रन्थों को देखनेसे बहुतसी अशुद्धियाँ हल हो गई हैं । "
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कल्हण के इस कथन से उसकी ऐतिहासिक निष्पक्षता, समालोचकप्रवृत्ति और उसके पहले इतिहासवेत्ताओं और लेखकोंके अस्तित्वका पूरा पता चलता है । यद्यपि उनमें - से किसीका लिखा हुआ कोई ग्रन्थ अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ है, फिर भी यूरोपीय विद्वानोंको मुँहतोड़ जवाब देनेके लिए इतना भी काफी है । फिर मुसलमानोंके नष्ट किये हुए हिन्दूग्रन्थसमूहका परिमाण देखते हुए क्या यह निसन्देह रूपसे हम नहीं कह सकते कि हमारे इतिहासग्रन्थ भी समुद्रतल - की शोभा बढ़ा रहे हैं ! यह स्मरण रखना चाहिए कि किसी जातिकी कीर्ति और मर्यादाको नष्ट करने का सबसे अच्छा और प्रभावो - त्पादक उपाय उसके इतिहासको तथा शिल्प -
* Dr. Stein's translation of Raj
tarangini.
कलासम्बन्धी ग्रन्थोंको जल अथवा अग्निको समर्पण करना है । इसी दृष्टिसे मुसलमानोंने हमारे इस प्रकारके ग्रन्थ नष्ट कर दिये जिनका परिणाम यह हुआ कि, हम कला कौशलविहीन और अपने पूर्वजों के इतिहाससे रहित हो गये; पर हमारा सौभाग्य है कि राजतरंगिणी पर ऐसी आफत न आई और हमें इतना लिखनेका मौका मिला और साहस हुआ । इस सबन्ध में यह भी कह देना अनुचित न होगा कि पुराने पुस्तक भंडारोंका अनुसन्धान करनेसे कौटिल्य के अर्थशा
की तरह किसी अद्वितीय इतिहास ग्रन्थके भी निकल आनेकी संभावना है। अनुसंधानकर्ताओंको ध्यान रखना चाहिए कि हजारों जैनपुस्तकभण्डार जिनमें अधिकतर कर्नाटक और राजपूताने में मुनियों के अधिकार और मन्दिरोंमें हैं अभीतक ज्योंके त्यों पड़े हैं । सम्भवतः सालमें एक बार वे ग्रन्थ धूपमें रक्खे जानेके लिए निकाले जाते हैं और फिर नये जाते हैं । सम्भव है कि खोज करने पर इनबेठनके अन्दर अपने पुराने स्थानपर रख दिये मेंसे राजतरंगिणीकी तरह जिसका स भाग सन् १४१७ से १४८६ तककी राजनीतिक घटनाओंका वर्णन करता है और जैनधर्मावलम्बी श्रीवरका बनाया हुआ है, दो एक अमूल्य इतिहासग्रन्थ निकल आवें । जिस राजतरंगिणीने इतिहासज्ञों की सभा में भारतका सिर नीच होने न दिया उसीके आधारपर मैं इस लेखमें काश्मीरके राजाओं का संक्षिप्त हाल लिखता हूँ
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काश्मीरका इतिहास ।
काश्मीरका इतिहास छः कालोंमें विभक्त किया जा सकता है -(१) हिन्दू-काल, ( २ ) मुसलमान-काल, ( ३ ) मुगल-काल, (४) पठान-काल, ( १ ) सिक्ख काल, और ( ६ ) आधुनिक डोगरा काल |
कहा जाता है कि, आजकलकी काश्मीर बैली किसी जमानेमें एक बड़ी झील थी, जो समय पाकर श्रीनगर से ३४ मील उत्तर पश्चिम बारामूला नामक कस्बेके पास आ निकली और झेलम नदीका आविर्भाव हुआ। कुछ दिनोंके बाद झीलसे पानीके निकलते रहने से इधर उधर जमीन निकल आई जो बढ़ती बढ़ती आधुनिक काश्मीरमें परिणत हो गई । यह किम्बदन्ती ही नहीं है बल्कि इसके चारों ओरके पहाड़ोंके देखने और वैज्ञानिकों के अनुसंधानों से मालूम होता है कि कश्मीर किसी जमानेमें झील था। बर्फसे ढके हुए पहाड़ों पर गौर करनेसे और गर्मी में इनसे पैदा हुए अथाह पानी इकट्ठा होने के स्थानकी सम्भवता पर दृष्टि डालनेसे यह कहना पड़ता है कि काश्मीर वास्तव में एक समय झील था जिसके चारों किनारोंपर छोटी वस्तियाँ थीं । पुरानी इमारतोंके खण्डरात अभीतक अधिकतर पहाड़ोंकी तराइयोंमें ही पाये जाते हैं, जो एक समय झील के किनारे थे ।
अवन्तिपुरके मन्दिर और मार्तण्डके पाण्डवस्थान और अन्य इमारतें पर्वतकी तराइयोंमें ही हैं । पहाड़ोंकी चोटियोंपर कई तह नीचे अभीतक मछलियोंके अंश पाये जाते हैं ।
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डल
आज काश्मीरमें जिस जलराशिको झील कहते हैं, वह पहले बहुत बड़ी थी । प्राचीन समयकी बात जाने दीजिए; डोगरा - वशंके प्रथम राजा महाराजा गुलाबसिंहके समय में ही 'डल गेट' बना था, जिससे उसका अधिकांश पानी इस फाटक से निकलकर झेलममें जा गिरा और डलके इर्द गिर्द फलोंके वर्तमान बागीचोंकी सृष्टि हुई। नीलमतसमय इस विहार - नौका में कारण उसका
पुराण में लिखा है कि प्राचीन झील में पार्वती देवी अपनी घूमा करती थीं और उन्हीं के ' सतीसर पड गया था । उसमें जलोद्भव नामक एक हिंसक दानव भी रहता था, जिसने किनारेकी वस्तियाँ विध्वंस कर दी
"
नाम
थीं
। एक बार पर्यटन करते करते ब्रह्मा के पौत्र कश्यप वहाँ आये और मनुष्योंका दानवको मारने के लिए एक हजार वर्ष तक आर्तनाद सुन बड़े दुखी हुए । उन्होंने उस तपस्या की; फिर भी वह दानव उनके हाथ न लगा और पानीके अन्दर जा छिपा । अन्तमें विष्णुने अपने त्रिशूलसे बारामूला के पासका पहाड़ी किनारा काट डाला और झील का पानी बह चला । तिसपर भी जलोद्भव अपनी शरारत से बाज न आया और आधुनिक हरि पर्वतक जड़के पास जमीनके अन्दर
छिपा | देवी पार्वती उसकी बदमाशी ताड़ गई और उसके सिरपर एक पहाड़ ला पटका, जिससे वह वहीं चकनाचूर हो गया । इसी पहाड़को आजकल हरिपर्वत कहते हैं । प्रसिद्ध पुरातत्त्वज्ञ डाक्टर स्टीनका मत है
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जैनहितैषी
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है कि हरि पर्वतका वास्तविक नाम सारिका दत्तके अनुसार १२६ ० बी. सी. है । कोई पर्वत है। उनका कहना है कि काश्मीरी कोई इसका समय ३१२१ बी. सी. भी भाषामें संस्कृतका 'स' 'ह' हो जाता है। बताते हैं। उसके बाद ५३ राजे हुए, जिन्होंने इस प्रकार ' सारिका ' से 'हारिका' और १८९४ बी. सी. तक राज्य किया और हारिकासे 'हरि' होगया है । संभवतः झीलके जिनमें तीसरा राजा द्वितीय गोनन्द और ४७ बीचमें इस पहाडके रहनेसे वहाँ सारिका- वाँ अशोक था । द्वितीय गोनन्दके बादके यें बैठती हों और उसका नाम सारिका पर्वत ३५ राजाओंका नाम राजतरंगिणीमें नहीं पड़ गया हो । कश्यपके नामसे यह स्थान है। कल्हण कहता है कि वे खोगये हैं। कश्यपमर ( कश्यपका घर ) कहलाने लगा एक पुस्तकमें अशोकके काश्मीर-विजय करनेजो पीछे बिगड़कर कश्यमर और फिर का- का समय १३९४ बी. सी. दिया हुआ है। श्मीर हो गया । जो हो काश्मीरका पहले यद्यापि राजतरंगिणीके अनुसार यह समय झील होना साधारण विश्वास है और यह असंभव नहीं है, तो भी इसपर पूर्ण विश्वास भी मालूम होता है कि बहुत प्राचीन सम- नही होता. क्योंकि इससे यह सिद्ध होता यमें यहाँकी आबादी ठण्डके कारण अधि- है कि. उपर्यक्त ५४ राजाआमे आन्तिम सात कतर पशुओंकी ही थी।
राजाओंने ५०० वर्षतक राज्य किया, जो ___ काश्मीरियोंका कथन है कि पराने सम- असंभव न होने पर भी, संदिग्ध अवश्य है। यमें काश्मीरमें असंख्य राजे थे, जिन्हें कोट- राजतरंगिणीमें अशोक बौद्ध धर्मका राजा कहते थे । इनके अधिकारमें थोडेबहत प्रचारक बतलाया गया है, पर जिस गाँव होते थे और वे आपसमें लडा कटा करते बौद्ध-धर्म-प्रचारक अशोकका हम जिक्र थे । अन्तमें इनमें जो रामे हारने लगे, करते हैं, उसका राज्यकाल साधारणतया उन्होंने मिल कर जम्मसे एक वीर राजपतको २७३ या २७२ से २३२ या २३१ बी. सहायतार्थ बुलाया। संभवतः इसका नाम 'दया- सी. तक समझा जाता है। अशोकके बाद करण' था। इसके वंशमें ५५ राजे हुए, उसका लड़का ' जलोक' राजा हुआ । वह जिन्होंने ६३३ वर्षोंतक काश्मीरमें राज्य शैव था और इसलिए उसके समयमें बौद्ध किया । अन्तिम राजा सोमदत्त महाभारतकी धर्मका ह्रास होने लगा। राजतरंगिणीके सिलड़ाईमें मारा गया । उसके बाद प्रथम वाय और किसी जगह अशोकपुत्र जलोकका गोनन्द राजगद्दीका अधिकारी हुआ । उसके नाम नहीं पाया जाता । उसके बाद द्वितीय राज्यभार ग्रहण करनेका समय कल्हणके दामोदर और तदुपरान्त हुविष्क जुष्क और अनुसार २४४८ बी. सी. और रमेशचन्द्र कनिष्क और सबसे पीछे प्रथम अभिमन्यु
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शाकटायनाचार्य ।
राजा हुआ । दामोदर साधारण राजा हुआ । हुविष्क आदि पिछले तीन राजे जातिके तातार और धर्म बौद्ध थे । इनके यहाँके राजा होने में कुछ भी सन्देह नहीं है, क्यों कि और भी कई स्थानोंमें इनका विशेष कर हुविष्क और कनिष्कका जिक्र है । कनिष्कने काश्मीरमें अश्वघोषके सभापतित्वमें बौद्ध - धर्मावलम्बियोंकी एक सभा भी की थी ।
शाकटायन नामके दो आचार्य हो गये हैं - एक वैदिक शाकटायन और दूसरे जैन शाकटायन । ये दोनों ही वैयाकरण हैं । इनमें से पहले वैदिक शाकटायन बहुत ही प्राचीन हैं। ऋग्वेद और शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यमें तथा यास्काचार्यके निरुक्तमें उनका उल्लेख मिलता है । सुप्रसिद्ध पाणिनि आचार्यने अपनी अष्टाध्यायी के तीसरे और आठवें अध्यायमें शाकटायनके मतका उल्लेख किया है । पाणिनि कब हुए, इस विषयमें विद्वानोंमें मतभेद है; तथापि अधिकांश विद्वानोंकी रायमें वे ईस्वी सनसे ७००-८०० वर्ष पहले हुए हैं । अतएव शाकटायन इनसे भी पहले के- इस समयसे लगभग ३००० वर्ष पहले के - विद्वान् हैं ।
शाकटायनाचार्य |
राजतरंगिणी के अनुसार उसके सिंहासनारोहणका समय १९ वी सदी बी. सी. है । पर साधारणतया
उसका समय ९५ ए.
डी. या किसीके अनुसार १२० ए. डी. हो । उसके बाद प्रथम अभिमन्युने राजतरंगिणी के अनुसार १८९४ वी. सी. तक राज्य किया, जिसके समयमें बौद्ध धर्म काश्मीर से जड़ से उखाड़ डाला गया । (क्रमशः )
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इन वैदिक शाकटायनका कोई व्याकरण ग्रन्थ अवश्य होना चाहिए; परन्तु अभीतक उसका कहीं पता नहीं लगा ।
दूसरे शाकटायन जैन थे। इनका असली नाम पाल्यकीर्ति था; परन्तु बड़े भारी वैयाकरण होनेके कारण जान पड़ता है कि लोग इन्हें शाकटायन कहने लगे और फिर इनका यही नाम बहुत प्रसिद्ध हो गया । जिस तरह कवियों में कालिदासकी प्रसिद्धि अधिक होनेसे पीछे के कई कवि कालिदासके नामसे प्रसिद्ध हो गये थे, उसी तरह ये भी शाकटायन कहे जाने लगे। जिस समय शाकटायन व्याकरण ( शब्दानुशासन ) बना है उस समय शाकटायन,
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३५०
HAIHARITRIOTIONAL
जैनहितैषी
स्फोटायन, शाकल्य जैसे नाम नहीं रक्खे होता है। वादिराजसूरि इस मंगलाचरणके जाते थे। जैनोंमें उस समय विजयकीर्ति, 'श्री' पद पर ही लक्ष्य करके कहते हैं कि अर्ककीर्ति, पाल्यकीर्ति जैसे नाम रखनेकी पाल्यकीर्ति या शाकटायनके शब्दानुशासनका ही प्रथा थी । निर्णयसागर प्रेस द्वारा प्रका- प्रारंभ करते ही लोग वैयाकरण हो जाते शित प्राचीन लेखमालाके प्रथमभागमें राष्ट्रकू- हैं। अर्थात् जो इस व्याकरणका मंगला. टवंशीय द्वितीय प्रभूतवर्ष महीपतिका शक चरण ही सुन पाते हैं वे इसे पढ़े बिना और संवत् ७३५ का लिखा हुआ एक दानपत्र वैयाकरण बने बिना नहीं रहते। इससे यह छपा है जिसमें 'शिलाग्राम' के जिनमन्दिरको भी सिद्ध हो जाता हैं कि उक्त ' श्रीवीरममृतं 'जालमङ्गल' नामक ग्राम देनेका उल्लेख है। ज्योतिः ' आदि श्लोकके अथवा अमोघवृत्तिके इसमें यापनीय संघके श्रीकीर्ति, विजयकीर्ति कर्ता भी पाल्यकीर्ति (शाकटायन) ही हैं।
और अर्ककीर्ति इन तीन आचार्योंका उल्लेख वादिराजसरिके उक्त श्लोकसे यह निश्चय है। जैसा कि आगे चलकर बतलाया जायगा, हो गया कि पाल्यकीर्ति कोई बड़े भारी. शाकटायन यापनीय संघके आचार्य थे,
वक आचाय थ, वैयाकरण थे । अब शाकटायनप्रक्रियाके और लगभग उसी समय हुए हैं जिस मङ्गलाचरणको देखिए:समयका कि उक्त शिलालेख है, अतः उनका
मुनीन्द्रमभिवन्द्याहं पाल्यकीर्ति जिनेश्वरं। 'पाल्यकीर्ति ' नाम होना असंभव नहीं।
मन्दबुद्धयनुरोधेन प्रकियासंग्रहं बुवे ॥ एकीभावस्तोत्रके कर्ता महाकवि वादिरा- इसमें जो 'पाल्यकीर्ति' शब्द आया है जसरिका बनाया हुआ पार्श्वनाथचरित नामका वह जिनेश्वरका विशेषण भी है और एक एक काव्य है। यह विक्रम संवत् १०८३ आचार्यका नाम भी है। एक अर्थसे उसके का बना हुआ है । उसकी उत्थानिकामें
द्वारा जिनेन्द्रदेवको और दूसरे अर्थसे प्रसिएक श्लोक है:
द्ध वैयाकरण पाल्यकीर्तिको नमस्कार होता कुतत्स्या तस्य सा शक्तिः
है। दूसरे अर्थमें मुनीन्द्र और जिनेश्वर ये पाल्यकीर्तेर्महौजसः। श्रीपदश्रवणं यस्य
दो सुघटित विशेषण पाल्यकीर्तिके बन शाब्दिकान्कुरुते जनान् ॥
जाते हैं। अर्थात् उस महातेजस्वी पाल्यकीर्ति- प्रक्रियासंग्रहके कर्त्ताने जिन पाल्यकीकी शक्तिका क्या वर्णन किया जाय जिसके तिको नमस्कार किया है, इसमें तो कोई श्री-पदके सुनते ही लोग शाब्दिक या व्याक सन्देह नहीं कि वे वादिराजके उल्लेख किये रणज्ञ हो जाते हैं। अमोघवृत्तिका प्रारंभ हुए पाल्यकीर्ति वैयाकरण ही हैं और जब • श्रीवीरममृतं ज्योतिः ' आदि मंगलाचरणसे यह निश्चय हो गया तब यह अनुमान
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ACHHAMITABOLIBABAMAITRIBAADDA
शाकटायनाचार्य । ARREETTRIPLETTERNETITIMI RECEITMETRITETTERIORY
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करना बहुत संगत होगा कि शाकटायनका -“ यथा तथा वास्तु वस्तुनो रूपं वक्तृही दूसरा नाम पाल्यकीर्ति आचार्य है। प्रकृतिर्विशेषायत्ता तु रसवत्ता। तथा च
यमर्थ रक्तःस्तौति तं विरक्तो विनिन्दति शाकटायन-व्याकरणकी प्रक्रिया बनाते समय मध्यस्थस्तुतत्रोदास्ते, इति पाल्यकार्तिः।" यह संभव नहीं कि अभयचन्द्रसूरि शाकटा- इससे मालूम होता है कि शाकटायनका कोई यनको छोड़कर अन्य किसी वैयाकरणको न. साहित्यविषयक ग्रन्थ भी है जो अभी उपलमस्कार करें।
ब्ध नहीं है। पाल्यकीर्ति या शाकटायनके व्याक- ईस्वी सन् १८९३ में मि० गुस्तव रणका नाम 'शब्दानुशासन' है । स्वयं आपर्टने 'शाकटायनप्रक्रियासंग्रह' प्रकाशित ग्रन्थकर्ताने और टीकाकारोंने उसे इसी किया और उसकी भूमिकामें बतलाया कि यह नामसे उल्लिखित किया है, परन्त ग्रन्थकर्ताके वही शाकटायन है जिसका उल्लेख पाणिनि नामके कारण वह शाकटायन व्याकरणके आदिने किया है । उन्होंने शाकटायनमेंसे नामसे भी प्रसिद्ध है।
दो चार सूत्र ऐसे भी निकालकर बतला दिये
जो वैदिक शाकटायनके उन्हीं सूत्रोंसे मिलते आचार्य शाकटायन या पाल्यकीर्तिने
1 जुलते थे जिनका कि पाणिनिने अपने सूत्रोंमें शब्दानुशासनके सिवाय और कितने उल्लेख किया है। साथ ही यह भी प्रकट ग्रन्थोंकी रचना की, इसका कुछ निश्चय किया कि ये शाकटायन जैन थे। नहीं है। वे बड़े भारी विद्वान् थे । शुरू शुरूमें बहुत लोग आपर्ट साहबके व्याकरणके समान न्याय, धर्मशास्त्र, साहि- विचारको सच मानने लगे थे । हमारे जैनी त्यादि अन्य विषयोंमें भी उनकी असाधारण भाई तो अपने एक वैयाकरणको तीन हजार गति जान पडती है। उनका एक ग्रन्थ पाट- वर्षका पुराना समझकर अभिमानसे फूल गये णमें मौजद है जिसका नाम 'केवलिभक्ति- थे, परन्तु जब यह मत सत्यकी कसोटीपर स्त्रीमुक्ति-प्रकरण ' है । इसके सिवाय श्रद्धास्पद
कसा गया, तब बिल्कुल झूठा साबित हुआ।
निश्चय हो गया कि पाणिनिके उल्लेख किये मुनि श्रीजिनविजयजीने अपने ' पाटणके जैनपुस्तक-भण्डार' शीर्षक लेखमें जो सरस्वतीकी सम्बन्ध नहीं है। जैन शाकटायन बहुत
हुए शाकटायनसे इन शाकटायनका कोई जनवरी सन् १९१६की संख्यामें प्रकाशित हुआ प्राचीन नहीं हैं। क्योंकिःहै राजशेखर कविके जिस काव्यमीमांसा'नामक १. शाकटायनकी जितनी टीकायें और ग्रन्थका उल्लेख किया है उसमें पाल्यकीर्तिके वत्तियाँ हैं वे सब नौवीं शताब्दिके बादके मतका उल्लेख करते हुए लिखा है:- ही विद्वानोंकी ही लिखी हुई हैं । अमोघ
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३५२
HUDIORAMADARA
जैनहितैषी
वृत्ति महाराज अमोघवर्षके समयकी है। किया है। इनमेंसे हमारा अनुमान है कि क्योंकि उसमें जैसा कि आगे बतलाया जायगा 'सिद्ध नन्दि' प्रसिद्ध जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता अमोघवर्षका उल्लेख है और अमोघवर्षके नामसे पूज्यपाद या देवनन्दिका दूसरा नाम है। ही उसका अमोघवृत्ति नाम रक्खा गया 'सिद्ध' शब्द मुनियों आचार्यों और देवोंके लिए है । प्रभाचन्द्रकृत न्यास अमोघवृत्तिका अकसर व्यवहृत होता है । अतः देव-नन्दिको व्याख्यान है, अतएव वह उसके सिद्ध-नन्दि कह सकते हैं । इसी तरह 'आर्य पीछेका होना ही चाहिए। चिन्तामणिटीका वज्र वज्रनन्दि आचार्यका नामान्तर है । आर्य यक्षवर्माकी है और यह जैसा कि आगे सिद्ध शब्द आचार्यका पर्यायवाची है । पूज्यपादके किया जायगा शाकटायनकी महती वृत्ति शिष्य वज्रनन्दि जिन्होंने द्रविड संघकी अमोघवृत्तिको संक्षेप करके रची गई है, अत स्थापना की थी बहुत बड़े विद्वान् हो गये एव यह भी पीछेकी बनी हुई है । मणि- हैं । देवसेनसूरिके मतसे ये विक्रमकी प्रकाशिका अजितसेनाचार्यकी है और मृत्युके ५३६ वर्ष बाद हुए हैं । हरिवंशयह चिन्तामणिकी टीका है, अत एव उससे पुराणके कर्त्ताने देवनन्दिके बाद ही इन्हें भी पीछेकी है। अजितसेन अपने अलंकार- वज्रसूरिक नामसे स्मरण किया है। संभव चिन्तामणिमें जिनसेन और वाग्भटका उल्लेख है कि वज्रनन्दि किसी व्याकरणग्रन्थके रचयिता करते हैं। अत एव ये भी अमोघवर्षके भी हों । यदि सिद्धनन्दिसे देवनन्दिका और बहत पीछेके विद्वान् हैं । छटी टीका भावसेन आर्य वज्रसे वज्रसूरिका ही मतलब हो, तो विद्यदेव की है जो कातन्त्रप्रक्रियाके भी मानना पड़ेगा कि शाकटायन व्याकरण बहुत रचयिता हैं । यद्यपि इनका समय सुनिश्चित प्राचीन नहीं है-पूज्यपाद आदिसे पीछेका है। नहीं है तो भी ये अपेक्षाकृत अर्वाचीन ही पूज्यपादका समय ईसाकी पाँचवीं शताब्दि हैं । सातवीं टीका रूपसिद्धि है जो वादिरा- माना जाता है । जसरिके सतीर्थ दयापाल मुनिकी बनाई हुई ३. शाकटायनके कुछ सूत्र जैनेन्द्र-व्याकहै और उसके बननेका समय वि० संवत् रणसे मिलते हैं । यह अच्छी तरह सिद्ध १०८३ के लगभग है। इस तरह ये तमाम किया जा सकता है कि शाकटायनसे पूज्यवृत्तियाँ अमोघवर्षके पीछेकी हैं । यदि पाद पहले हुए हैं, अतएव वे सूत्र पूज्यपादके शाकटायन पाणिनिके पहलेका व्याकरण होता, जैनेन्द्रसे ही लिये गये होंगे । शाकटायनने तो अवश्य ही उसकी कोई प्राचीन टीका पूज्यपादका सिद्धनन्दिके नामसे उल्लेख किया भी मिलती।
है; परन्तु जैनेन्द्रमें शाकटायनके किसी मतका २. शाकटायनके सूत्रपाठमें इन्द्र, सिद्धनन्दि कहीं भी उल्लेख नहीं है । अत एव शाकटाऔर आर्यवज्र इन तीन वैयाकरणोंका उल्लेख यन बहुत प्राचीन नहीं है। .
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mशाकटायनाचार्य।
४. शाकटायन व्याकरण पिछले समयमें परमाईत्यमहिम्ना विराजमानाय भगवते वर्द्धमानाय ष. जैन विद्वानोंमें बहुत प्रचलित रहा है और डा.
डपि द्रव्याणि अशेषाणि अनन्तपर्यायरूपाणि साकल्ये। न साक्षात्कुर्वते नमः कुर्वे इत्युपस्कारः । एवं कृतमङ्ग
लरक्षाविधानः। परिपूर्णमल्पग्रन्थं लघूपायं शब्दानुशासनं और टीकायें बन गई हैं । आपर्ट साहबके शास्त्रमिदं महाश्रमणसंघाधिपतिर्भ
शास्त्रमिदं महाश्रमणसंघाधिपतिर्भगवानाचार्यःशाकटाद्वारा प्रकाशित होनेके पहले भी वह दक्षिणके यनः प्रारभते । शब्दार्थज्ञानपूर्वकं च सन्मार्गानुष्ठानं । प्रायः सभी जैन पुस्तकभण्डारोमें प्राप्य था; इति वर्णसमानायः क्रमानुबन्धोपादानः प्रत्याहारयन्
अ इ उ ण् । ऋक् । ए ओ ङ् ।......हल् ॥ १३॥ परन्तु उस समय तक किसी भी जैन विद्वान्, शास्त्रस्य लाघवार्थः । सामान्याश्रयणाद्दीर्घप्लुतानुनासिया टीकाकारने इस बातका दावा नहीं कानां ग्रहणं । . -अमोघवृत्तिः । किया था कि यह वही व्याकरणजिसका श्रियं क्रियाद्वः सर्वज्ञज्ञानज्योतिरनश्वरीं । उल्लेख पाणिनिने किया है । यदि ये प्राचीन नमस्तमःप्रभावाभिभूतभूद्योतहेतवे ।
विश्वप्रकाशयच्चिन्तामणिश्चिन्तार्थसाधनः१ शाकटायन होते, तो अवश्य ही इस बातका लोकोपकारिणे शब्दब्रह्मणे द्वादशात्मने ॥२॥ उल्लेख मिलता। यह दावा जैनोंका नहीं स्वस्तिश्रीसकलज्ञानसाम्राज्यपदमाप्तवान् । किन्तु आपर्ट साहबका है और निरा महाश्रमणसंघाधिपतिर्यः शाकटायनः ॥३॥
___ एकः शब्दाम्बुधिं बुद्धिमन्दरेण प्रमथ्य यः। झूठा है।
सयशाश्रि समुहद्ध विश्वं व्याकरणामृतम् ॥ शाकटायन या शब्दानशासनके सत्रों- स्वल्पग्रन्थं सुखोपायं सम्पूर्ण यदुपक्रम । पर जो अमोघवृत्ति नामकी टीका है, उसके
शब्दानुशासनं सार्वमर्हच्छासनवत्परम् ॥५॥
इष्टिर्नेष्टा न वक्तव्यं कर्ताका नाम किसीको मालूम नहीं है ।
वक्तव्यं सूत्रतः पृथक्। परन्तु प्रसिद्ध इतिहासज्ञ प्रो० के. बी. पाठ- संख्यातं नोपसंख्यानं कने अनेक प्रमाणोंसे यह अच्छी तरह सिद्ध
यस्य शब्दानुशासने ॥६॥
तस्यातिमहतीं वृत्ति कर दिया है कि अमोघवृत्तिके कर्ता स्वयं
संहृत्येयं लघीयसी। सूत्रकार शाकटायन ही थे और यही शाकटा- सम्पूर्णलक्षणा वृत्तियनकी सबसे पहली टीका है। प्रमाण लीजिए:
र्वक्ष्यते यक्षवर्मणा ॥ ७ ॥
ग्रन्थविस्तरभीरूणां श्रीवीरममृतं ज्योतिर्नत्वादि सर्ववेधसां।
सुकुमारधियामयं । शब्दानुशासनस्येयममोघा वृत्तिरुच्यते॥१॥ शुश्रूषादिगुणान्तु आविघ्ननेटप्रसिद्धयर्थ मंगलमारभ्यते ।
शास्त्रे संहरणोद्यमः ॥८॥ नमः श्रीवर्द्धमानाय प्रबुद्धाशेषवस्तवे । शब्दानुशासनस्यान्वयेन शब्दार्थसम्बन्धाःसार्वेण सुनिरूपिताः॥ याश्चिन्तामणेरिदं।
शब्दो वाचकः अर्थो वाच्यः तयोः सम्बन्धो योग्य. वृत्तेर्ग्रन्थप्रमाणं (हि) ता अथवा शब्द आगमः । अर्थः प्रयोजनं। अभ्यद- षट्सहस्रं निरूपितं ॥९॥ यो निःश्रेयसं च । तयोः सम्बन्ध उपायोपेयभावः। ते इन्द्रचन्द्रादिभिःशान्दैयेन सर्वसत्वाहितेन सता तत्त्वतः प्रज्ञापिताः तस्मै यदुक्तं शब्दलक्षणं।
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MARITHILITARATHIRAIATIALALIRAL
जैनहितैषी
तदिहास्ति समस्तं च
वृत्तियोंमें वही सबसे बड़ी है। दूसरे ऊपर यन्नेहास्ति न तत्क्वचित् ॥ २०॥
लिखी हुई दोनों प्रशस्तियोंके कुछ भाग गणधातुपाठयोर्गणधातून लिंगानुशासने लिंगगतं ।
समान हैं जो यह बतलात हैं कि एक वृत्ति औणादिकानुणादौ शेषं
दूसरीको देखकर या उसीको संक्षेप करके निःशेषमत्र वृत्तौ विद्यात् ॥११॥
बनाई गई है। ' इति वर्णसमाम्नायः' आदि बालाबलाजनोप्यस्या
पाठ दोनोंके मिलते जुलते हुए हैं । अन्तर वृत्तेरभ्यासवृत्तितः। समस्तं वाध्ययं वेत्ति
केवल यह है कि जहाँ अमोघवृत्तिमें वर्षेणैकेन निश्चयात् ॥१२॥ 'सामान्याश्रयणात् ' लिखा है वहाँ चिन्तातत्र सूत्रस्यादावयं मङ्गलश्लोकः । नमः श्रीवर्द्धमाना- मणिमें ' सामान्यग्रहणात् ' है। तीसरे यक्षयेत्यादि। शब्दार्थसम्बन्धार्था वाचकवाच्ययोग्यता अथवा आगमप्रयोजनोपायोपेयभावाः ते येन सर्वसत्वहितेन तत्त्वतः प्रज्ञापिताः तस्मै श्रीमते महावीराय साक्षात्कृत्स- मानायेत्यादि ' प्रतीक दी है, वह अमोघ कलद्रव्याय नमःकरोमीत्यध्याहारः । विघ्नप्रशमनार्थ- वत्तिमें ही मिलता है । मूलका या अन्य महद्देवतानमस्कारं परममङ्गलमारभ्य भगवानाचार्यः किसी वृत्तिका वह श्लोक नहीं है । इस शाकटायनः शब्दानुशासनं शास्त्रमिदं प्रारभते । धर्मार्थकाममोक्षेषु तत्त्वार्थावगतिर्यतः।
___श्लोकके उत्तरार्धकी व्याख्या भी अमोघशब्दार्थज्ञानपूर्वेति वेद्यं व्याकरणं बुधैः॥ वृत्तिसे थोड़ा बहुत इधर उधर करके
अ इ उ ण् । ऋक् । ए औ ङ् । ... ... नकल कर दी गई है। इन सब बातोंसे यह हल इति वर्ण समानायः क्रमानुबाधोपादानः तो निश्चय हो गया कि चिन्तामाण टीका प्रत्याहारयन् शास्त्रस्य लाघवार्थः । सामान्यग्रहणाद्दीर्घप्लुतानुनासिकानां ग्रहणम् ।
- अमोघवृत्तिसे पीछे बनी है और वह अमोघ
-चिन्तामणि। वृत्तिका ही संक्षेप है। . चिन्तामणिके कर्ता यक्षवर्माने उपरिलिखित यक्षवर्माने अपनी टीका अमोघवृत्तिों सातवें श्लोकमें कहा है कि “यह उसकी ही कुछ फेरफार करके बनाई है, यह बात छोटी वृत्ति है जिसे मैंने उसकी ( शाकटायन- दोनों टीकाओंका मिलान करनेसे अच्छी की ) बहुत बड़ी भारी वृत्तिसे संक्षिप्त करके तरह समझमें आ जाती है । कुछ उदाहबनाया है।" वे यह नहीं कहते कि यह मेरी रण लीजिए:स्वतंत्र रचना है। अब यह देखना चाहिए कि ।
नामदुः १।१।१७ (मूल शाकटायनसूत्र)
यन्नामधेयं संव्यवहाराय हटानियुज्यते देवदत्तादि है जिसको संक्षिप्त करके यह लिखी तसंज्ञ वा भवति। देवदत्तीया दैवदत्ताः । षड्नया
नाहुः सिद्धसेनीयाः सैद्धसेनाः । (-अमोघवृत्ति।)
___ यन्नामधेयं संव्यवहाराय हटानियुज्यते देवदत्तादि होगा कि वह वृत्ति और कोई नहीं अमोघ.
तद्दु संज्ञं वा भवति । देवदत्तीया देवदत्ताः । वृत्ति ही है । क्योंकि एक तो उपलब्ध
(-चिन्तामणिटोका)
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शाकटायनाचार्य ।
कहीं कहीं पर तो यक्षवर्माने अमोघवृत्ति ज्योंकी त्यों नकल भर कर दी है । जैसे:ख्याते दृश्ये | ४ | ३ | २०७१ ( मूल ) भूतेऽनद्यतने ख्याते लोकविज्ञाते दृश्ये प्रयोक्तुः शक्यदर्शने वर्तमानाद्धातोर्लत्ययो भवति । लिडपवादः।अरुणदेवः पाण्ड्यम् । अहदमोघवर्षोरा - बड़ी भारी वृत्ति ( अमोघवृत्ति ) का संकोच करके यह छोटीसी परन्तु सम्पूर्णलक्षणोंवाली वृत्तिको मैं ( यक्षवर्मा ) कहूँगा ।
तीन् । ख्यात इति किम् ? चकार कर्तुं देवदत्तः । दृश्य इति किम् ? जघान कंसं किल वासुदेवः । अनद्यते इति किम् ? उदगादादित्यः । ( -अमोघवृत्तिः ) उक्त सूत्रपर चिन्तामणिकी टीका भी इसी प्रकार है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि अमोघमें जहाँ ‘लङ् प्रत्ययो' लिखा है, वहाँ चिन्तामणिमें केवल ‘लङ्' लिखा है ' प्रत्यय ' छोड़ दिया है ।
उपर्युक्त बातोंसे यह तो सिद्ध हो गया कि चिन्तामणि अमोघवृत्तिसे पीछे बनी है और उसीको संकोच करके बनाई गई है । अब यह देखना है कि अमोघवृत्तिका कर्त्ता कौन है ? चिन्तामणिटीका के पूर्व ३–४–५–६–७ श्लोकोंका अर्थ अच्छी तरह लगानेसे इसका निश्चय हो जायगा ।
३ -- जिन्होंने सकलज्ञानरूपी साम्राज्य पदको प्राप्त किया और जो बड़े भारी साधु समूह के अगुआ थे, वे शाकटायनाचार्य जयवन्त हो ।
४–जिन अकेलेने बुद्धिरूप मन्दराच से शब्दसमुद्र मंथन करके, उसमेंसे यशरूप लक्ष्मी के साथ साथ सम्पूर्ण व्याकरणोंका साररूप यह अमृत निकाला ।
१ – जिनका रचा हुआ शब्दानुशासन आर्हत् धर्मकी तरह स्वल्पग्रन्थ ( प्रमाण में थोड़ा), सुखसाध्य और सम्पूर्ण है ।
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६ - जिस ( शाकटायनमुनि ) के शब्दानुशासनमें इष्टि, उपसंख्यान, वक्तव्य, न वक्तव्य आदिका झगड़ा नहीं है ।
७ — उसकी ( तस्य शाकटायनस्य )
-
1
ध्यान रखना चाहिए कि ये पाँचों श्लोक शाकटायनका वर्णन करनेवाले हैं । इनमेंके यः ( श्लो० ३ - ४ ) यदुपक्रम शब्दका यत् (श्लो० १ ) और यस्य ( श्लो० ६ ) ये तीनों सम्बन्धद्योतक सर्वनाम सातवें श्लोकके तस्य शब्दसे सम्बन्ध रखते हैं । यह 'तस्य' शब्द कर्तरि षष्ठिमें बनाया गया है और यह सातवें पद्यका मुख्य वाक्यांश है अन्वय इस तरह होता है - ' यदुपक्रमं शब्दानुशासनं सार्वं तस्य महतीं वृत्तिं संहृत्य इयं लघीयसी वृत्तिर्वक्ष्यते यक्षवर्मणा ' अर्थात् जिसका बनाया हुआ सर्वोपयोगी शब्दानुशासन नामक टीकाको संकोचकर मैं एक छोटीसी टीका व्याकरण है, उसीकी बनाई हुई बहुत बड़ी बनाता हूँ | इससे निश्चय हो गया कि मूल शब्दानुशासन और उसकी अमोघवृत्ति टीका ये दोनों ग्रन्थ एक शाकटायनने ही बनाये हैं।
मि० ० राइस साहबने इसके लिए चिदानन्द कविके 'मुनिवंशाभ्युदय' नामक कनड़ी काव्यसे एक प्रमाण दिया है । यह कवि मैसूर के चिक्कदेव नामक राजाके समयमें ( ई० सन् १६७२ - १७०४ ) हुआ है और ' चारु
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जनहितैषी -
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कीर्ति पण्डितदेव ' इसकी उपाधि थी । कविके कनड़ी श्लोकोंका अर्थ यह है :
“उस मुनिने अपने बुद्धिरूप मन्दराचलसे श्रुतरूप समुद्रका मंथनकर यशके साथ व्याकरणरूप उत्तम अमृत निकाला । शाकटायनने उत्कृष्ट शब्दानुशासनको बनालेनेके बाद अमोघवृत्ति नामकी टीका — जिसे ‘बड़ी शाकटायन' कहते हैं— बनाई, जिसका कि परिमाण १८००० है । जगत्प्रसिद्ध शाकटायन मुनिने व्याकरणके सूत्र और साथ ही पूरी वृत्ति भी बनाकर एक प्रकारका पुण्य सम्पादन किया । एक बार अविद्धकर्ण सिद्धान्तचक्रवर्ती पद्मनन्दिने मुनियोंके मध्य पूजित हुए शाकटायनको ' मन्दरपवर्तके समान धीर ' विशेषण से विभूषित किया । "
जैनधर्मके और इतिहासके मर्मज्ञ विद्वान् मुनि जिनविजयजीने इस विषय में एक बहुत ही पुष्ट प्रमाण दिया है । वह यह है कि विक्रमक तेरहवीं शताब्दिमें मलयगिरिसूरि नामके एक श्वेताम्बराचार्य हो गये हैं । उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की है और उनमें प्रायःः शाकटायन व्याकरणका उल्लेख किया है । 'नन्दिसूत्र' नामक जैनागमकी टीका: वे एक जगह लिखते हैं:
शाकटायनोऽपि यापनीययतिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञ-शब्दानुशासनवृत्तावादौ स्तुतिमेवमाह-
भगवतः
'श्रीवीरममृतं ज्योतिर्नत्वादिं सर्ववेधसाम् ।' अत्र च. न्यासकृतव्याख्या-सर्ववेधसां सर्वज्ञानानां सकलशास्त्रानुगतपरिज्ञानानां, आदिं प्रभवं प्रथममुत्पत्तिकारणमिति । ( - नन्दिसूत्र पृष्ठ २३ )
इसमें ' श्रीवीरममृतं - ' इत्यादि जो दो पाद हैं वे अमोघवृत्तिके प्रथम श्लोकके हैं और इन्हें मलयगिरि शाकटायनकी स्वोपज्ञवृत्तिके बतलाते हैं । इससे स्वतः सिद्ध है कि अमोघवृत्ति ही स्वोपज्ञवृत्ति है ।
गणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्धमान कवि - जो कि विक्रमसंवत् ११९७ में हुए हैं - अपने ग्रन्थमें शाकटायनके नामसे जिन जिन बातोंको उद्धृत करते हैं वे अमोघवृत्ति में ही मिलती हैं, मूलसूत्रोंमें नहीं । इससे मालूम होता है कि वर्धमान जानते थे कि अमोघ वृत्ति शाकटायनकी ही है और इसी लिए उन्होंने उसके उदाहरण शाकटायनके नामसे देना अनुचित न समझा ।
शाकटायनस्तु कर्णे टिटिरिः कर्णे चुरुचुरुरित्याह ।
* इसी सूत्रकी वृत्तिमें एक उदाहरण और है-
(- गणरत्नमहोदधि पृष्ठ ८२ और अमोघ० २1१/५७ ) ' अरुणद्देवः पाण्ड्यम्' अर्थात् देवने पाण्ड्यनरेशको रोका। शाकटायनस्तु अद्य पञ्चमी अद्य द्वितीयत्याह ।
अमोघवर्षके शर्वदेव, तुंगदेव आदि कई नाम हैं । आश्चर्य नहीं जो इस 'देव' से मतलब उन्हींका हो और उन्होंने किसी पाण्ड्य राजाको हराया हो ।
( - गणरत्न • पृष्ठ ९०, अमोघवृत्ति २1१/७९ )
अब यह देखना चाहिए कि अमोघवृत्तिकी रचना किस समय हुई । ऊपर 'ख्याते दृश्ये ' सूत्रकी जो अमोघवृत्ति दी है, उसमें एक उदाहरण दिया गया है—' अदहदमोघवर्षोऽरातीन् ' * अर्थात्, अमोघवर्ष
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AHMIRMILITARITAL
शाकटायनाचार्य। MRITINRITE
शत्रुओंको जला दिया । इस उदाहरणमें ७८९ के मध्य किसी समय रची गई है ग्रन्थकर्ताने प्रथम अमोघवर्षकी अपने और यही पाल्यकीर्ति या शाकटायनका शत्रुओंपर विजय पानेकी जिस घटनाका समय है। उल्लेख किया है, उसीका जिक्र शक संवत्- इतिहासके पाठकोंसे यह छुपा नहीं है ८३२ के एक राष्ट्रकूट-शिलालेखमें एपि- कि राष्ट्रकटवंशीय महाराज अमोघवर्ष (प्रथम) ग्राफिआ इंडिका वोल्यूम १ पृष्ठ ५४ ' भूपा- जैनसाहित्यके बड़े भारी आश्रयदाता हो लान् कण्टकामान् वेष्टयित्वा ददाह' इन गये हैं। दिगम्बर जैनसम्प्रदायके आचार्य शब्दोंमें किया है । इसका भी अर्थ लगभग जिनसेनको वे अपना गुरु मानते थे । अतः वही है-'प्रथम अमोघवर्षने उन राजाओंको यदि उस समयके प्रसिद्ध वैयाकरण शाकघेरा और जला दिया जो उससे एकाएक टायनने उनके सन्तोषार्थ अपनी वत्तिका नाम विरुद्ध हो गये थे ।' उक्त शिलालेख अमो- अमोघवृत्ति रक्खा हो, तो कुछ आश्चर्य नहीं प्रवर्ष प्रथमके बहुत पीछे लिखा गया था, है। और फिर · अदहदमोघवर्षोऽरातीन्' इस इस लिए इसमें परोक्षार्थवाली — ददाह' उदाहरणसे तो-जो अमोघवृत्तिमें दिया गया क्रिया दी है। उसके लेखकके लिए उक्त घट- है-अमोघवर्ष और अमोघवृत्तिके कर्ता की नाका स्वयं देखना अशक्य था; परन्तु अमो- समकालीनता और भी अधिक स्पष्ट हो घवृत्तिके कर्त्ताके लिए वह शक्य था, इसलिए जाती है । उसने 'अदहत्' यह लङ्प्रत्ययकी क्रिया दी ऊपर मलयगिरिमरिकी नन्दिसूत्रटीकाका है। अर्थात् यह उसके सामनेकी घटना जो कछ अंश उद्भत किया है, उससे होगी। बगमुराके दानपत्रमें जो शक संवत्- मालूम होता है कि शाकटायन यापनीय-यति. ७८९ का लिखा हुआ है, इस घटनाका ग्रामाग्रणीः' अर्थात् यापनीय संघके आचार्योंके उल्लेख है। उसमें जो कुछ लिखा है उसका अगए थे । यापनीय संघका उल्लेख इन्द्र. अभिप्राय यह है कि गुजरातके माण्डलिकराजा एकाएक बिगड़ खड़े हुए थे और
गोपिच्छिकः श्वेतवासो उन्होंने अमोघवर्षके विरुद्ध शस्त्र ग्रहण किया द्राविडो यापनीयकः। था। अमोघवर्षने उस समय उनपर चढाई करके नि:पिच्छिकश्च पंचैते उन्हें तहस नहस कर डाला । इस युद्धमें ध्रुव जैनाभासाः प्रकीर्तिताः॥ घायल होकर मारा गया । अमोघवर्ष शक अर्थात् गोपिच्छिक ( काष्ठासंघ ), श्वेतासंवत् ७३६ में सिंहासनपर बैठे थे और म्बर, द्राविड़, यापनीय और निःपिच्छिक यह दानपत्र शक ७८९ का है । अतः (माथुर संघ ) ये पाँच जैनाभास हैं। दिगसिद्ध हुआ कि अमोघवृत्ति शक ७३६-- म्बरसम्प्रदायकी दृष्टि से ये पाँचों संघ जैन
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जैनहितैषी।
होकर भी जैन नहीं हैं-निन्हव हैं । अतः वह दिगम्बर सम्प्रदायकी अपेक्षा श्वेताम्बर यापनीय संघके अगुआ शाकटायन भी एक सम्प्रदायसे निकटका सम्बन्ध रखता था । प्रकारके निन्हव थे।
दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो मतदेवसेनसूरिने अपने दर्शनसारमें इस संघ- मिन्नताये हैं उनमें स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति के आविर्भावका समय बतलाया है:- ये दो बातें मुख्य हैं । दिगम्बर सम्प्रकल्लाणे वरणयरे
दायकी मानता है कि स्त्रियोंको उसी भवमें सत्तसए पंच उत्तरे जादे। मुक्ति नहीं मिल सकती और केवलज्ञानी भोजन जावणियसंघभावो
नहीं करते । पर यापनीयसंघ इन बातोंसिरिकलसादो हु सेवडदो॥ अर्थात् कल्याण नामक नगर ( निजामके
र को श्वेताम्बर सम्प्रदायके ही समान मानता है,
अर्थात् उसकी दृष्टिसे स्त्रियाँ मुक्तिलाभ कर राज्यके अतर्गत ) में विक्रमकी मृत्यु के ७०५
सकती हैं और केवली आहार करते हैं । वर्ष बाद श्रीकलश नामके श्वेताम्बरसे यापनी
पाटणके प्राचीन जैनभण्डारमें यापनीयसंयसंघकी उत्पत्ति हुई। देवसेनसूरिने द्राविड़ आदि संघोंमें कौन
- घका एक ग्रन्थ मिला है जिसका नाम है कौन विरुद्ध बातें मान्य हैं, उनका थोड़ा
' स्त्रीमुक्तिकेवलभुक्तिप्रकरण ' और पाठकोंको थोड़ा उल्लेख किया है। परन्तु यापनीय संघके .
! यह जानकर आश्चर्य होगा कि इसके सम्बन्धमें उपर्युक्त गाथाके अतिरिक्त कुछ भी
रचयिता और कोई. नहीं, शाकटायननहीं कहा । इससे यह नहीं बतलाया जा
व्याकरणके कर्ता स्वयं शाकटायन हैं । यह सकता कि यापनीय संघमें और संघोंकी
ग्रन्थ पाटणके संघवी पाड़ेके भण्डारमें ताड़पत्रों
पर लिखा हुआ है । श्रीमान् मुनिमहाशय जिनअपेक्षा क्या विशेषता है । पहले हमारा खयाल था कि जिस तरह एक दो बहुत ही
विजयजीकी कृपासे हमें इसका परिचय प्राप्त मामूली बातोंके कारण काष्ठासंघ जैनाभास
हुआ है । वे कहते हैं कि यह ग्रन्थ १२ बना दिया गया है, उसी तरह यापनीय संघ ..
1वीं शताब्दिके आसपासका लिखा हुआ है।
इसमें केवल ७९ कारिकायें हैं जिनमें ४५ भी होगा-अर्थात् यह दिगम्बरसम्प्रदायका ही एक भेद होगा । परन्तु खोज करनेसे .
स्त्रीमुक्तिविषयक और शेष ३४ केवलि
भुक्तिविषयक हैं । इनमें वे सब युक्तिहमारा यह खयाल गलत निकला । यापनीय-:
याँ दे दी गई हैं जो श्वेताम्बरोंकी ओरसे संघ यद्यपि एक स्वतंत्र संघ था, तो भी
' दिगम्बरोंके प्रति उपस्थित की जाती हैं। इसका १ दर्शनसारकी इस गाथाके पूर्वकी अन्य सब गाथाओंमें 'विक्कमरायस्प मरणपत्तस्स' पद दिया है, इसी लिए यहाँ विक्रमकी मृत्युके ७०५ वर्ष बाद प्रणिपत्य भुक्तिमुक्तिलिखा है।
प्रदममलं धर्ममहतो दिशतः।
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शाकटायनाचार्य।
वक्ष्ये स्त्रीनिर्वाणं केवलि
-“केवलिभुक्ति-स्त्रीमुक्तिप्रकरणम् । भुक्तिं च संक्षेपात् ॥१॥
शब्दानुशासनकृतशाकटानाचार्यकृतं तत्सं. अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवद्
ग्रहश्लोकाश्च ९४।"* यदविकलहेतुकं स्त्रीषु ।
ऐसा जान पड़ता है कि पुराने विद्वानों मेंन विरुद्धच्यते हि रत्न
यह प्रकरण अच्छी तरह परिचय था । त्रयसम्पनिर्वृतेर्हेतुः॥ रत्नत्रयं विरुद्धं स्त्रीत्वेन
वादिवेताल शांतिसूरिने उत्तराध्ययनसूत्रकी यथामरादिभावेन ।
बृहत् -टीकाके ३६ वें अध्यायमें और रत्नइति वाङ्मात्रं नात्र
प्रभाचार्यने रत्नाकरावतारिकामें स्त्रीमुक्तिप्रमाणमाप्तागमोऽन्यद्वा ॥३॥
प्रकरणकी कुछ कारिकायें उद्धृत की हैं। इसी अन्तकी कारिकाविग्रहगतिमापन्ना
तरह यशोविजयजी उपाध्यायने अपनी अध्याद्यागमवचनं च सर्वमेतस्मिन् । त्ममतपरीक्षा तथा शास्त्रवार्तासमुच्चयमें भी भुक्तिं ब्रवीति तस्माद
इसकी कारिकायें उद्धृत की हैं। दृष्टव्या केवलिनि भुक्तिः ॥ ३२॥
___ स्त्रीमुक्तिप्रकरणमें मुनियोंके वस्त्रका नाना भोगाहारो निरन्तरः सो विशेषितो न भूत् (?) उल्लेख है, इससे मालूम होता है कि यायुक्या भेदेनाङ्गस्थिति
पनीय संघके मुनि नग्न न रहते थे। . पुष्टिक्षुच्छमास्तेन ॥३३॥
शाकटायनके उक्त प्रकरणसे ही नहीं, तस्य विशिष्टस्य स्थितिरभविष्यत्तेन साविशिष्टेन । किन्तु और प्रमाणोंसे भी यह सिद्ध होता है यद्यभविष्यदिहैषां
कि यापनीयसंघ स्त्रीमुक्ति मानता था । हरिसालीतरभोजनेनव ॥३४॥ इति स्त्रीनिर्वाणकेवलिभुक्तिप्रकरण भग- भद्रसारकृत लालितविस्तरामें लिखा है:.यदाचार्यशाकटायनकृदन्तपादानामिति । स्त्रीग्रहणं तासामपि तद्भव एव संसारक्षयो १५ वीं शताब्दिमें एक विद्वान्ने, अपने भवतीति ज्ञापनार्थ, वचः यथोक्तं यापनी
यतन्त्रे-“णो खलु इत्थि अजीवो, ण यावि समयमें उपलब्ध जैनश्वेताम्बर ग्रन्थोंकी अभव्वा, ण यावि दसणविरोहिणी, णो एक नामावली संस्कृतमें बड़ी खोजके साथ अमाणुसा, णो अणारि उप्पती, णो असंलिखी है। उसमें कौन ग्रन्थ, किस भाषामें, खेज्जाउया, णो अइकूरमई, णो ण उवसंकिस विद्वानने, किस समय, कितना बड़ा ।
तमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्ध
बोन्दी, णो ववसायवज्जिया, णो अपुव्वऔर किस विषयका लिखा है इसका संक्षिप्त ,
विषयका लिखा है इसका साक्षप्त करणविरोहिणी, णो णवगुणठाणरहिया,णो विवरण-जहाँ तक उपलब्ध हो सका- अजोगालद्धीए, णो अकल्लाण भायणंति, लिखा है । इस सूचीका नाम है 'बृहट्टि- कहं न उत्तमधम्मसाहिगत्ति।” (पृ० १०९) पणिका' । इस टिप्पणिकामें इस प्रकरण- *अनुष्टुप् श्लोकोंके हिसाबसे यह संख्या लिखी गई का भी नाम है:--
है। आर्या छन्द अनुष्टुप्से बडा होता है।
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३६०
__+
जैनहितेषी
जनहितमा
ऐसा ही पाठ श्रीयशोविजयोपाध्यायने भी श्वेताम्बरता अधिक मालूम होती है । देवसे. शास्त्रावर्तासमुच्चयमें लिखा है। नसूरि भी श्रीकलश नामक श्वेताम्बरके द्वारा
इससे सिद्ध है कि यापनीय संघ स्त्रीमुक्ति, इसकी स्थापना बतलाकर इस बातकी पुष्टि करते केवलिभुक्ति और मुनियोंके लिए वस्त्रधारण हैं, परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता इन तीनों बातोंको मानता था। कि यापनीय संघ श्वेताम्बर ही था। प्रो.
प्रो० पाठकने अमोघवृत्तिसे नीचे लिखे पाठकके अमोघवृत्तिके उद्धरणों में जहाँ क्षमावाक्य उद्धृत करके बतलाया है कि शाक- श्रमण, आवश्यक, नियुक्ति, आदि श्वेताम्बर टायन श्वेताम्बर थे:
आचार्य और ग्रन्थोंका उल्लेख है वहीं वे अथो क्षमाश्रमणैस्ते ज्ञानं दीयते। (अमोघ० सर्वगुप्त और विशेषवादी जैसे दिगम्बर १।२।२०१)
विद्वानोंका भी उल्लेख करते हैं। ये विशेष. __ अथो क्षमाश्रमणैर्मे ज्ञान दीयते । वादी कवि वे ही हैं जिनका स्मरण वादिराज(१।२। २०२)
एतकमावश्यकमध्यापय अथो एनं सूरिने अपने पार्श्वनाथचरितमें किया है:यथाक्रमं सूत्रम् । ( १ । २ । २०३) विशेषवादिगीर्गुम्फश्रवणाबद्धबुद्धयः ।
इयमावश्यकमध्यापय अथो एनं यथा- अक्लेशादधिगच्छन्ति विशेषाभ्युदयं बुधाः। क्रमं सूत्रम् । (१।२ । २०४) ।
इनका बनाया हुआ 'विशेषाभ्युदय' नामका भवता खलु छेदसूत्रं वोढव्यं । नियुक्तीरधीश्व । नियुक्तीरर्धाते। (४।४।१३३-४०) कोई काव्य है । शाकटायन अपने उक्त
उपसर्वगुप्तं व्याख्यातारः। उपविशेषवा- उदाहरणमें कहते हैं-'उपविशेषवादिनं कवयः' दिनं कवयः। (१।३।१०४)
अर्थात् और सब कवि विशेषवादीसे नीचे हैं। कालिकासूत्रस्यानध्यायदेशकालाः पठिताः
पाठता सर्वगुप्तको वे व्याख्याता बतलाते हैं और
माया (३ । २ । ७४) • ऊपरके वाक्योंमें श्वेताम्बराचार्योंका, ये वे ही जान पड़ते हैं जिनके चरणोंके समीप उनके कार्योंका, तथा श्वेताम्बरसम्प्रदायके बठकर शि
बैठकर शिवायन या शिवार्यने भगवती आराआवश्यक नियुक्तिके अध्ययन करनेका धनाकी रचना की थी:जिक्र शाकटायनने किया है। इससे वे श्वेता
अज्ज जिणणंदि गाण ताम्बर मालूम होते हैं। परन्तु हमारी समझमें
सव्वगुत्तगणि अजमित्तणदीणं । उन्हें श्वेताम्बर या दिगम्बर कहनेकी अपेक्षा
अवगमिय पादमूले
सम्म सुत्तं च अत्थं च ॥ यापनीय कहना ही ठीक मालूम होता है ।
पुवायरियणिबद्धा यह एक तीसरा ही सम्प्रदाय था जो बहुत
उपजीवित्ता इमा ससत्तीए । पुराने समयमें उत्पन्न हुआ था और न जाने आराधणा सिवजण कबका लुप्त हो चुका है । अवश्य ही इसमें पाणिदलभोजिणा रइंदा।
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BULABILITARAMITHAIRIT
शाकटायनाचार्य।
३६१
अर्थात् आर्य जिननन्दिगाण आर्य सर्वगुप्त शाकटायनकी जितनी टीकायें उपलब्ध गणि और आर्य मित्रनन्दिके चरणोंके समीप हैं प्रायः वे सब दिगम्बरविद्वानोंकी ही हैं। बैठकर तथा भले प्रकार सूत्र और अर्थको सम- यदि शाकटायन शुद्ध श्वेताम्बर होते, तो झकर पाणिपात्रभोजी शिवार्यने अपनी शक्तिके दिगम्बर विद्वान् उनके ग्रन्थ पर इतनी टीकायें अनुसार आराधना शास्त्रकी रचना की। कदापि न लिखते । श्वेताम्बर सम्प्रदायके
इनके सिवाय शाकटायनमें सिद्धनन्दि, विद्वानोंका शायद ही कोई ग्रन्थ ऐसा होगा ( पूज्यपाद ) और आर्यवज्र ( वज्रनन्दि ) जिसकी टीका किसी दिगम्बर विद्वान्की की इन दो दिगम्बराचार्योंका भी उल्लेख है जिनके हुई हो। विषयमें पहले कहा जा चुका है।
शाकटायन अपनेको 'श्रुतकेवलदेशीयाइससे मालूम होता है कि शाकटायन चार्य' पदसे परिचित करते हैं; परन्तु जहाँ तक यदि श्वेताम्बर सम्प्रदायके समाश्रमण आदि हम जानते हैं दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों मुनियों का उल्लेख करते हैं तो साथ ही ही सम्प्रदायोंमें शककी आठवीं शताब्दि तक विशेषवादी आदि दिगम्बर विद्वानोंकी भी श्रुतकेवलियों या एकदेशश्रुतकेवलियोंका सद्भाप्रशंसा करते हैं । इस लिए इससे वे श्वेता. व नहीं माना गया है। ऐसे ज्ञानियोंका अभाव म्बर या दिगम्बर नहीं ठहर सकते। दोनों सम्प्रदायोंके मतसे बहुत पहले हो चुका
यह तो मालून हो गया कि यापनीय- है; पर यापनीय संघमें इस बातका नियम संघ दिगम्बर सम्प्रदायसे अमक अमक नहीं मालूम होता और यही उसकी दोनोंसे बातोमें विभिन्नता रखता है; परन्त यह भिन्नता है । चिन्तामणिके कर्ता यक्षवर्माने तो मालूम न हुआ कि श्वेताम्बर सम्प्रदायके साथ
उनको 'सकलज्ञानसाम्राज्यको पानेवाला' उसकी क्या विभिन्नता है-यद्यपि यह निश्च
' माना है और यह भी यापनीय संघके सि
द्धान्तके अनुसार जान पड़ता है। य है कि हरिभद्रसूरि जैसे विद्वान् यापनीय तंत्रका एक स्वतंत्र सम्प्रदायके रूपमें उल्लेख
देवसेनसरिने यापनीय संघकी उत्पति करते हैं, अतएव यापनीय श्वेताम्बर सम्प्र
' विक्रम मृत्युके ७०५ वर्ष बाद बतलाई है।
यदि इसे विक्रमसंवत् ७०५ मान लें तो समदायका कोई गण या गच्छ नहीं हो सकता है। , इसका पता तब लग सकेगा जब यापनीयसं- वर्ष पहले इस संघकी उत्पत्ति हो चुकी थी।
है। झना चाहिए कि शाकटायनसे लगभग २०० घका थोड़ा बहुत धार्मिक साहित्य उपलब्ध हो। परन्त इसमें एक विरोध यह उपस्थित होता श्वेताम्बर दिगम्बर साहित्य तो इस विषयमें है कि हरिभद्रसूरिने अपनी ललितविस्तरामें सर्वथा मौन है। यह संघ दक्षिण कर्णाटककी यापनीय तंत्रका उल्लेख किया है जिससे और विशेष रहा है, अतएव संभव है कि मालूम होता है कि उनसे भी पहले इस उस ओर इसका कुछ साहित्य उपलब्ध हो। संघका अस्तित्व था और हरिभद्रसूरिका
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AARAMAmumILAIMELLAMABARD
जैनहितैषी। Martinimummy
arsanssxsisiSakdishSINSERSERSERSSERSERS
स्वर्गवास विक्रम संवत् ५८५ में माना जाता NAAMKARAN MANTRA है-अर्थात् विक्रमसंवत् ५८५ से भी पहले पुस्तक-परिचय । यापनीय संघके अस्तित्वका पता लगता है।
M ORMONCONDOMPOARNESMOONDOMCOACOMRSACSESAL __यद्यपि डा० जैकोबी आदि हरिभद्रसूरिको उपमितिभवप्रपंचाके कर्ता सिद्धर्षिका १ महावीर-जीवन-विस्तार । समसामयिक विक्रमकी दशवीं शताब्दिका मान- जैनसमाजमें वर्तमान समयकी आवश्यकताते हैं; परन्त उनकी यक्तियाँ भ्रममलक हैं। विक्र- ओंको समझनेवाले प्रतिभाशाली लेखकोंका प्रायः
अभाव है और यही कारण है जो इतनी जागृति
__ और आन्दोलन होनेपर भी अभीतक महावीर जान पड़ता है। ऐसी दशामें समझमें नहीं
' भगवानका जैनधर्मके प्रधान प्रवर्तक महावीर तीर्थ.. आता कि हम देवसेनसूरिके बतलाये हुए करका-काई अच्छा जीवनचरित नहीं है । कमसे समयको गलत समझें या हरिभद्रसूरिके समय- कम अजैनोंके हाथमें देने योग्य जीवनचरितका निर्णयको।
तो बिलकुल अभाव है। आज ऐसी कोई श्रेष्ठ ___ यापनीयसंघमें कई गण गच्छादि भी भाषा नहीं है जिसमें बुद्ध-भगवान्का जीवनचरित थे । द्वितीय प्रभूतवर्ष महाराजके एक दान- न मिलता हो; भारतवर्षमें बौद्धधर्मका अभाव पत्रमें यापनीय सम्प्रदायके नन्दि संघ और होने पर भी यहाँकी मायः सभी भाषाओंमें बुद्ध'नागवृक्षमूल गणका उल्लेख मिलता है। यह जीवनी लिखी जा चुकी है; परन्तु जैनधर्मके माननेदानपत्र शक संवत् ७३५ का लिखा हुआ है। वालोंकी संख्या १३ लाख होने पर भी उनके उपसंहार।
उपास्य देवके चरितके विषयमें लोग बहुत ही शाकटायन जैन थे । उनका दूसरा नाम
थोड़ा जानते हैं । यहाँकी भाषाओंका सहित्य महापाल्यकीर्ति भी था। वे यापनीय संघके
वीरके पवित्र जीवनसे सर्वथा वंचित है। इस कमीकाप्रसिद्ध आचार्य थे । यापनीय संघ दिगम्बर
आवश्यकताका-अनुभव हम बहुत समयसे कर रहे श्वेताम्बरके समान एक तीसरा सम्प्रदाय था
थे कि आज एकाएक इस ग्रन्थके दर्शन हुए। जो अब लुप्त हो गया है। शाकटायनके
" इसे पढ़कर बहुत सन्तोष हुआ और आशा हुई कि
अब वह समय बहुत दूर नहीं है जब महावीर शब्दानुशासन (मूलसूत्र ), अमोघवृत्ति भगवानका एक सर्वांगसुन्दर जीवनचरित लिखा टीका और केवलभुक्तिस्त्रीमुक्तिप्रकरण ये जायगा। इसे गुजराती भाषाके प्रसिद्ध आध्या. तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं । एक कोई साहित्य- त्मिक लेखक श्रीयुत भीमजी हरजीवन परीख का ग्रन्थ भी उनका है जिसका उल्लेख ( सुशील ) ने लिखा है और मेसर्स मेघजी हीरजी राजशेखरकी काव्यमीमांसामें किया है। वे कम्पनीने प्रकाशित किया है । इसमें भगवानके राष्ट्रकूटवंशीय महाराज अमोघवर्षके समयमें जीवनकी मुख्य मुख्य घटनाओंको लेकर विचार किया शक संवत् ७३६-७८९ वि०सं० ८७१ से गया है और उनसे भगवानके लोकोत्तर जीवनकी ९२४ ) के लगभग वर्तमान थे। गहरी बातों पर प्रकाश डाला गया है । लेखक
अच्छे विचारक हैं, स्वतंत्र मत देनेवाले हैं, जैन
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पुस्तक-परिचय।
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धर्मके आध्यात्मिक साहित्य और कर्मविज्ञानसे किसी पागलखानेसे छूटकर भागा हुआ मनुष्य परिचित हैं, इस लिए अपने कार्यमें यथेष्ट सफल होगा; परन्तु मनुष्यकी सामान्य बुद्धि उसे ऐसा हुए हैं । बड़े ही सुन्दर, गंभीर और रहस्यपूर्ण समझनेसे इंकार करती है । हमारे शास्त्र भी बतविचारोंको उन्होंने प्रकट किया है । पढ़कर लाते हैं कि स्वयं महावीर भगवानकी अपेक्षा हृदय गद्गद हो जाता है और भगवानके गोशालाका अनुयायी समाज अधिक था और प्रति जो भक्तिभावना है वह कई गुणी बढ़ इसीसे मालूम होता है कि उसकी प्रवर्तक शक्ति जाती है। इच्छा थी कि कुछ ऐसे प्रकरण पाठ- और लोगोंके हृदयकी स्पर्शित करनेकी सामर्थ्य कोंके सामने उपस्थित किये जायें; परन्तु स्थान- साधारण न थी।" लेखकने प्रधानतः श्वेताम्बरसंकोचके कारण रुकना पड़ा । लेखकने अपने साहित्यके आधार पर इसकी रचना की है; परन्तु विचार निर्भय होकर प्रकट किये हैं, इसका परिचय उनमें साम्प्रदायिक मोह नहीं है, इस कारण उन्होंने मंखलि गोशाल सम्बन्धी प्रकरणमें मिलता है । जिस कोई बात ऐसी नहीं लिखा है जो दिगम्बरोंको समय महावीर भगवान् अपने विचारोंका प्रचार कर अप्रिय हो । पुस्तकमें भगवान्की मुख्य मुख्य प्रभावरहे थे, उस समय उनका एक प्रतिस्पर्धी था जिसका शालिनी घटनाओं सम्बन्धी पाँच छह चित्र भी नाम मंखलिगोशाल था । बौद्धसाहित्यमें इसका दिये हैं और उनमें तीन चित्र वस्त्रयुक्त नहीं किन्तु अनेक स्थलोंमें उल्लेख मिलता है।आजीवक नामक नग्न चित्रित किये गये हैं और इसके कारण उन्हें सम्प्रदायका प्रवर्तक यही था । इसके अनुयायियोंकी श्वेताम्बरी भाइयोंकी तीव्र समालोचनाका पात्र संख्या महावीरके अनुयायियोंसे भी अधिक थी। बनना पड़ा है। इस पुस्तकके दो चित्र जैनहितैषीके यह पहले महावीरका शिष्य था, परन्तु पछि उनसे पहले अंकमें प्रकाशित हो चुके हैं जिनपरसे पाठक विमुख हो गया था और उनको इसने कष्ट दिया चित्रोंकी उत्तमताका अनुमान कर सकते हैं। था। श्वेताम्बरसाहित्यमें इस कारण हेमचन्द्राचार्य पुस्तक छोटी है, परन्तु इस बातके बतलानेके जैसे समर्थ विद्वानोंने भी साम्प्रदायिक मोहवश उसे लिए अच्छी है कि भगवानका जीवनचरित किस बहुत ही निन्द्य और नीच प्रकृतिका पुरुष बतलाया है. ढंगसे लिखा जाना चाहिए और उसके लिखनेके परन्तु लेखक कहते हैं-"गोशालाको जैसा मर्स. अल्प- लिए किस प्रकारकी योग्यता चाहिए। यदि इसमें बुद्धि और सर्वथा उन्मत्त चित्रित किया है। असल में महावीर भगवान्का एतिहासिक परिचय, उस समवह वैसा नहीं था । यह बिलकुल सच है कि मत- एका
यकी परिस्थिति, दिगम्बरश्वेताम्बर दृष्टिसे भगवान
का जीवन और उसका तारतम्य, समवसरण आदि. भेदकी दृष्टि अपने सामनेके मनुष्यके वास्तविक
- विभूतियोंका रहस्य आदि बातें और जोड़ दी स्वरूपको देखनेमें अन्तराय डालती है और हम
हम जायँ, तो एक जीवनचरितकी आवश्यकताकी अपने रागद्वेषके तारतम्यके अनुसार उसके वास्तविक बहुत कुछ पूर्ति हो जाय । मूल्य डेढ़ रुपया। स्वरूपको न्यूनाधिक अंशमें विकृत देखते हैं, हमें आशा है कि जो विद्वान् गुजराती समझ तो भी इस प्रकरणमें इन मतभेदके कारणोंसे गोशाला- सकते हैं वे इस पुस्तकको मँगाकर अवश्य पढ़ेंगे को जिस रूपमें कितने ही जैनग्रन्थकारोंने अपने आगे और लेखक तथा प्रकाशकके परिश्रमकी कदर करेंगे। उपस्थित किया है, वह किसी भी प्रकार क्षन्तव्य २ महावीर-भक्त मणिभद्र। नहीं हो सकता । हेमचन्द्राचार्यकी रचना पढ़कर इस पुस्तक के लेखक और प्रकाशक भी वे ही अज्ञान लोग यही समझ लेते हैं कि वह गोशाला हैं जो महावीरजीवनविस्तारके हैं। यह एक उप
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३६४
जैनहितैषी
न्यास है और शायद जैनसाहित्यमें अबतक जितने उसी काव्यका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करके साहिउपन्यास लिखे गये हैं उन सबसे अच्छा है । त्यप्रसारक कार्यालयने हिन्दीमें एक अच्छे ग्रन्थरत्नकी इसका कथानक बिल्कुल कल्पित है और बौद्ध वृद्धि की है । अनुवाद बहुत ही अच्छा, शुद्ध और साहित्यकी एक कथाको परिवर्तन करके तैयार सरल हुआ है । पढ़ते समय ऐसा मालूम होता है कि किया गया है । बौद्धकथाके बुद्धदेव इसमें भगहम कोई अनुवाद नहीं किन्तु किसी कविकी वान् महावीर और बौद्ध उपासक माणभद्र श्रावक धारावाहिक स्वतंत्र रचना पढ़ रहे हैं । हम पहले मणिभद्र के रूप में चित्रित किये गये हैं। मणिभद्र,
1, नहीं जानते थे कि एक अजैन विद्वान्के द्वारा जैनरत्नमाला, सुभद्र आदिका स्वभावचित्रण बहुत काव्यका इतना अच्छा अनवाद हो सकेगा। इसमें अच्छा हुआ है । रचनामें अस्वाभाविकता बहुत ही कई प्रकरण ऐसे हैं जो जैनधर्मकी जानकारीके कम है। महावीर भगवानके महत्त्वकी बड़ी सावधानीसे
नास बिना अच्छी तरह नहीं समझे जा सकते, परन्तु रक्षा की गई है । वैदिक धर्मके विरोधकी अवतारणा
रणा हम देखते हैं कि अनुवादक उन स्थलोंको भी सफ
म करके भी लेखकने अपने हृदयकी विशालताके ।
एक लतापूर्वक पार कर गये हैं। इसके प्रकाशक पं. कारण कोई एक भी शब्द ऐसा नहीं आने दिया .
। उदयलालजी काशलीवाल अपने — वक्तव्य में है जो धार्मिक द्वेषकी सृष्टि करनेवाला हो और लिखते हैं कि यह अनुवाद हमने एक अजैन यह करके भी जैनधर्मके प्रति पाठकोंकी सविशेष विद्वानसे कराया है। कारण हमारे जैन विद्वानोंको श्रद्धा आकर्षित करनेमें लेखक समर्थ हुए हैं । एक तो बेचारी हिन्दीभाषा पर प्रेम ही नहीं, हिन्दीरत्नमाला और मणिभद्रका सम्बन्ध हृदयपर बहुत भाषामें कुछ लिखना मानो वे अपना अपमानसा ही गहरा प्रभाव डालता है। रत्नमालाके वचनोंसे समझते हैं । दसरे उनकी भाषा संस्कृतजटिल और सभद्र के समान और भी अनेक कामुक सुमागेगामी इतनी आडम्बरपूर्ण होती है कि उनसे इतना बन सकते हैं । पुस्तक सचित्र है । सुप्रसिद्ध चित्र- अ
अच्छा अनुवाद हो भी नहीं एकता था।" इस कार धुरन्धरके बनाये हुए तीन चित्रोंसे जो कथाके वक्तव्यके पहले भागसें हम सहमत नहीं । हमारी तीन प्रसंगोंके अनुकूल बना गये हैं-पुस्तक और समझमें अपराध क्षमा हो-संस्कृतज्ञ जैनपण्डित भी सुन्दर बन गई है । प्रारंभमें जो प्रस्तावना हिन्दी जानते ही नहीं है और इस कारण हिन्दी लिखी गई है. वह बडे विचारसे लिखी गई है लिखना उनके लिए अपमानका कारण है । यह
और उपन्यासके कई पात्रोंके चरित्रपर सविशेष बात नहीं है कि हिन्दी लिखनेको वे तुच्छ काम प्रकाश डालती है । मूल्य बारह आने । पृष्ठ समझते हों-समझते तो अच्छा काम है परन्तु करें संख्या १६०।
क्या, उसे जानते ही नहीं हैं और इसमें उनका ३ चन्द्रप्रभचरित। . कुछ अपराध भी नहीं है । जिन विद्यालयों और अनुवादक, पं० रूपनारायणजी पाण्डेय और पाठशालाओंमें पढ़कर वे विद्वान् होते हैं वहाँ प्रकाशक, हिन्दीजैनसाहित्यप्रसारक कार्यालय, हिन्दी सिखलानेका कोई भी प्रबन्ध नहीं है । वक्तबम्बई । पृष्ठ संख्या २०० । मूल्य एक रुपया। व्यका दूसरा अंश बहुत ठीक है। चन्द्रप्रभचरिजैनसाहित्यमें महाकवि वीरनन्दिकृत चन्द्रप्रभ- तका इतना अच्छा अनुवाद सचमुच ही किसी चरित बहुत ही अच्छा काव्य है। उसकी जोडके जैनपण्डितसे नहीं हो सकता और न अभी दो भावपूर्ण और प्रसादगुणविशिष्ट काव्यबहुत ही थोड़े हैं। चार वर्ष ऐसी आशा करनी चाहिए। हम अपने
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RADIOmmom Balपुस्तक-परिचय। GanthurmTTAMITREETTETTERE
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पाठकोंसे प्रेरणा करेंगे कि वे इस अनुवादको मँगा- शायद लागतसे भी कम रक्खा गया है । लगभग कर पढ़ें और प्रकाशकोंके उत्साहको बढ़ावें । साढ़े चार सौ पृष्ठोंकी कपड़ेकी सुन्दर सुवर्णाक्षर साधारणतः पस्तकका मूल्य अधिक मालम होता है: युक्त जिल्द बँधी हुई पुस्तकका मूल्य आठ परन्तु इसके लिए जो खर्च किया गया है उसको आने बहुत ही कम है जो लोग संस्कृत और देखते हुए वह अधिक नहीं है।
गुजराती जानते हैं उन्हें इस ग्रन्थकी एक एक ४ कतर्व्यकौमुदी।
प्रति अवश्य मँगा लेना चाहिए । रचयिता शतावधानी मुनि रत्नचन्द्रजी। विवे
५चम्पा। चक और प्रकाशक, चुनीलाल वर्धमान शाह, सारं
लेखक, श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा । प्रकाशक, गपुर, अहमदाबाद । स्थानकवासी सम्प्रदायमें मुनि ,
श्रीयुत अमीचन्द्र जैन, गोहाना ( रोहतक )। पृष्ठरत्नचन्द्रजी संस्कृतके अच्छे विद्वान हैं । स्मरण
संख्या ९२ । मूल्य सात आने । दिल्लीके लाला शक्ति उनकी बहुत ही प्रबल है । वे संस्कृत कविता
" मनोहरलाल अपनी स्त्री गोमतीके साथ सुखसे रहते
। भी करते हैं । यह ग्रन्थ उन्हींकी रचना है ।
थे। सन्तानके लिए दोनोंने बहुत प्रयत्न किये परन्तु २३२ शार्दूलविक्रीडित छन्दोंमें यह पूर्ण किया गया है। इसमें कर्तव्य, शिक्षा, ब्रह्मचये, आरोग्य,
फल कुछ नहीं हुआ। बहुत समयके बाद उनके
क चम्पा नामकी लडकी हुई । गोमतीकी मृत्युक आज्ञापालन, व्यसनस्वरूप, गृहिणीकर्तव्य, विध
समय मनोहरलालने प्रतिज्ञा की थी कि मैं दूसरी वाकर्तव्य, कन्याविक्रय, बाल्यविवाहनिषेध आदि अनेक विषयोंके सम्बधमें समयोपयोगी शिक्षा
शादी न करूँगा; परन्तु एक ही वर्षके बाद प्रतिदी गई है । रचना सुन्दर है.। एक उदाहरणः
ज्ञाको भूलकर उसने सुनहरीके साथ शादी कर ली।
सुनहरी चम्पाको तरह तरहके कष्ट देने लगी । यावन्नार्थसमर्जने बलमभूद्दारादिनिर्वाहके, यावन्नेष्टतरा स.
मनोहरलाल अपनी स्त्रीका गुलाम हो गया, वह भी माप्तिमगमत्प्रारब्धविद्याकला।
चम्पाको मारने पीटने लगा। एक बार चम्पाकी यावबुद्धिविकाशदेहरचने प्राप्ते
पेटीमें सोनेकी चूड़ी रखकर सुनहरीने उसे चोरी दृढत्वं न वा,तावन्नो सुखदं प्रवे
लगाई । पुलिसने तहकीकात की, तो यह . . शनमिहाकाले गृहस्थाश्रमे ॥ सुबूत हुआ कि सुनहरीने ही चम्पाको कष्ट देनेके
मुनि महोदयने प्रत्येक श्लोकका गुजराती भा- लिए यह चालाकी की थी। इससे सुनहरी और वार्थ लिखा दिया है और उस पर श्रीयत शाहने भी चिढ़ गई । उसने धन्नाकी मा द्वारा विष मँगाविस्तारपूर्वक विवेचन किया है। विवेचनमें अनेक कर उसके लड्डू बनाये और उन्हें चम्पाके लिए देशी विदेशी ग्रन्थोंसे उदाहरणादि देकर मूल वि- रखकर कहीं बाहर चली गई । होनहारकी बात षयकी बड़ी अच्छी पद्धतिसे परिषुष्टि की गई है । कि मनोहरलाल भूखे हुए और उन्होंने एक लड्डू इससे ग्रन्थकी उपयोगिता बहुत ही बढ़ गई है। खा लिया ! बेचारे तड़फने लगे। डाक्टरने जहर बड़ोदा राज्यमें यह इनाम और लायबेरियोंमें रख- खाया हुआ बतलाया। तलाशी हुई । चम्पाकी नेके लिए स्वीकृत हो चुका है और थोड़े ही सम- पेटीमें दो लड्डू और भी निकले । वह पकड़ी यमें इसकी दो आवृत्तियाँ हो चुकी हैं। यह भी ग्रन्थकी गई और उसे फाँसीकी आज्ञा हुई। पीछे गोपाल उत्तमताका एक निदर्शन है । छपाई, कागज, नामके एक लड़कने जो चम्पाको चाहता था, जिल्द आदि सब ही बातें अच्छी है और मूल्य तो धन्नाकी माके द्वारा पता लगाकर असली अपरा
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जैनहितैषी-
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धिनी सुनहरीको ढूंढ निकाला और फाँसी चढ़नेके टीका है जो संभवतः सागबाड़ेके भट्टारक शुभचन्द्रठीक वक्तपर पहुँचाकर चम्पाको बचा दिया । जीकी की हुई है । मूल और संस्कृत टीकापर किसीने सुनहरीको काले पानीकी सजा हुई । चम्पाके साथ जयपुरी भाषामें एक वचनिका लिखी थी और उसको गोपालका ब्याह हो गया ।" यही इस पुस्तकका लाला गिरनारीलालजीने बहुत ही बुरी तरहपर खड़ी कथानक है । रचनामें अस्वाभाविकता बहुत है। बोलीमें परिवर्तन कराके प्रकाशित कराया है जिसका किसी भी पात्रका स्वभावचित्रण सर्वत्र एक सा नहीं यह गुजराती अनुवाद किया गया है । अनुवादहुआ। लेखकने चाहे जिस पात्रसे इच्छाके अनु- कको ये सब बातें अवश्य मालूम हो जाती यदि सार उसके स्थिरीकृत स्वभावका खयाल रक्खे वे थोडासा भी परिश्रम करते । बिना, चाहे जो काम कराये हैं और चाहे जो
७ देवकुलपाटक ।। शब्द उनके मुँइसे कहलवाये हैं । भाषामें भी लेखक, श्रीविजयधर्मसूरि और प्रकाशक, स्वाभाविकताका अभाव है । जो काम चार लाइ- अभयचन्द भगवानदास गाँधी । इस छोटीसी. २४ नोंसे निकल सकता था उसके लिए पृष्ठके पृष्ठ पृष्ठकी पुस्तकमें देवकलपाटकका और उसके मन्दिरों व्यर्थ खर्च किये गये हैं। वर्माजी स्वतंत्र रचनाके तथा प्रतिमाओंका ऐतिहासिक विवरण है। देलबड़े प्रेमी हैं । अच्छा हो यदि इसके बाड़ा या देवलबाड़ा देवकुलपाटकका अपभ्रंशरूप है । साथ ही वे रचनापद्धति सीखनेके और परिश्रम इसे आजकल देलबाडा या आबूजी कहते हैं । करनेके भी प्रेमी बनें।
वहाँके श्वेताम्बर सम्प्रदायके मन्दिरों में जो शिला६ यशोधरचरित्र । लेख हैं वे सब इसमें संग्रह कर दिये गये हैं। लेख • सूरतसे श्रीयुत मूलचन्द कसनदासजी कापड़ि- प्रायः चौदहवीं शताब्दिके पीछेके हैं । इस समय याने गुजरातीमें एक सस्ती जैनग्रन्थमाला निकाल- प्रत्येक तीर्थस्थान और देवालयके इसी प्रकारके नेका प्रारंभ किया है जिसका यह दूसरा पुष्प है। लेखसंग्रह प्रकाशित होनेकी अवश्यकता है। तीर्थइसका मूल्य चार आने है जो लागत मात्र है। क्षेत्रकमेटीका ध्यान इस ओर जाना चाहिए । कापड़ियाजीके भाई ईश्वरलालजी इसके अनुवादक पुस्तक मुफ्तमें बाँटी गई है, और यशोविजयहैं । इसके टाइटिल पेज पर लिखा है-" पुष्पदन्त ग्रन्थमाला आफिस खारगेट, भावनगरसे मिलेगी। कविकृत हिन्दीग्रन्थपरसे अनुवादक-" और भूमि- .८ पाटलिपुत्रका विशेषाङ्क । कामें लिखा है- वच्छराज काविकृत मूल प्राकृत पटनेका पुराना नाम पाटलिपुत्र है। अतः पटपरसे पुष्पदन्त कविने उसकी संस्कृत छाया की और नेसे इसी ऐतहासिक नामपर हिन्दीका एक साप्ताउसका हिन्दी अनुवाद लालागिरनारीलालजीने प्रका- हिक पत्र निकलने लगा है । पाटलिपुत्रको निकलते शित किया और उसका यह गुजराती अनुवाद है।" हुए दो वर्षसे आधिक हो गये । उसके उत्साही इससे अनुवादक महाशयके प्रमादका खासा पता संचालकोंने गत माघमासमें पटना हाईकोर्ट तथा लगता है । मूल ग्रन्थ प्राकृत भाषामें है और उसके हिन्दू विश्वविद्यालयके उपलक्षमें पाटलिपुत्रका यह रचयिता पुष्पदन्त कवि हैं । पुष्पदन्तने वच्छराज विशेषाङ्क प्रकाशित किया था । हमें खेद है कि हम कविके प्राचीन कथासूत्रको पढ़कर अपने प्राकृत बहुत बिलम्बसे लगभग ५ महीनेके बाद इस अंकके ग्रन्थकी रचना की है । अर्थात् कविका यशोधर- विषयमें अपनी सम्मति लिख सके हैं । जैनमित्रके चरित प्राकृतमें नहीं । इस प्राकृतकी एक संस्कृत साइजसे कुछ बड़े ७२ पृष्ठोंपर यह छपा है। कागज
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__पुस्तक-परिचय ।
बढ़िया आर्टपेपर हैं । चित्रोंकी संख्या ५० से ऊपर यहा आधुनिक अँगरेजीशिक्षासे वास्तविक शिक्षित है। छपाई दर्शनीय हुई है । लेख और कविताओंकी तैयार होते हैं और न प्राचीन संस्कृतशिक्षासे । संख्या २७ है। पाटलिपुत्र और विहारसे सम्बन्ध अँगरेजी स्कूल और कालेज गुलाम, खुशामदखोर, रखनेवाले ऐतिहासिक लेख कई हैं और वे बड़ी अपने भाइयों पर जुल्म करनेवाले, आरामतलब, खोजसे लिखे गये हैं। अधिकांश चित्र प्राचीन दुर्बल स्वार्थी पुरुष तैयार करते हैं और संस्कृतकी इमारतों और मूर्तियों आदिके हैं। लेखोंके संग्रह संस्थायें वर्तमान देशकालसे अनभिज्ञ घोंघा पण्डित करनेमें इस बातका ध्यान रखा गया है कि ने तैयार करती हैं। संस्कृत शिक्षाके सम्बन्धमें विचार विशेषतः बिहार और बिहारियोंसे सम्बन्ध रखने- करते हुए कहा गया है- “ हमारे देशका करोड़ों
ले हों। कई लेख बहुत ही महत्त्वके हैं और बड़े रुपया संस्कृत पाठशालाओंमें खर्च किया जाता है, बड़े प्रतिष्ठित पुरुषोंके लिखे हुए हैं। कवितायें कई पर वहाँसे शिक्षा पाये हुए हमारे देशबन्धु शिक्षाके हैं:परन्तु एकाधको छोड़कर प्रायः निरी तुकबन्दियाँ हैं। किसी अंगकी पूर्ति नहीं करते । पिछले हजार डेढ़
हिन्दी पत्रों के अभीतक जितने विशेषाङ्क निकले हजार वर्षका इतिहास हमको इस बातकी सूचना है, हमारी समझमें यह उन सबसे अधिक सुन्दर और देता है कि जिस प्रकारकी पुरानी शिक्षाप्रणाली बहुमूल्य है । मूल्य लिखा नहीं, परन्तु रुपये बारह पाठशालाओंमें प्रचलित है उसके द्वारा हमारा आनेसे कम न होगा । हिन्दीके प्रेमियोंको इसकी जातीय जीवन स्वाभाविक ढंगसे विकसित नहीं हो एक एक प्रति अपने संग्रहमें अवश्य रखना चाहिए। सकता । पाठशालाओंके संस्कृत पढ़े हुए विद्यार्थी ९ शिक्षाका आदर्श और लेखनकला। आत्मिकबलसे हीन, संकुचित विचारोंमें पड़े हुए
लेखक और प्रकाशक, स्वामी सत्यदेव परिवा- अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। बड़े बड़े दिग्गज जक । पृष्ठ संख्या १०९। मूल्य पाँच आने। मिलनेका विद्वान् धाराप्रवाह संस्कृत बोलनेवाले, यह नहीं पता, सत्यग्रन्थमाला आफिस जानसेनगंज इलाहा- जानते कि उनके जीवनका उद्देश्य क्या है ? बाद । यह बड़ी खुशीकी बात है कि हिन्दी सहि- शासन किसको कहते हैं ? भारत निर्धन क्यों हो त्यम नये जोशकी बिजली कनेवाले सत्यदे- रहा है ? जापानने उन्नति कैसे की ? अमेरिकाकी जीने लगभग दो वर्षके बाद अब फिरसे पुस्तकें तिजारतका भारतपर प्रभाव क्यों पड़ता है ? इंग्लिलिखना शुरू कर दिया है। यह आपकी व्याख्यान- स्तानकी शासनपद्धति क्या है ? भारतीय समाजमें मालाकी पहली संख्या है । इसमें आपके दो फूट होनेका कारण क्या है ? ऐसे ऐसे आवश्यक व्याख्यान हैं । हमने दोनोंहीको आद्यन्त पढ़ा। प्रश्नोंके विषयमें वे कुछ नहीं जानते । अलबत्ता 'लेखनकलामें ' लेखोंका महत्त्व, लेखकोंके भेद, न्यायके अवच्छेदकावच्छिन्न और व्याकरणकी फउनके उद्देश्य, कर्तव्य आदिपर विचार किया गया किकाओंमें सिर पटकना खूब जानते हैं । जो है, और वर्तमान लेखकोंकी बड़ी कड़ी समालो- दशा यूरोपके विद्वानोंकी १४-१५ वीं शताब्दिचना की गई है-खूब खरी खरी सुनाई गई हैं। योंमें थी, वही दशा आज हमारे संस्कृत विद्वानोंशिक्षासम्बन्धी व्याख्यानमें बतलाया है कि जो की है। यूरोपके ईसाई पादरी उन दिनों ' सुईकी शिक्षा शारीरिक, आर्थिक, मानसिक और आर्थिक नोक पर कितने फरिश्ते बैठ सकते हैं ? ' ऐसे स्वतंत्रता देती है, वही सच्ची शिक्षा है । हमारे जटिल प्रश्नोंपर महीनों शास्त्रार्थ किया करते थे; देशमें इस प्रकारकी शिक्षाका प्रायः अभाव है । न परन्तु अपनी उस मूर्खतासे यूरोपके लोग अब
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CHODAIIMMARIWALATMAL
जैनहितैषी
निकल गये । उन्होंने शिक्षाके उद्देश्यको धीरे धीरे किस निर्दयतासे तीसरे दर्जेके मुसाफिरोंको लूटते समझना शुरू किया और आज यूरोप शिक्षाकी और कष्ट देते हैं ! अदालतोंके मुहरिर गरीब किसाउन्नत अवस्थामें हैं । इसके विपरीत हमारे संस्कृतके नोंके साथ कैसा अत्याचार करते हैं ! जिधर देखो विद्वान्, 'पत्राधारे घृतं घृताधारे पत्रम् । घी उधर ही अँगरेजी शिक्षितोंके हाथसे भारतजनता पत्तेके ऊपर है या पत्ता घीके ऊपर है ? ऐसे अत्यन्त दुःखी है । वे अपने दूसरे जाहिल देशप्रश्नोंके हल करनेमें लगे हुए हैं । भला कहिए बन्धुओंको घृणाकी दृष्टि से देखते हैं और उनके देशकी उन्नति हो तो कैसे हो ? आजसे ५०० साथ पशुओंसे बदतर व्यवहार करते हैं। दूसरी वर्ष पहले जो हमारी आवश्यकतायें थीं वे आज ओर करोड़ों अशिक्षित इन बाबुओंपर तनिक नहीं है। आजसे ५० वर्ष पहले जो देशकी दशा विश्वास नहीं करते, वे इनको ठग और मक्कार थी वह अब नहीं है । हमको देशकालके अनुसार समझते हैं। " थोड़ी सी अँगरेजी पढ़ा हुआ लड़का अपनी आवश्यकताओंको समझ शिक्षाका प्रबन्ध अपनी भाषा भेष तथा भावसे घृणा करने लगता करना है । आज भारत पुराने दो हजार वर्ष पहले- है। उसके लिए अंगरेजी बोलना और अँगरेजी का भारत नहीं है । आज यदि अमेरिकामें रुईकी सभ्यताकी नकल करना ही शिक्षाका आदर्श है । फसल मामूलीसे अधिक होती है तो उसका प्रभाव कोट पतलून पहन गलेमें कुत्ते जैसा पट्टा डाल मुँहमें भारतवर्ष पर पड़ता है ! आज हमारा सम्बन्ध संसा- चुरट ले, अपने भाइयोंसे घृणा करना ही शिक्षाकी रके सभ्य देशोंसे हो गया है । हमारा मरना जीना सीढ़ीपर चढ़ना समझता है । अपनी भाषा तो उसे इसी पर निर्भर है कि हम दूसरी जातियोंके नये अच्छी लगती ही नहीं, और न अपने प्राचीन ऋषि वैज्ञानिक आविष्कारोंसे परिचित हों और अपनी मुनि उसकी आँखों में जंचते हैं। उसके लिए तो शिक्षाप्रणालीको आधुनिक कला कौशलके अनुसार अच्छा बूट, सूट, अच्छी गिटपिट और किसी बना डालें । पुराने जर्जर हथियारोंसे काम नहीं दफ्तरमें नौकरी ही स्वर्गीय जीवन है । रुपयेके लिए चलेगा। अब हमको आँखें खोलकर चलना चाहिए। घृणितसे घृणित कार्य करनेको वे उद्यत हैं । नौकयदि संस्कृत पाठशालाओंमें बराबर नई आव- रीके लिए यदि इनको अपने देशबन्धुओंका गलाश्यकताओं के मुताबिक ग्रन्थ पढ़ाये जाते तो आज भी काटना पड़े तो उसको ये लोग ड्यूटीके नामसे हमारी यह दुर्दशा कदापि नहीं होती !” अँगरेजी पुकारते हैं और तनिक नहीं सोचते कि अँगरेजीके शिक्षाके विषयमें कहा है:-"पिछले १०० वर्षों- इस श्रेष्ठ शब्दका अर्थ क्या है । वेश्याओंकी तरह धनके का अनुभव हमें बतलाता है कि जिस ढंगकी लिए शरीर और आत्माको बेचना ही इनके अंगरेजी शिक्षा भारतवर्षमें प्रचलित है उससे लिए ड्यूटी है। हम लाखबार ऐसी शिक्षाको कभी देशका कल्याण नहीं हो सकता। अंगरेजी धिक्कारते हैं । अपने देशकी ममता छोड़, प्यारे स्कूलों में शिक्षा पाये हुए लाखों भारतीय आज देशबन्धुओंसे पशुपनका व्यवहार कर, प्यारी मातृगवर्नमेंटके भिन्न भिन्न विभागोंमें नियुक्त हैं, और भाषासे मुँह मोड़ना, तथा अपने देशके पहिरावेसे हजारों रेलवे कर्मचारियोंका काम करते हैं । इन घृणाकर, अपने पूर्वजोंको तुच्छ दृष्टि से देखना, शिक्षित लोगोंसे देशका क्या उपकार होता है ? यदि ये ही इस अंगरेजी शिक्षाके फल हैं तो हम देशके अनपढ़, इन अँगरेजी शिक्षितोंके हाथसे इसको दूरहीसे नमस्कार करते हैं। " इस बानगीसे बाहि त्राहि कर रहे हैं । स्टेशनोंपर बाबू लोग पाठक इस पुस्तकका अभिप्राय समझ सकते हैं ।
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पुस्तक-परिचय।
अच्छी पुस्तक है । इसका खूब प्रचार होना कौन कौन हैं, उनके अधिकार क्या हैं; और भार चाहिए। कमसे कम हमारी शिक्षासंस्थाओंके चलाने- तसरकारके साथ उनका क्या सम्बन्ध है, बड़े वालोंको तो इसका पाठ अवश्य करना चाहिए। लाटकी कौसिल क्या करती है, उसके काम कर
नेका ढंग क्या है, बड़े लाटके अधिकार क्या हैं, १० नाममाला।
प्रान्तीय सरकारें कौन कौन हैं, उनके शासकोंके महाकवि धनंजयका बनाया हुआ यह एक अधिकार क्या हैं, जिलोंका शासन कैसे होता है, २०० श्लोकोंका छोटासा कोश है । साथ ही ४५
म्यूनीसिपालिटियाँ, देहाती बोर्ड, आदिका स्वरूप श्लोकोंका एक नानार्थ कोश है । जो विद्यार्थी
क्या है, सरकारी आयव्यय, देशीरियासतें, फौज अमरकोश जैसे बड़े कोश कण्ठ नहीं कर सकते
और पुलिस, न्यायविभाग, जेल, शिक्षाप्रचार, वे इसे कण्ठ करके कोशका काम निकाल सकते
स्वास्थ्यरक्षा और रेल, नहर सड़कें आदि सार्वहैं। इसे पं० घनश्यामदासजीजैनकृतसरलाहन्दा जनिक कार्य कैसे चलते हैं तथा महाराणी विक्टोअर्थसहित श्रीयुत बंशीधरजी मास्टर ललितपुर रियाने हमें क्या क्या वचन दिये थे । इस पुस्त(झाँसी) ने प्रकाशित कराया है। पुस्तकक कोपट लेनेसे उक्त सब बातोंका साधारण ज्ञान अन्तमें शब्दोंकी अनुक्रमणिका दे दी गई है, जो हो जायगा और पाठक राजनीतिक चर्चामें प्रवेश बहुत उपयोगी है । पुस्तकमें छोटे साइजके १००
करनेके अधिकारी हो जायेंगे । लेखक महाशयने पृष्ठ हैं और मूल्य आठ आने है ।
इस पुस्तकको लिखकर हिन्दीभाषाभाषियोंका ११ भारतीय शासन । बहुत उपकार किया। इसके लिए आप धन्यवालेखक और प्रकाशक, बाबू भगवानदासजी के पात्र हैं । पुस्तकका मूल्य अपेक्षाकृत कम महेसरी, शीशमहल मेरेठ । पृष्ठ संख्या १८०। रक्खा गया है। भाषा सरल और सबके समझमें मूल्य सात आने । यह बड़े सौभाग्यकी बात है आने योग्य है । छपाई और कागज आदि सब कि हिन्दीके लेखकोंकी प्रवत्ति राजनीतिसम्बन्धी अच्छे हैं। पुस्तकें लिखनेकी ओर भी होने लगी है । यह एक
१२ नीतिशतक । ऐसा विषय है जिसका जानना प्रत्येक पढ़े लिखे भर्तृहरिका नीतिशतक संस्कृत साहित्यकी एक भारतवासीके लिए आवश्यक है । हिन्दीसमाचार- बहुत ही बहुमूल्य वस्तु है। हिन्दीमें इसके अनेक पत्रोंके पाठकोंमें फी सदी ५०-६० पाठक ऐसे गद्यपद्य अनुवाद हो चुके हैं। परन्तु जहाँ तक होंगे जो राजनीतिसम्बन्धी लेखोंको पढ़ते हैं; हम जानते हैं अभीतक इसका बोलचालकी परन्तु उनके पूरे मर्मको नहीं समझ सकते । वे नहीं भाषामें कोई पद्यानुवाद नहीं हुआ था। हिन्दीके जानते कि अँगरेज सरकार हमारे देशका शासन- सुपरिचित कवि पं० लोचनप्रसादजी पाण्डेयने इस किस ढंगपर करती है और इस कारण शासन- कमीको पूरा कर दिया । अनुवाद 'तुकहीन' है पर सम्बन्धी गुणदोषोंकी चर्चा उनके लिए कठिन हो हमें अच्छा मालूम हुआ । मूलका भाव अनुवादजाती है । इस पुस्तकसे हिन्दी पाठक अपनी में अच्छी तरह व्यक्त होता है । अच्छा होता, यदि बड़ी भारी अज्ञानताको बहुत कुछ दूर कर सकेगें। वे एक पद्य का अनुवाद अनेक पद्योंमें न करके एक जानेंगे कि विलायत सरकार ( होम-गवर्नमेंट ) क्या ही पद्यमें किया जाता । यद्यपि इसमें कठिनाई काम करती है, उसमें काम करनेवाले अधिकारी पड़ती और अनुवाद भी कुछ कठिन हो जाता
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जैनहितैषी
परन्तु कविताके थोड़े शब्दों में बहुत कहने ' के १५ भावविलास और देवशतक । गुणकी रक्षा हो जाती । पद्यके नीचे गद्यमें भी मूल- प्रकाशक, मुंशी गोविंदशरण सरदार, महकमे का अर्थ लिखा गया है और हमें उसमें कोई दोष अपील, जयपुर । ' हिन्दीनवरत्न ' के लेखकोंने नजर नहीं आया । इसके साथ ही पं० सखाराम देवकविको हिन्दीके नौ सर्वश्रेष्ठ कवियोंमें गिनाया दुबे, बी. ए. बी. एल. का अँगरेजी अनुवाद भी है और उनकी रचनाकी बहुत प्रशंसा की है । छपा है जो शायद अँगरेजी पढ़नेवाले विद्यार्थियों- यह ग्रन्थ उन्हीं देवकविका बनाया हुआ है। के लाभके लिए लिखा गया है । इस पुस्तकके भावविलासमें शृंगाररसके समस्त भाव-नायक प्रकाशक 'मेसर्स हरिदास एण्ड कम्पनी, हेरिसन रोड नायिका भेद अलङ्कार आदि-वर्णित हैं और शतकलकत्ता' हैं । छपाई अच्छी है । मूल्य आठ आने। कमें ब्रह्म, तत्त्व, आत्मा आदिके विचार हैं।
१३ जीवनी शक्ति। यह पुरानी ब्रजभाषाकी कविता है। जो लोग अनुवादक पं० ज्वालादत्त शर्मा । प्रकाशक हरि- इसे समझते हैं और शृंगाररसके रसिक हैं उन्हें दास एण्ड कम्पनी कलकत्ता । मूल्य पाँच आने। अवश्य ही इसके पढ़नेमें आनन्द आयगा । कविता यह बंगालके सुप्रसिद्ध डाक्टर प्रतापचन्द्र मजूमदार अच्छी है पर इतनी अच्छी नहीं कि उसके बलसे एम. डी. की लिखी हुई बंगला पुस्तकका अनुवाद देवमहाकवियोंकी श्रेणीमें बिठाये जा सकें । देवहै । हमने इसे बंगलामें पढ़ा है । बड़ी ही अच्छी शतककी कवितामें गंभीरता और तत्त्वज्ञता बहुत पुस्तक है । दीर्घ जीवन प्राप्ति करनेके लिए शारी- कम है जो उसके विषयोंके लिहाजसे होनी चाहिए रिक और मानसिक शक्तियोंकी रक्षा और सदु- थी । पुस्तकका पूफ अच्छी तरह नहीं देखा गया पयोग किस प्रकार करना चाहिए, इसका इसमें और छपाई तो इतनी भद्दी है कि आजकलके सर्व साधारणके समझनेमें आने योग्य वर्णन किया सौन्दर्यप्रेमी पाठक शायद ही इसे पसन्द करें। गया है । स्नान, आहार, कसरत, चिकित्सा और बड़े साइजके ११४ पृष्ठोंकी पुस्तकका मूल्य
औषधसेवन, अनेक तरहकी चिन्तायें और पाँच आने बहुत कम है। भावनायें, दीर्घजीवनसे लाभ, आदि कई अध्यायोंमें १६ व्याख्यानसाहित्यसंग्रह ( गुजराती)। पुस्तक विभक्त है। अनुवाद भी अच्छा हुआ लेखक, मुनिराज श्रीविनयविजयजी और प्रकाहै। इस प्रकारकी पुस्तकोंके प्रचारकी बहुत आव- शक देवचन्ट दामजी सेटे. भावनगर । मन्य दाई श्यकता है।
रुपया। लेखक महोदयने इसे सात वर्षके सतत परि१४ शारदा।
श्रमसे तैयार किया है ! इसमें व्याख्यानोंका तो नहीं अनुवादक पं० शिवसहाय चतुर्वेदी, प्रकाशक व्याख्यानोंके उपयोगमें आनेवाले सैकड़ों विषयोंका हिन्दीहितैषी कार्यालय, देवरी (सागर),पृष्ठसंख्या ५०। और अनेक ग्रन्थोंसे लिये हुए हजारों श्लोकोंका संग्रह बंगलाके प्रसिद्ध उपन्यासलेखक शिवनाथ शास्त्रीके है । संग्रहमें और गुजराती विवेचनमें कोई विशेष' मेजवऊ ' नामक उपन्यासका यह परिवर्तित ता नहीं । प्रारंभमें लेखक, मुनि आत्मारामजी अनुवाद है । इसका पिछला भाग जो दुःखान्त था और सेठ मकनजी कानजीके चित्र तथा चरित्र सुखान्त कर दिया गया गया है । एक गार्हस्थ्य हैं जो आज कलके समयमें प्रसिद्धिके लिए बहुत चित्र है। स्त्रियोंके लिए उपयोगी और शिक्षाप्रद ही आवश्यक समझे जाते हैं और जिन्हें उदासीन है। छपाई अच्छी है। मूल्य छह आने । जैन साधु भी बुरा नहीं समझते हैं।
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पुस्तक-परिचय।
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१७ सत्याग्रहका इतिहास । इस ढंगसे परिचय कराया गया हो । इसके लेखक,श्रीयुत भवानीदयालजी नेटाल (आफ्रिका) लिए लेखक महाशय धन्यवादके पात्र हैं। अच्छा और प्रकाशक, वाबू द्वारकाप्रसादजी सम्पादक नवजी- हो यदि आप इसी प्रकार उर्दूके अन्यान्य कविवन, इन्दौर केम्प । मूल्य डेढ़ रुपया । दक्षिण आफ्रि- योंका भी हिन्दीके पाठकोंको परिचय करा दें। काके भारतवासियोंके कष्टोंको दूर करनेके लिए महा- लेखक उर्दू फारसीके पण्डित हैं । इस लिए उन्होंने त्मा गाँधीने जो सत्याग्रह या निःशस्त्रप्रतीकार शुरू उर्दू फारसीके ऐसे बहुतसे शब्दोंका अर्थ बतलानेकिया था, उसका प्रारंभसे लेकर अबतकका इति. की जरूरत नहीं समझी है. विशेष करके पार हास इस पुस्तकमें लिखा गया है । बड़ी भारी २८ पृष्ठोंमें-जिन्हें हम जैसे उर्दूफारसी-शून्य विशेषता यह है कि इस इतिहाससे सम्बन्ध रखने- लोग बिलकुल ही नहीं समझ सकते हैं। आशा वाले सैकड़ों स्त्रीपुरुषों के चित्र-जिनकी संख्या ६० है पण्डितजी अपने आगामी निबन्धोंके लिखते के लगभग है-इस पुस्तकमें दे दिये गये हैं और यह समय इस ओर ध्यान देंगे । काव्यमर्मज्ञोंको यह बड़े भारी अर्थव्ययका काम है । प्रत्येक भारतवासी- पुस्तक अवश्य पढ़ना चाहिए । को यह पुस्तक पढ़ना चाहिए और विदेशोंमें अपने १९ कुमार देवेन्द्रप्रसादजीकी पुस्तकें। भारत भाईयोंकी जो दुर्दशा होती है उससे परिचित
१ सेवाधर्म, २ न्यायावतार, ३ Jainism होना चाहिए । पुस्तककी छपाई अच्छी है, परन्तु
not Atheism and The six Dravyas of बँधाई इतनी खराब है कि पुस्तक पूरी भी नहीं पढ़ी
Jain Philosophy, ४ विश्वतत्त्व और ५ जाती है और पत्र अलग अलग हो जाते हैं । ऐसी
सार्वधर्म । पहली पुस्तक प्रेमोपहारसीरीजका प्रथम अच्छी पुस्तककी यह त्रुटि बहुत खटकती है।
पुष्प है । छोटीसी ६४ पृष्ठ ( डबल क्राउन ३२ १८ महाकवि गालिब और उनका
पेजी) की पुस्तक है। मूल्य वगैरह कुछ लिखा उर्दू काव्य।
नहीं । विश्वसेवाके सम्बन्धमें बहुत अच्छे अच्छे लेखक, पं० ज्वालादत्त शर्मा और प्रकाशक, विचार संग्रह किये गये हैं जो हृदयमें लिख रखने हरिदास एण्ड कम्पनी, कलकत्ता । पृष्ठसंख्या योग्य हैं । दूसरी पुस्तकमें आचार्य सिद्धसेन १.२ । मूल्य पाँच आने । उर्दूका पद्य-साहित्य दिवाकरका मूल न्यायावतार-जिसमें कि केवल ३२ बहुत बढ़ा चढ़ा है। उसे उत्तमोत्तम रचनाओंसे श्लोक हैं-उसका महामहोपाध्याय डा० सतीशचन्द्र पुष्ट करनेवाले कई नामी कवि हो गये हैं । मिर्जा विद्याभूषण एम. ए. का किया हुआ अँगरेजी अर्थ गालिब भी उनमेंसे एक है । संस्कृत साहित्यमें जो और संभवतः चन्द्रप्रभसूरिकृत संस्कृत टीका स्थान माघका है, वही उमें गालिबका है। फारसी- (न्यायावतारविवृत्तिः ) है । प्रारंभमें अँगरेजी के तो आप महाकवि थे। ईस्वी सन् १८६९ में भूमिका है । न्यायावतार बहुत ही महत्वका और आपकी मृत्यु हुई । इस पुस्तकमें लेखक महाशयने प्रसिद्ध ग्रन्थ है। विद्याभूषण महाशय इसे सबसे आपका और आपकी रचनाकी खूबियोंका पहला जैनन्यायग्रन्थ बतलाते हैं। इसके एक दिग्दर्शन कराया है और अन्तके लगभग ४० श्लोक पर हम अपने समाजके पण्डितोंका ध्यान पृष्ठोंमें आपका उर्दू काव्य हिन्दीअनुवादसहित आकर्षित करते हैं:दे दिया है । हिन्दीमें शायद यह पहली आप्तोपनमनुलंध्यमद्दष्टेष्टविरोधकम् । पुस्तक है जिसमें दूसरी भाषाके किसी कविका तत्त्वोपदेशकृत सार्व शास्त्रं कापथघट्टनम्९
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ILLAHULILALIMITALITILLUTILIT
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जैनहितैषी
ठीक यही श्लोक आचार्य समन्तभद्रके रत्न. डेड़ आना । सौ पोंकी पुस्तक है। भारतकी वर्तमान करण्ड श्रावकाचारमें भी है। इस बातका पता दशा पर बहुत कुछ कहा गया है जो पढ़नेवालोंपर लगानेकी जरूरत है कि यह रत्नकरण्डमें क्षेपक प्रभाव डालेगा । कविता अच्छी है। है उद्धृत है, अथवा रत्नकरण्ड परसे न्यायावतारमें २२ महात्मा टाल्सटायके लेख । उद्धत किया गया है। यह दिलायब्ररी आफ जैन प्रकाशक, ग्रन्थप्रकाशकसामति पत्थरगली, लिटरेचर ' की दूसरी पुस्तक है। मूल्य इसका काशी । रूसके सुप्रसिद्ध विद्वान् महार्ष टाल्सटायके चार आने है। तीसरी पुस्तक अँगरेजीमें है और १ लोग नशा क्यों करते हैं, २ उद्योग और आलस्य, मि. एच. वारनकी लिखी हुई है । इसके पहले ३ शिक्षणसम्बन्धी पत्र, ४ धर्म और बुद्धि, इन निबन्धका हिन्दी अनुवाद हितैषीमें 'जैनधर्म चार महत्त्वपूर्ण लेखोंका संग्रह है । मू० चार आने । नास्तिक नहीं है । के नामसे प्रकाशित हो चुका
२३ विमलविनोद। है। यह सेठ नगीनदास और माणिकलालकी
स्वामी दयानन्द सरस्वतीका उपदेश । ओरसे मुफ्त बाँटी गई है । ४ विश्वतत्त्व और ५ लेखक, एम्. बी. मोक्षाकर और प्रकाशक, शेठ सार्वधर्म ये दो चार्ट या नकशे हैं जो दीवाल जवाहरलाल जैनी, सिकन्दराबाद । मूल्य दस पर चिपकाने या टाँगनेके कामके हैं। पहलेमें जीव आने । मिलनेका पता-आत्मानन्दजैनपुस्तकअजीव आदि तत्त्वोंके तमाम भेद प्रभेद बतलाये प्रचारक मण्डल. रोशन मुहल्ला, आगरा। यह पुस्तक हैं और दूसरे में निश्चय और व्यवहार धर्मके सम्यग्द- हमारे पास कई महीनोंसे पड़ी है । हमने कई बार र्शन-ज्ञान--चरित्र आदि भेद और उपभेद दिख• चाहा कि इसको पढ़ जायें और देखें कि इसमें क्या लाये गये हैं। इनसे जैनदर्शनकी स्थूल रचना लिखा है; परन्तु ३७६ पृष्ठके पोथेको पढना साधासमझमें आजाती है । पहलेका मूल्य तीन आने रण काम नहीं । कुछ ही पृष्ठ पढकर हम सन्तुष्ट
और दूसरेका चार आने है । पुस्तकों और चार्टो- हो गये । इसमें स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनके की छपाई आदि बहुत सुन्दर है । इस काममें समाजसुधारसम्बन्धी सिद्धान्तोंकी बुरी तरह प्रकाशक महाशय सिद्धहस्त हैं मिलनेका पता- मिट्टी पलीद की गई है। खूब ही जी खोलकर दि सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, आरा। मालियाँ दी हैं और बड़े ही भद्दे ढंगसे उनकी २० सन्तान-पालन।
गल्तियाँ दिखलाई हैं। सभ्यताका या भाषासमितिका अनुवादक,बाबू शिवजीलाल काला । प०, वैद्य जरा भी खयाल नहीं रखा गया है। मालूम नहीं, शंकरलाल हरिशंकर, मुरादाबाद । प्रसिद्ध जलचि- इस प्रकारकी पुस्तकोंको लिखकर लेखक क्या लाभ कित्सिक डा. लुई कूने साहबकी अँगरेजी पुस्तकके सोचते हैं। क्या कोई पुरुष अपने असत्य विचा
आधारसे यह लिखी गई है। बच्चोंका पालन पोषण रोंको गालियाँ खाकर छोड़ देता है ? गालियाँ तो किस तरह करना चाहिए और उनका खानपान उसे अपने विचारों में और भी पक्का करती हैं और कैसा होना चाहिए, आदि बातोंपर बहुत ही अच्छे धार्मिक द्वेषकी सृष्टि करती हैं । लेखकके विचारसे विचार लिखे गये हैं । जो लोग बाल-बच्चोंवाले हैं, यदि आर्यसमाजके सिद्धान्त अच्छे नहीं हैं तो उन्हें उन्हें इसे एकबार अवश्य पढ़ जाना चाहिए । ३६ युक्तिपूर्वक सभ्यताके साथ दूषित ठहराना चाहिए। पृष्ठकी पुस्तकका मूल्य चार आने अधिक है। इस पुस्तकको देख कर हमें बड़ा दुःख हुआ और
२१ भारतीय शतक। उसने इस कारण हम पर और भी अधिक प्रभाव ले०, मुंसिफसिंह यादव । प्र०, ब्रह्मचारी नरेन्द्र डाला जब हमें मालूम हुआ कि इस पुस्तकके यादव, इटौली पो० शिकोहाबाद (मैनपुरी)। मू० प्रकाशक 'युक्तिमद्वचनं' को मस्तक पर चढानेवाले
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SATANTRIBITAMARHAALTALLLLLLBARABARIMAILER
जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य । CumithfurnimittyETTmintummy
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हमारे जैनीभाई हैं और शायद एक 'मुनि महाराज' FRASTARIANRARARAT इस कार्यके अनुमोदक हैं। अभी तक हमारा इस कार्यके अनुमोदक हैं। अभी तक हमारा
जैनकर्मवाद और तद्विषयक ? खयाल था कि इस प्रकारकी पुस्तकें लिखनेमें 'आर्यसमाजी ' भाई ही सिद्धहस्त हैं।
साहित्य । नीचे लिखी पुस्तकें धन्यवादपूर्वक
KorupsexHULU स्वीकार की जाती हैं:
(ले०-श्रीयुत मुनि जिनविजयजी।) १ जैनतत्त्वमीमांसा, २ जैनधर्मका हृदय,
जैनधर्मकी दृष्टिमें इस जगतका कर्ता हर्ता ३ व्याख्यान मौक्तिक,
कोई व्यक्तिविशेष नहीं है। संसारके अन्यान्य ४ अविद्यान्धकारमार्तण्ड ।
मुख्य धर्म जिस प्रकार किसी ईश्वर आदि शक्ति प्र.-आत्मानन्द-जैनट्रैक्ट-सोसाइटी,अम्बालाशहर द्वारा इस जगतका सर्जन और संहरणादि मानते ५ महाराणाप्रतापका वनवास,
हैं वैसा जैनधर्मका सिद्धान्त नहीं है । जैन६ प्राचीन सभ्यताकी झलक ।
सिद्धान्त इस जगतका सर्वथा उत्पाद भी नहीं प्र.-पं० रामस्वरूपशर्मा, चन्दौसी यू. पी.। मानता और प्रलय भी नहीं । जैन-धर्म पर्याय७ हमारा कर्तव्य-प्र०, जैनकुमारसभा, झालरा- रूपसे विश्वको प्रतिक्षण परिवर्तनशील मान कर पाटन छावनी ।
भी द्रव्य-रूपसे इसे अनादि अनन्त और शास्वत ८ संसार और मोक्ष-प्र०, चन्द्रसेनजी जैनवैद्य, स्वीकारता है । इस लिए औरोंकी तरह इसको इटावा।
जगत्कर्तृत्व-धर्मवाली ईश्वरादि व्यक्तिकी कल्पना ९ ज्ञानसूर्योदय-प्र०,मूंगासिंहजी जैन, कायम
करनेकी आवश्यकता नहीं रहती । विश्वके जो गंज (फर्रुखाबाद)। १० हिन्दीजनशिक्षा ( चतुर्थ भाग )-प्र०,
.विविध स्वरूप मनुष्योंको दृष्टि-गोचर हो रहे हैं जैनपुस्तकप्रचारकमण्डल रोशन मुहल्ला, आगरा।
| और होते रहते हैं उनमें मुख्य कारण जीव . ११ सप्तव्यसननिषेध-प्र०, रावत शेरासिंघजी; और जड़की सम्मिलित-शक्ति ही है । इसी नैन स्कूल, बीकानेर ।
शक्तिके प्रभावसे सारे संसारमें प्रतिक्षण परिवर्तन १२ जीवविचार-प्र०, आत्मानन्दजैनपुस्तक. होता रहता है । जैनतत्त्वज्ञोंने इस शक्तिको प्रचारक मण्डल, नौवरा, देहली।
'कर्म ' संज्ञा दी है । कर्महीके कारण जग१३ देवाधिदेवरचना-प्र०, लालगुरुदत्तामल दासी जीव नानाप्रकारके सुख-दुःख प्राप्त करते जैन, पो० कसूर ( लाहौर )।
रहते हैं और स्थल और सक्ष्म जीव-योनियों में १४ भाव आवश्यक-प्र०, पारेख मोहनलाल जन्म-मरण लिया करते हैं। प्राणियोंको शुभाशुभ अमृतलाल, राजकोट ।
कार्यमें प्रवृत्त करानेवाला भी केवल कर्म ही है १५ घृतके व्यापारी और उसके सुधारके उपाय
राय- और किये हुए कृत्यका यथायोग्य फल देनेप्र०, आर. जेठाभाई नं०२१ पोलक स्ट्रीट कलकत्ता। . १६ भारतीय दृश्य-प्र०, विश्वनाथ ठाकुर,
वाला भी कर्म ही है । आत्मा अपने ही किये थैकरस्टोर, मथुरा।
हुए कर्मके प्रभावसे इष्ट पारितोषिक प्राप्त करता १७ श्रीगौतमपृच्छा-पता, मन्नालाल चोपड़ा,
है और उसी कारण अनिष्ट दण्ड भी । स्वर्ग और नरक तथा मोक्ष और संसार, जीव अपने आप ही, कर्मद्वारा प्राप्त करता है। इनकी प्राप्तिमें
रतलाम।
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HAIBAMBABAITIDINAMASum
जैनहितैषी
अन्य किसी व्यक्तिके प्रयत्नकी जरूरत नहीं रहती। आलोचन-प्रत्यालोचन किया है, परन्तु इस कर्मदूसरेकी कृपा प्रसन्नतासे अथवा अरुचि या उदा- वादका किसीने नाम तक भी नहीं लिया । सीनतासे आत्माके हिताहितमें किसी भी प्रकारका जैनधर्मका यह कर्मवाद सर्वथा भिन्न अपूर्व परिवर्तन नहीं हो सकता । जीव अपनी ही और नवीन है। जिस प्रकार जैन बौद्ध और कृतिद्वारा जिन कारणोंको संचित करता है उन्हीं- वैदिक धर्मके अन्यान्य तत्त्वोंका, एक के परिणामों-कार्योंका शुभाशुभ फल, कालान्त- दूसरेके साहित्यमें, प्रतिबिम्ब (छाया) दृष्टिगोचर रमें अनुभव करता है । जगतके नाना धर्मोसे जैन- होता है वैसा इस कर्मवादके विषयमें नहीं प्रतीत धर्म जो सविशेष भिन्न दिखाई देता है वह इसी होता। यद्यपि महान् सिद्धान्तके कारणसे है।
पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति,पापःपापेन। जैन-धर्मका तत्त्वज्ञान 'कर्मवाद ' के मूल
(बृहदारण्यक) सिद्धान्त पर रचा गया है । कर्मवादको जैन- कर्मणो यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः। धर्मका मुद्रालेख मानना चाहिए। जिस प्रकार
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणोगतिः॥ श्रीकृष्णका मुख्य प्रबोध निष्काम कर्मयोग, बुद्ध
(भगवद्गीता ४,७।) देवका समानभाव, पतंजलिका राजयोग और यषा ययानि कमोणि प्राक् सृष्टयाप्रतिपेदिरे शंकराचार्यका ज्ञानयोगको प्रकट करनेके लिए तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाःपुनः पुनः॥ था, वैसे ही श्रमण भगवान् श्रीमहावीरके उपदेशका .
(महाभारत, शान्ति० २३१,४८)
शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसम्भवम् । लक्ष्य-बिन्दु कर्मवादको प्रकाशित करनेका था।
कर्मजा गतयो नृणामुत्तमाधममध्यमाः ॥ महावीर देवने कर्मके कुटिल कार्योंका और
( मनुस्मृति, १२, ३।) कठोर नियमोंका जैसा उद्घाटन किया है वैसा
___ इत्यादि कर्मतत्त्व प्रतिपादक विचार वैदिक औरोंने नहीं। भगवान् महावीरका यह कर्मवाद साहित्यमें और अनुभवगम्य और बुद्धिग्राह्य होने पर भी स्वरूपमें
“कम्मस्स कोमाह कम्मदायादो कम्मअत्यन्त सक्ष्म आर गहन है। इसकी मीमांसा योनि कम्मबन्ध कम्मपरिसरणो. यं कम्म बहुत विकट और रहस्य विशेष गंभीर है। इस करिस्सामि कल्याणं वा पापकं वा तस्स विषयका सम्यगू-अवगाहन करनेके लिए शा- दायादो भविस्सामि।" स्त्रीय ज्ञान-सम्बन्धी योग्यताकी अपेक्षाके सिवा, (अंगुत्तरनिकाय तथा नेत्तिपकरण।) इस तत्त्वके खास अनुभवी ज्ञाताकी भी आवश्यकता 'कम्मना वत्तती लोको कम्मना वत्तती पजा रहती है। केवल पुस्तकके आधार पर मनुष्य कम्मनिबंधना सत्ता रथस्साणीव यायतो॥ इसके स्वरूपसे यथार्थ परिचित नहीं हो सकता,
(सुत्तनिपात, वासेठ सुत्त, ६१।) यही कारण है कि बहुतसे विद्वान् जैनधर्मके इस प्रकार कर्म-सत्ताको प्रदर्शित करनेवाले सामान्य और कुछ विशेष सिद्धान्तोंको जानते उद्गार बौद्ध-साहित्यमें अवश्य उपलब्ध होते हैं; हुए भी कर्मवादके विचारोंसे सर्वथा अपरिचित होते परन्तु जैन-धर्मके कार्मिक विचारोंके साथ इनका हैं । हमारे इस कथनकी सत्यताके प्रमाणमें, यह कोई साम्य नहीं। भगवान् महावीरके कार्मिक बात कही जा सकती है कि आजपर्यंत अनेक विचार श्रीकृष्ण और बुद्धदेवके विचारोंसे सर्वथा नैनेतर विद्वानोने,जैनधर्मके भिन्न भिन्न विचारोंका भिन्न स्वरूप रखते हैं। .
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SHALIMILIATIALAMITRALIAMOHAARAAOTOBOARD
जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य ।
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कितने एक आधुनिक विद्वानोंके ऐसे विचार कराल गालोंमें विलीन होते होते भी जो कुछ दृष्टिगोचर होते हैं कि “ जैनधर्म और बौद्ध- अत्यल्प भाग, जैनधर्मके इस कर्मवादविषयक धर्म कोई स्वतंत्र मत नहीं है, परन्तु वैदिकधर्मही- साहित्यका उपलब्ध है उसका ठीक ठीक अवके भेद विशेष हैं । ये दोनों धर्म वैदिक धर्महकि लोकन करनेसे हमारे इस कथनकी सत्यताका अपने पिताके समीपसे अपनी आवश्यकताके अनुभव हो सकता है । जो कुछ कार्मिक-साअनुसार विचार-संपत्तिका हिस्सा लेकर किसी हित्य इस समय विद्यमान है वह भी इतना विशाल कारणवश जुदा निकले हुए पुत्र समान हैं, है कि उसका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके अर्थात् ये धर्म परकीय--भिन्न जातीय न हो कर लिए मनुष्यको अपने आयुष्यका बहुत बड़ा इनके पूर्ववर्ती ब्राह्मणधर्महीकी पृथक्-भूत शाखायें भाग लगाना पड़ता है । ऐसी दशामें, जैनधर्मके हैं। "* इन विचारोंकी विशेष मीमांसा करनेका विचारों-सिद्धान्तोंका मूलस्थान वैदिक धर्म यह प्रसंग नहीं है। यहाँ हम केवल इतना ही कह है, यह कथन कैसे युक्ति-युक्त माना जा कर आगे बढ़ते हैं कि ये विचार जैनसिद्धान्तोंका सकता है ? सम्यग अभ्यास-विशेषावलोकन-किये बिना ही कछ वर्ष पहले तो लोग जैनधर्मसे, बहुत प्रदर्शित किये गये हैं,-अतएव इनमें सत्यकी मात्रा ही अनभिज्ञ थे; परन्तु पाश्चात्य पंडितोंके बहुत कम है । जनधर्मके स्याद्वाद, जीववाद, प्रशंसनीय प्रयाससे अब वह दशा नहीं रही। कर्मवाद, आर परमाणुवाद आदि अनेक प्रौढ अब बहतसे विद्वान् जनधर्मके स्वरूपको जानते विचार-तत्त्व हैं जिनका वैदिक-साहित्यमें कहीं पर हैं और जाननेका प्रयत्न करने लगे हैं। कई विद्वान् आभास भी दृष्टिगोचर नहीं होता। यदि जैनधर्मके जैनधर्मविषयक साहित्य, इतिहास और तत्त्वसिद्धान्तोंका मूलस्थान वैदिकधर्म माना जाय, ज्ञानका आलोचन-प्रत्यालोचन करने लगे हैं। तो भगवन्महावीर प्रतिपादित जैनतत्त्वोंका मूल कितनी ही देश-विदेशस्थ प्राचीन साहित्य-प्रकास्वरूप वादकसाहित्यम अवश्य उपलब्ध हाना शक संस्थाओंकी ओरसे तथा स्वयं जैन-समाचाहिए; पर वहाँ उसका कोई चिह्न नहीं मिलता। जकी ओरसे भी, जैनधर्मके कितने ही प्राचीन जैनधर्मके उपर्युक्त अनेक वादोंको छोड़ कर केवल ग्रंथ प्रकाशित हो गये हैं और दिन प्रतिदिन अकेले कर्मवादहीको लेकर विचार किया जाय, विशेषतया होने लगे हैं। इससे यद्यपि अब जैनजो इस लेखका उद्दिष्ट विषय है, तो प्रतीत होगा धर्म और जनसाहित्यके ऊपर बहुत कुछ प्रकाश कि जो कर्मवादविषयक साहित्य जनसमाजमें पता जाता है और जैनेतर विदानोंकी प्रीति विद्यमान है और उसमें कर्मसंबंधी जिन हजारों भी जैनधर्मकी ओर बढ़ रही है तथापि महावीरविचारोंका संग्रह है उसके एक भी अंश या देवका मख्य सिद्धान्त जो कर्मवाद है उसकी विचारका साम्य कर सके ऐसा कोई उल्लेख वैदि- ओर अभीतक विद्वानोंका चित्त आकर्षित नहीं क साहित्यमें नजर नहीं आता । हजारों वर्षोंके हआ। कारण यह है कि एक तो यह विषय ही प्रचंड आघात-प्रत्याघातोंके कारण कलिकालके गहन और कठिन है, दूसरा इस विषयके साहित्य
* देखो, लो० श्रीयुत बालगंगाधर तिलक रचित का विद्वानोंको परिचय भी बहुत थोडा है। कर्म'भगवद्गीता-रहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र' (पृष्ठ वादका निरूपण करनेवाला कितना साहित्य ५६६)-लेखक ।
विद्यमान है और किन किन ग्रंथों में इसका
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जैनहितैषी -
मुख्य विवेचन किया गया है, यह बात बहुत कम विद्वान् जानते हैं । इस लिए यहाँ पर हम उन ग्रंथों का संक्षिप्ततया उल्लेख करते हैं जिनमें केवल कर्मसम्बन्धी ही विचारोंका विवेचन किया गया है। इससे सर्वसाधारणको इस विषयकी विशालताका भी अनुभव होगा और जो कोई इसका अभ्यास करना चाहेंगे उन्हें तत्तद् ग्रंथोंकी प्राप्तिमें भी सुगमता होगी ।
जैनधर्म के प्राचीन ग्रंथोंमें लिखा है कि श्रमण भगवान् श्रीमहावीरदेवने भिन्न भिन्न स्थल और समय में कर्मतत्त्व के विषयमें जो उपदेश दिया था, उसे उनके गणधरोंने-गौतमादि प्रधान शिष्योंनेएकत्र संगृहीत किया था । इस संग्रहका नाम विषयानुसार 'कर्मप्रवाद' रक्खा था । ' कर्मप्रवाद' शब्दका तात्पर्य व्याख्याताओंने इस प्रकार लिखा है
“कर्म ज्ञानावरणीयादिकमष्टप्रकारं तत्प्रकर्षेण प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशादिभेदैः सप्रपञ्चं वदतीति कर्मप्रवादम् । ” ( नन्दीसूत्र, मलयगिरिसूरि । )
अथवा
" बन्धोदयोपशमनिर्जरा पर्याया अनुभवप्रदेशाधिकरणानि स्थितिश्च जघन्यमध्यमोत्कृष्टा यत्र निर्दिश्यते तत्कर्मप्रवादम् । ( तत्त्वार्थराजवा - र्तिक, भट्टाकलङ्कदेव ! )
अर्थात् जिसमें ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मों के स्वभाव और काल आदि भेदोंका सविस्तर वर्णन किया गया हो, या कर्मसम्बन्धी बंधन और उदयादिका स्वरूप तथा सत्ताका जिसमें विवेचन किया गया हो, उसे 'कर्मप्रवाद' कहते हैं । यह कर्मप्रवाद बहुत विशाल था । इसका अध्ययन साधारण बुद्धिवाले मनुष्योंके लिए अशक्य था । अतिशयप्रज्ञावान् मुनि ही इसमें प्रवेश पा सकता था । इस लिए इस संग्रह
की गणना पूर्वो के ज्ञानमें की जाती थी । पूर्वीय ज्ञानको धारण करनेवाले मुनि श्रुतकेबली कहे जाते थे । अर्थात् इस कर्मप्रवादका जो पूर्ण ज्ञाता होता था वह ' सर्वज्ञतुल्य समझा जाता था । श्रमण भगवान् श्रीमहावीरदेवके अनेक श्रमण शिष्य इस 'कर्मप्रवाद' के पारदृष्टा थे । भगवान्के निर्वाणके बाद भी कई आचार्य इसका यथेष्ट ज्ञान रखते थे । परन्तु भारतकी मध्यकालीन राजकीय और सामाजिक परिस्थितियोंके विषमसंयोगों के कारण, भारतके अन्यान्य महान शास्त्रोंकी तरह यह 'कर्मप्रवाद' पूर्व भी, महावीरदेव के कुछ ही सौ वर्ष बाद, नष्ट हो गया। आज इसमें का कुछ भी प्रकरण या अंश विद्यमान नहीं है।
इस ' कर्मप्रवाद' के सिवा एक और दूसरे अग्रायणी नामके पूर्व में भी, जो विस्तारमें इससे छोटा था, कर्मतत्त्व विषयक विचारोंका विवेचन वाला 'कमप्रीभृत' नामका एक विभाग था । ' कर्मप्रवाद' के नष्ट हुए बाद इसी 'कर्मप्राभृत' के आधार पर कर्मसम्बन्धी मीमांसाका अध्ययन अध्यापन किया जाता था । इस प्राभृतके किसी किसी अंशको लेकर, उस समय के श्रमणाधिपने अल्पबुद्धि वाले जिज्ञासुओंके उपकारार्थ स्वतंत्र रूपसे कितने ही संक्षिप्त 'प्रकरण ग्रंथ' लिखे थे ! कालांतर में यह कर्मप्राभूतभी सारे पूर्वके साथ नष्ट हो गया; परंतु इसमेंसे उद्धृत किये गये प्रकरण-ग्रंथ संक्षिप्त और सरल होनेसे श्रमणसंवमें विद्यमान रह गये । वर्तमान कालमें जो कुछ कर्मतत्त्व विषयक साहित्य विद्यमान है वहीं प्रकरण-ग्रंथों का बना हुआ है। पिछले आचार्योंने संप्रदायप्राप्त शिक्षण और स्वानुभव ज्ञानके आधारसे, इन्हीं ग्रंथोंको व्याख्या विवरणादिसे अलंकृत कर इस साहित्यको यथाशक्ति पल्लवित किया है । यद्यपि विद्यमान साहित्य पूर्वकी अपे
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• जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य |
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क्षा नहीं के बराबर है, तथापि आजकल के मनुष्योंके लिए तो यह भी दुरवगाह्य हो रहा है जैन साहित्य मुख्य दो विभागों में विभक्त है श्वेताम्बर और दिगम्बर नामके दोनों संप्रदायों का साहित्य भिन्न भिन्न है । दोनों प्रकार के साहित्यमें कर्मविषयक साहित्यके बड़े प्रौढ और महान् ग्रंथ विद्यमान हैं । श्वेताम्बर संप्रदाय के बहुतसे महत्व के ग्रंथ तो छप कर प्रकट भी हो चुके हैं । यहाँपर हम श्वेताम्बरीय कर्म- साहित्यके प्रधान प्रधान ग्रन्थोंका संक्षेपमें उल्लेख करते हैं जिससे विद्वानोंको इस विषयका अवलोकन कर नेर्भे सुगमता होगी ।
यों तो भगवती, प्रज्ञापना, लोकप्रकाश आदि अनेक ग्रंथोंमें इस विषयका बहुत कुछ उल्लेख है। परंतु जिनमें केवल कर्मविषयक ही वर्णन किया गया हो वैसे मुख्य ग्रंथ निम्नलिखित हैं:
१ - कम्मप्पयड़ी ( कर्मप्रकृति ) श्वेताम्बरीय कर्मसाहित्य में कम्पप्पयडीका प्रथम नाम है | यह ग्रन्थ प्राकृत भाषा में गाथा ( आर्या ) नामक छन्दोंमें बना हुआ है । इसकी कुल गाथायें ४७५ हैं । इसके निर्माता श्री शिवशर्म नामके आचार्य हैं। ये आचार्य कब हुए, इसका निश्चायक प्रमाण अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हुआ । केवल इतना जाना गया है कि ये आचार्य पूर्वधर या पूर्वीय ज्ञानको धारण करनेवाले थे । यह बात इनके बनाये हुए ग्रंथांसे जानी जाती है । इसी कम्मप्पयडीके अन्त में एक गाथा है जिसमें लिखा है कि* इय कम्मप्पयडीओ जहसुयं नीयमप्पमइणा वि । सोहियणाभोगक कहंतुवर दिडिवायन्नू ॥ ४७४ ॥
* इति कर्मप्रकृतितो यथाश्रुतं नीतमल्पमतिनाऽपि । शोधयित्वाऽनाभोगकृतं कथयन्तु वरदृष्टिवादज्ञाः ॥
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अर्थ - (ग्रंथकार शिवशर्मसूरि कहते हैं कि ) इस प्रकार यह विचार - अल्पमतिवाले ऐसे मैंने जैसा सुना था वैसा कर्मप्रकृतिसे लिया - बनाया है । दृष्टिवादके ज्ञाता ऐसे श्रेष्ठपुरुषोंको यदि, इसमें कही स्खलना दिखाई दे तो उसे शुद्ध कर, औरोंके प्रति कहें - पढ़ावें । इस गाथामेंसे तात्पर्य यह निकला कि यह ग्रंथ शिवशर्मसूरिने कर्म प्रकृति नामक किसी शास्त्रीय विभाग में से उद्धृत किया हैं । कम्मप्पयडीमेंसे उद्धृत किया जाने इस ग्रंथका नाम भी कम्मप्पयडी पड़ गया है । अच्छा तो अब यह कम्मप्पडी क्या चीज है सो देखें । व्याख्याकारोंने इस शब्दकी व्याख्या इस प्रकार की है—
“ – दृष्टिवादे हि चतुर्दशपूर्वाणि । तत्र च द्वितीयेऽग्रायणीयाभिधानेऽनेक वस्तुसमन्विते पूर्वे पञ्चमं वस्तु विंशतिप्राभृतपरिमाणम् । तत्र कर्मप्रकृत्याख्यं चतुर्थं प्राभृतं चतुर्विंशत्यनुयोगद्वारमयम् । तस्मादिदं प्रकरणं नीतमाकृष्टमित्यर्थः । ” ( मलयगिरिसूरिः । )
I
तात्पर्य यह है कि अग्रायणीनामके दूसरे पूर्वमें पाँच वस्तु ( पदार्थनिरूपण ) हैं, जिनमें पाँचवाँ वस्तु बीस प्राभृतों ( प्रकरणों - अध्यायों) बना हुआ है । इन प्राभृतों में कर्मप्रकृति नामका चौथा प्राभृत हैं जिसमें कर्मतत्त्वका निरूपण है । इसी कर्मप्राभृत ( कर्मप्रकृति ) में - से इस ग्रंथका भाव लिया गया है और उसे गाथाओं में गुंथन कर यह कर्म्मप्रकृति प्रकरण बनाया गया है । इस कथन से यह सिद्ध होता है कि शिवशर्म सूरि दूसरे पूर्वके ज्ञाता थे । पूर्वोके ज्ञानका सर्वथा अभाव महावीरदेवकी १० वीं शताब्दी के अन्तमें अर्थात् विक्रम की ६ ठी शताब्दी में हुआ था, ऐसा पुराने
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जैनाहितैषीmmmmmmmmmmmmm
ग्रंथोंमें लिखा है । * इस दृष्टि से इस ग्रंथके कर्ता देख कर अनुमान किया जाता है कि विक्रम विक्रमकी ६ ठी शताब्दीके पूर्व हुए होंगे ऐसा की ९ वीं शताब्दीमें यह बनाई होगी। सुप्रसिद्ध सिद्ध होता है । इस बातके सिवा और कोई व्याख्याकार श्रीमलयगिरि सूरिकी बनाई हुई प्रथम ऐतिहासिक उल्लेख इनके विषयमें नहीं मिलता। टीका है जो इसके रहस्योंको अच्छी तरह उद्घाटन इस ग्रंथपर एक पुरानी चूर्णि बनी हुई है जिसकी करती है । इसकी श्लोकसंख्या ८००० प्रमाण श्लोकसंख्या कोई ७००० प्रमाण है । यह कुछ है। दूसरी टीका महोपाध्याय श्रीयशोविजयजीकी प्राकृत और कुछ संस्कृतमें है । इसके कर्ताका की हुई है । यह बहुत बड़ी और महत्त्ववाली नाम और समयादि अज्ञात हैं। परंतु रचनाको है। यह चूर्णि और मलयगिरि-व्याख्याको सम
न्वित करती है और ग्रंथके रहस्योंका मार्मिक* इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार और हरिवंशपुराण तया निरूपण करती है । इसकी श्लोकसंख्या आदिके अनुसार महावीरनिर्वाणके ६८३ वर्षतक १३ हजारके लगभग है। इन व्याख्याओंके सिवा अंगज्ञानकी प्रवृत्ति रही है । अन्तिम अंगज्ञानी लोहा
। मुनिचंद्रसूरि ( १२ वीं शताब्दी ) का एक चाये हुए। उनके बाद विनयंधर, श्रदित्त, शिवदत्त और अर्हद्दत्त ये चार मुनि 'अंगपूर्वदेशधर' अर्थात् अंग
संक्षिप्त टिप्पण भी मिलता है। पूर्वज्ञानके एक भागके ज्ञाता हए । एक जगह लिखा इस ग्रथम कर्मसम्बन्धी, बंधन. संक्रमण. है कि ये चारों ११८ वर्षमें हुए। यदि वह सच हो उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा, उपशमना, निधत्ति तो वीरनिर्वाणकी आठवीं शताब्दिके अन्ततक अर्ह. और निकाचित इन आठ करणोंका तथा उदय इत्त आचार्य रहे । उनके बाद अर्हद्वलि आचार्य हुए। और सत्ता तत्त्वोंका अपूर्व और सूक्ष्म रूपसे ये 'अंगपूर्वदेशैकदेशवित् ' अर्थात् उस एक भागके विवेचन किया गया है। भी एक अंशके जानकार हुए। इनके स्वर्गवासी होनेपर माघनन्दि आचार्य हुए। ये भी उतने ही ज्ञानके
२-पंचसंग्रह। धारक थे । माघनन्दि जब स्वर्गगामी हो गये तब कमेविषयक-ग्रंथों में दूसरा नंबर पंचसंग्रहका गिरिनारके निकट धरसेन नामके आचार्य हुए। इन्हें है। इसके रचयिता श्रीचंद्रर्षि महत्तर हैं । ये कब अप्रायणी पूर्वके पांचवें वस्तुके चौथे कर्मप्राभृतका हुए, इसका विशेष निर्णय अभी तक नहीं किया ज्ञान था। उन्होंने भूतबालि और पुष्पदन्त नामके गया । तथापि इनके नामके साथ जो ‘महत्तर मुनियोंको पढ़ाया और तब उन्होंने कर्मप्रकृति प्राभृ- का विशेषण लगा हुआ है उससे वि० की ७ वीं तकी रचना की। इनके बाद गुणधर आचार्य हुए शताब्दीके आसपास होनेका अनुमान किया जिन्हें पांचवें ज्ञानप्रवादपूर्वके दशवं वस्तुके तीसरे कषाय- जाय तो असंभव नहीं होगा। चर्णिकार श्रीजिप्राभतका ज्ञान था । यद्यपि श्रुतावतारमें स्पष्ट शब्दोंमें नहीं लिखा है कि इनके बाद और कब तक पूर्वका
- नदास महत्तर और गोवालिय महत्तर आदि ज्ञान रहा, तो भी ऐसा मालूम होता है कि गुणधर आचार्याका इसी समयके लगभग होनेका प्रमाण, आचार्यके बाद ही इसका लोप हो गया होगा। यदि मिलता है, इस लिए पंचसंग्रहकार भी इसी समअर्हद्दत्तके वाद इन सब आचार्योके होनेमें २०० वर्षका यमें होने चाहिए। यह ग्रंथ कम्मप्पयडीकी अपेक्षा समय मान लिया जाय, तो दिगम्बर सम्प्रदायके मत- बड़ा है । इसकी मूल गाथायें ९६३ हैं । इस से भी वीरनिर्वाणकी दशवीं शताब्दि तक पूर्वज्ञान- पर स्वोपज्ञ ( स्वयं ग्रंथकारकी बनाई हुई ) वृत्ति की परम्पराके अस्तित्वका निश्चय होता है।
है जिसका प्रमाण ९ हजार 8 ह टीका --सम्पादक। सर्वत्र नहीं मिलती। पाटनके प्राचीन-भाण्डागारमें
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जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य |
इसकी एक प्रति ताड़पत्रकी है; अन्यत्र देखने में नहीं आती । सर्वत्र सुलभ और विशेष प्रचलित टीका श्रीमलयगिरिसूरिकी बनाई हुई है । यह का बहुत बड़ी है । इसका ग्रंथप्रमाण १९००० श्लोक है । इसकी रचना बहुत सरल और स्पष्ट है । इसके सिवा, जिनेश्वरसूरिके शिष्य रामदेव ( वि० १२ वीं शताब्दीका पूर्वार्ध ) का बनाया हुआ संक्षिप्त टिप्पण भी कहीं कहीं दृष्टिगोचर होता है ।
इस ग्रंथका नाम पंचसंग्रह होने में दो कारण हैं । एक तो इसके अंदर शतक, सप्ततिका, कषायप्राभृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति इन पाँच ग्रंथों का संग्रह होनेसे यह पंचसंग्रह कहा जाता है। दूसरे, इसमें योगोपयोगमार्गणा, बंधक, बद्धव्य, बन्धहेतु और बन्धविधि इन पाँच अर्थाधिकारों-प्रकरणों का समावेश है । इससे भी पंचसंग्रह कहा जाता है । पाँच अर्थाधिकारों से प्रथम योगोपयोगमार्गणाधिकारमें, जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा - स्थान द्वारा प्राणियों की प्रवृत्ति और ज्ञानशक्तिका वर्णन किया गया है । दूसरे बन्धकाधिकारमें, कर्म बाँधनेवाले जीवोंके भिन्न भिन्न स्वरूप और उनके भेद दिखाये गये हैं । बद्धव्यप्रकरण में जीवके बाँधने योग्य कर्मपुद्गलोंका स्वरूप निर्दिष्ट है। चौथे बंधहेतुनामक अधिकारमें कर्मबंधन के हेतुभूत मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगों का विवेचन है । पाँचवाँ बंधविधि नामका प्रकरण बहुत बड़ा है । सारे ग्रंथका लगभग आधा भाग इसने रोका है। इसमें कर्म - बंध विधानोंका अनेक प्रकारसे उल्लेख किया गया है । कर्मप्रकृतिके अनेक भंगजालोंका इसमें आश्चर्योत्पादक निरूपण है ।
३ - प्राचीन कर्मग्रंथपंचक | १ कर्मविपाक, २ कर्मस्तव, ३ बंधस्वामित्व, ४ षडशीति और ५ शतक इन पाँच ग्रंथोंका,
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सामान्यतया 'कर्मग्रंथ ' ही के नामसे उल्लेख किया जाता है । इन्हीं ग्रंथोंके नाम और विषयानुसार देवेन्द्रसूरिने पीछसे पाँच ग्रंथ नये बनाये हैं इस लिए ये प्राचीन कर्मग्रंथ कहे जाते हैं । इनके कर्ता भिन्न भिन्न आचार्य हैं जो जुदा जुदा समयमें हो गये हैं । इन पाँचोंके विषय पृथक् पृथक् हैं । कर्मतत्त्वविषयका अभ्यास करनेवालेको प्रथम इन ग्रंथोंका क्रमसे अध्ययन करना चाहिए । इन पाँचों कर्म ग्रंथोंपर जुदा जुदा विद्वानोंके बनाये हुए अनेक भाष्य, चूर्णि, टीका, टिप्पण और विवरण विद्यमान हैं जिनका विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाय तो केवल उनके नाम मात्रका उल्लेख करते हैं । एक छोटीसी पुस्तक बन जाय । हम यहाँ पर
१ - इन ग्रन्थोंमेंसे प्रथम कर्मविपाक नामक ग्रंथकर्ता श्रीगर्षि नामके आचार्य हैं जो सुप्रसिद्ध कथा उपमितिभवप्रपंचाके रचयिता सिद्धर्षिके दीक्षागुरु थे । इस पर परमानंदसूरिकी टीका और उदयप्रभका टिप्पण बना हुआ है 1
२ - कर्मस्तव नामके दूसरे कर्मग्रंथके कर्ताका नाम उपलब्ध नहीं होता । इस पर एक गोविन्दाचार्यकी और दूसरी हरिभद्र ( १३ वीं शताब्दी ) की टीका मिलती है । सिवा एक पुरातन प्राकृत भाष्य और उदय-प्रभका टिप्पण भी देखने में आता है ।
३- तीसरे ग्रंथ के कर्ताका नाम भी ज्ञात नहीं है । इस पर केवल एक हरिभद्रसूरिकी टीका मिलती है और कुछ नहीं । इसका विशेष साहित्य नष्ट हो गया । नवीन बंधस्वामित्वके रचयिता श्रीदेवेन्द्रसूरि को भी इसका विशेष प्रस्फोटन न मिलने से वे अपने ग्रंथ पर विस्तृत टीका नहीं लिख सके, जैसी और ४ ग्रंथों पर लिखी है ।
४ - षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रंथ के बनानेवाले श्रीजिनवल्लभसूरि हैं जो बहुत करके नवांगवृत्ति
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नैनहितैषी-.
कार श्रीअभयदेवसूरिके शिष्य थे। इस ग्रंथका मूल कैसे कर्म उपार्जन कर सकता है और उनसे नाम तो 'आगमिक-वस्तुविचारसार' है; परन्तु किस प्रकार छुटकारा पा सकता है, इत्यादि संख्या ( इसकी मूल गाथायें ८६ हैं) के कारण समग्र विषयोंका अनुपम और अतिस्फुट वर्णन यह षडशीतिके नामसे विशेष प्रसिद्ध है। इस किया गया है । पर हरिभद्र, रामदेव, मलयगिरि और यशोदेव ५-सत्तरि ( सप्ततिका)। इस प्रकार ४ आचार्योंकी टीकायें हैं । इनके अतिरिक्त भाष्य, विवरण, अवचूरि और उद्धार
यह ६ ठा कर्मग्रंथ कहा जाता है । उपर्युक्त
" प्राचीन अथवा नवीन पाँचों ग्रंथोंका क्रमपूर्वक आदि संक्षिप्त प्रबंध भी उपलब्ध होते हैं।
५-शतकके कर्ता वही शिवशर्मसरि हैं जो अध्ययन किये बाद इसका अध्ययन किया कम्मप्पयडीके कर्ता हैं । यह ग्रंथ भी कम्मप
जाता है। इसका कोई विशेष नाम न होनेसे यडीके सदृश अग्रायणी नामके दूसरे पूर्वके ।
गाथाओंकी संख्या (७०) परहीसे इसका उक्त कर्मप्राभूतमेंसे उद्धृत किया हुआ है । न
नाम प्रसिद्ध है । इसके बनानेवाले पंचसंग्रहइस पर प्राचीन भाष्य और विस्तत चर्णिके कार श्रीचंद्रर्षि महत्तर हैं । इस पर सूत्रकारकी अतिरिक्त मलधारि हेमचंद्रसूरिकी विस्तृत टीका,
- निजकी ( स्वोपज्ञ ) वृत्ति है जो प्राकृतभाषामें उदयप्रभका प्पिण और गणरत्नसरिकी अवचरि है। दूसरा टाका श्रामलयागारसारका का हर्ड भी विद्यमान है।
है जो अच्छी सरल और विस्तृत है। मूलके ४-नवीन कर्मग्रंथपंचक।
अर्थोंका अनुसंधान करनेवाला नवांगवृत्तिकार
___ श्रीअभयदेवसूरिका प्राकृत भाष्य और उस पर ऊपर जिन प्राचीन कर्मग्रंथोंका वर्णन किया मेरुतंगसरिका संस्कृत विवेचन इस ग्रंथके गया है, उन्हींके नाम पर श्रीदेवेन्द्रसूरिने, विषयोंको विशेष स्फुट करता है। इनके अतिविक्रम संवत् १३०० के लगभग, पाँच नवीन रिक्त रामदेवका टिप्पण और गुणरत्नसूरिकी ग्रंथ बनाये हैं। इनमें विषय भी वही है जो अवचरि भी लपलब्ध होती है । प्राचीनोंमें हैं। इन ग्रंथोंके कर्ताने अपनी निज
६-सार्द्धशतक । की टीकासे विभूषित कर, ग्रंथोंकी उपादेयतामें वृद्धि की है। यह टीका बहुत सरल स्पष्ट और
इसका मूल नाम ‘सूक्ष्मार्थविचारसार ' विस्तृत है। इसमें पूर्वापरके संबंधोंका अनसन्धान है, परंतु ऊपरके कितने एक ग्रंथोंकी तरह इसका बड़ी उत्तमतासे किया है। आज कल विशेष
. भी नाम गाथाओंकी संख्याका सूचक पड़ गया पठन पाठन इन्हीं ग्रंथोंका प्रचलित है। इन पर है
है। इसके कर्ता जिनवल्लभसूरि हैं। इस पर एक पिछले विद्वानोंने, गुजराती भाषामें अनेक विस्तृत ह
- हरिभद्रकी और दूसरी धनेश्वरसूरिकी टीका विवेचन लिखे हैं जिससे संस्कृतानभिज्ञ भी इन मिलता है ।
मिलती है। मुनिचंद्रसूरिकी चूर्णि तथा एक ग्रंथोंका अच्छी तरह परिशीलन कर सकता है। भाष्य और टिप्पण भी प्राप्त होता है। ___ इन पाँचों ग्रंथोंमें, कर्मोके भिन्न भिन्न स्वरूप, ७-संस्कृत कर्मग्रंथचतुष्क । उनके पृथक् पृथक् स्वभाव, अवान्तर भेदोपभेद, ऊपरके सब ग्रंथ मूल प्राकृतमें हैं, पर इनकी बंधनप्रकार, जीवके साथ बंधे हुए कर्मपुद्गलोंका रचना संस्कृतमेंकी गई है । इन चारों ग्रंथोंके स्थिति काल, कर्मबंधनके कारण कौन जीव नाम कमसे ये हैं-१ प्रकृतिविच्छेद, २ सूक्ष्मा
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जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य ।
र्थसंग्रह, ३ प्रकृतिस्वरूपनिरूपण और ४ बंधस्वामित्व । इनके रचयिता आगमिक श्रीजयतिलकसूरि हैं जो विक्रमकी १५ वीं शताब्दीमें विद्यमान थे । इन ग्रन्थोंपर टीका-टिप्पण कुछ नहीं हुआ ।
इन ग्रंथोंके सिवा और छोटे छोटे बहुत से प्रकरण हैं; परंतु " हस्तिपदे सर्वे पादा निमग्नाः " न्यायानुसार उनमें सर्व विषयोंका, इन ग्रंथोंमें समावेश हो जानेसे, हम उनका उल्लेख नहीं करते और करनेका स्थल भी नहीं है ।
इस प्रकार श्वेताम्बर - साहित्य में कर्मविषयक ग्रंथ प्रसिद्ध और उपलब्ध हैं । इन ग्रंथोंकी कुलश्लोकसंख्या सवालाख के लगभग होगी । इतना ही साहित्य दिगम्बर - संप्रदायका भी है। गोम्मटसार आदि बड़े बड़े ग्रंथ दिगम्बर वाङ्मकी शोभा बढ़ा रहे हैं; परंतु हमको उन ग्रंथोंका विशेष हाल मालूम न होनेके कारण यहाँ पर उल्लेख नहीं किया जासका । कोई ज्ञाता उन ग्रंथोंकी क्रमवार सूची प्रकट करनेका प्रयत्न करेगा तो अवश्य प्रशंसाका पात्र गिना जायगा * । श्वेताम्बरीय कर्मग्रंथों में से बहुत * दिगम्बर सम्प्रदायके साहित्यमें जो कर्मविषयक अनेक ग्रन्थ हैं उनमेंसे कुछका परिचय नीचे कराया जाता है
ग्रंथ
१ महाकर्मप्रकृतिप्राभृत - इस ग्रन्थका परि चय इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में मिलता है । इसके छह खण्ड हैं, इसलिए इसे षट्खण्ड शास्त्र भी कहते हैं । इसके प्रारंभका कुछ भाग ( केवल १०० सूत्र ) आचार्य पुष्पदन्तका बनाया हुआ है और शेष भूतबलि आचार्यका । इसके जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्त्व और भाववेदना ये पाँच खण्ड छह हजार श्लोक प्रमाण हैं और छट्ठा महाबन्धखण्ड तीस हजार श्लोकोंमें है। इस तरह यह सम्पूर्ण प्रन्थ लगभग ३६ हजार श्लोकों का है ।
इस महान् ग्रन्थकी कई बड़ी बड़ी टीकायें हैं । एक टीका कुण्डकुन्दपुर निवासी पद्मनन्दि ( कुन्द
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छप गये हैं परंतु दिगम्बर साहित्यका इस विषयका गोम्मटसारको छोड़कर एक भी ग्रंथ अभी तक प्रकट नहीं हुआ । इस लिए तत्त्वरसिक और धर्मप्रेमी दिगम्बर बंधुओंका कर्तव्य है कि वे इस विषयसाहित्यको प्रकट करनेका विशेष उद्यम करें। कर्मतत्त्व के विषयमें दोनों संप्रदायोंका समान मत है । इसमें किसी प्रकारका विचारभेद नहीं है । इस लिए दोनों संप्रदायोंके विद्वाकुन्द ) आचार्य की है जो १२ हजार श्लोक प्रमाण है । यह केवल प्रारंभके तीन खण्डोकी है और प्राकृत भाषा में है ।
दूसरी टीका शामकुण्ड नामक आचार्यकी है । इसमें छद्रे महाबन्ध खण्डकी टीका नहीं की गई है। यह टीका लगभग छः हजार श्लोकोंमें है ।
तीसरी चूड़ामणि नामकी टीका तुम्बुलूराचाकी रची हुई है । यह प्राचीन कनड़ी भाषा में है और ५४ हजार श्लोकोंमें है । इसमें भी छहा महाबन्धा खण्ड छोड़ दिया गया है । छठे खण्ड पर इन्हीं आचार्यने एक जुदी ही पञ्जिका टीका बनाई है जो ७ हजार श्लोकों में है।
चौथी टीका तार्किकसूर्य समन्तभद्राचार्यकी बनाई हुई है । यह आनन्द नामक नगर में रची गई थी । यह भी पहले पाँच खण्डोंकी है और 'अतिसुन्दर मृदुसंस्कृत' में लिखी गई है । इसकी श्लोकसंख्या ४८ हजार श्लोक है ।
व्याख्याप्रज्ञप्ति नामकी पाँचवीं टीका वप्पदेवगुरुकी बनाई हुई है । यह प्राकृत भाषामें है । यह दोनों प्राभृतोंकी ( कर्मप्राभृत और कषाय प्राभृतकी) संयुक्त टीका है और १४ हजार श्लोक प्रमाण है । इसमें से छट्ठे महाबन्ध खण्डकी श्लोकसंख्या आठ हजार है । इसकी रचना भीमरथी और कृष्णमेणा नामकी नदियों के बीच में बसे हुए उत्कलिका नामक ग्रामके समीप अगणबल्ली नामके ग्राममें हुई थी ।
छट्ठी टीकाका नाम धवला है । यह प्राकृत, संस्कृत और कनड़ीभाषामिश्रित टीका । इसकी श्लोकसंख्या ७२ हजार है । इसे आचार्य जिनसेनके
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नोंको चाहिए कि वे परस्पर एक दूसरेके ग्रंथों- उसकी उपपत्ति पूछता है । इस लिए हमें अपने का विचारपूर्वक परिशीलन करें और उनमें सैद्धान्तिक विचारोंको बुद्धिगम्य बनानेके जो कुछ विशेषता दृष्टिगोचर हो उसका पृथ- लिए उनका नवीन पद्धतिसे विचार और विवेक्करण करें। अब हमें अपने स्वाध्याय और चन करना चाहिए। इस पद्धतिका नाम तुलपठनपाठनकी पुरानी पद्धतिका परिवर्तन करना नात्मक-पद्धत्ति है । विद्वान लोक प्रत्येक धर्मके चाहिए। संसार अब धार्मिक और तात्त्विक सिद्धान्तोंकी, एक दूसरेके सिद्धान्तोंके साथ विचारोंको अन्य दृष्टि से देख रहा है । जगत- तुलना करते हैं और किसमें कितनी विशिष्टता में श्रद्धाका साम्राज्य बहुत कुछ नष्ट हो गया और सत्यता है यह ढूंढ़ निकालनेका प्रयत्न है और उसके स्थान पर बुद्धिका प्राबल्य बढ़ करते हैं । हम अपने जैनधर्मके सिद्धान्तोका रहा है । अब प्रत्येक विचारक किसी विचारकी विशिष्टत्व, उसके सहोदर वैदिक और बौद्ध, सत्यताको श्रद्धेयतया न मान कर बुद्धिपूर्वक
बटिक धर्मके सिद्धान्तोंके साथ तुलना किये विना
६० हजार श्लोककों की है । छठी टीका ६० हजार गुरु वीरसेनने माटग्रामके आनतेन्द्रके बनवाये हुए
श्लोकोंकी वीरसेन और जिनसेन स्वामीकृत है। इसे जिनमन्दिर में बैठकर विक्रम संवत् ९०५ के लगमग
जयधवला कहते हैं । यह प्राकृत-संस्कृत-कर्नाटक बनाया है।
भाषामिश्रित है। २कषायप्राभृत--पाँचवें ज्ञानप्रवाद नामक, ये सब ग्रन्थ और टीकायें अलभ्य नहीं, पर पूर्वके दश भाग हैं जिन्हें वस्तु कहते हैं। दशवें वस्तुके दुर्लभ्य अवश्य हैं। दिगम्बरसम्प्रदायके मूडबिद्रीतीसरे प्राभूतका नाम कषाय-प्राभृत है । इसके मूल नामक प्रसिद्ध तीर्थमें-जो मेंगलोर जिलेमें हैं-एक रचयिता गुणधर नामके आचार्य हैं। ये 'पूर्वांशवेदी' थे। सिद्धान्त-भण्डार है । उसमें धवल, जयधवल और इनका ठीक समय मालूम नहीं, अनुमानसे धरसेना- महाधवल नामके तीन सिद्धान्त ग्रन्थ हैं । संभवतः चार्यके कुछ बाद हुए हैं। मूल ग्रन्थ १८३ सूत्रगाथा संसार भरमें इनकी केवल यही एक एक प्रति ही और ५३ विवरणगाथाओंमें समाप्त हुआ है । इसकी अवशेष है और ऐसे लोगों के अधिकारमें हैं जो इस- . भी कई बड़ी बड़ी टीकायें हैं।
का नामशेष कर डालनेके लिए उतारू है। इनमसे __ पहली चूर्णवृत्ति। यह यतिवृषभ नामक आचार्यको एक तो कर्मप्राभतकी वीरसनेस्वामकृित धवला बनाई हुई है और सूत्ररूप है । इसकी श्लोकसंख्या नामको टीका है और संभवतः उसमें वप्पदेवगुरु६ हजार है । यतिवृषभ आचार्य गुणधर मुनिसे कुछ की व्याख्याप्रज्ञप्ति भी शामिल है । दूसरा जयधवल ही पीछे हुए हैं। क्योंकि उन्होंने गणधर मुनिके शिष्य सिद्धान्त कषायप्राभूतके पहले स्कन्धकी चारों विभनागहस्ति और आर्थमक्षु मुनिसे इस विषयका अध्य- क्तियोंकी जयधवला नामकी टीका है जिसमें कषाययन किया था, इसका उल्लेख मिलता है।
प्राभूतके गुणधरमुनिकृत मूल गाथसूत्र और विवरणदूसरी उच्चारणवृत्ति । इसकी श्लोकसंख्या १२ हजार
सूत्र, यति वृषभकृत चूर्णिसूत्र, वप्पदेवगुरुकृत वार्तिक है । यह उच्चारणाचार्यकी बनाई हुई है और इसीलिए
और वीरसेन-जयसेनकृत वीरसेनीया टीका, इतनी
चीजें शामिल हैं। तीसरा महाधवल सिद्धान्त कषायइसे उच्चारणवृत्ति कहते हैं।
प्राभतकी यतिवृषभादिकृत टीकाओंका संग्रह है। तीसरी वृत्ति शामकुण्ड आचार्यकी है जो लगमग
कर्मप्रकृति और कषाय प्राभृतका उक्त विशाल साहित्य ६ हजार श्लोक है । चौथी तुम्बुलुर ग्रामनिवासी तुम्बु
केवल मूडबिद्रीमें है जिसको प्रकाशित कर डालनेकी लराचार्यकी चडामणि व्याख्या है। उन्होंने कर्मप्राभृतकी बहत बड़ी आवश्यकता है। भी टीका लिखी है। दोनों टीका ओंकी श्लोकसंख्या८४३गोम्मटसार-कर्मसाहित्यका दूसरा प्रसिद्ध हजार है। पांचवी टीका वाप्पदेवगुरुकी प्राकृत भाषामें ग्रन्थ गोम्मटसार है । दिगम्बर सम्प्रदायमें इस
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जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य । GiftifultifinitifittiiiiiiiiiitintifinitiinfiftITTER
नहीं जान सकते । इस लिए हमारा कर्तव्य है एक सूचना करके इस लेखको समाप्त करते हैं । कि हम अपने साहित्यके साथ वैदिक और बौद्ध हमारे आधुनिक शिक्षा पाये हुए युवक केवल साहित्यका भी अभ्यास करें और किसमें कितना सामाजिक सुधारके विचारों के पीछे घुड़विशिष्टत्व है उसे ढूंढ निकालें । धार्मिक दौड़ कर रहे हैं, परन्तु उसके आगे बढ़नेका सिद्धान्तोंका यथार्थ रहस्य, तुलनात्मक दृष्टिसे कुछ भी प्रयत्न नहीं करते । जैनदृष्टिमें समाज अवलोकन करनेवालोंको जितना अवगत होता गौण और धर्म मुख्य है, इस विचारको हमने आज है उतना औरोंको नहीं । भगवद्गीताके रहस्योंका कल भुला दिया है । सामाजिक उन्नति कोई जैसा उद्घाटन, लोकमान्य श्रीबालगंगाधर तिल- हमारे आत्मिक कल्याणका अंग नहीं है, उसका कने किया है वैसा अन्य किसीने नहीं किया, अंग तो धार्मिक उन्नति है। यद्यपि हमारा व्यवऐसा जो एकाकार उद्घोष विद्वानोंके मुँहसे हार सुसंगत रखनेके लिए समाजकी संस्कृति निकल रहा है वह इसी पद्धतिके अभ्यास और हमें अभीष्ट अवश्य है तथापि केवल सामाजिक अवलोकनका फल है. । तिलक महाशयने सुधारहीसे धर्मको भी विशिष्टत्व आ जा अपने भगवद्गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र' यह विश्वास भ्रान्तिमूलक है। हमारा धर्म, सामानामक महान् ग्रंथमें कर्मविपाक व आत्मस्वातंत्र्य' जके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखता । यही नामका एक प्रकरण लिखा है जो जनकर्मवादके कारण है कि भगवान् महावीरने किसी भी अभ्यासीके लिए अवश्य अवलोकनीय है। प्रकारके सामाजिक नियमोंका नियमन नहीं ___ अब हम अपने नवशिक्षित जैनबंधुओंको
५क्षपणासार-इसके कर्ता आचार्य नेमिचग्रन्थका बहुत ही अधिक प्रचार है । यह प्राकृत
न्द्रके समानकालीन माधवचन्द्र विद्यदेव हैं । यह भाषामें है। कनड़ी, संस्कृत और हिन्दीमें इसकी कई
संस्कृत गद्यमें है । माधवचन्द्रकी बहुतसी गाथायें टीकायें बन चुकी हैं । इस ग्रन्थके कर्ता आचार्य
गोम्मटसारमें भी शामिल हैं। नेमिचन्द्र हैं । सिद्धान्तचक्रवर्ती उनकी पदवी थी।
पं. टोडरमल्लजीने गोम्मटसारकी जो विस्तृत विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दिके मध्य में वे मौजूद थे ।
भाषाटीका लिखी है उसमें लब्धिसार और क्षपणासार गंगवंशीय राजा राचमल्लके सुप्रसिद्ध मंत्री चामुण्डरा
दोनोंही शामिल कर लिये गये हैं। यको अपने ग्रन्थमें उन्होंने जगह जगह आशीर्वाद ।
लब्धिसार क्षपणासारसहित छप रहा है। दिया है। इन्हीं चामुण्डरायके लिए कहते हैं कि यह
६ पंचसंग्रह-यह धर्मपरीक्षाके कर्ता आचार्य ग्रन्थ धवलादि ग्रन्थोंके आधारसे या उन्हींमेंसे संग्रह
आमितगति वीतरागका बनाया हुआ है । विक्रम करके रचा गया है । इसके पहले भागका नाम जीव- . काण्ड और दूसरेका कर्मकाण्ड है। जीवकाण्डमें ७३३
संवत् १०७३ में इसकी रचना हुई है। अमितगति और कर्मकाण्डमें सब मिलाकर ९७२ गाथायें हैं । ईडरके भण्डारसे आई हई स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द.
माथुर संघके आचार्य थे। इसकी एक प्रति हमने ये दोनों भाषाटीका सहित छप चुके हैं । इसका जीके यहाँ देखी थी और उसकी केवल प्रशस्ति लिख दूसरा नाम पंचसंग्रह भी है । क्योंकि इसमें कर्म- ली थी। यह संस्कृत भाषामें है और इसका विषय प्राभतके जीवस्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामी, वेदना. वही है जो गोम्मटसारका है। खण्ड और वर्गणाखण्ड इन पाँच विषयोंका वर्णन है। इनके सिवाय इस विषयके अन्य ग्रन्थोंसे हम
ब्धिसार--यह ग्रन्थ भी आचार्य नेमि- अनभिज्ञ हैं । हाँ, ऐसे बहुतसे ग्रन्थ हैं जिनका मुख्य चन्दका बनाया हुआ है और प्रायः सर्वत्र मिलता है। विषय तो यह नहीं है, पर गौणरूपसे इसका खासा.. इसमें पाँच लब्धियों तथा उपशम और क्षपक श्रेणका विवेचन मिलता है । वर्णन है। इसकी सब मिलाकर ६५० गाथायें हैं।
-सम्पादक।
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LALITHILOSONAL
जैनहितैषी
NEPALIANCDAANTUNNEYAAT
किया । हमारे साहित्य और विचारों पर सामा- PARTIANEVAALWAY जिक विषयोंका जो रंग चढा है वह केवल पड़ौसीधर्मोके कारण है । जिस प्रकार पाश्चात्य , संस्कृतिकी बाहरी चमक दमकमें भारत अपने अन्तस्तेजको भूल गया है; वैसे ही [ले.--श्रीयुत पं० ज्वालादत्त शर्मा । ] जैनसमुदायने भी हिंदूंसमाजके रूढीधर्मोकी धामधूममें मोहित होकर अपने असली सिद्धा- लाहोरके मुट्ठीभरे बंगालियोंमें दिवाकर बाबूकी न्तोंको विस्मरण कर दिया है । इसी विस्मृतिके जैसी समालोचना होती है-उससे मालूम कारण हमारा समुदाय दिन प्रतिदिन घटता पड़ता है कि वहाँ पर उनकी प्रतिष्ठा साधारण घटता आज नाम मात्र रह गया है । इस लिए नहीं है । धनमें तो दिवाकर बाबू बंगालियोंमें अब हमारा कर्तव्य है कि भूले हुए सिद्धान्तोंको क्या अनेक पंजाबियोंमें भी बड़े हैं; पर उनकी फिर ताजा करें। हमें सामाजिक बन्धनोंके निकम्मे समालोचनामें यह प्रसंग कभी न उठता था। जालमें न फँस कर धार्मिक सत्योंके अगाध समु- उनकी जिन बातोंकी विशेषरूपसे समालोचना द्रमें स्वेच्छापूर्वक तैरते रहना चाहिए । इन धार्मिक सत्योंका यथार्थ स्वरूप हम तब ही
र होती थी उनमें उनका स्त्रीविद्वेष, अँगरेजद्वेष समझ सकेंगे जब हमें कर्मवादके विचारोंका ठीक और बाल्यजीवनके इतिहासको गुप्त रखनेकी चेष्टा ठीक ज्ञान होगा। कर्मवादको समझे बिना कोई ये प्रधान थीं । दिवाकर बाबूका सौजन्य सुप्रजैनधर्मका ज्ञाता नहीं कहला सकता । शमस्तु।
न सिद्ध था। दानमें भी उनका मुकाबला करनेवाले
बहुत कम लोग होंगे। पर अँगरेजोंके साथ व्यवसम्पादकीय नोट-कर्मसम्बन्धी सिद्धान्त हार करनेमें वे जैसी रुखाईका परिचय देते थे दिगम्बर और श्वेताबर दोनों ही सम्प्रदा- या किसी स्त्रीके नामोल्लेख पर जैसी विरक्ति योंके प्रायः एकसे हैं । इनमें बहुत ही प्रकाश करते थे उसको देखकर आदमी अनेक कम-नाम मात्रका-भेद है । ऐसी दशामें तरहकी बातें मनमें सोचा करते थे। यदि कोई क्या ही अच्छा हो यदि हमारे दिगम्बर- इन बातोंका कारण उनसे पूछता था तो उनका सम्प्रदायके विद्वान् श्वेताम्बर-कर्मसाहित्यको चेहरा बहत ही गम्भीर भाव धारण कर लेता और श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वान् दिगम्बर था। लाहोर-प्रवासी उर्बर-मस्तिष्क बंगालियों में कर्मसाहित्यको भी पढ़ें और मनन करें।
! हरएकने एक एक थियरी (सिद्धान्त ) बना हमारी समझमें इससे दोनोंको लाभ होगा। दोनों सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें जो खूबियाँ हैं उनसे दोनों
" रक्खी थी और दिवाकर बाबूकी अनुपस्थितिमें ही लाभ उठायेंगे । कमसे कम उन सजनोंको वे अपनी थियराको दूसरक मस्तिष्कम प्रवेश करतो इस ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए जो नेकी खूब चेष्टा किया करते थे। इन सब थियविचारशील हैं और दोनों सम्प्रदायोंके हृदयको रायाम आशुताषका थियरी सबस आधक सक्षिप्त टटोलना चाहते हैं। जब तक दोनों सम्पदा- और युक्तिपूर्ण है । वह कहता है, दिवाकर बाबू योंके ग्रन्थोंका परस्पर अध्ययन अध्यापन न कुआरे नहीं हैं; मालूम होता है उनकी स्त्री किसी किया जायगा, तब तक न दोनोंकी कट्टरता कम अँगरेजके प्रेममें फँसकर उनको छोड़ गई है। होगी और न दिगम्बर श्वेताम्बर सम्प्रदायकी इसीलिए वे अँगरेज और स्त्री-जातिसे इतनी घिन भिन्नताका ऐतिहासिक रहस्य ही समझमें आयगा। करते हैं।
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प्रतिदान ।
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इस कुत्सिंत कथाके सत्य न होनेपर बालकके कहने पर दिवाकरने घोड़ेको तालाबमें भी आशुतोषने इसको अभ्रान्त मान रक्खा था। डाल दिया और जब वह घोड़ा तैर कर दिवादिवाकर बाबूके निराश प्रोमक होनेमें तो किसीको करके पास नहीं आया तब बालक दिवाकर सन्देह ही नहीं था। उनका विहाग जिन्होंने एक गहरी साँस छोड़कर एक बिल्लीके प्रेमपाशमें सुना है वे जानते हैं कि दिवाकर बाबूको सौ- बद्ध होगया । बिल्लीके बाद कई तरहके पक्षियोंसे न्दर्य परखनेकी कुछ कम क्षमता प्राप्त नहीं है। उसका प्रेम हुआ और अन्तमें विद्यालयके विहागकी मर्मस्पर्श लहर, मधुर झंकार, भैरवीकी एक बालकके साथ उसका प्रगाढ़ प्रेम होगया । आशामयी भाषा, किसी प्रेमिकके हृदयसे ही उसी समयसे उसका हृदय मधुररससे भीगने लगा। निकल सकती है-इसमें किसीको सन्देह नहीं उसी समयसे वह समझने लगा कि बिना दूसरे हो सकता। इसके सिवा घर सजानेमें, बातची- हृदयसे मिले उसका हृदय असम्पूर्ण है । दो तमें, हावभावमें-प्रतिपद पर मालूम होता था कि हृदय एक सूत्रमें ग्रथित न होनेसे मनुष्यका प्रौढ दिवाकरका हृदय जवानीमें प्रेमका अभिनय हृदय ज्योत्स्नाहीन नीलिमाकी तरह निरर्थक करके जरूर जख्मी हुआ है।
और तमसावृत हो जाता है। [२]
इन्ट्रेस पास करनेके बाद दिवाकरको जब अँगरेजीमें मसल है-राजा कभी नहीं मरता। मित्रनियोग हुआ उस समय पास होनेकी प्रसन्नदिवाकरका भी किसीको सच्चा इतिहास मालूम ता भी उसके लिए कष्टका कारण होगई । मनके होता तो वह जान पाता कि दिवाकर बाबूका साथ अनेक तर्क वितर्क करके अपने किसी सहहृदय सिंहासन भी बाल्य और यौवनकालमें कभी पाठीके परामर्शसे उसने एक सितार खरीद शून्य नहीं रहा । वास्तवमें बंकिम बाबूके उप- लिया और उसके मधुरस्वरोंमें उसने अपना प्रेम न्यास पढ़नेसे बहुत पहले ही वे एक तरहसे अर्पण कर दिया। प्रेमके पन्थमें पड़ गये थे। सबसे पहले तो काठके लाल घोड़ेसे उनका प्रेम हुआ था । उस यौवनके द्वारपर पहुँचते ही दिवाकर कितनी समय उनकी अवस्था चार वर्षकी थी । उनके कामिनियोंके गुणपर मुग्ध होकर एक एकको पिताने कलकत्तेसे उनके लिए वह काठका घोड़ा अपने हृदय-मन्दिरमें प्रतिष्ठित करके पूजा कर ला दिया था । बालक दिवाकर उससे रात चुका है-इसकी इयत्ता नहीं । अन्तमें जब बी. दिन प्रेम करता था। प्रातःकाल उठकर सबसे ए. की परीक्षामें अनुत्तीर्ण होकर वह मधुपुरमें पहले वह बागसे घास लाकर उसके सामने वायु परिवर्तन करनेके लिए गया उस समय रखता था । बादको मासे मिठाई माँगकर उसको उसके जीवनमें एक बड़ा भारी परिवर्तन होगया। दिक किया करता था। दिन भर घोड़ेके साथ यह बात आजसे बीस वर्ष पहलेकी है। इस खेलकर रातको उसे अपनी चारपाईसे बाँधकर तरहके महलोंके समान मकान मधपुरमें उस वह सोता था। इस तरह ६ दिन बीत जानेपर . समय नहीं थे। छोटे छोटे बंगले ही वहाँपर सातवें दिन एक बड़े बालकने पूछा-" दीब, दिखाई पड़ते थे। तेरा घोड़ा तैरना जानता है ? " गर्वित दिवाक- दिवाकर जिस बंगलेमें रहता था उसके पासरहे उत्तर दिया-“ हाँ।" उसके बाद उस वालेमें मूरनामके एक श्वेताङ्ग वास करते थे।
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ATIOBIHARITHILIARLI
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मधुपुरके चारों ओर मूरसाहबकी कोयलेकी कई इसी लिए निष्कर्मा दिवाकर, उस निर्जन खाने थीं । वृद्ध मूर स्वयं कामको न देखते थे; कुटीमें रहकर सुन्दरी श्वेतांगिनीके प्रेममें उन्मत्त मधुपुरमें रहकर ही वे उनका इन्तजाम करते थे। होकर मधुर सितारके स्वरों में अपने मनकी बात
मधुपुरके बंगलेके बरामदेमें बैठे हुए और बताता था-इसमें विचित्रता ही क्या थी ? धूम्रपान करते हुए दिवाकर बाबूने पहले पहले उसके मधुपुर पहुँचनेसे कोई डेढमास बाद युवती मिसेस मूरको जिस दिन देखा था उस एक दिन मूर साहबके बंगलेमें बहुत शोर दिन उसको वृद्ध मूरकी लड़की ही समझा था। मचा । बूढा मर शेक्सपियरके साईलकी तरह कुमारीके साथ प्रेम करना कुछ बुरा नहीं-इसी हाथ पाँव हिलाकर दुन्द मचा रहा था। पुलिलिए दिवाकर बाबू अपने चित्तको संयत न कर सका दारोगा अपनी नोटबुकमें न मालूम क्या सका था। विदेशमें रहकर विदेशिनीके पदत- लिख रहा था । पुलिसको देखकर अनेक लमें अपना प्रेमपूर्ण हृदय अर्पण करके दिवा- आदमी बाहर तमाशा देखनेके लिए जमा हो कर रातको निर्जन जगहमें बैठकर मर्मस्पर्शी गये थे। दिवाकर बावूके हृदयगगनका सुधांशु भी विहाग-रागिनी गाया करता था और अवसर सखे मँहसे स्थिर होकर एक कोनेमें खडा था। मिलते ही उस लावण्यमयीकी स्निग्ध रूप राशिको देखकर अपना चित्त प्रसन्न किया करता था। दिवाकरके मनमें आया कि साहबके यहाँ __ मूरकी युवती स्त्रीसे प्रेम करके दिवाकरने जाकर परिचय करनेका यह अच्छा अवसर है। अपनी मूर्खताका परिचय दिया था-यह कहनाप
पर बिना बुलाये किसी कार्यमें हस्तक्षेप करना बिलकुल ठीक है । जिसको पानेकी कोई आशा विलायती नीतिके विरुद्ध है । यह सोचकर नहीं, जिस अग्निमें केवल जलानेकी शक्ति है, उसने इस तरह जाने का संकल्प त्याग दिया । जिसमें संजीवनी शक्ति नहीं है-उसके लिए परन्तु मामला क्या है-यह जानने के लिए दिवाआत्मसमर्पण करना, उस बह्निमें भस्मीभत हो करको बड़ी उत्सुकता हुई । उसने अपने नौकजाना-पागलपन नहीं है तो और क्या है ? रसे पूछा-मूर साहबके बंगले में यह कैसी गोल किन्तु हम जिसे प्यार करते हैं वह यदि अपनी माल है ! नील गम्भीर दोनों आँखोंसे हमको घूरा करे, नौकरने कहा-साहबके बहुतसे बहुमूल्य देखनेके सुयोगके समय ही जो आराम कुर्सी- जवाहरात और नकद रुपये चोरी हो गये हैं। पर बैठ कर पुस्तक पढ़े और बीचबीचमें हमारी दारोगा सा० तहकीकात करते हैं ।
ओर देखकर मृदु कटाक्षपात किया करे, हम कहनेकी जरूरत नहीं कि इस विपत्तिके जिस समय सितारपर संगीतालाप किया करें संवादसे प्रेमिक दिवाकरका हृदय दुःखसे भर वह यदि उस समय अपने छोटेसे बायें पैरसे गया । जिस समय उसने पत्थरकी मूर्तिकी तरह ताल दे-ऐसा होनेपर यदि हम उसके प्रेममें खडी हुई मिसेज मरका रक्तहीन चेहरा देखा उन्मत्त हो जाय तो भी क्या तुम हमें पागल उस समय दिवाकर बाबूके हृदयके भीतरी कह सकते हो ? दिवाकर जानता था कि अंग- भागसे एक बड़े निश्वासकी उत्पत्ति हुई । जिस रेज रमणीकी नसनसमें रोमान्स भरा रहता है। प्रेममें सहानुभूति नहीं है उसको प्रेम कहना भी * काल्पत कहानियाँ।
व्यर्थ है।
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[४]
बहुत वादानुवादके बाद निश्चय हुआ कि दिनमणि सूर्य्य धीरे धीरे पश्चिम गगनमें मुँह इस बार फिर क्लारा सौ रुपये देकर हिलकी छिपा रहा है । सांध्यसमीर दक्षिण दिशासे सुसं- मानरक्षा करेगी । उसके बाद वह फिर कुछ वाद लाकर बरासके फूलोंको हँसा रहा है। न देगी। आनन्दके मारे फूलकी दो एक पत्तियाँ टूटकर उक्त घटनाके तीन चार दिनके बाद दिवाघासपर बैठे हुए प्रेमिक प्रोमिकाके ऊपर गिर कर बाबू अपने बंगलेके पीछेवाले मैदानमें प्रात:पड़ी । घोसलेमें जानेसे पहले गुलगुचियाने एक- समीरका सेवन कर रहे थे । मूर साहब उस वार खूब जोरसे गाया । उसके प्रत्युत्तरमें काली समय मधुपुरमें नहीं थे, खानका काम देखनेके कोयलने भी अपने कण्ठमें छिपाई हुई सुधाको लिए बाहर गये हुए थे। इसी लिए मिसेज चायुकी गोदमें बहा दिया।
मूर कई कुत्तोंको साथ लिए अकेली हवा खारही मिसेज मूरने कहा-"फ्लारेन्स, अब मुझसे थी और बीच बीचमें अपने नीलनयनोंके कटाऔर नहीं हो सकता। इस बार ही वृद्धने मुझ पर क्षोंसे दिवाकरके हृदयका अन्तस्तल तक आलोसन्देह किया था। वहाँ रहना हमारे लिए कित- ड़ित कर देती थी। ना असुविधाजनक है यह बतानेकी बात नहीं। दिवाकरको देखकर एक छोटासा कुत्ता भोंकने न मालूम बूढ़ा मूर कब मरेगा।" लगा । मेम साहबने विरक्त होकर उसको चुप
जिस युवकके साथ मिसेज मूर बातचीत कर किया । उस समय दिवाकर और क्लाराके बीचमें रही थी उसकी अवस्था कोई तीस सालकी होगी। ५-६ गजका ही अन्तर था। दिवाकरने सोचा उसका शरीर खूब मजबूत था । फ्लारेन्स हिल- कि यह सुयोग छोड़ना ठीक नहीं । उसने बड़े का मुखमण्डल यौवनकी कान्तिसे खूब उद्भासित मुलायम भावसे विनयके साथ युवतीकी ओर था। हिल, मिसेज मूरके चचाका लड़का है। फिर कर कहा-"Thank you, madam." अर्थाभावके कारण वह बहिन क्लाराका पाणिग्र- यवतीने हँस दिया । दिवाकरके बागमें आकर हण नहीं कर सका था । अर्थवान् बूढ़े मूरसे उसने गुलाबकी तारीफ की, कृतार्थ युवकने शादी करनेपर भी युवती क्लारा फ्लारेन्सके प्रण- झटपट कछ गुलाब लेकर मेमसाहबको उपहारमें यको भूल नहीं सकी थी। सुविधा पाते ही वे दिये । युवतीने उसका धन्यवाद किया और दोनों एकान्तमें मिलते थे । वृद्धको इसका कुछ इधर उधरकी बातें करके अन्तमें कहा-“मेरे भी पता नहीं था ।
स्वामीका अन्तःकरण बड़ा सन्देहयुक्त है। ऐसा हिलने कहा-"इस बार तुमने दया न की तो न होता तो मैं आपको अवश्य अपने यहाँ बेतरह अपमानित होना पड़ेगा। तुमने उस दिन निमन्त्रित करती" निर्बोध दिवाकरने मानो स्वर्ग जो दिया था वह सब जाता रहा । कमसे कम पालिया। फिर मिलनेकी आशा देकर मूर-पत्नी एक सौ रुपया बिना मिले इज्जतका बचना बिदा होगई। असम्भव है।"
उक्त घटनाके सात दिन बाद मूर-पत्नीने क्लाराने कहा-“छिः फ्लारेन्स, तुम जुआ खेल- दिवाकरको फिर दर्शन दिये और उसको ना बन्द नहीं कर सकते ? इस बार कंजस बूढ़ा शामका भोजन करनेके लिए अपने स्थानपर ताड़ जायगा ।"
निमंत्रण दिया। दिवाकरने सोचा कि आज वृद्ध
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स्थान पर नहीं है इसी लिए क्लाराने शिष्टाचार अंगूठी पहरकर दिवाकरके आनन्दकी सीमा दिखाकर मित्रता दृढ़ करनेके अभिप्रायसे यह न रही। बहुत दिनोंके परिचितकी तरह क्लाराको अनुग्रह किया है। .
हृदयसे लगाकर वह बड़े स्नेहसे उसका मुँह
चुम्बन करने लगा। बादको उसी घरमें सबके अनेक तरहकी बातें करते करते रातके दस सो जानेकी प्रतीक्षा करने लगा। बज गये । सिर्फ एक नौकर उनकी सेवा कर
[७] रहा था। दिवाकरने ऐसा सुख अपने जीवन मूर साहब जैसा कि उनका अभ्यास था कभी अनुभव नहीं किया था । प्रगल्भा क्लारा आते ही अपने भण्डारघरके सामने खडे होगये। अनेक तरहकी बातें करके दिवाकरको प्रसन्न बढेने सोचा कि क्या मैं स्वप्न देख रहा हूँ ? कर रही थी । रातको सोते समय पहननेकी बूढेने अपनी जेबमें हाथ डालकर देखा तो तापोशाकसे युवतीकारूप सौगुना बढ़ गया था। लियाँ उसमें पड़ी हुई थीं-पर फिर भी दर्वा में
काराने हँसकर कहा-"बाबू आप तो जमा- लगा हआ ताला खला हुआ था। यह काम न्दार हैं । हमारी इस वृद्धके हाथसे रक्षा कीजिए, किसने किया था-वृद्ध कुछ निश्चय नहीं कर हमें कहीं ले चलिए।"
__ सका। बूढ़ेने झटपट लैम्प जलाया और अन्दर दिवाकरने चिन्तित होकर उत्तर दिया-“यह
यह जाकर उसने देखा कि जीवनभरमें पैदा की किस तरह हो सकता हैं मेमसाहब ?"
हुई प्रियतम सम्पत्तिके पास एक काला आदमी मेम साहबने कहा-“बाबू, रुपयेमें कुछ सुख खडा हुआ है। बूढ़ेने उसे देखते ही जोरसे नहीं है।" ठीक इसी समय बाहर सड़कपर चीख मारी। घोड़ेकी टापका शब्द सुनाई दिया। विस्मित
__वृद्धके साथ उसका हेउड नामका मित्र काली होकर क्लाराने कहा-“बाबू सर्वनाश होगया। मालूम होता है साहब आगये।"
पहाड़ीसे आया था। मूरकी चीख सुनकर वह ___ भीत दिवाकर उठ खड़ा हुआ। क्लाराने .
से और नौकर सभी वहाँ पहुँच गये। कहनेकी जरूकहा-"कुछ डर नहीं है। आप मेरे साथ आइए।" रत नहीं कि भय, लज्जा और विस्मयके मारे विस्मित दिवाकर अन्धकारको चीरकर पासके दिवाकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया । जब एक घरमें पहुँचा । क्लाराने चाबीसे ताला खोला, उसका थोड़ा बहुत विस्मय.दूर हुआ तब उसने उसके बाद दिवाकरको उस घरमें खड़ा करके अपना पहला कर्त्तव्य भागना स्थिर किया। इसी
और चाबीका गुच्छा उसके हाथमें देकर कहा लिए वृद्धकी चीखको सुनकर उसने भागनेकी "बाबू इसी घरमें आप रुकिए। जब सब लोग चेष्टा की। किन्तु हेउडके आ जानेसे उसको सो जाये तब घरमें चाबी देकर चले जाना। बन्दी हो जाना पड़ा। इसी घरमें हमारे पतिकी सब सम्पत्ति है।" उस समय मूर साहबके बंगलेमें बड़ी गोलस्तब्ध दिवाकरने चाबी लेकर अन्धेरे घरमें माल मची। उसी समय धीरे धीरे आँखें पोंछती प्रवेश किया।
हुई क्लाराने आकर कहा-"जोसेफ, प्रियतम, तुम युवतीने कहा-"बाबू , एक बात और है। कब आये-यह गोलमाल कैसा है ? ” । हमारी चिह्नस्वरूप यह अंगूठी हाथमेंसे न “मूरने कहा-प्रियतमे, सर्वनाश हुआ चाहता उतारिएगा।"
था। इस समय भगवानने बड़ी रक्षा की, नहीं
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तो हमारा सभी कुछ स्वाहा हो गया था। कर वह बोला-"प्यारी क्लारा, मुझे क्षमा कर!" भण्डारघरमें चोर घुस गया था।"
और हतभाग्य दिवाकर ! वह मन-ही-मन __इस समय दिवाकर एकटक क्लाराकी ओर कहने लगा-“ओ पिशाची, शैतानी ! इसी लिए देख रहा था । मूरकी बात सुनकर क्लाराने बड़े तेरा इतना प्यार था । पृथ्वी बड़ी कठिन है। भावसे आह खींची।
इसका मुँह कैसा सरस और सरल है, पर इसके हेउडने कहा-" मि० मूर, इस आदमीके प्राण नारकी भावोंसे पूर्ण हैं। यह अँगरेज महिला हाथमें यह अंगूठी किसकी है ?
है-यही इसकी सभ्यता है !" मूरने कहा-"हाय राम ! यह तो मेरी हीरेकी
सभी विस्मित थे। सिर्फ नाजिरखाँ नामका बहुमूल्य अंगूठी है । यह तो मेरे वक्समें बन्द
नौकर-जिसने शामसे दिवाकरकी खातिर की
थी-कभी कभी दिवाकरकी ओर दर्द भरी थी। मालूम होता है इसने हमारी अन्यान्य
दृष्टिसे देख लेता था। चीजें भी चुराई हैं ।” ___ इसके बाद हेउडने दिवाकरकी जेबकी तलाशी
__जेलखानेके रोशन-दानसे चाँदनीकी एक ली । उसमेंसे क्लाराका दिया हुआ चाबीका ही
"" क्षीण और मलिन रेखा दिवाकरकी दीन शय्यागुच्छा निकला।
पर पड़ रही थी। जेलखानेके बाहर थोड़ी दूर वृद्धने सिरपर हाथ मारकर कहा-Great
" गाँवमें एक कुत्ता भोंक रहा था । उसका शब्द Heavens! This isa bunch of duplic
झिल्लीकी झंकारके साथ मिलकर हतभाग्य बन्दीके ate keys. __सभी आदमी बडे आश्चर्यसे दिवाकरकी ओर स्मृतिपटपर बचपनकी अपने ग्रामकी शान्त. देखने लगे । एक नौकरने कहा- हजर यह स्निग्ध और मधुर छबि खींच रहा था । एक बाबू बंगलेके बगलमें कोई महीना भरसे चिन्ताव आया होगा!"
दूसरा भाव, भाव-प्रवण दिवाकरके हृदयको - उस समय वृद्धने एक भारी रहस्यको मानो आलोड़ित कर रहा था, उसके सौ सौ टकडे कर
" रहा था। उसके अनजानमें दोचार आँसुओंकी खोला । उसने समझा कि बीच बीचमें कौन
बँदें उसके नेत्रों में आगई थी। युवक सोच रहा उसका धन चुराता था । यह काला आदमी ही भद्रवेशमें पड़ोसमें रहकर उसका सर्वनाश किया ।
था-कैसा अपमान है, कैसा मनस्ताप है और
या कैसा अपयश मिला है । अच्छे घरानेमें पैदा करता था। भगवानकी अपार करुणाके बिना होकर मिथ्या प्रलोभनमें पड़कर मिथ्या अपराक्या आज यह चोर पकड़ा जा सकता था ? धमें सच्चा दण्ड भोग रहा हूँ। चाहता तो बच . काराने कहा-“जोसेफ, मैं गोलमाल पसन्द भी सकता था। जजसे सब बात सच सच कह नहीं करती । किन्तु अब मैं समझती हूँ तुम्हारा देता । घर चचाके पास संवाद भेज देता तो व्यवहार किस कदर नीच है! यह दुष्ट तो शायद यह दुर्गति नहीं होती । पर किस तरह तुम्हारा धन चुराता था और तुम मुझको-अपनी इस जघन्य बातको प्रकट करता-किस तरह प्यारी स्त्रीको-प्रेमके-"
जेलसे निकलकर आत्मपरिचय देकर अपना वृद्धने उसको आगे कोई बात कहने न दी। काला मुँह दिखाता-चुप रहनेके सिवा-सच तो चम्पेकी कलीकी समान उन अंगुलियोंको चूम- यह है मेरे लिए और कोई उपाय ही नहीं था।
९-१०
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सच तो यह है कि दिवाकरके मौनभावको कीजीवपूर्ण वास्तव जगतके घृणित और जघन्य देखकर और उसके सुन्दर मुखकी श्रीको देख- जेलखानेमें वास करना पड़ा है। कर विचारकके मनमें उसके अपराधके विषयमें सन्देह पैदा हुआ था । वह जान गया था कि समय किसीकी अपेक्षा नहीं करता । बात इस मामलेमें जरूर कोई रहस्य है, पर चाक्षुष पुरानी होकर भी सच्ची रहती है। दिवाकरके प्रमाणके सामने वह अपनी राय किस तरह कारागारका समय भी अनन्तके पथमें पिछड़ने जाहिर कर सकता था ? दिवाकर यदि सब लगा । सात दिन बाद उसकी कैदके तीन मास बात सच सच विचारकके सामने कह डालता पूरे होजायँगे-फिर वह अपनी खोई हुई स्वाधीतो कौन कह सकता है कि उसके भाग्यमें क्या नता पालेगा । जेलसे छूटकर दिवाकर घर नहीं होता?
जायगा, यह सिद्धांत तो उसने स्थिर कर लिया जिस समय जेलखानेकी निर्जनतामें दिवाकर है। कौन कह सकता है कि इतनी चेष्टा करने घटनाके पर्वापर पर विचार कर रहा था. उस पर भी घरपर किसीको इस बातका पता लग समय उसने अगरेज महिलाके कपटकी ही गया हो । किस तरह उसका भविष्य जीवन निन्दा की हो-यह बात नहीं । एक तरहकी कटेगा-यही चिन्ता दिवाकरके हृदयको हर गभीर आत्मग्लानि उसके चित्तको सैकडों जेल- समय लगी रहती है। खानोंकी तकलीफोंके बराबर कष्ट देती थी। इसी समय कर्मचन्दने उसके पीछेसे आकर अच्छे वंशमें पैदा हुए, शिक्षाप्राप्त युवकके लिए रामराम की । दिवाकर किसी कैदीसे बातचीत जानबूझकर परस्त्रीके साथ व्यभिचारके पथमें नहीं करता था। समय काटनके लिए दो एकके अग्रसर होना कितना घृणित कार्य और नारकी साथ उसको बात करना पड़ती थी। उनमेसे आचरण है-धीरे धीरे युवकके मस्तिष्कमें ये बातें कर्मचन्द भी एक था। प्रवेश करने लगीं ! वह कभी सोचता-क्या मुझे कर्मचन्दने कहा-“ बाबू आपका समय तो बिना अपराधके दण्ड मिला है ? चोरीके अप- पूरा हो गया । पर हमारे समयका अब भी पाँच राधमें निर्दोष होते हुए भी उसकी अपेक्षा अ- वर्ष बाकी है।" धिक पापाचरण करनेको क्या मैं उद्यत नहीं हैं दिवाकरने जबर्दस्तीकी विषाद मिली हँसी भाभगवानके राज्यमें न्याय विचारका अभाव हँस दी । एक डाकके साथ सखदःखकी कथा
मी बातका सोचना पागलपन नहीं है तो कहते हए उसको कछ नये प्रकारका आश्चर्यसा और क्या है । बचपनसे केवल भावोंकी उत्तेज- मालूम हुआ। नामें कार्य करता आया; चरित्रगठनकी ओर कर्मचन्दने कहा-“ बाबू, नाराज मत जितना ध्यान देना चाहिए उतना कभी नहीं होना । एक जगह मेरे कोई दश हजार रुपये दिया ! कभी स्थिरचित्त होकर विचार नहीं रक्खे हुए हैं। कोई हर्ज न समझें तो जेलसे किया कि जो कार्य कर रहा हूँ उसका कैसा छूटकर उन रुपयोंसे कोई रोजगार शुरू कर दें। फल निकलेगा-अच्छा या बुरा; कल्पना राज्यके जब मैं जेलसे छूट कर आऊँ तो आप मुझे बनमें, बागमें, महलमें, कुटीमें अनेक बार बिचरा आपके पास जितनी सम्पत्ति हो उसमेंसे आधी हूँ उसीका यह फल है कि आज मुझे इस नार-बाट दें। यह इकरार कीजिए ।"
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इन तीन महीनोंमें दिवाकरके जीवनमें जितने मोहिनी शक्तिसे पराजित होकर उसके सम्मुख आश्चर्य भरे व्यापार हुए थे उनमें यह बात सबसे अपना बलिदान दिया । विजयी कर्मचन्दने बढ़कर आश्चर्यकी थी। प्रस्तावको सुनते ही दिवाकरको बता दिया कि किस जगह उसका उसका हृदय धकधक करने लगा। भय, विस्मय, रुपया गड़ा हुआ है। नीतिज्ञान और लोभका उल्लास बढ़ानेवाला सुमिष्ट
[१०] स्वर-ये सब मिलकर एक साथ युवकके हृद- कर्मचन्दसे दश हजार रुपयोंका लेना पहले यमें युद्ध करने लगे। वह सोचने लगा-"छिः छिः तो दिवाकरको अच्छा नहीं मालम हुआ। पर क्या चोरीके धनसे भविष्यजीवनके सुखरूए जब उसने देखा कि लक्ष्मीका अनुग्रह उसके किलेकी भित्ति बनाना होगी ? नहीं नहीं, मैंने ऊपर अविश्रान्तभावसे बरस रहा है तब विवेतो चोरी की नहीं-मैं तो सिर्फ कर्ज ले रहा कके साथ उसका मन माना निबटारा हो ही हूँ। फिर मेरा हृदय ताण्डव नाच क्यों नाच गया। उत्तर पश्चिमके दो एक शहरोंमें घूमकर रहा है ? हृदयकी दुर्बलताको अब करीब न दिवाकरने लाहोरमें आकर व्यवसाय शुरू कर फटकने दूंगा । पर यदि मालूम होगया कि में दिया । उसमें एक सालमें कोई तीन हजार चोरीका धन आत्मसात् करने चला हूँ तो फिर रुपये मिले । पर फिर भी उसे शान्ति नहीं जेलखाना--ओ बाबा !"
मिली । इसी लिए बहुत सोच विचार कर दिवाकरने कर्मचन्दसे कहा-"भाई, मुझे वह अपने देशको लौट आया। उसकी शोकातुम्हारा रुपया नहीं चाहिए। "
तुरा माताके साथ उसके प्रथम साक्षात्ने इस ___ कर्मचन्द चुपचाप दिवाकरको देख रहा पापपरिपूर्ण पृथ्वीमें भी स्वर्गीय दृश्य दिखा था। उसने देखा कि दिवाकरकी भीतरी मंत्री- दिया । उसके घर लौट आनेकी खबर पाकर सभामें उसके पक्षकी आवाज भी है। उसने ग्रामके नरनारियोंके झण्डके झण्ड आकर उससे दिवाकरको तर्कद्वारा समझाना शुरू किया। प्रश्न पर प्रश्न करने लगे। उसके पुराने शत्रु भी उसने कहा-" यदि तुम महाजनका कर्ज लेते उसके अवस्थापरिवर्तनके विषयको लेकर तो यह कैसे जान सकते कि उसका वह रुपया उसकी अभ्यर्थना करने लगे। उन सब बातोंको पापार्जित नहीं है और कौन तुमसे कहता है कि लिखनेके लिए हमारे इस छोटेसे इतिहासमें कर्मचन्दका गुप्त धन चोरीसे प्राप्त किया स्थान नहीं है। एक सप्ताहके बाद दिवाकर गया है ? यदि तुम्हें यह सन्देह ही है तो तुम अपनी वृद्धा माताको लेकर लाहोर चला आया इसका प्रायश्चित्त दान द्वारा कर सकते हो। और उस समयको आज बीस वर्ष गुजर गये दश हजार रुपयोंसे रोजगार करके यदि लखपती वह तभीसे लाहोरमें ही रहता है। बन जाओ तो उसमेंसे बीस हजार या तीस अपने कारागारसे छूटनेके पाँच वर्ष बाद हजारका दान करके सारा पाप धो सकते हो।" दिवाकरने कर्मचन्दका पता लगाया था; पर दिवाकर जब घर नहीं जायगा तो उसको यह उस हतभग्यकी जेलमें ही मृत्यु होगई थी। रुपया ले लेनेमें आपत्ति भी क्या है ?
[११] जगतमें जो नित्य होता है-वही हुआ । दिवाकर जिस समय लाहोरमें आकर बसा जीत शैतानकी ही हुई । दुर्बल नरने लोभकी था उस समय कोई भी बंगाली वहाँ नहीं रहता
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FARAHATMAITATI O HIRALALITARY.
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था। विदेशमें आकर यौवमसुलभ अध्यवसायके
[१२] साथ परिश्रमके द्वारा रुपया पैदा करके सभी दिन भरके सब कामोंसे निवृत्त होकर दिवाबंगाली अपने अपने देशको लौट गये थे। उन- कर बाबू अपने सजे हुए कमरे में बैठे बेहाला मॅसे कोई होता तो सम्भव था कि दिवाकरका बजा रहे है । बहालाका स्वर क्रमशः उत्तरोत्तर रहस्य खुल जाता, पर उनमेंसे किसीके न होने
चढ़ रहा है। इस संगीतसुधासागरमें दिवाकर स लाहारवासी बंगाली दिवाकरके सम्बन्धम मन उनके चरणों में बैठा हुआ उनके चेहरे की ओर
बाबू खब मग्न हो रहे हैं । एक काला बिलाव माना सिद्धान्त बनाकर अपना अपना कौतूहल एकटक दृष्टिसे देख रहा है । वह कभी कभी निवारण कर लेते थे।
अपनी आँख मूंद लेता है। बाहर पिंजरबद्ध ___एक दिन आशुघोषने कहा-" आज कुछ बुलबुल बेहालेके स्वरमें स्वर मिलानेकी व्यर्थ ही क्यों न हो, दिवाकरका पूर्ण परिचय प्राप्त चेष्टा कर रहा है। बुलबुलका स्वर जरूर आनकरेंगे ही ! " इतना बड़ा कार्य अकेले सम्पादन न्दमय है । उसको सुनकर हृदय फड़क उठता करना मुश्किल है यह निश्चय करके आशुघोष है । दिवाकरके बेहालेका स्वर करुण और मर्मसतीशचन्द्रके पास पहुंचा।
स्पर्शी है । उसको सुनकर हृदय स्तब्ध हो जाता उसके प्रस्तावको सुनकर सतीशने कहा- है और चित्तकी वृत्तियाँ नीरस हो जाती हैं। "भाई, किसी बड़े आदमीसे इस तरहका इसीलिए आशु और सतीश खुशी खुशी घरमें व्यक्तिगत प्रश्न करना अच्छी बात नहीं है। आकर भी संगीत सुनकर स्तब्ध हो गये हैं : दूसरे जब दिवाकर बाबू अपनी स्थिर और दिवाकरने उनको देखा तक भी नहीं । भावहीन आँखोंसे मुझे देखते हैं सच कहता हूँ
बिलाव भी अपने मालिककी निस्तब्धता भंग तब मेरा दिल ठण्डा पड़ जाता है। "
होनेके भयसे उनको देखकर फर्शपर लेट गया ! __ अपनी बड़ी बड़ी मूंछोंपर हाथ फेरते हुए
दिवाकरने पीछे फिर कर देखा कि दो भद्रपुरुष
उससे मिलनेके लिए बाहर खड़े हुए हैं। आशुघोषने कहा-“ क्या तुम मुझे निरा भोला
___ अप्रतिभ दिवाकरने झटपट बेहाला रखकर बालक समझते हो ? हमने पहलेसे ही बहाना
- कहा-“ बड़े सौभाग्यकी बात है । एक साथ बना रक्खा है।"
। दोनोंने कृपा की है । क्षमा कीजिए, मुझे आपके ___ सतीशने कहा—“ कैसा बहाना है सुनाओ
[ आनेका शब्द भी नहीं सुनाई दिया।" तो सही।"
आशुने कहा-" हम तो बाजा सुन रहे आशुने कहा-" हम कहेंगे कि हमसे कल- थे। आपने बजाना बन्द क्यों कर दिया ?" कत्तेके एक समाचारपत्रने लाहोरके सबसे बड़े दिवाकरने कुछ हँसकर कहा- “समय बंगालीका जीवनचरित माँगा है । हमारे लाहोरी काटनेके लिए कभी बजा लेता हूँ।" बंगालियोंमें दिवाकर ही धनमें, मानमें, दयामें बातचीत होने लगी। दोनों युवक साहस
और सहृदयतामें सबसे बढ़कर हैं। यदि वास्तविक करने पर भी अपना अभिप्राय नहीं कह सके । हाल मालूम हो गया तो समाचारपत्रमें छपवाया सतीशने चुपकेसे आशुसे कहा-“ मतलबकी भी जा सकता है।"
बात क्यों ___ सतीशचन्द्रने आशुकी बुद्धिकी बड़ी तारीफ की. आशुने बड़ी मुश्किलसे अपने मनका भाव
और वह स्वयं वस्त्र पहननेके लिए चला गया। प्रकट किया।
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दिवाकरने हँसकर कहा-“ धनवान होनेसे रमें सौन्दर्ययका कुछ अंश बाकी है । अब और समाजमें भी बड़ा होजाय यह बात तो नहीं है। किस विपत्तिका सूत्रपात होता है-मालूम नहीं। हम और हमारी जीवनी ही क्या !"
क्लाराने दिवाकरको नहीं पहचाना । इन इसी समय नौकरने आकर कहा कि “ एक दई सालोंमें उसकी मानसिक स्थितिमें विशेष मम और एक अँगरेज आपसे मिलना चाहते हैं। परिवर्तन हो गया था । उसके नवनीत सम कोमकाम पड़नेपर दिवाकर बाबू अंगरेज पुरुषसे तो ल वक्षःस्थलपर एक लम्बा वस्त्र पड़ा हुआ था । कभी कभी मिल लेते थे: पर आज २० वर्षसे उसके माथे पर चिन्ताकी रेखा स्पष्ट दिखाई पड़ती उन्होंने किसी मेमकी ओर देखातक भी नहीं था। थी। उसके चंचल कमल-नयन इस समय स्थिर नौकरसे कहा- .जरूरत हो तो साहब आकर गम्भीर और एक प्रकारके दुःखभावसे पूर्ण थे । मिल सकता है; मेमसे में मिलना नहीं चाहता।" दिवाकरके परिचित स्वरमें क्लाराने कहा
आशु और सतीशने एक दसरेकी और देखा। बाबू, बड़ी विपत्तिमें फँसकर आज हम स्त्री नौकरने आकर कहा-" मेम साहब बिना आ
* पुरुष आपकी सेवामें उपस्थित हुए हैं। हमने पसे मिले किसी तरह जाना नहीं चाहतीं।"
सुना है लाहोरमें आप जैसा कोई दानी नहीं है
-इसी लिए हम आपके पास भिक्षार्थ आये हैं।" _ दिवाकर बड़ी झंझटमें पड़ गये । मौका
मालूम होता है कि अपनी भूमिकासे दिवापाकर आशुघोषने कहा-"हर्ज क्या है, मिल लीजिए क्या कहती हैं ?"
करके हृदयपर कुछ प्रभाव पड़ा या नहीं, यह ___ यदि ये लोग इस समय नहीं होते तो दिवा
बात देखनेके लिए वे दोनों कुछ देरके लिए कर बाब किसी तरह भी मेमसे मिलना पसन्द आश्चर्यसे देखने लगा । उनके मुंहकी ऐसा
। चुप होरहे । आशुघोष दिवाकरके मुँहकी ओर नहीं करते । पर इन दोनोंके सामने इनको मज- आकृति उसने न देखी थी। बरन मेम साहबको मिलने के लिए बुलाना पड़ा। रमणीने फिर कहना आरम्भ किया- "बाबू, आश और सतीशको जानेके लिए उठते देख दिवा- मेरा स्वामी रेलका गार्ड है। अपने पहले स्वामा करने कहा-"महाशय, आप बैठिए। इन लोगोंसे के मरने पर मुझे बहुत धन मिला था। मुझे एकान्तमें मिलना मैं अच्छा नहीं समझता।” कहते लज्जा मालूम होती है कि जुएम हिलने ___ सतीशने आशुको बैठनेके लिए हाथसे संकेत वह सब रुपया नष्ट कर दिया । अपनी फिजूलकिया। आशु मूंछके अग्रभागको मरोड़ते हुए वर्चीके कारण यह इस समय इतना ऋणग्रस्त साहबके कार्डको पढ़ने लगा, उसमें लिखा था- हो गया है, कि सारी लाइनमें इसको एक पैसा 'फ्लोरेन्स हिल ।'
भी कर्ज नहीं मिल सकता । अब एक आदमी- धीरे धीरे फ्लोरेन्स हिलने कमरेमें आकर दि- की पाँच सौ रुपयकी डिग्रीमें उसको कल जेल वाकरका सलाम किया। उसके पीछे एक अधेड़ जाना होगा । बाबू, इस अपमानके सामने आप उम्रकी स्त्री थी-जिसको देखनेसे मालम होता था जैसे महानभाव सज्जनसे भीख मॉमना अच्छा है कि वह एक दिन जरूर सुन्दरी होगी। उसको इसी लिए हम आपकी सेवामें आये हैं।' देखते ही दिवाकर चकित होगया । दिवाकरने हिल-पत्नी चुप हो गई। आशुघोषने देखा कि मन-ही-मन कहा-मालूम होता है यह वही पा. दिवाकरके चेहरे पर भी चञ्चल भावकी जगह पिष्ठा है । पिशाची गक्षसी ! अजनी के शो गंभीर भाव आगया है। दिवाकरने तबीयतको
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सँभालकर कहा - " आपके स्वामीको सब कितना रुपया देना है ?"
क्लाराने कहा - "बाबू, इसकी बात क्या पूछते हो; कोई तीन हजार रुपये देना है । "
जैनहितैषी ।
उसकी बातका उत्तर न देकर दिवाकर बाबूने चेक-बहीसे तीन हजारका एक चेक फाड़कर हिलसाहबको दे दिया। सभी विस्मित हो गये ।
हिल साहबने कहा- "बाबू, मैं आपकी दयाका उपयुक्त पात्र नहीं हूँ। मैं बड़ा पापी हूँ--इस रमणीके प्रेममें पड़कर मैंने अनेक पाप किये हैं ।" क्लाराका चेहरा रक्तहीन गया। दिवाकरने कहा - " इसके पहले स्वामीका नाम मूर है ? " विस्मित क्लाराने कहा - " हाँ । ”
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मधुपुर में रहता था ?
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हिलने कहा - " आपने किस तरह जाना ?” दिवाकरने क्लारासे कहा - " मेम साहब, मुझे पहचानती हो ? झूठे अपवादमें, अपना पाप छिपाने के लिए जिसका सर्वनाश करनेमें जरा भी संकोच नहीं किया था उसको अब भी पहचानती हो ? इहकाल और परकाल माननेवाला मैं असभ्य हिन्दू हूँ । तुम्हारे आशीर्वाद से ही मेरे पास इतनी सम्पत्ति है । आज उसीका मूल्य स्वरूप यह साधारण प्रतिदान किया है ।”
दिवाकरकी बात समाप्त होते न होते क्लारा पृथ्वीपर गिर पड़ी । दिवाकर उठकर दूसरे कमरे में चला गया । हिलकी क्लाराके ऊपर विरक्ति दुगनी होगई ! उसने सोचा- इस बोझ के बिना दूर हुए रक्षा नहीं है ।
आशु और सतीशने बड़े यत्नसे क्लाराकी मूर्छाको दूर किया । क्लाराके चले जानेपर सतीशने कहा - " भाई क्या मामला है ! "
आशुघोष मूँछ मरोड़ते मरोड़ते बोले- “हाँ, दिवाकर वास्तवमें ही कुमार हैं । फिर भी हमारी थियरी एकदम निर्मूल नहीं है । मूलमें बंगाली और मेमका मिश्र प्रेम है जरूर । ”
अहिंसा परमो धर्मः ।
[ ले०-श्रीयुत लाला लाजपतराय
कोई धर्म सत्यसे उच्चतर नहीं और न ' अहिंसा परमोधर्मः' से बढ़कर कोई जीवन की चर्या ही है । 'अहिंसा परमो धर्मः' की उक्ति ठीक ठीक समझी जाकर व्यवहृत की जाय तो वह मनुष्यको पूर्ण साधु और वीर बना देती है । ठीक ठीक अर्थ न समझने और दुरुपयोगसे वही मनुष्यको कायर, डरपोक, पतित और मूर्ख भी बना देती है । एक समय ऐसा था जब कि हिन्द इसे ठीक ठीक समझते और इसका उचित उपयोग भी करते थे। उस समय वे एक सत्य-प्रेमी जातिके सुपुरुष और वीर मनुष्य थे। तत्पश्चात् एक ऐसा समय आया, जब कि कुछ सुपुरुषोंने पूर्ण शुभ भावसे और साधु विचारसे इस कल्पनाका रूप दिया। उन्होंने केवल इसे अन्य सब धर्माचरणोंसे ऊपर ही नहीं रक्खा, वरन् श्रेष्ठजीवनकी उसे एक मुख्य कसौटी भी बनाई। उन्होंने केवल अपने जीवनहीमें इसका अतीव उपयोग नहीं किया, वरन् अन्य सब वस्तुओंकी सगोचरता पर भी इसको एक महान जातीय धर्मका रूप दे डाला । अन्य सब धर्माचरण, जो जाति तथा मनुष्यको उच्च बनाते हैं, तुच्छ समझ पीछे छोड़ दिये गये ! क्योंकि उत्कृष्टता के विचारसे अहिंसा ही सबसे उच्च मानी गई। श्री । साहस, वरिता और शूरता सब किनारे रख दिये गये । देशभक्ति, मातृभूमि-प्रेम, कुटुबीजन-स्नेह और जाति-सन्मान आदि सब भुला दिये गये ।
इसका कारण अहिंसाका दुरुपयोग अथवा अन्य सब वस्तुओंको निकृष्ट समझने के कारण
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अहिंसा परमो धर्मः।
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अहिंसाके प्रति उत्पन्न अनुपयुक्त महत्त्व था, लकी चिन्तनाके लिए शक्तिशाली नहीं रहने जिससे कि हिन्दुओंमें सामाजिक, राजनैतिक देती।
और नैतिक पतनकी सम्भावना उपस्थित हो यह मनुष्यको व्याधिग्रस्त एवं भीरु बना गई। वे यह भूल गये कि मनुष्यत्व भी अहिं- देती है। जैनधर्मके स्थापक, साधुपुरुष थे तथा साके समान ही एक धर्माचरण है । वास्तवमें उन्होंने आत्मत्याग एवं आत्म-संयमकी नीतिसे मनुष्यत्व अहिंसासे किसी रूपमें समताहीन न जीवनको बाँध दिया था। उनके अनुयायी जैनथा किन्तु उस समय तक, जब तक अहिंसाका साधु उन साधुपुरुषोंमेंसे हैं, जिन्होंने मानसिक उचित उपयोग किया जाता । उन्होंने एक- एवं हार्दिक सभी इच्छाओंके दमन करनेमें मात्र सत्य-जिस पर जातीय-स्वार्थ अवलंबित हिंसाकी उत्तेजना पर बहुत बड़ी सफलता प्राप्त है अर्थात् सबलोंसे निर्बलोंकी रक्षा, बलात्कार- कर रखी है। टाल्स्टायके मतकी अहिंसोका से किसीकी वस्तु छीननेवालों और परवस्तु रूप अभी कुछ ही वर्षाका फल है । जैन हड़प करनेवालों, चोरों और दुष्प्रवृत्तिवालों, अहिंसा, भारतवर्ष में तीन सहस्र वाँसे मानी विलासप्रिय दुर्जनों एवं स्त्रियोंकी सच्चरित्रताका जाती है । पृथ्वीतल पर अन्य कोई भी गुप्त रीतिसे नाश करनेवालों, दुष्टों और वंचकोंको ऐसा देश नहीं, जहाँ आहेसाके इतने अधिक अन्याय और दुःख देनेसे रोकना आदि- और ऐसे पक्के अनुयायी हों, जितने और जैसे की उपेक्षा की। उन्होंने यह माननेकी अवहे- भारतवर्ष में हो चुके और अब तक वर्तमान हैं। लना की, कि मनुष्यत्वकी रक्षाके लिए तब भी संसार भरमें इस देशके समान कोई न्याययुक्त क्रोध और प्रतिदंडका भय आव- ऐसा पददलित और मानुषिक गुणोंसे वंचित श्यक है जिससे निर्दोषोंको हानि पहुँचाने, देश नहीं. जैसा कि भारतवर्ष आज दिन हो पवित्रताको नष्ट करने और दूसरोंके स्वत्वों- रहा है अथवा गत पन्द्रह शताब्दियोंसे है । को छीननेवाले दुष्प्रवृत्तिके मनुष्योंके चित्त- कुछ लोग कह सकते हैं कि यह सब अधःपतन को रोकनेमें मनुष्य समर्थ हो । वे सत्यकी अहिंसाकी सदोष उपयोगिताले नहीं, वरन् उत्कृष्टता समझनेमें सफल नहीं हुए। क्योंकि अन्य धर्माचरणोंकी हीनतासे हुआ है। जो किसी अत्याचार, अन्याय या दुष्कर्मको अधिक न कह कर हम इतना ही कहेंगे कि होने देता है और इस तरह उसकी अधीनता कमसे कम इस अहिंसाके सिद्धान्तका भ्रष्ट हुआ स्वीकार कर लेता है वह एक प्रकारसे उसकी स्वरूप भी (और अनेक कारणोंके साथ) भारतके पुष्टि कर उसके करनमें उत्तेजना देता है तथा स्वमान, पौरुष और धर्माचरणको हानि पहुँवह अंशतः दुष्कर्म करनेवालेकी वृद्धि और चानेवाले कारणोंमेंसे एक था। वे पुरुष जो इस बलवृद्धिका भी उत्तरदाता होता हैं। सिद्धान्त पर पूर्ण विश्वास करने का दावा करते __'अहिंसा' की अत्युपयोगिता एवं दुरुपयोगिता हैं स्वयं अपने आचरणोंसे प्रमाणित करते एक प्रकारकी छूत है, जो क्रमको ढीला कर हैं कि यह विकारयुक्त सत्यताका उपयोग देती है. सगणताको निर्बल बना देती है. स्त्री वास्तवमें जीवनको छल मनुष्यत्वहीनता पुरुषोंको अर्धविक्षिप्त, शक्तिहीन और शिथिल तथा अत्याचारकी ओर ले जाता है। बना देती है; और उन्हें सदाचरण तथा शुभफ- मैंने स्वयं एक जैन-परिवार में जन्म ग्रहण
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जैनहितैषी
किया है । मेरे पितामह अहिंसाके अटल लोग अन्य हिन्दुओंकी अपेक्षा अधिक आचारविश्वासी थे । यहाँ तक कि चाहे उन्हें एक हीन हैं अथवा उस प्रकारकी अहिंसा ही आचारसर्प काट क्यों न लेता पर वे उसे कभी न हीनताकी ओर ले जाती है। ऐसा कच्चा विचार मारते ! वे कभी एक कीटाणु तकको भी हानि हमसे दूर ही रहे । जनजाति, स्वयं अपनी नहीं पहुंचाते थे। वे अपना बहुतसा समय पूजा- रीति नीतिके अनुसार एक महती जाति है जो र्चनादिमें ही व्यतीत करते थे। वे पर्णरूपसे दानी, सत्कारी और अपने व्यवसायमें परिएक धर्मात्मा पुरुष थे, समाजमें उनका उच्च- श्रमा एवं चतुर है। स्थान और मान था। उनके एक भाई विरक्त इसी प्रकार हिन्दुओंकी अन्य जातियाँ भी तथा उक्त मतके एक प्रसिद्ध आचार्य थे। साधु हैं । हमारे कहनेका तात्पर्य केवल इतना ही है कि महात्माओंमें जिनसे कभी मझे अपने जीवन- अहिंसाके सीमाहीन आचारने उन जातियों को में मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे एक किसी प्रकारसे श्रेष्ठ और अन्य जातियोंकी अपेक्षा सर्वोत्कृष्ट सज्जन थे। उन्होंने अपना जीवन नैतिकरूपसे भी उच्च नहीं बनाया है। वास्तअपने उद्देश्यानुसार, आवेशों, इच्छाओं तथा वमें ये वे मनुष्य हैं जो विशेषरूपसे अत्याचार मांस-भक्षण आदिसे अतीव घणा करते हुए तथा अन्य सबलताओंसे दुःख उठाते हैं। क्योंकि व्यतीत कर दिया । तब भी सदाचरणकी दृष्टि- वे अन्य लोगोंकी अपेक्षा अधिक असहाय हैं। से उनका जीवन रूखा और अप्राकृतिक ही इसका कारण केवल परम्परागत भय तथा सबरहा । मैं उनसे प्रेम और उनका सम्मान करता लताके प्रति घृणा ही है । ये अपने तथा अपने था, पर उनकी रीति नीतिका अनुसरण कर न निकटस्थ प्रिय स्नेहियोंके सम्मानकी रक्षा सका और न उन्होंने ही कभी मेरे इस कार्यकी नहीं कर सकते हैं । यूरोप ईश्वरदत्त सबलताके चिन्ता की। उनके भ्राता अर्थात् मेरे पितामह स्वत्वोंका नवीन अवतार है, तब भी यह यूरोएक दूसरे हो प्रकारके मनुष्य थे। वे उस सवि- पके लिए उचित था कि एक टालस्टायको वह कार अहिंसामें (अहिंसाके भ्रष्ट हुए सिद्धान्तमें) जन्म देता । पर भारतकी दशा दूसरी है। विश्वास करते थे; जो प्रत्येक दशामें किसी भारतमें हम अन्याय और सबलताको अत्याप्राणीकी हिंसा करनेसे रोकती है, तथापि वे अपने चार, वंचकता और उपद्रवके लिए कभी समव्यापार तथा व्यवसायमें सब तरहको चालाकियाँ र्थित नहीं करते । हमें विश्वास है कि भारत चलानेको केवल उचित ही नहीं वरद योग्य कभी यहाँतक नहीं पहुँच सकता । किन्तु हम भी समझते थे। उनके व्यवसायके नीतिशास्त्रके यह शिक्षा दिये जानेके पक्षमें कभी अनुमति अनुसार ऐसी चालाकियोंको चलानेकी छूट थी। नहीं दे सकते कि आत्म-रक्षा, सम्मान-रक्षा तथा — मैंने ऐसे विचारके बहुत मनुष्योंको भी देखा स्त्री, बहिन, पुत्री और माताकी रक्षाके लिए है जो नाबालिगों और विधवाओंको उनके न्याययुक्त .बलका प्रयोग न किया जाय । ऐसी अन्तिम ग्राससे भी वंचित कर देते हैं, पर वे शिक्षा अप्राकृतिक एवं अनर्थकारी है । हम ही जूं , पक्षी अथवा अन्य प्राणियोंको मृत्युकी राजनैतिक हत्याओंसे घृणा करते हैं, सिर्फ विपत्तिसे बचानेके लिए सहस्रों रुपये खर्च कर इतना ही नहीं, वरन् इससे भी अधिक, यहाँतक देते हैं । मेरे कहनेका यह तात्पर्य नहीं कि जैन कि हम अन्याययुक्त एवं अनुचिंत बलप्रयोग
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अहिंसा परमो धर्मः।
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जो उचित कार्यका बाधक हो, उसके प्रति भी जातीय विकासको अवरुद्ध करनेकी स्वतन्त्रता पृणा रखते हैं । परन्तु हम उस दशामें चुप नहीं किसीको भी न मिलनी चाहिए । न बुद्ध और बैठ सकते जब एक उच्च एवं सम्मानित पुरुष न ईसाने ही कभी ऐसी शिक्षा दी है। मैं नहीं हमारे नवयुवकोंसे कहता है कि “ जो मनुष्य जानता कि कदाचित् जैन भी इस परिधि तक हमारे संरक्षणमें हैं उनके सम्मानकी-इज्जतकी पहुँचे होंगे। क्योंकि इन दशाओंमें मानसहित रक्षा करनेका मार्ग यह है कि हम अपनेको अत्या- जीवन बिताना असम्भव हो जायगा। जिस चार करनेवालोंके हाथों में दे देवें । क्योंकि यूँसे- मनुष्यका ऐसा विश्वास है, वह कभी लगातार बाजी करके सामना करनेकी अपेक्षा यह कहीं किसीका प्रतिरोध-जो अपनी इच्छानुसार बड़ा मानसिक एवं शारीरिक साहस है"। काम कर रहा हो-नहीं कर सकता । क्या हम मान लो कि कोई अत्याचारी हमारी पुत्री पर पूछ सकते हैं कि मि० गाँधीने द० एफ्रिकाके आक्रमण करता है । मि० गाँधीकी अहिंसा श्वेतांगोंका दिल-भारतवासियोंको देश बाहर कहती है कि अपनी पुत्रीकी मानरक्षाके निकालनेकी परम प्रिय नीतिके प्रतिकूल विरोध लिए केवल आक्रमणकारी और पुत्रीके बीच- खड़ा करके-क्यों दुखाया ? तर्कानुसार तो में खड़ा हो जाना ही ठीक है। किन्तु उस जैसे ही उस देशवालोंने उन्हें देशके बाहर दशामें क्या होगा, जब आक्रमणकारी हमको निकालनेकी आभिलाषा प्रकट की थी, वैसे ही गिरा कर अपनी पैशाचिक आभिलाषा पूरी करेगा? उन्हें अपना डेरा-डंडा उठाकर सम्मानपूर्वक मि. गाँधीके कथनानुसार इसकी अपेक्षा कि खसक आना था और ऐसा ही अपने देशवाअपने बलको उसके प्रतिरोधके लिए उपयोगमें सियोंसे करनेके लिए कहना उचित था । लावें, इसमें अधिक मानसिक एवं शारीरिक कारण ऐसी दशामें किसी भी प्रकारका विरोध साहसकी आवश्यकता है कि ऐसी दशामें भी हिंसाके बराबर ही हो जायगा; क्योंकि सब खड़ा रहे और उसे दुराचार करने दे। मि० प्रकारकी शारीरिक हिंसा केवल मानसिक गाँधीकी इस मान्यताके कुछ भी अर्थ हिंसाका ही विकसित रूप है। यदि किसी नहीं हैं । में मि० गाँधीके व्यक्तित्वका बहुत चोर, डाकू या शत्रुके दूषण पर विचार करना आदर करता हूँ । वे उन महात्माओंमें से एक मात्र पाप है, तो वास्तवमें उनका प्रतिरोध हैं जिनका मैं हदयमें ध्यान करता हूँ | मैं उन- करना उससे कहीं बड़ा पाप है। की सहृदयतामें सन्देह नहीं करता । मैं उनकी यह बात ऊपरी रूपहीमें ऐसी अनुपयुक्त प्रवृत्तियोंके सम्बन्धम प्रश्न नहीं करता । किन्तु है कि हमें मि. गाँधीकी स्पीचकी रिपोर्टकी इसको मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ कि में एक सत्यता पर सन्देह करनेकी प्रवृत्ति होती है । जोरदार प्रतिरोध उस अनर्थकारी उपदेशके परन्तु पत्रोंने स्वतंत्रतापूर्वक इसपर टीका टिप्पणी लिए उठाऊँ जिसके सम्बन्धमें उनके उस उपदे- की है और मि० गाँधीने भी इस समाचारके शके दिये जानेकी विज्ञप्ति दी गई है। प्रति कोई विरोध-पत्र नहीं प्रकाशित किया। __गाँधीको भारतके नवीन बच्चोंके मस्तिष्क- किसी दशामें भी, मुझे प्रतीत होता है कि मैं को ऐसे विषयकी शिक्षा देकर बिगाड़ने- चुपचाप नहीं बैठा रह सकता। जब तक स्पीचका कभी अधिकार न दिया जाना चाहिए। के आशयका संशोधन एवं पूर्ण कथन न हो
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विश्वास ।
जाय तब तक इस प्रकारकी अहिंसाकी शिक्षा । को नवीन भारतके बिना अनुसरण किये हुए ही आविवेचनीय सत्यताकी भाँति रह जाना चाहिए । मि० गाँधी, पूर्ण कल्पनाका संसार रचा चाहते हैं । वास्तवमें वे ऐसा करने और दूसरोंसे कहनेके लिए भी स्वतन्त्र हैं, पर उसी भाँति यह मेरा भी कर्तव्य है कि मैं उनकी गलतियोंको बतलाता चलूँ । ( मर्यादासे )
(ले०-श्रीयुत प्रेमी हजारीलालजी!)
(१) जिस सुहीतलमें हुई,
विश्वासकी जाज्वल्यता ! सूखते देखी नहीं,
उसकी कभी आशालता।। . . . डूबते हृदयोंको देता,
है बहुत ऊपर उठा ॥ दान करता है निराशों___को बड़ी उत्फुल्लता।
चाहे तुम्हारे रास्तेमें कितने ही विघ्न उपस्थित हों और कितनेही दुःख और कष्टोंको तुम्हें भोगना पड़े तो भी सदा प्रसन्नचित्त रहो। उदास और निराश कभी मत होओ। विचारो, जब तकलीफें तुम्हें चारों तरफसे घेर रहीं हों, उस समय यदि तुम निराश हो जाओगे और अपने चित्तकी प्रसन्नताको खो बैठोगे तो क्या तुम्हारी तकलीफें घट जायगी ? कदापि नहीं, उल्टी बढ़ जायगीं । तकलीफोंका दुःख कौन कम है, उस पर उदास होकर क्यों अपने दुःखको दुगना करते हो? यदि तुम अभी नवयुवक हो, तो प्रकृतिने तुम्हें हँसमुख बनाया है। यदि तुम देखो कि तुम्हारी लक्ष्मी, कीर्ति, अथवा अन्य किसी वस्तुकी प्राप्तिमें कुछ कठिनाई या कंटक है तो इसे अपने लिए अच्छा समझो। ये कठिनाइयाँ तुम्हारे मार्गमें जानबूझकर डाली गई हैं कि जिससे तुम और अधिक श्रम करो और तुममें सहन शक्ति आधिक बढ़े। यह अच्छा है और जियादा अच्छा है कि तुम तमाम उमर प्रसन्नचित्त रहते हुए श्रम करते रहो, और तुम्हारी इच्छा
ओंकी कभी पूर्ति न हो, बजाय इसके कि आपत्तिके पहले पहल आते ही निराश हो जाओ और वह निराशा तुम्हारे साहस और उत्साहको भंग कर दे
और तुम्हारे चित्तकी स्वाभाविक प्रसन्नताको नष्ट कर दे । यदि तुम्हारा स्वभाव नर्म और मुलायम है तो तुम्हें प्रसन्न रहना ही चाहिए । यद्यपि हम भलीभाँति जानते है कि निराशा और असावधानताकी अपेक्षा तुम अनेक दुःखोंको सहर्ष सामना कर सकते हो तथापि तुम्हें चाहिए कि निराशाको आशामें बदल दो। उन बातोंका व्यर्थ चितवन करके अपने समयको नष्ट मत करो जो तुम्हें हासिल नहीं हुई। प्रकृति तुम्हें हर्ष और आशाका स्रोत बनाया है, न कि शोक और निराशाका ।
कार्यकृत होता नहीं,
जिसमें नहीं विश्वास है। काम करनेके लिए, ___ उसको बड़ा अवकाश है। धर्मकी है जड़ यही,
यह नीतिका भी प्राण है। वीरजनका बाहुबल है,
साधुओंका ज्ञान है ।।
सिंहको बकरी लखे,
बकरा बने बनकेसरी। रेतमें बिन तोयके,
रक्खे सदा खेती हरी॥ नास्तिता यदि व्यक्तियोंकी,
स्वत्वरक्षक हो तो हो। जातियाँ विश्वास बिन, सर्वस्व ही देती हैं खो॥
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तीर्थोके झगड़े कैसे मिटें ?
( लेखक-श्रीयुत वाडीलाल मोतीलाल शाह । )
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंमें भूख और अज्ञानसे मर रहे हैं और उनके तीर्थकरोंकी मूर्ति पूजी जाती है और दोनों ही लिए किसीकी आँखमें दो बूँद आँसू भी नहीं इसे पुण्यकार्य समझते हैं । परन्तु दोनोंकी आते ! पर इन मुकदमों में अब तक कोई पक्ष न पूजाविधिमें थोड़ीसी भिन्नता है। एक सम्प्रदायवाले जीता है और न हारा है ! हजारों पर पानी फेर भगवानकी मूर्तिको सब प्रकारके परिग्रहसम्बन्धसे कर एक पक्ष एक कोर्टसे जीतकर सर्टिफिकेट रहित रखते हैं और दूसरी सम्प्रदायवाले उसे लेता है, पर दूसरीमें हार जाता है और तब ऑगी चक्षु आदि लगाकर पूजते हैं । इस साधार- यहाँ वहाँसे रुपयोंका बल एकहा करके तीसरी ण भिन्नताके कारण दोनों ही सम्प्रदायवाले एक कोर्ट में जानेके लिए कमर कसता है । जो लोग दूसरेको झूठा और उन्मार्गी सिद्ध किया करते इस कामके अगुए-लड़नेके लिए उत्तेजित करनेहैं। इस कार्यके लिए अभीतक समाचारपत्र वाले हैं, वे प्रायः धर्मान्ध हैं और 'भुसमें चिनगी
और व्याख्यान आदि साधन काममें लाये जाते डाल जमालो दूर खड़ी' वाली कहावतको चरिथे, परन्तु जब इनसे सन्तोष न हुआ तब इस तार्थ करते हैं । भोले भक्तोंके पैसोंकी होली जलकार्यमें दोनोंने रुपयोंकी सहायता लेना शुरू कर ती है और ये दृर खड़े रहकर तापते हैं । अभी दी है और इस तरह अब ये रुपयोंके द्वारा हाल ही मैंने सुना है कि बम्बईमें दिगम्बर जैनाअपने अपने धर्मको विजयशाली बनाना चाहते हैं। की सभा हुई और उसमें बातकी बातमें सम्मेद... सम्मेदशिखर, अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, मक्सी, शिखरके मुकदमेंके लिए ६०-७० हजारका तारंगा आदि पवित्र-स्थानों में आजकल यही हो फण्ड हो गया ! इस समय कोई आठ महीनेसे रहा है। प्रत्येक पक्षवाला यही कहता है कि दिगम्बरियोंका लगभग दश हजार रुपये मासिइन तीर्थों पर केवल हमारा ही हक है और हमारी कके हिसाबसे सम्मेदशिखरके मुकद्दमेंमें खर्च ही पद्धतिसे यहाँ उपासना-पूजा होनी चाहिए। हो रहा है ! उधर श्वेताम्बर भाईयोंकी 'आनइसके लिए कई मुकद्दमें दायर हैं जो वर्षों से चल रहे न्दजी कल्याणजी' की कोठी जब तक बर करार हैं और उनके लिए लाखों रुपया भोले भाईयोंसे इस हैं तब तक कोटोंके और वकील बैरिस्टरोंके तरह वसूल किया जाता है; मानों इन मुकद्दमों- लिए तो चिन्ता करने या चन्दा करनेका कोई से तीर्थंकरोंके धर्मका प्रचार या प्रभावना ही हो कारण ही नहीं है । उनका तो सब तरहसे आनन्द रही हो। अब तक दोनों पक्षवालोंके इस काममें और कल्याण है । परन्तु इन प्रयत्नोंसे जैनधर्मका कई लाख रुपये लग चुके हैं और ये उस समय या श्वेताम्बर दिगम्बर सम्प्रदायका क्या कल्याण खर्च हुए हैं जब स्वयं जैनी ही दुःख, दरिद्रता, होगा, यह कोई नहीं बतलाता । क्या अदाल
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जैनहितैषी
तोंसे इन झगडाका निबटेरा हो सकता है ? अथवा से जो एक जीतेगा उस जीतसे क्या उसका धर्म अदालतें 'न्याय' कर सकती हैं ? कभी नहीं, वास्तवमें सत्य ठहर जायगा ? अरे अज्ञानियो ! और इसकी साक्षी प्रत्येक विचारशील जैनी दे यह उसके धर्म ' की नहीं, पर 'पैसे' की सकता है। 'बालकी खाल निकालनेवाली' जीत समझी जायगी और धर्मकी सत्यताका वर्तमान न्यायपद्धति ऐसी विलक्षण है कि उसके निर्णय होना तो करोड़ोंका खर्च कर चुकने परद्वारा जो कार्य 'अपराध' सिद्ध हुआ है वही भी बाकी ही रहेगा ! और फिर न्यायप्रिय 'हक ' सुबूत किया जा सकता है ! यह न्याय सज्जन तो दोनोंको अधर्मी कहेंगे। क्योंकि तुम्हारे हकों पर नहीं किन्तु वकील बैरिस्टरोंकी तीर्थकर महात्माओंने-जिन्हें दोनों ही पूज्य चतुराई, न्यायाधीशकी विचारशक्ति और अकावट मानते हैं-इन द्वेषकार्योंको अधर्म ही कहा है। पर अवलम्बित है। जिस पक्षको अपने मुकद्दमेंकी जो श्वेताम्बरसमाज विद्याप्रचारके लिए गत सत्यतामें सोलह आने विश्वास है वह भी यह आशा सात वर्षोंसे वार्षिक दो हजार रुपया खर्च करनहीं कर सकता कि अदालतमें हमारी जीत नेके लिए भी इधर उधर ताकता है, वही अवश्य होगी । ऐसी दशाम मच अठका फैसला
समाज सम्मेदशिखर पर दिगम्बरोंको पूजा न
करने देनेके पुण्यकार्यमें दो चार लाख रुपयोंका उक्त सन्दिग्ध और खाली न्यायपद्धतिक द्वारा पानी बना सकता है और जो दिगम्बरसमाज करानेका पागलपन छोड़कर समझमें नहीं स्वार्थत्यागी पण्डित पन्नालालजीके शास्त्रोद्धारआता कि कोई सीधा सरल और बिना वर्चका
का कार्यके लिए अथवा स्वयंसेवक पं० अर्जुनलालउपाय क्यों नहीं किया जाता । क्या जैन समा
- जी सेठीके छुटकारेके आन्दोलनके लिए दशबीस जकी चिरप्रसिद्ध व्यापारी बुद्धि पर पत्थर ही
। हजार रुपया खर्च करना कठिन समझता है, पड़ गये हैं जो वह और कोई अच्छा मार्ग ।
माग वही इन पहाड़ोंके मुकद्दमोंमें लाखों रुपया पानीकी नहीं खोज सकती ? कहा जाता है कि यदि
६ तरह बहा रहा है । अफसोस ! भाइयो ! रावणके यहाँ कोई चतुर वैश्य सलाहकार होता, क्या तम अपने इन्हीं कामोंसे अपने पड़ोसी तो उसका राज्य नष्ट नहीं होने पाता। वर्त- अजैन भाइयोंकी नजरमें ऊँचे चढ़ोगे ? दूसरे मानके जैनी उसी वैश्य जातिके ही तो वंशधर लोग तम्हारी मूर्खता पर हँसते हैं, तुम्हारे धनकी हैं: फिर आज ये अपने ही गज्यको और सो भी बरबादी होती है, तुम दोनों एक बापके दो धर्मसम्बन्धी राज्यको बचानेके लिए रावणकी सहा- बेटे हो तो भी तुममें दिनों दिन द्वेष बढ़ता जाता यता क्यों चाहते हैं ? भाईयो ! इस काममें तुम्हें है, और तीब कषायके वशवर्ती होकर तुम दोनों स्वयं प्रकृति (कुदरत) ही सफल न होने देगी। ही कर्मबन्ध करते हो। ये सब हानियाँ अन्धेसे प्रकृति माता दयालु नहीं पर न्यायप्रिय है, अन्धेकी भी आँखें खोलनेके लिए काफी हैं । इस लिए वह तुम्हें इन हार जीतकी बाजियोंमें इसके सिवाय एक और बड़ी भारी हानि इससे ही कंगाल और फटेहाल करके फेंक देगी। यह हो रही है कि जिस समय भारतके तमाम बतलाओ तो सही. तो तम यह लाखों करोडोंकी सपत्र और विदेशी होनेपर भी अपनी न्यायबरबादी किस बिरते पर कर रहे हो? इससे तुम्हारे प्रियताके कारण भारतका पक्ष लेनेवाले ब्रिटिश कौनसे उच्च आशयकी सफलता होगी? तुममें- सज्जन स्वराज्यकी माँग सदाकी अपेक्षा अधिक
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CALMITABILIBHIARMINORAMMAMIRMIRAHAMITHAATAMIL
तीर्थोके झगड़े कैसे मिटें ।
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जोरदार आवाजसे करने लगे हैं, उस समय लोगोंकी आयु तपस्या करते करते पूर्ण हो लगभग ८-१० लाख जैनधर्मानुयायी भारत- जायगी वे सब स्वर्गलाभ करेंगे! वासी अपने इस आचरणसे यह बतला रहे हैं यदि हमारे भाईयोंमें इतना धैर्य न हो, वे कि हम लोग अपना धार्मिक और सामाजिक झटपट इस पार या उस पार ही हो जाना चाहते राज्यतंत्र भी स्वयं नहीं चला सकते हैं-विदेशी हो. तो उनके लिए दूसरा रास्ता यह है कि दोनोंविधर्मी सरकारको बीचमें डाले बिना हमारा
को आमने सामने आकर इस तरह लड़ना काम ही नहीं चल सकता है । हमारा यह कार्य
चाहिए कि उससे हारनेवाले और जीतनेवाले हमारी स्वराज्यसम्बन्धी आशा पर निराशाका
दोनोंही अन्तमें लाभमें रहें । यह लड़नेकी रीति काला बादल छा देता है।
उसी प्रकारकी होनी चाहिए जैसी मन्दिरोंमें हमारे जैनभाइयोंको चाहे जिस तरह होचाहे जो हानि उठाकर हो, यदि जीत ही प्राप्ति
आरतीके घीकी या फूलमाल आदिकी बोली बोलते करनी है, तो उन्हें कोर्टोसे तो जीतकी आशा
समय काममें लाई जाती है । जिस स्थलपर छोड़ ही देना चाहिए-वहाँसे वह तो मिल ही झगड़ा हो उस स्थलके पूजा करनेके हककी
बोली बोलो । यह बोली एक लाखसे कम रकमनहीं सकती है। अब रहे और और मार्ग, सो १ उनमेंसे एक तो यह है कि दोनों पक्षके मखि- स शुरू न होनी चाहिए और एक बोलीमें पच्चीस याओंको झगड़ेके स्थानोंमें विराजमान रहनेवाले हजारसे कमकी रकम आगे न बढ़ानी चाहिए । भगवानके आगे तपस्या करने के लिए बैठ जाना जो पक्ष सबसे अधिक रकम दे उसीको पूजा चाहिए और अपनी तपस्याके जोरसे भगवान- करनेका स्वतंत्र हक दिया जाय और यह रकम को बुलाना चाहिए तथा कहना चाहिए-"प्रभो! दोनों समाजोंके युवकोंकी शिक्षावृद्धिमें खर्च तुम्हारे लिए तो हम लड़लड़कर थक गये और काज
की जाय । तुम दया-मयारहित होकर सिद्धलोकमें .जा यदि यह मार्ग पसन्द न हो तो अन्तमें छुपे हो ! दया करके थोड़ी देरके लिए तो यहाँ तीसरा और अतिशय महत्त्वका मार्ग यह है कि आ जाओ और बतला दो कि इस स्थानपर पूजा भारतके जितने प्रसिद्ध प्रसिद्ध नेता हैं उनमेंसे करनेका हक किसको है ? साथ ही साथ यह किसी एकको अथवा दोको पसन्द करके उनके भी बतला दो, जिससे आगे पुराने ग्रन्थोंके लौटने हाथमें यह मामला दे देना चाहिए और वे जो -पलटनेकी और सुबूत ढूँढनेकी खटखटसे भी कुछ फैसला करें उसे हमेशाके लिए स्वीकार छुट्टी मिल जाय कि पहले श्वेताम्बर हैं या कर लेना चाहिए । लोकमान्य श्रीयुत बालगंगाधर दिगम्बर ? " जब तक भगवान् सिद्धशिला तिलक और महात्मा गाँधी आदि सज्जन ऐसे हैं छोड़कर न आवें और खुलासा न कर जायँ तब कि इनके द्वारा पक्षपात या अन्याय नहीं हो तक दोनों ही पक्षवाले तपस्या करते रहें। इस- सकता। ये दोनों ही पक्षवालोंको सन्तुष्ट कर सकेंगे। से एक तो लोगोंके रुपयोंका पानी बनना बन्द जैनसमाजके गौरवको रख सकेंगे और भारतके हो जायगा और कदाचित्, भगवानने पधारनेकी हितकी रक्षा कर सकेंगे। इस अन्तिम सूचनाको या खुलासा करनेकी कृपा नहीं की, तो जिन माननेके लिए जो तैयार न हों, उन्हें पक्का देश
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MITRAKATIHATIONAIRIDIHATI
जैनहितैषी
द्रोही समझना चाहिए। हमारी समझमें जिन्हें दश लाख श्वेताम्बर दिगम्बर जैनोंमेंसेगाँधी और तिलक जैसे पुरुषरत्नोंमें विश्वास बड़े बड़े व्यापारकुशल, वयोवृद्ध और पढ़े नहीं है अथवा उनकी सम्मतिकी परवा नहीं है, लिखे जनोंमेंसे-एक मामूली और घरू झगउन्हें भारतवासी ही नहीं कहना चाहिए। डेको भी मिटानेवाला कोई पुरुष आगे नहीं ___ उक्त दोनों ही सज्जन धर्मात्मा हैं, मूर्तिपूजाको आता । समय ! तेरी बलिहारी ! भी मानते हैं और देशके गौरवको बढ़ानेके लिए अन्तमें, जिन जिनेन्द्रदेवकी पूजाके ठेकेके तो प्राणोंको हथेली पर लिये फिरते हैं । कानून- लिए यह सोनेकी नदी बहाई जा रही है, वे यदि का ज्ञान भी इन्हें जजोंकी अपेक्षा कम नहीं है थोड़ी देरके लिए मुक्तिपुरीका आनन्द छोड़कर और साथ ही सत्यके एकनिष्ठ सेवक होनेके सुन सकते हों, तो उनके चरणोंमें मेरी यह कारण किसी ओरको लुढ़क जानेवाले भी ये नहीं प्रार्थना है कि "हे भगवन् ! ऐसा समय ला दो हैं। दोनों ही सम्प्रदायके विचारवान सज्जनोंको कि हम अपने भाईयों और पुत्रोंसे तो हार जायँ-- इस विषयमें आन्दोलन करना चाहिए और इसे बुरा न समझें और अपने शत्रुओंको हरानेभाई भाईकी इस आपसी लड़ाईको मिटानका के लिए हर समय तैयार रहें-प्रकृत शत्रुओंको पुण्य सम्पादन करना चाहिए।
हरानेमें ही अपना गौरव समझें ।" ___महात्मा गाँधी इतने उदार और निरभिमानी हैं कि उन्हें ऐसे कामोंके लिए आमंत्रणकी भी मनुष्यको बहतसा दुःख इस कारणसे होता है कि आवश्यकता नहीं रहती है। इस लिए मैं उनसे वह प्रायः सदा इसी बातकी चिंतामें रहता है कि आग्रहपूर्वक प्रार्थना करता हूँ कि हमारे जैन लोग मेरे विषयमें क्या कहते हैं । यह फिज़लका भाई यदि आपको बीचमें पड़कर न्याय कर स्याल है। इस ख्यालमें पागल बने रहना मूर्खता है। देनेके लिए आमंत्रण न करें, उनमें इतनी भी जरा सोचो तो कि तुम्हारे कामोंका जो कुछ वे कहते सुबुद्धि न रही हो, तो आपको स्वयं ही देशके हैं उससे कुछ सम्बंध भी है या नहीं। इसके अतिगौरवके लिए और देशकी एक प्रतिष्ठित कौमकी रिक्त यह भी निश्चय नहीं है कि वे तुम्हारे विषयमें अवनतिको रोकनेके लिए-स्वेच्छापूर्वक बीचमें कुछ कहेंगे भी या नहीं। कितने ही आदमी यह ख्याल पडनेकी कृपा करना चाहिए।
करते रहते हैं कि हमारे कामोंकी दुनिया देख रही है, 'समयके फेरतें सुमेरु होत माटीको इस कथन परंतु उन्हें देखता कोई नहीं । वे सोचते हैं कि हरएक की सत्यता इस मामलेमें प्रत्यक्ष हो रही है। एक राहगीरकी हम पर दृष्टि पड़ती है, परंतु यह केवल
ख्याल है । अस्तु मान लो कि यह ख्याल नहीं किन्तु ऐसा भी समय था जब गुजरातकी कीर्तिको दूर
- सत्य है, वास्तवमें लोग तुम्हारे विचारों और कार्योंकी दूर तक फैलानेवाला और मुसलमानोंके प्रबल
झूठी निंदा करते हैं और तुम्हारे विषयमें अनुचित आक्रमणोंके वेगसे माण्डलिक राजाओंके आपसी सम्मति रखते हैं। परन्तु इससे क्या ? किसीने टीक झगड़ोंके रहते भी गुजरातको बालबाल बचा कहा है कि दूसरेके बुरा कहनेसे तुम्हारा कुछ नहीं लेनेवाला पुरुष एक जैन था और वह पाटणका बिगड़ता। यदि तुम वास्तवमें निर्दोषी हो तो दूसरोंमंत्री मुंजाल था । यह २५-३० वर्षका युवा की कड़ी समालोचनासे तुम्हें उतनाही दुःख होना अनेक झगड़ों फसादों स्वार्थजालों और उपद्र- चाहिए जितना कि तुम्हें उस समय होता, जब कि वोंको बड़ी दूरदेशी और शक्तिसे दबा सकता था किसी ऐसे मनुष्यकी वही समालोचनाकी जाती जिससे और सारे गुजरातमें अमनचैन रख सकता तुम तनिक भी परिचित नहीं हो, अर्थात् तुम्हें रंच था और एक यह भी समय है जब आठ- मात्र भी दुःख नहीं होना चाहिए । (-हेल्प्स )
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तीन देवियोंका संवाद । __ [ले०, श्रीयुत बाबू मित्रसेनजी जैन । ]
१ लक्ष्मीः
(१) खबरदार कोई चूँ मत करना, मेरा है संसार।
मेरा ही अधिकार जगतमै, मैं ही हूँ सर्दार ॥ बड़े बड़े गढ़ कनक भवन सब, मेरे ही हैं खेल। फैल रही है अखिल लोकमें, मेरे यशकी बेल ॥
आँख उठाकर जिसको देखू, दममें हो खुशहाल ।
कपा विना मेरी फिरते सब. भूखे औ कंगाल। बड़े बड़े विद्वान वीर वर, रटते मेरा नाम ।
चलता है मेरे ही बल पर, सारे जगका काम ॥
जर्मन अमरीकाको देखो, ब्रिटिन चीन जापान ।
मेरी चरण-रेणुको पाकर, कहलाते धनवान ॥ वहाँ राकफेलर जैसे हैं, अगणित मेरे दास । यहाँ बिना मेरे भारतके, होते नित्य उपास ॥
(४) एक समय भारतने मेरा, किया बहुत अपमान।
इससे देखो आज बना यह, घोर दुःखकी खान ॥ चलो हटो सब, यह निश्चित है, में सबकी सरताज। मेरी नाममालिकाको ही, फेरे सकल समाज ॥
२ शक्तिः --
यह क्या, यह क्या, क्या बकती है ओ गरबीली नार।
क्या तू बस हो गई बड़ी, कर लेनेसे शृङ्गार ॥ झूठ सरासर बकनेवाली, मत कर तू अभिमान ।
मेरे आगे खड़ी न होना, दिखलाने अज्ञान ॥ नहीं जानती जिस दिन मेरी, कुटिल भवें चढ़ जाती। ..तू दबती फिरती है सम्मुख, मेरे कभी न आती ॥ मैं इक छिनमें सारे जगको, तहस-नहस कर डालूँ।
चाहे जिसे बनाऊँ राजा, चाहे जिसे निकालूँ ॥
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जैनहितैषीmimmifinitMITTED
है प्रत्यक्ष आज यूरप पर, हुआ हमारा कोप।
तनिक सोच तेरी प्रभुताका कहाँ होगया लोप॥ जर्मन और ब्रिटिश राजोंमें, निकल पड़ी तलवार । लाखों इस नरमेधयज्ञमें, हुए, हो रहे छार ॥
मैं कृपालु जब थी भारत पर, लाखों थे वरवीर।
अब तक रहे प्रताप शिवाजी, पृथ्वीसे रणधीर ॥ बस इस जगपर मेरा ही है, एकछत्र अधिकार ।। खबरदार अब आगे बढ़ कर, नहीं बढ़ाना रार ।।
३ विद्या:--
ठहरो, ठहरो, दोनों मिलकर, व्यर्थ लड़ाई न ठानो।
हटो, काम लो तनिक बुद्धिसे, बात हमारी मानो। लक्ष्मी ! तुम हो बड़ी चंचला, गंभीरता नहीं है। और, शक्ति! तुममें विचारनेकी योग्यता नहीं है।
(१०) देखो लक्ष्मी ! एक दोष है, तुममें अतिशय भारी।
तुमको चोर चुरा ले जाते, चलती एक न प्यारी॥ तुम रहती हो जहाँ वहाँ पर, दोष फैलते सारे। नित्य लड़ाई होती, होते बन्धु बन्धुसे न्यारे ॥
मैं हूँ अति गंभीर चोर भी नहीं चुराने पाता।
जितना करो दान मेरा धन, दूना बढ़ता जाता ॥ तुम भी सुनो शक्ति ! सब जगको, मैं सभ्यता सिखाती। तू मनुष्यको नरक दिखाती, मैं सुरपुर ले जाती ॥
(१२) उदाहरणमें देती हो तुम, यूरप-रणको मान ।
पर इतना तो सोच वहाँ क्या, तेरी ही है शान ॥ व्योमयान, तोपें, जो करतीं, अगणित नर संहार। अद्भुत रणकौशल आदिक ये, किसके हैं व्यापार ॥
(१३) तेरा बड़ा गर्व लख मैंने, यह करतब फैलाया।
यूरपके इस महायुद्धमें, नीचा तुझे दिखाया ॥ हम तुम तीनों बहन जहाँ है, वहाँ पुण्य सुरधाम ।
वहीं बुद्ध औ महावीर हैं, वहीं कृष्ण औ राम ॥
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विविध प्रसङ्ग।
१ लाला लाजपतराय और जैनधर्म। व्रत हैं उनमें जो दर्जा अहिंसाका है वही शेष
पजाबके सुप्रसिद्ध देशभक्त लाला लाजपत- चारका अर्थात् सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और रायजीका नाम बहुत कम लोग ऐसे होंगे जो अपरिग्रहका है । यह नहीं कि श्रावकको सिर्फ न जानते हों। आप इस समय आर्यसमाजी हैं, अहिंसाका पालन करना ही जरूरी है सत्य आदिका पर आपका जन्म एक (स्थानकवासी ) जैन- नहीं, अथवा आहंसाके बराबर सत्य आदिकी कुलमें हुआ था-आपके पिता पितामह आदि पालना आवश्यक नहीं है। जैनसिद्धान्तके अनुसब जैनधर्मके अनुयायी थे । यह बात स्वयं स
आपके लिखे हुए एक लेखसे प्रकट हुई है जो जिनका पालना प्रत्येक गृहस्थके लिए बहुत ही कलकत्तेके 'माडर्न रिव्य में प्रकाशित हुआ जरूरी है-उनमें ये पाँचों व्रत एक समान आवहै और जिसका अनुवाद हमने अन्यत्र उद्धृत
श्यक हैं । एक सुप्रसिद्ध जैनाचार्यने एक अहिंकिया है । उक्त लेख मुख्यतः महात्मा गाँधीके
सावतको ही आचारशास्त्रका मूल माना है और विचारोंको लक्ष्य करके लिखा गया है; परन्तु है । वे कहते हैं कि असत्य भी पाप इसी
सत्य ब्रह्मचर्य आदिको उसके ही भेदोंमें गिनाया गौणरूपसे उसमें जैनधर्मकी अहिंसाकी आलो- -
- कारण है कि उससे अपने या पराये प्राणोंकीचना भी की गई है। क्योंकि महात्मा गाँधीके
* द्रव्य या भावरूप हिंसा होती है-उससे दूसरोंविचार जैनधर्मके आचार-शास्त्रांसे बहुत कुछ कोया अपनेको एक प्रकारका कष्ट पहुँचता है। मिलते-जुलते हैं । परन्तु हमारी समझमें लाला- इसी तरह परस्त्रीसेवन आदि भी हिंसाके कारण जीने सिर्फ जैनधर्मके वर्तमान स्वरूपकी-अहिंसा- हैं। गरज यह कि हिंसाको छोड़कर और कोई धर्मके उस अत्याचारकी-जो जैनधर्मके वर्तमान पाप ही नहीं है। परन्तु पापपुण्यकी इस विलक्षण अनयायियोंमें दृष्टिगोचर होता है और जिसमें व्याख्यामें भी जो साक्षात् अहिंसा है उसका दजा लोग जैनोंका नहीं किन्तु जैनसिद्धान्तका दोष सत्य या ब्रह्मचर्य आदि किसी भी व्रतसे बड़ा समझ लेते हैं-आलोचना की है। अहिंसाको नहीं है और इसी प्रकार छोटा भी नहीं है। वे सर्वोत्कृष्ट जीवनचर्या या चारित्र मानते हैं; परन्तु जैनधर्म यह नहीं कहता कि तुम हरितकायके उसके दुरुपयोग या अत्युपयोगको ही अच्छा नहीं जीवोंकी तो रक्षा किया करो और व्यवसाय समझते हैं। वे कहते हैं-कि अन्य सत्य आदि सद्गु- वाणिज्य आदिमें मनमाना असयवहार किया करो। णोंके समान यह भी एक सद्गुण है; यह नहीं कि पर वर्तमान जैनसमाजका चारित्र इसी ढंगका तमाम सद्गुणोंका शिरोमणि यही है और सच्चा- हो रहा है जैसा कि लालाजीने बतलाया है और रित्रकी कसौटी भी यही एक है । जैनसिद्धान्त इस प्रकारके एक नहीं हजारों उदाहरण दिये भी आपके इन विचारोंसे सहमत है। श्रावकोंके जा सकते हैं। पर यह दोष जैनसिद्धान्तका या जो पाँच अणुव्रत हैं या मुनियोंके पाँच महा उसके अहिंसा धर्मका नहीं है।
११-१२
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AIMARAMMARIMALIHIAAAAAAAAAAAIMIRALIA
जैनहितैषीpermTHITIRITUAmiti
कठिनाई यह हो रही है कि जैनधर्मकी लिस्वामीकी प्रतिमाके बनवानेवाले और गोम्मअहिंसाका स्वरूप लोगोंने कुछका कुछ समझ टसार सिद्धान्तकी 'कर्नाटकी वृत्ति ' लिखनेवाले लिया है और उसी समझके अनुसार उस पर चामुण्डराय भी बड़े वीर थे। वे गंगवंशीय आक्षेप किये जाते हैं। पर यह आक्षेप-कि जैन- राजा राचमल्ल (ई०९८४-९९९) के मंत्री थे। धर्मकी अहिंसाने लोगोंको निर्बल साहसहीन या उनकी समरधुरंधर, वीरमार्तण्ड, रणरंगसिंह, कर्तव्यच्युत बना दिया-वैसा ही भित्तिहीन है वैरिकुलकालदण्ड , सगरपरशुराम, प्रतिपक्षराजैसा कि जैन-धर्मको बौद्धोंकी शाखा मान- क्षस आदि पदवियाँ ही उनकी न्यायोचित हिंसानेका विश्वास था। एक दिन आयगा जब लोग प्रियता या युद्धपटुताकी गवाही दे रही हैं । अपने इस भ्रमको जैन और बौद्धसम्बन्धी भ्रम- गोविन्दराज, बेंकोंडुराज आदि अनेक राजाके ही समान छोड़नेके लिए लाचार होंगे। जैन- ओंको उन्होंने युद्ध में हराया था । इस पर भी धर्मने आहिंसाको इस ढंगसे साधा है कि उसकी ये जैनधर्मके अन्यतम श्रद्धालु और चरित्रवान्थे पालना किसी भी अच्छे कार्यों रुकावट नहीं और इस कारण सम्यक्त्वरत्नाकर, सत्ययुधिष्ठिर, डाल सकती है। एक पक्का जैनी सबलोंके हाथसे शौचाभरण आदि उच्च श्रद्धा-चारित्रसूचक निर्बलोंकी रक्षा करनेके लिए, और न्यायकी पदवियोंसे विभूषित थे । इनके सिवाय कर्नाउच्चता कायम रखने के लिए बड़ेसे बड़ा युद्ध कर टकमें नागवर्म, जन्न, पंप, कीर्तिवर्मा आदि सकता है, लाखों आदमियोंका खून बहा सकता बीसों कनड़ी कवि ऐसे हुए हैं जो अनेक जैनहै, बड़ेसे बड़े कलकारखाने खोल सकता है, ग्रन्थोंके कर्ता होने पर भी मंत्री, सेनापति, राजा कृषि जैसा हिंसापूर्ण कार्य कर सकता है और आदि युद्धव्यवसायी रहे हैं । गृहस्थोंमें तो ठीक यह सब करके भी वह अपने दर्जेसे नहीं ही है; वहाँ तो कई जैनसाधुतक ऐसे गिर सकता है। इस तरहकी कथाओंसे-जिनमें हुए हैं जो राजाओंके यहाँ कटकोपाश्रेष्ठ गिने जानेवाले जैनक्षत्रियोंने भीषण युद्ध ध्याय या युद्धविद्याके शिक्षक रहे हैं । इन किये हैं और फिर भी वे स्वर्गवासी हुए हैं-जैन- बातोंको सविस्तार जाननेके लिए हमारे लिखे हुए सम्प्रदायके पुराणग्रन्थ तो भरे हुए हैं ही, साथ 'कर्नाटक-जैन कवि' या कनडीभाषाके 'कर्नाही भारतवर्षके प्रामाणिक इतिहासमें भी टककविचरित्र' को देखना चाहिए । अभी ऐसे दृष्टान्तोंकी कमी नहीं है। विक्रमकी नौवीं अभीतक जैनोंमें युद्धव्यवसायी रहे हैं । जैनशताब्दिमें राष्ट्रकूटवंशके सुप्रसिद्ध महाराजा हितैषीके पिछले अंकोंमें बच्छावत भंडारी आदि अमोघवर्ष ( प्रथम ) जिनका राज्य उत्तरमें जैनकुलोंका इतिहास प्रकाशित किया गया है, विन्ध्याचल तथा मालवा तक और दक्षिणमें उससे इस बातका खासा प्रमाण मिलता है। ये तुङ्गभद्रातक फैला हुआ था, बड़े भारी योद्धा थे। लोग राजपूतोंके ही समान वीर थे और अनेक उन्होंने चालुक्य गंग आदि अनेक वंशके राजा- युद्धोंमें लड़े थे । राजपूतानेके जयपुर आदि
ओंको युद्धमें मारा था । दक्षिणके अनेक शिला राज्योंमें जैनमंत्री अबतक रहे हैं और उनमें लेखोंमें उनकी वीरताके गीत मौजूद हैं। इस अनेकोंने बहादुरीके कार्य किये हैं । ये सब वंशमें और भी कई जैन राजा हुए हैं जो बड़े उदाहरण यह जाननेके लिए काफी हैं कि जिस बहादुर थे। श्रवणबेलगुलकी प्रसिद्ध बाहुब- प्रकार शत्रुसे अपनी या अपने आश्रितोंकी
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विविध प्रसङ्ग।
रक्षा करना हिन्दुओंका धर्म रहा है, जैनोंका केरत हैं और न किसी कामको बन्द रखते हैं। भी उससे कम नहीं रहा है । ऐसी दशामें जैनश्रावकके अहिंसाव्रतमें एक शर्त मुख्य जैनधर्मकी अहिंसाको निर्बलताका या कायरताका है-उसे इच्छापूर्वक मारनेके लिए मारनेका बीज बतलाना जैनधर्म पर अन्याय करना है। और निरपराधीके मारनेका त्याग रहता है । ___ जैनधर्मका नीतिशास्त्र यह कदापि नहीं सिख- उच्च आशयके विना वह किसीको नहीं मारता।" लाता है कि तुम अपनी बहिन बेटियोंपर अत्या- गरज यह कि अहिंसाधर्म किसीको निर्बल या चारं होते हुए देखो और चुपचाप खडे रहो, कायर नहीं बनाता है और न अहिंसाका वह अथवा अपने शत्रुओंसे स्वयं अपनी या अपने अर्थही है जो लोगोंने समझ रक्खा है। भाईयोंकी रक्षा मत करो । उसकी दृष्टि में भी तब वर्तमान जैनोंकी निर्बलता और कायदुष्टता, अन्याय, अत्याचारोंको होते रहने देना रताका उत्तरदाता कौन है ? जैनधर्म ? कदापि और सहन करते रहना अप्रत्यक्ष रूपसे उन्हें नहा । ज
नहीं । जैनधर्मकी अहिंसाको जैनोंके कायर या सहायता करना है । इसी लिए. एक जैनराजा निर्बल होनेमें कारण मानना वैसा ही है जैसा या न्यायाधीश सैकड़ोंको फाँसी दे सकता है भगवान् श्रीकृष्णकी गीताको वर्तमान हिन्दु
ओंकी निर्बलताका कारण मानना । गीता और फिर भी निर्दोष रहता है । जैनसिद्धान्तमें अहिंसाके अनेक भेद किये गये हैं । केवल हिं- हए भी यदि हिन्दू हजार वर्षसे पददलित हा
जैसी कर्मवीरता सिखलानेवाली शिक्षाके रहते साके लिए ही हिंसा करना अर्थात् संकल्पी हिंसा रहे हैं तो जैनधर्मकी अहिंसाके सर्वथा निर्दोष करना ही सबसे निन्य और त्याज्य हिंसा है । होने पर भी जैनोंका निर्बल होना कोई आश्चइसी लिए जनहितेच्छुके विचारशील सम्पादक र्यकी बात नहीं है। इसके कारण ही कुछ और महाशयने लिखा है कि " जैन लड़ते हैं जिनपर विचार करना इस देशके मनीषी अवश्य हैं; परन्तु तुच्छ प्राप्तियोंके लिए विद्वानोंका काम है । वास्तवमें इसमें न जैनया हिंसाबुद्धिसे लड़नेमें वे गौरव नहीं धर्मका दोष है और न हिन्दू धर्मका । जैनहिसमझते और इस लिए उस तरह लड़नेमें वे तेच्छुके सम्पादक महाशयने ठीक ही कहा है। पाप मानते हैं या ' हिंसा करना ' समझते हैं। कि " आज जैनधर्म और वेदधर्म दोनों मौजूद कोई खास जरूरत पड़ने पर, किसी महान् हैं । जैनधर्मके निश्चयनयके शास्त्र भी रक्खे हैं उद्देश्यकी सफलताके लिए ही वे लड़ते हैं और और पूर्णावतार कृष्णकी गीता भी कहीं चली धैर्यसे अप्रमत्त होकर उच्च दयाको दृष्टिबिन्दु नहीं गई है; तथापि जैन और हिन्दू दोनों ही बनाकर लड़ते हैं । कत्ल करना या हत्या करना प्रायः निर्माल्य-निकम्मे हो रहे हैं । दश बीस जैनोंका आशय नहीं होता; परन्तु यदि कल सम्माननीय अपवादोंको छोड़कर सारा भारतस्वयं चल करके आरही हो, या उसके आनेकी वर्ष आज अध्यात्मिक निर्बलतामें फँसा हुआ संभावना हो, तो उसे रोकनेके लिए वे लड़ेंगे है। शक्ति मैया-The Will to Powar-जीवऔर अवश्य लड़ेंगे; फिर चाहे उस लड़ाईमें वे नका यह सत्त्व-मनुष्योंका यह आत्मा-आत्माका मरें या दूसरे मरें इसकी उन्हें परवा नहीं रहती। यह धर्म-आज भारतमेंसे रूठ कर चला गया सच्चे जैन शरीर पर ममता नहीं रखते-शरी- है। इसमें न गीताका दोष है और न जैनरके लालन पालन की दृष्टिसे न वे कोई काम शास्त्रोंका ।"
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जैनहितैषीCamRRIERYDEUTINENattulitiDN ESETTE
अन्य पदार्थों के समान धर्म भी सदा एकसा समान ऊपरा-ऊपरी न होना चाहिए जिन्होंने नहीं रहता। उसमें भी समयके अनुसार परिवर्तन कि एकबार जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा करार हुआ करते हैं और कभी कभी वे परिवर्तन इस दिया था । जैनधर्मका गहरा अध्ययन बतलायगा सीमातक पहुँच जाते हैं कि उन्हें देखकर मूल कि इस धर्मकी शिक्षामें वे सब शिक्षायें मौजूद धर्मकी कल्पना भी नहीं की जासकती । बौद्ध हैं जिनकी एक राष्ट्रके संगठनमें आवश्यकता धर्मके तांत्रिक साहित्यको देखकर उसकी होती है । लालाजीने भी यदि ऐसा किया होता अश्लीलतापूर्ण क्रियायें पढ़कर-क्या कोई कल्पना तो उन्हें जैनधर्मके छोड़नेकी आवश्यकता न कर सकता है कि इसका मूल वही उन्नत धर्म है पड़ती; पर जैनसमाजमें रहकर वे आर्यसमाजके जिसका प्रचार महात्मा बुद्धने किया था ? समान स्वतंत्रतापूर्वक देशका कल्याण कर सकते हमारा विश्वास है कि भगवान् महावीरका या नहीं, इसमें हमें सन्देह है। क्योंकि वर्तमान उपदेश किया हुआ जैनधर्म भी समय और जैनसमाजका विचारवातावरण आर्यसमाजकी देशकी परिस्थितियोंकी चोटें खाकर बहुत कुछ अपेक्षा बहुत संकुचित है-उसमें उदारताकी परिवर्तित हुआ है। उसका असली महत्त्वका बहुत कमी है। रूप दूसरे विकृत आडम्बरोंके भीतर छुप गया है। उसके साहित्यकी भी यही दशा हुई है। २दो जातियों में विवाहसम्बन्ध । उसकी रचना जब उन्नत मस्तिष्कवाले आचायौँके हाथोंसे छूटकर अनधिकारियोंके हाथोंमें ...
अहमदाबादके श्रीयुत सेठ चिमनभाई नगीनआपड़ी, तब उन्होंने अपनी योग्यताके अनुसार ।
दासकी कन्याका विवाह-जो कि दशा श्रीमाली
हैं-सेठ मनसुखभाई भगूभाईके भानजे भचूभाईके उसे धीरे धीरे वह रूप दे डाला जिसका प्रभाव वर्तमान जैनसमाजमें दिखलाई देता है । हमारा .
__ साथ-जो कि ओसवाल हैं-महाबलेश्वरमें नई
पद्धतिके साथ अभी थोड़े ही समय पहले हुआ है । पिछला साहित्य ऐसा दुर्बल और असार है कि
दोनों ही कुटुम्ब धनी मानी और अपनी अपनी उसका अध्ययन करके कोई जाति जीवनी शक्ति . प्राप्त नहीं कर सकती है और दुर्भाग्यकी बात यह
- जातिके मुखिया हैं और दोनों ही जैनधर्मके अनुहै कि इस समय इसी पिछले साहित्यका ही अधिक
९ यायी हैं । इसी प्रकारका एक विवाह गतवर्ष भी प्रचार है । इस विषयमें बहुत कुछ लिखनेकी
र हुआ था और वह भी दो प्रतिष्ठित कटुम्बकि
बीच हुआ था। उसमें राजकोटके एक भखिया इच्छा है; परन्तु समय तथा स्थानके अभावसे यहाँ
लड़कीके पिता थे और बड़ोदाके दूसरे इतना ही कह कर सन्तोष करना पड़ता है. कि मूल जैनधर्म या उसकी आहिंसा दुर्बलता .
___महाशय वरके पिता । ये दो उदाहरण ऐसे हैं और कायरता और सिखलानेवाली नहीं है; .
जिससे मालूम पड़ता है कि अब जैनसमाजमें उससे उच्चश्रेणीका जीवन व्यतीत करनेकी शिक्षा
. भी समाजसुधारके विचारोंने प्रवेश किया है
और उनकी पहुँच समाजके धनी मुखियाओं मिलती है।
तक होने लगी है। वे भी अब समझने लगे हैं जैनधर्मका स्वरूप समझनेके लिए जैनधर्मके कि हमारे यहाँ जो सैकड़ों जातियाँ और उपप्राचीन साहित्यके अध्ययन करने की आवश्यकता जातियाँ हैं उन सबको बनाये रखना अपना सर्वहै और वह अध्ययन भी उन पाश्चात्य लोगोंके नाश कर लेनेके बराबर है । इन सैकड़ों भेदभा
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HumanAmmamamAAIIMAR
विविध प्रसङ्ग
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वोंको रखकर दिनपर दिन दुर्बल और क्षीण होने- कुँआरी हैं। कई लड़के ऐसे हैं जिनका एक एक वाला जैनसमाज जीता नहीं रह सकता । यह विवाह हो चुका है, पर स्त्रियाँ गुजर चुकी हैं । समय प्रत्येक जातिके मुखियाओंके चेतनेका है। लड़कियाँ कुँआरी हैं लेकिन उनकी साँके उन्हें चाहिए कि वे इस प्रश्न पर ख़ब गंभीरतासे नहीं चुकती हैं । हम लोगोंकी बिरादरी विचार करें और भविष्यमें वे क्या करेंगे इसका बहुत कम हो गई है। बिनैकावार ( दस्सा ) निश्चय अभीसे कर रक्खें । समझदार वह है जो बहुत बढ़ गये हैं । यहाँ कोई ऐसे आदमी नहीं अपनी आवश्यकताओंको समझकर उनके लिए हैं, जो कुंआरे लड़के लड़कियोंकी-जहाँ जहाँ पहलेहीसे तैयार हो रहता है। अन्यथा आवश्य- हमारी बिरादरी है वहाँ वहाँ खोज करके सगाई कतायें तो उनसे जो चाहती हैं वह करा ही करा देवें या कोई और तदबीर बतावें । कुँआरे लेती हैं। नये विचारोंका और नई आवश्यकता- लडकोंका किसी तरह विवाह हो जाय, काई
ओंका जो स्रोत खुला है उसके प्रबाहमें पड़े विचार किया जाय तो ठीक, जिससे वे बिगड़ने न बिना और बहे बिना कोई समाज और जाति पावें । कई लड़कोंकी शादियाँ दो दो तीन नहीं रह सकती। जो जातियाँ बुद्धिमती हैं वे तीन हो गई हैं और उनकी स्त्रियाँ गुजर गई उस प्रवाहके साथ बहनेके लिए पहलेहीसे तैयार हैं। इससे एक तो जातिमें लड़कियोंकी कमी हो हो रहती हैं और सबके साथ कुशलतापूर्वक गई है और जो हैं उनकी साँक नहीं सुलझती। अभीप्सित स्थलपर पहुँच जाती हैं; पर जो ऐसा यदि किसी तरह साँके सुलझ गई तो वर्ग प्रीति नहीं करती हैं, उन्हें प्रवाहकी प्रबल टक्करोंसे नहीं मिलती है । यदि इस विषयमें हम छिन्न भिन्न होकर जीर्णशीर्ण होकर बड़ी कठि- लोगोंसे कहते हैं तो उत्तर मिलता है कि जहां नाईसे वहाँतक पहुंचना पड़ता है अथवा बीचमें
साँक मिले वहाँ मिलाओ और देश देश भटको । ही नष्टभ्रष्ट हो जाना पड़ता है।
इत्यादि।" यह चिही हम उक्त सज्जनकी इच्छाके ३ एक जैन जातिका विवाह- विरुद्ध प्रकाशित करते हैं, पर जिस कारण सम्बन्धी कष्ट ।
उन्होंने हमें एसा करनेसे रोका है, वह उनका हमारे पाठक 'समैया । नामकी जैनजातिसे नाम प्रकाशित होना है, और उसे हम प्रकापरिचित होंगे । परवार जातिका यह एक शित नहीं करते । समैया भाइयोंकी दुर्दशाका भेद है । धर्मभेदके कारण इनमें जातिभेद हो ज्ञान हमें बहुत समयसे है। इनकी संख्या बहुत गया है। ये तारनस्वामीके अनयायी हैं और थोड़ी रह गई है और इस कारण इनकी सामामर्तिपूजाको नहीं मानते हैं, केवल जैनशास्त्रोंकी जिक अवस्था बहुत शोचनीय है। ये चाहते हैं पूजा करते हैं। पहले परवारोंके साथ इनका कि हम अपने परवार भाइयोंसे मिल जायँ और विवाहसम्बन्ध होता था । अब भी कहीं कहीं इसके लिए कोई कोई तो अपना सम्प्रदाय छोड़ होता है।
दनेके लिए भी राजी हैं । परन्तु अपनेको परम हमारे पास इस जातिके एक सज्जनकी चिठी श्रेष्ठ समझनेवाले परवार भाई इस ओर जरा आई है जिसकी ओर हम अपने समाजका ध्या- भा ध्यान नहीं देते। जैनसमाजकी संख्या-हासके न आकर्षित करते हैं । वे लिखते हैं-“ हमारी प्रश्नपर विचार करते हुए समाजके कई सज्जनोंबिरादरीमें कुंआरे लड़के बहुत हैं। लड़कियाँ भी ने लिखा था कि "जैनेतरोंको जैन बनानेसे जैन
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mTANAMAHARAILED
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समाजकी वृद्धि होगी न कि अन्तर्जातियोंके- नेके लिए तैयार हों, तो आदरपूर्वक उन्हें अपने पारस्परिक विवाह प्रचलित करनेसे या पुनर्विवा- सम्प्रदायमें मिला लिया जाय । उन्हें ही क्यों हसे ।" पर हम देखते हैं कि दूसरे लोगोंको तारनपन्थकी माननेवाली जो असाठी आदि जैन बनाना तो बड़ी बात है, किसीसे यह भी और कई जातियाँ हैं उन्हें भी इसी तरह उपतो नहीं बनता है कि अपने इन थोड़ेसे समैया देशादि देकर अपने सम्प्रदायमें मिला लेना भाइयोंको ही अपनेमें मिला लिया जाय । किसी- चाहिए । एक दो अच्छे विद्वान् उपदेशक यदि को अपने धर्ममें मिलाना क्या कोई दिल्लगी वर्ष दो वर्ष ही इस विषयमें प्रयत्न करें तो है ? इसके लिए बड़ा औदार्य चाहिए। जिनमें अच्छी सफलता होगी। यदि समैया भाई अपने इतनी भी उदारता नहीं है कि अपने जाति
' विश्वासको बदलनेके लिए तैयार न हों, भाइयोंको ही अपने में मिला लें, चौके चूल्हे और .
क चूल्ह आर वे अपने ही पन्थमें आरूट रहनेमें सखरे-निखरेके झगड़ोंसे ही जो नहीं सुलझ पाते हों, तो भी उनके साथ सामाजिक सम्बन्ध
प्रसन्न हैं वे बेचारे दूसरोंको क्या जैन बनायँगे?हमारी सम- जोडनमें कोई हानि नहीं है । जब वैष्णव झमें परवार जातिकी प्रत्येक पंचायतीमें इस विष
अग्रवालों और जैन अग्रवालोंमें परस्पर सम्बन्ध हो यकी चर्चा होनी चाहिए और समैया भाइयोंके साथ
सकता है-जैन और वैष्णव जैसे विरुद्ध धर्म भी एक बेटीव्यवहार जारी करनेके लिए कोशिश करना
" घरमें अच्छी तरह रह सकते हैं, तब कोई कारण चाहिए । हम इस बातको अच्छा नहीं समझते हैं कि किसी सामाजिक सुभीतेके लिए कोई
- नहीं कि तारनपंथी और दिगम्बर जैनी आपसमें अपने धर्मको या विश्वासको बदल दे और इसके
। विवाहसम्बन्ध न कर सकें । तारनपंथ दिगम्बर लिए किसीको लाचार करनेका भी हमारी सम
सम्प्रदायका ही एक भेद है जो मूर्तिपूजाको झमें किसीको कोई अधिकार नहीं है; तो भी नहीं मानता है और दिगम्बर सप्रदायकी प्रायः हम देखते हैं कि तारनपंथ एक ऐसा पन्थ है सभी बातोंको मानता है-यहाँतक कि दिगम्बर कि जिसमें जीवनी शक्तिका प्रायः अभाव है। सम्प्रदायके पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि उसका समझनेमें आने योग्य कोई स्वतंत्र साहित्य ग्रन्थोंका स्वाध्यायादि भी करता है । कही नहीं है और इस कारण उसका जीवित रहना कहीं समैया भाइयोंका परवारोंके साथ भोजनअसंभव है। उसके माननेवाले और श्रद्धा रख- पानका भी सम्बन्ध है और कभी कभी तो अपनेवाले तभीतक रह सकते हैं जब तक उनमें वादरूपसे एक दो विवाहसम्बन्ध भी हो जाते शिक्षाका प्रचार नहीं हुआ है । ज्यों ही वे हैं । ऐसी दशामें उनके इस निकट सम्बन्धको शिक्षित होंगे त्यों ही किसी दूसरे मार्गको और भी अधिक निकट बनाना सर्वथा उचित हे पकड़ लेंगे। ऐसी अवस्थामें यह अच्छा है कि और प्रयत्न करनेसे इसमें सफलता भी हो वे मूर्तिपूजक बना लिये जाये जिससे उनमें सकती है। यदि इस विषयकी ओर दुर्लस्थ किसी तरह जैनत्व तो बना रहे। परन्तु फिर किया जायगा, तो इसका परिणाम अच्छा न भी हम यह कहेंगे कि वे इसके लिए लाचार न होगा । जैनसमाजकी घटती हुई संख्या और किये जायँ । उन्हें समझाया जाय, उपदेश भी तेजीसे घटेगी। दिया जाय और यदि वे अपना विश्वास बदल
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_ विविध प्रसङ्ग। mmmmmmmmmmmmm
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४ ढाई वर्षकी कन्या और कमर कसेंगे और उधर बाल्यविवाह तथा वृद्धनौ वर्षका वर।
विवाहके रोकनेके लिए भी कोई प्रयत्न न करेंगे;
बल्कि यदि बन सका तो पं० रामभाऊजीके 'प्रगति आणि जिनविजय'के एक नोटसे समान इन कामोंमें सहायता अवश्य दे निकलेंगे। और काटोलके श्रीयुत गुजाबा रावजी पलसापुरके एक पत्रसे मालूम हुआ कि पण्डित राम.
५ बालहत्या। माऊ नामके सज्जनने शोलापुरमें एक सेतवाल ता० ९ जुलाईके कान्फरेंस-प्रकाशमें उसके कन्याका विवाह-जिसकी उम्र ढाई वर्षकी है एक सम्पादक महाशय लिखते हैं-" गत रविवारको नौ वर्षके लड़केके साथ कराया है। पं० रामभाऊ- अजमरके होलीदड़ा नामक नुहल्ले में किसी विधवाने जी सेतवाल भाइयोंके गुरु हैं । वे भट्टारक नहीं हैं; गन्दे पानीके एक टीनमें तत्कालके जन्मे हुए एक पर भट्टारकोंके ही समान हैं और एक छोटेसे बालकको डाल दिया था. इस लिए कि उसका पाप भट्टारक उनके हाथमेंके कठ पुतले हैं । आप सेत किसी पर प्रकट न हो जाय; परन्तु जब भंगिन टीन वाल भाइयोंमें विशेषकरके भोले भोले ग्रामीणोंमें साफ करनेके लिए आई और बच्चेको देखा तब खूब ही पुजते हैं और उनसे अपनी इच्छानुसार उसने शोर मचाकर सब पर प्रकट कर दिया । धर्मके स्वाँग रचाया करते हैं । मनुष्यगणनाकी हमने भी मौके पर जाकर यह सब देखा । इससे रिपोर्ट में जो पाँच वर्षके भीतरकी ९२ जैन- हमें बहुत ही दुःख हुआ। ऐसे दृश्योंका चित्र सर्व विधवायें बतलाई गई हैं वे आप ही जैसे महात्मा- साधारणके सामने उपस्थित किया जाना चाहिए,
ओंकी कृपाकी आभारिणी हैं। इसे हम बड़ा इस खयालसे हमने फोटो भी उसी समय लेलिभारी सौभाग्य समझते हैं जो उक्त कन्या या जो हमारे खास अंकमें प्रकाशित होगा । सेतवाल जातिकी है जिसमें विधवाविवाह इसी प्रकार एक घटना २-३ दिन पहले लाखन जायज है, नहीं तो यदि दुर्भाग्यसे उस छोटेसे कोठडीमें भी हुई थी। ..." चन्द्रबा नामकी बालकका जीवनदीपक बुझगया-यद्यपि हम एक और हिन्दू विधवाने जातिभयके कारण ऐसा न होनेके लिए हृदयसे चाहते हैं तो इस अपने तत्काल प्रसव किये हुए पुत्रकी हत्या कर दुधमुंही बच्ची के लिए जो विवाहका तत्त्व तो डाली, पर पकड़ी गई और बम्बई-हाईकोर्ट ने क्या समझेगी, अच्छी तरह शब्दोच्चारण भी उसे कालेपानीकी सजा दी। यह सजा एक नहीं कर सकती है धर्मके मर्मज्ञों द्वारा यह जीवदयाप्रचारक सज्जनकी प्रार्थनासे गवर्नर व्मवस्था दी जाती कि इसे जीवन भर वैधव्यव्रत- साहबने घटा दी और अब उसे दो वर्षकी का पालन करना चाहिए। क्योंकि इसका दान कड़ी कैद भोगनी होगी। इस तरहकी हत्यायें किया जा चुका है और विवाह-मंत्रोंकी प्रतिज्ञा और गर्भपात तब तक कम नहीं हो सकते जब द्वारा यह बद्ध हो चुकी है । अर्थात् पं० रामभाऊ तक स्त्रियाँ बलपूर्वक ' वैधव्य ' भागनेके लिए और अज्ञान मा-बापके पापका प्रायश्चित्त निर्दोष लाचार की जाती हैं। विधवाओंका अपने मृतबालिकाको जीवन भर रँडापा काटके करना पतियोंके चरणोंका ध्यान रखते हुए अपनी चाहिए । मर्मज्ञोंकी यह समझ बड़ी अनौखी है कि इच्छानुसार वैधव्यव्रतका जीवन भर पालन इधर तो वे बलात् वैधव्य पालन करनेके लिए करना जितना अच्छा और अनुकरणीय कार्य
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SALIMBAIHIROLLOLLIERRI
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है, और ऐसी विधवायें जिस समाजमें हैं वह करनेका आधिकार महान् आत्माओंको ही था; पर समाज जितना श्रेष्ठ और सभ्य है, विधवाओंको अब चाहे जो 'नारि मुई घर संपति नासी, मूंड़ बलपूर्वक वैधव्य पालन करनेके लिए लाचार मुड़ाय भये सन्यासी' की उक्तिको चरितार्थ करना और उन्हें गुप्त रूपसे पाप करनेके लिए करता है। और बेचारी विधवाके विषयमें तो प्रस्तुत करना उतना ही निन्द्य और तिरस्करणीय क्या कहा जाय ? वह बलात् वैधव्य भोग रही कार्य है और जिस समाजमें यह होता है वह थी, अज्ञान थी, वासनाओंकी प्रबलताके मध्याह्नउतना ही नीच और असभ्य है।
मेंसे गुजर रही थी और एक वासनाओंकि दास साधु
से एकान्तमें मिलने जुलने पाती थी । ऐसी अवस्थामें ६ एक मुनि और एक विधवा।
उसका जितना अपराध है उसकी अपेक्षा उस समाकल्याणजी नामके एक स्थानकवासी जैन
जका आधिक अपराध है जिसमें उस सरीखी अबमुनिने एक १७ वर्षकी विधवा श्राविका पर कृपा लायें इस प्रकार पतित होनेके लिए लाचार होती हैं। की और जब उसका फल एक पुत्रके रूपमें फला, तब अपने सास-ससुरके निकाल देनेपर बेचारी उसे लेकर उपाश्रयमें पहुँची । वहाँ रो-बिलख
७ झालरापाटनमें सरस्वतीभवन । कर उसने अपनी पापकहानी सनाई और श्रीमान् ऐलक पन्नालालजीके प्रयत्नसे झालमुनि महाराजके लिखे हुए वे पत्र पेश किये रापाटण शहरमें गत श्रुत पंचमीको एक सरस्वती जिसमें उसे इस विषयमें चिन्ता न करनेका भवनकी स्थापना हो चुकी है । इसके लिए ऐलक
और भरण पोषणका प्रबन्ध कर देनेका आश्वा- जीन संस्कृत प्राकृत और भाषाके लगभग २००० सन दिया था। पर श्रावकोंको अपने धर्मकी ग्रन्थ एकत्र कर लिये हैं और कई हजारका और साधसम्प्रदायकी निन्दाके डरने सताया और चन्दा कर लिया है । भवनके लिए एक मकान उन्होंने इस मामलेको दबाने की कोशिश की। भी बन रहा है। इसके मंत्री श्रीयुत प्यारचन्दजी कहते हैं कि कुछ साधु भक्तोंने बेचारी अबलासे टोंग्या बड़ी बड़ी आशायें दिलाते हैं। भवनमें वे चिड़ियाँ छीनकर फाड-फड डालीं और उसे नये नये अलभ्य ग्रन्थ मँगाकर रक्खे जायँगे,बाहरधमकाया जिससे वह मुनि महाराजके पाप पर वालोंको ग्रन्थ लिखाकर भेजे जायँगे, जो लोग परदा डाल दे। यह सब कुछ हुआ पर देखते चाहेंगे उन्हें वैसे भी ग्रन्थ दिये जायँगे, मुद्रा, हैं कि अब यह मामला दबता नहीं है। कुछ ताम्रलेख, शिलालेख आदि भी संग्रह किये निष्पक्ष लोगोंकी आँख पर चढ़ जानेसे दूधका दूध जायेंगे । इत्यादि । हम भी यही चाहते हैं कि
और पानीका पानी हुए बिना यह रहनेवाला सरस्वतीभवन एक आदर्श पुस्तकालयके रूपमें नहीं है। जो हो, यह घटना हमें सचेत करती चले और वह आरेके सरस्वतीभवनकी तरह है कि भाईयो! धर्मके नामसे ही मत भूल जाओ। उसके संचालकोंकी कीर्ति बढ़ानेके ही लिए जो धर्मात्मा कहलाते हैं, जिन्होंने धर्मके आव- नहीं किन्तु सर्वसाधारणको वास्तविक लाभ पहुँरणसे अपनी असलियतको छुपा रक्खा है, उनसे चानेके लिए हो । अच्छा हो यदि मंत्री महाशय सावधान रहो। साधु, यति, मुनि, क्षुल्लक, ब्रह्म- उपस्थित ग्रन्थोंकी एक सूची बनाकर प्रकाशित चारी आदिके पवित्र नामोंको कलङ्कित करने- कर दें और ग्रन्थ लिखाने आदिका भी प्रबन्ध वाले भी इनमें बहुत होते हैं । इन नामोंके धारण शीघ्र कर दें। जैनसमाजमें एक अच्छे सरस्वती
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KumamamummamamummRD
विविध प्रसड़। infinitrinting
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भवनकी बहुत बड़ी आवश्यकता है । यदि आदतको छोड़कर इसे मुफीद कामोंमें लगानेकी ऐलकजी महाराज इस महान कार्यको कर डालें आदत बनानेका प्रयत्न करें तो वे अपने देशतो उनका नाम जुगजुगके लिए अमर हो जाय। की भारी सेवा करेंगे। तब दुर्भिक्षका भी प्रबन्ध
हो जायगा । भारतमें सम्भवतः कोई फिका ऐसा भारतमें शिल्पकी आवश्यकता नहीं है, जिसने भारतकी तरक्कीके लिए इस कदर
भारतमें शिल्पके नए कारखाने खोलनेकी यत्न किया हो जितना पारसियोंने किया है । भारी जरूरत है । हम इस बारेमें भारतका इन्होंने अपनी पूँजीको कारखानों और तिजारतमें जापानसे मुकाबला करते हैं। जापानमें साधारण लगा रक्खा है। पारसियोंकी संख्या सारे भारतमें आदमियोंने जो ४० वर्ष पहले भारतनिवासि- केवल दो लाख है । तो भी यह अत्युक्ति नहीं योंसे न ज्यादा हुनरवर और न बुद्धिमान् थे, कि उन्होंने हिदुस्थानमें कारखाने खोलनेकी शिल्पके बहुतसे काम जारी किये और बीस तमाम दूसरे फिरकोंकी निस्बत ज्यादा कोशिश सालमें ही उन्नत हो गये । अब योरपकी तमाम की है । न उनमें कोई साधु है और न कोई चीजें अपने देशमें तैयार करते हैं । हिन्दके भिक्षा पर गुजारा करता है और न उनकी लोग भी तब तक सुखी न होंगे जब तक वह स्त्रियों में कोई वेश्या है। हालाँ कि अन्य तमाम शिल्पके क्षेत्रमें आगे न बढ़ेंगे और इस बातको फिर्कों और जातियोंकी वेश्यायें भारतमें अच्छी तरहसे अनुभव न करेंगे कि हिन्दुस्तानमें मौजूद हैं । क्योंकि इस गरीबीके कारण कई हर प्रकारके कारखाने खोले जायँ और उनको ऊँची जातोंकी स्त्रियाँ वेश्या बन गई हैं। इन सब तरक्की दी जाय । तब भारत अपनी प्राचीन खराबियोंका इलाज यह है कि देशमें हर प्रकाउन्नतिको प्राप्त करेगा । आज कल हमारे इस्ते- रके कारखाने हिन्दुस्तानी पूँजीसे जारी किये मालकी हर एक वस्तु विदेशसे मँगवाई जाती जायँ और उनकी तरक्की के लिए भारतीयोंको है। आज तक जिस कदर कारखाने खोले गये दृढ निश्चय कर लेना चाहिए और अपने देशकी हैं उनसे बहुत तो विदेशके रुपयेसे खोले गये बनी हुए चीजें इस्तेमाल करना चाहिए। हैं। इस प्रकारके कारखानोंसे भारतको कोई
-टहलराम गङ्गाराम। लाभ नहीं पहुँचता; क्योंकि विदेशके रुपयोंसे कारखाने चलानेमें सब लाभ देशके बाहर चला
९ भूषण पहनानकी कुरीति । जाता है । जरूरत इस बातकी है कि हिन्दुस्तानका अपना रुपया कारखानोकी तरक्कीमें लगे। हमारे पाठकोंसे यह अविदित न होगा कि भारतमें निस्सन्देह धन मौजूद है परन्तु वह '
- भूषण पहनानेके कारण अनेक कोमल-हृदय लाभदायक कामोंमें नहीं लगाया जाता । यदि बच्चोंको समयसे पहले ही कालका ग्रास होना यह रुपया शिल्प कारखानोंमें लगाया जाय, तो पड़ता है जिसका प्रमाण हमें पुलिसकी रिपोइन कारखानोंकी बहत तरक्की होगी और साथ टैसे भली भाँति मिलता है । अतः हमारे उन ही देशका धन भी बढ़ेगा, और अवस्था भी भारतीय नेताओंको भी शीघ्र इस प्रश्नकी ओर सुधर जायगी। यदि हमारे राजे महाराजे और अपना ध्यान आकर्षित करना चाहिए, जो जागीरदार और धनाढ्य अपने रुपयेको व्यर्थ समय समय पर भारतकी दरिद्रताका राग दबाने या स्त्रियोंके भूषण बनानेकी पुरानी अलापा करते हैं; क्योंकि हमारे देशवासियोंका
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mAITINATIONAL
जैनहितैषीSamMITTEEmirmitimill
बहुतसा धन जेवर घड़वानेके कारण नष्ट होता लगभग ३०-३५ हजार रुपये की है-दान कर है । धनी मानी राजा महाराजा और जमींदार गई हैं और इसके लिए ९ सज्जनोंको पंच नियत इत्यादिके उस धनकी गणना की जाय जो वे कर गई हैं। इसमेंसे ५ हजार परवार जातिके जेवर बनवाने पर लगाते हैं तो उसकी संख्यासे हितार्थ, १ हजार नाँदगाँवके मन्दिरको, १हजार हमें चकित होना पड़ता है । देशमें लाखों चांदवड़के मन्दिरको और १ हजार तीर्थक्षेत्रोंको; सुनार इसी काममें लगे हुए हैं जिससे कोई लाभ इस तरह आठ हजार रुपये देनेके लिए तो वे नहीं है । यदि यही रुपया इस निरर्थक काम स्वयं बतला गई हैं और शेष २५-३० हजार पर न लगाया जाकर किसी उपयोगी कार्य पर रुपयोंके लिए लिख गई हैं कि वे किसी योग्य लगाया जाय तो देशको भारी लाभ पहुँच पाठशालाको दे दिये जायँ । अब प्रश्न यह है सकता है । इस रुपयेसे कला कौशलकी शिक्षा कि पंच महाशय योग्य पाठशाला ' किसको
और अछूत जातियोंका सुधार भी अनायास हो समझें और किसको उक्त सम्पत्ति दी जाय । सकता है और इससे वह लाभ हो सकता है यद्यपि इसका विचार करना पंचोंके ही आधीन जिसके लाभका कोई ठिकाना नहीं। खेद है है-उन्हींको यह अधिकार है, तो भी समाचारकि सोशियल कान्फ्रेंस जो अनेक कुरीति सम्ब- पत्रोंमें इसकी चर्चा उठी है और लोग इस विषन्धी प्रश्नोंपर विचार किया करती है उसने भी यमें अपनी अपनी सम्मतियाँ दे रहे हैं । जैनमिआज तक इस प्रश्नको अपने हाथमें नहीं लिया। के एक लेखककी राय है कि यह सम्पत्ति सौभाग्यसे अब जनताका ध्यान इस ओर आक- मोरेनाके सिद्धान्तविद्यालयको देना चाहिए, र्षित हो गया है, अतः सब कामोंको छोड़कर दिगम्बर जैनकी राय है कि मोरेना, मथुरा हमें प्रथम बच्चोंको जेवर नहीं पहनानेके आन्दो- काशी, हस्तिनापुर ये चार संस्थायें मुख्य हैं, लनमें भाग लेना चाहिए। आशा है कि मेरे इसलिए इनमेंसे किसी एकको मिलना चाहिए । भाई भविष्यतकी भारतीय सन्तानको कालके पर हमारी समझमें इस सम्पत्तिको उपयोगमें मुखसे बचानेमें कोई कसर :
लानेका सबसे प्रथम अधिकार दक्षिण महाराष्ट्रहीइस विषय पर एक ट्रैक्ट भी लिखा है, जिसमें की किसी संस्थाको है। दक्षिण महाराष्ट्रका बताया है कि हरसाल कितना रुपया भूषण जैनसमाज अज्ञानके गहरे अन्धकारमें पड़ा हुआ बनवानेके कार्य पर व्यय हो जाता है । उसीमें है। धार्मिक ज्ञान तो दूर रहा, वहाँ मामूली साधुओंकी वर्तमान दशा पर भी प्रकाश डाला लिखना-पढ़ना जाननेवाले लोगोंकी भी बहुत गया है। दो पैसेका टिकट भेजने पर निम्न कमी है। निजामके राज्यमें शिक्षा-संस्थाओंकी लिखित पतेसे यह ट्रैक्ट प्राप्त हो सकेगा। बहत ही विरलता है और उसीके उत्तर भाग " दहलराम गंगाराम जमींदार, डेरा इस्मा- अधिकांश खंडेलवाल तथा दूसरे जैनी रहते हैं। ईलखां (पंजाब)।"
हम स्वयं उस ओर देखकर आये हैं कि उनमें
शिक्षाका प्रायः अभाव है। ऐसी दशामें आवश्य१० एक दानद्रव्यका उपयोग। कता है कि सबसे पहले इस दान-द्रव्यसे उन्हीं
नांदगाँवनिवासी सेठ हीरालालजीकी पत्नी की अज्ञानता दूर करनेका प्रयत्न किया जाय। अपनी मृत्युके समय अपनी तमाम सम्पत्ति-जो या तो इसके लिए किसी सुभीतेके स्थानमें नई
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IITHILIATILBOLLEm विविध प्रसङ्ग।
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पाठशाला खोल दी जाय, या गत वर्ष कचनेरेमें लोगोंका खयाल है कि यह पर्युषण पर्व बहुत जो विद्यालय स्थापित हुआ है और जिसमें प्राचीन नहीं है। श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें इस पर्वका सुनते हैं कि ६०-७० लड़के पढ़ने लगे हैं, उसोको बहुत माहात्म्य है। आश्चर्य नहीं जो उसकी यह सम्पत्ति दे दी जाय, अथवा इस सम्पत्तिसे देखदेखी ही दिगम्बर सम्प्रदायमें इसका प्रचार उसमें पढ़नेवाले बाहरके विद्यार्थियोंको १५-२० हआ हो। यह भी संभव है कि हमारी देखावृत्तियाँ नियत कर दी जायँ । कुछ भी हो, इस देखी श्वेताम्बर-सम्प्रदायने ही इसको ग्रहण कर सम्पत्तिका उपयोग दक्षिण महाराष्ट्रके लिए ही लिया हो । श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें यह भादों वदी होना चाहिए । यही न्याय्य है और यही उचित १२ से प्रारंभ होकर सुदी ४ को समाप्त होता है । इसके विरुद्ध जो कुछ किया जायगा, वह है और दिगम्बरमें उसके दूसरे ही दिन सुदी अन्याय्य और अनुचित होगा।
५ से प्रारंभ होकर सुदी १४ को समाप्त होता ११ पर्युषण पर्व प्राचीन है या है । इस पर शास्त्रीजीने एक विलक्षण ही अनु__ अर्वाचीन ?
मान लड़ाया है। आप कहते हैं कि हिन्दुओं मराठीका पुरानी मासिक पत्र 'जैनबोधक'
., और जैनोंके प्रायः जितने महापर्व हैं वे सब अब शोलापुरसे निकलने लगा है। श्रीयत सेठ शुक्लपक्षमें ही होते हैं । दिवाली, कृष्णाष्टमी जीवराज गोतमचन्द दोसी उसके सम्पादक आदि उन पर्वोकी बात जुदी है जो किसी
महापुरुषकी जन्म-मरण तिथिके कारण माने नियत हुए है । आपके द्वारा उसके दो अंक- निकल चुके हैं और दोनोंही ठीक समय पर ।
. जाते हैं । इसके सिवाय जो पर्व जिस पक्षमें निकले हैं । आशा है कि अब यह पत्र नियमित
शुरू होता है वह उसी पक्षमें समाप्त हो जाता
कर रूपसे चलेगा और मराठीमें जैन मासिकके है; परन्तु श्वेताम्बर-सम्प्रदायका पर्युषण पर्व अभावकी पूर्ति करता रहेगा । इसके दूसरे अंकमें कृष्णपक्षमें प्रारंभ होता है और शुक्लपक्षमें समाप्त पं० बंशीधरजी शास्त्रीका एक लेख प्रकाशित हुआ ।
होता है । इससे कल्पना होती है कि यह पर्व है जिससे पर्युषण या दशलक्षणपर्वके सम्बन्धमें
जब उन्होंने दिगम्बरोंकी देखादेखी शुरू किया एक नया प्रश्न उपस्थित हो गया है। शास्त्रीजीले हागा, तब उपायान्तराभावसे उन्हें ऐसा करना लेखसे मालूम होता है कि पर्युषण या दशलक्षण पर
" पड़ा होगा । यदि वे दिगम्बरोंकी ही तिथियोंपर पर्वका प्रचार उत्तर भारत, गुजरात, राजपूताना
करते, तो वह अनुकरण कहलाता और इसमें और मध्यप्रदेशमें ही है । दक्षिणमें यह केवल
दूसरी भी अनेक अड़चने आतीं, और यदि पीछे उन्हीं स्थानोंमें माना जाता है जहाँ गुजराती या
करते तो उधर पितृपक्ष शुरू हो जाता है जो मारवाड़ी लोगोंका संसर्ग है। कोल्हापुर, बेलगाँव, साधार
गात साधारण जनताकी दृष्टिसे अशुभ माना जाता है। दक्षिण कानड़ा, मैसूर आदि प्रान्तोंमें इसका अतः दिगम्बरियोंके पहले ही उन्हें शुरू करना कोई नाम भी नहीं जानता है । दिगम्बर सम्प्र- पड़ा । इस तरह शास्त्रीजीने इस पर्वके सम्बन्धमें दायके प्राचीन शास्त्रोंमें भी कहीं इसका उल्लेख बहुतसी बातें कहीं है, परन्तु निश्चित रूपसे नहीं है। यत्र तत्र अष्टाह्निका पर्वका ही उल्लेख उन्होंने कुछ भी नहीं कहा है । अर्थात् यह मिलता है । दक्षिण कर्नाटकमें अष्टाह्निकापर्व ही प्रश्न अभी खड़ा है कि पर्युषण पर्व प्राचीन है बड़े ठाठवाटसे मनाया जाता है। इससे बहुत या अर्वाचीन, और वह पहले दिगम्बरों में प्रचलित
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जैनहितैषी -
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था या श्वेताम्बरोंमें | हम जैनसमाजके विद्वानका ध्यान इस ओर आकर्षित करते हैं कि वे इस उलझन को सुलझानेका प्रयत्न करें । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कल्पसूत्रमें - जो वीर निर्वाण संवत् ९८० में लिपिबद्ध हुआ है - पर्युषण पर्वका विस्तार से उल्लेख है, इसलिए यह मानना पड़ेगा कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में पर्युषण पर्व • नया नहीं हैं। अब रहे दिगम्बरसम्प्रदाय के प्राचीन शास्त्र, सो उनमें खोज करने की आवश्यकता है एक बात और है । दिगम्बरसम्प्रदाय में यह दशलक्षणका पर्व माना जाता है - बुन्देलखण्ड आदि प्रान्तमें इसे कहते भी ' दशलक्षणपर्व, ही हैं - वहाँ पज़ूसन शब्दको कोई जानता भी नहीं है - और दशलक्षण पर्व सालमें तीन बार होता है । अर्थात् भादोंको छोड़कर यह माघ और चैतमें भी होता है; परन्तु माघ और चैत दोनोंहीके दशलक्षण ठाट-वाट और उत्सवसे नहीं होते हैं । इससे यह संभव जान पड़ता है कि श्वेताम्बरोंके पर्युषणके उत्सव - का अनुकरण करनेके लिए उनके पड़ौसी दिगम्बरोंने अपने दशलक्षणपर्वको यह विशाल रूप दे दिया हो। इस बात की पुष्टि इस बात से और भी विशेष होती है कि दक्षिण कर्नाटक में जहाँ श्वेताम्बर - सम्प्रदायका पड़ोस नहीं है, दशलक्षण पर्व इतने ठाटवाटसे नहीं मनाया जाता है ।
स्मरण रखना चाहिए कि यह एक ऐतिहासिक प्रश्न है । इससे किसी सम्प्रदाय के महत्त्व या अमहत्त्वका कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिए ..इस पर बिलकुल तटस्थ होकर और साम्प्रदायिक मोह छोड़कर विचार करनेकी आवश्यकता है । १२ माणिकचन्द - जैनग्रन्थमाला । उक्त ग्रन्थसालामें अब तक पाँच ग्रन्थ निकल चुके हैं - १ सागारधर्मामृतसटीक, २ लघीय स्त्रयादिसंग्रह, ३ पार्श्वनाथचरित काव्य, ४
विक्रान्तकौरवीय नाटक और ५ मैथिलीकल्या ण नाटक । अभी तक हमने इस ग्रन्थमालाके लिए स्थायी ग्राहक बनानेका कोई प्रयत्न नहीं किया था । क्योंकि हमें थोड़ा बहुत काम करके दिखाने के पहले सहायता माँगना या अपील करना पसन्द नहीं । हमारी नीति यह है कि पहले काम करके दिखलाना चाहिए; काम देखकर यह असंभव है सहायता देनेवाले न मिलें । तदनुसार हम उक्त ५ ग्रन्थ प्रकाशित करके दिखला चुके कि यह काम बराबर चलता रहेगा और यदि सहायता मिलती रहेगी तो इसके द्वारा सैकड़ों अलभ्य ग्रन्थोंका उद्धार हो जायगा। अब हम चाहते हैं कि इसके कुछ स्थायी ग्राहक बन जायें, जिससे इसके फण्डमें घाटा न रहे और ग्रन्थोंका प्रचार भी खूब होता रहे । ये पाँच ग्रन्थ लग भग एक वर्षमें निकले हैं । ये सब लागत के मूल्य में बेचे जाते हैं, इस कारण इन सबका मूल्य लगभग दो रुपया हुआ है । प्रतिवर्ष लग भग इतनेही मूल्य के ग्रन्थ निकलेंगे । यदि सिर्फ १०० ही ग्राहक या सहायक हमको ऐसे मिल जायँ जो इसके प्रत्येक ग्रन्थकी पाँच पाँच प्रतियाँ ले लिया करें और इस काम में उन्हें सिर्फ दश दश रुपया वार्षिक ही देना पड़ेगा, तो ग्रन्थमाला का कल्याण हो जाय । उसकी ५०० प्रतियाँ तैयार होते ही उठ जायँ और शेष धीरे धीरे बिकती रहें । दश रुपया देना धर्मात्मा भाईयों के लिए कोई बड़ी बात नहीं । आशा है कि हमारी इस प्रार्थना पर पाठक ध्यान देगें और जो महाशय इस प्रकार ग्राहक होना पसन्द करते हों वे हमें सूचना देने की कृपा करेंगे । स्वर्गवासी सेठ माणिकचन्दजी के स्मरण के लिए जिनके कि जैनसमाज पर असंख्य उपकार हैं और शास्त्रोद्धा - रका पुण्य सम्पादन करने के लिए प्रत्येक धर्मप्रेमीको इस ओर अपना उदार हाथ बढ़ाना चाहिए ।
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शिक्षितोंकी उदारता । SuTEREmirmirtifinittiritutti
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इतनी अच्छी है कि यदि वे चाहें तो विद्यासं
स्थाओंको खूब सहायता मिल सकती है । मैं शिक्षितोंकी उदारता। से ऐसे बीसों वकीलों, बैरिस्टरों और दूसरे शिक्षि
तोंको जानता हूँ जिनकी आमदनी पाँच सौ से
लेकर हजार रुपये मासिक तक है । यदि जैनसम्पादक महाशय,
समाजके ये शिक्षित चाहें-अपनी आमदनीका आप अकसर अशिक्षित धनियों तथा सेठों- दशवाँ हिस्सा ही दान करने लगें-तो केवल पर कटाक्ष किया करते हैं और मौके-बमौके
अपनी ही सहायतासे एक अच्छा कालेज चला उनकी हँसी उड़ाये बिना मानों आपको या आपके सकते हैं; पर उनमें इतनी उदारता हो तब न ? भाईबन्धुओंको चैन ही नहीं पड़ता है। शिक्षितों
___ जो अशिक्षित हैं वे विद्यादानके महत्त्वको विशेष करके अँगरेजीके पण्डितोपर-आपकी कुछ
नहीं समझते हैं, समयको परखनेकी उनमें शक्ति अधिक कृपादृष्टि रहती है। परन्तु क्या आपने
नहीं, इस लिए यदि वे अपना रुपया मन्दिरकभी अपने समाजके शिक्षितोंकी उदारतापर
प्रतिष्ठाओंमें, अनाथोंके भरणपोषणमें, अतिथिविचार किया है ? यदि न किया हो, तो मेरे
सत्कार आदिमें लगाते हैं तो लगाने दो, पर नीचे लिखे वक्तव्यपर दृष्टि डालनेकी कृपा कीजिए।
शिक्षित तो सब कुछ समझते हैं । वे और सब जैनसमाजमें अभीतक जितनी संस्थाओंकी
कामोंसे घृणा करते हैं-सबको बाहियात समझते हैं स्थापना हुई है; क्या आप जानते हैं कि उनका न
क उनका तो समझें, पर अपना धन विद्याप्रचार में तो लगावें। संचालन किनकी उदारतासे हो रहा है ? इनके
पर संसार देखता है कि वे नहीं लगाते हैं । लगा चन्देकी सूचियाँ निकालकर देखिए, उनमें आ
भी नहीं सकते। क्योंकि अँगरेजी शिक्षाका सबसे पके प्यारे शिक्षितोंके नाम कितने हैं ? विद्यादा- बडा विष जो ऐहिकता-विलासिता है, वह उनकी नका मार्ग खोलनेवाले सेठ माणिकचन्दजीने
ठ माणकचन्दजान नसनसमें व्याप्त हो गया है । उनके खर्च इतने कौनसी उच्च श्रेणीकी शिक्षा पाई थी ? हाईस्कू
बढ़ रहे हैं; जरूरतें इतनी बढ़ गई हैं, शारीरिक लके लिए कई लाख रुपय लगानवाल सठ सुखसामग्रियोंमें उन्हें इतना खर्च करना पड़ता है कल्याणजीमलजा कानस कालजम पढ़ है . कि दानके लिए उनके पास कुछ भी नहीं बच सेठ हुकुमचन्दजीने कौनसा विद्याध्ययन रहता । अशिक्षित लोग ज्योनारों, ब्याहशादियों किया है ? अभी मोरेनाकी पाठशालाको आदिमें जो खर्च करते हैं, उससे जाति ३८ हजारका दान करनेवाले सेठ बालचन्द बिरादरीवालों तथा बन्धुबान्धओंको फिर भी कुछ रामचन्दजी भी तो न संस्कृतके पडित हैं लाभ होता है; पर इनकी विलायती सामग्रियोंका
और न अँगरेजीके । आप कहेंगे कि हमारे तो एक पैसा भी देशमें नहीं रहने पाता है । समाजमें धनी लोग जितने हैं वे प्रायः अशिक्षित । हैं, इसलिए वे ही दान कर सकते हैं। किसी अशिक्षितोंकी अशिक्षितताकी जाहे जितनी अंशमें यह बात ठीक हो सकती है। परन्त निन्दा की जाय, पर उनकी उदारताकी तो प्रशंआपको यह भी स्मरण रखना चाहिए कि अँग- सा ही करना पड़ेगी। वे मेला प्रतिष्ठाओंमें, ज्योंनारेजीकी उच्च शिक्षा पाये हुए आपके शिक्षितोंमें भी रोंमें, अतिथि अभ्यागतोंमें, पूजा अर्चा में, मन्दिऐसे लोगोंकी कमी नहीं है जिनकी आमदनी रादि बनवानेमें जो लाखों करोड़ों रुपया खर्च
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LITILIUDIOILE
जैनहितैषीiminimafiltinitiiiii
करते हैं, उसका भले ही सदुपयोग न होता हो, व्यास और भीष्म । देशकालकी दृष्टि से इन कामोंमें खर्च करना भले ही योग्य न हो, पर यह तो सोचिए कि उनके [ बंगलामें स्वर्गीय बावू द्विजेन्द्रलालरायका हृदयमें उदारता तो है, वे त्याग तो कर सकते 'भीष्म' नामका सुप्रसिद्ध नाटक है । महाभारतके
कथानकको लेकर इसकी रचना की गई है। बहुत ही हैं । केवल उदरंभर तो नहीं होते । यह उनके
अच्छा है । इसके दो दृश्योंमें व्यास और भीष्मका त्याग गणकी ही ख़बी है कि वे आपके विद्या- जो कथोपकथन है उसे हम अपने पाठकोंकी भेट दानको कुछ विशेष महत्त्वकी चीज नहीं सम- करते हैं। पहलेमें त्याग धर्मकी महत्ता बतलाई गई झते हैं तो भी आपके कहने सुननेसे उसमें है और दूसरेमें कर्तव्यकी। ] हजारों रुपया दे डालते हैं । देशके प्रत्येक
पहला दृश्य। कार्यमें प्रत्येक आन्दोलनमें वे आर्थिक सहायता [व्यासके आश्रमका उद्यान, प्रभातकाल, व्यास देते हैं और बतलाते हैं कि शिक्षासे उदारताका और भीष्म दोनों धीरे धीरे टहल रहे हैं । कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है।
व्यास-धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् __एक सौ रुपया महीना कमानेवाला साधारण (धर्मका तत्त्व गुहामें छुपा हुआ है।) अशिक्षित गृहस्थ जितना दान कर सकता है, भीष्म-तब मैं उसकी खोज कहाँ करूँ? आपके १००) रु० मासिक पानेवाले बाबू
व्यास-अपने हृदयके भीतर ।
भीष्म-उसे मैं पाऊँगा कैसे ? उससे चौथाई दान भी नहीं कर सकते हैं। गतवर्ष आपकी बम्बईमें ही इन शिक्षितोंका।
___ व्यास-अपने हृदय-मन्दिरकी ओर कान एक सम्मेलन हुआ था । बड़े बड़े वकील और
लगाकर, सावधानतासे सुनो, वह अतिशय मधुर,
. गाढ़, गंभीर, स्थिर संगीत सुनाई पड़ेगा। बैरिस्टर उसमें उपस्थित हुए थे। भारतजैन.
- भीष्म-कहाँ ! कुछ भी तो नहीं सुन महामण्डलको स्वयं धनकी आवश्यकता रहती पता भो। है, पर उसके लिए भी आपके शिक्षित '
त व्यास-देवव्रत ! अवश्य सुन पड़ेगा । सज्जनोंने कछ भी सहायता न की। उसके बाद
तुम्हें मैंने दिव्यज्ञान दिया है । अच्छा अबकी बम्बईमें श्वेताम्बर जैन कान्फरेंसका अधिवेशन
. बार सुनो, देखो वह हृदयवीणाके तारोंपर मधुर बड़ी धूमधामसे हुआ । इसका प्रायः सभी काम था काज शिक्षितोंके नेतृत्वमें हुआ था । एक दर्ज- झङ्कार हो रही है । सुनो देवव्रत ! क्यों सुन पड़ी ? नसे अधिक वकील बैरिस्टर और सालिसिटर भीष्म-हाँ, जैसे दूरस्थित समुद्रकी कल्लोउसमें शामिल थे । कान्फरेंसका चन्दा भी लकी आवाज सुनाई पड़ती है । खोला गया जिसमें लगभग चार हजार रुपया व्यास-उसका कुछ मर्म समझ पड़ा। एकत्र हुए; पर उसकी सूचीमें भी आपके शिक्षित भीष्म-नहीं, कुछ नहीं । भाइयोंके ऑकड़े नदारद ! इस तरहके और भी व्यास-अच्छा तो फिर मन लगाकर सुनो। उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनसे आपके भीष्म-सनता हूँ। शिक्षित भाइयोंकी उदारताकी थाह मिलती है।
व्यास-देवव्रत ! सुनो, उस महागीतमेंसे क्या आप अपने शिक्षित बन्धुओंको हमारे
हमार यह ध्वनि निकलती है कि “पराये हितके अशिक्षित पुरुषोंकी उदारताका अनुकरण कर नेके लिए समझायँगे ? -एक अशिक्षित।
' लिए स्वार्थत्याग करना, यही सकल
धौंका मूल है।"
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व्यास और भीष्म । fififimfiiftiiiiiiifittifull
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भीष्म-क्या कहा ऋषिवर त्याग ?
द्वितीय अंक, पंचम दृश्य । व्यास-हाँ, त्याग । देवताके चरणोंपर हँसते व्यास-मनुष्य हमेशा सुखके लिए पागल हँसते अपने सुखका बलिदान कर देना, बस बना रहता है और भोजन-पानमें, शयन-आसयही परम धर्म है और सनातन धर्म है। और सारे ।
नमें, घोड़ा-गाड़ीमें, मान-सम्मानमें, मूल्यवान् धर्म इसके सन्तान हैं।
वस्त्राभूषणोंमें और तरह तरहके व्यसनोंमें उसीको __ भीष्म-देवताके चरणोंमें अपने सुखका
ढूँढा करता है । परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो
उसका पाना बहुत ही सहज, और सरल है। वह बलिदान ?
उसी तरह बिना परिश्रमके प्राप्त हो सकता है व्यास-हाँ, देवताके चरणों में अपने सुखका जिस तरह अपनी ही मुट्ठीमें चीज। बलिदान कर देना यही महाधर्म है।
भीष्म-सो कैसे? भीष्म- देवता कौन ?
व्यास-सुखकी विविध सामग्रियाँ यद्यपि हमारे व्यास-मानव ।
हाथमें नहीं है; परन्तु हम अपनी आवश्यकताभीष्म-लोग अपने सुखका बलिदान क्यों करें? ओंको तो कम कर सकते हैं । आमदनी भले ही व्यास-परम सुखकी प्राप्तिके लिए। न बढ़े, पर खर्चको तो घटा सकते हैं । उनका भीष्म-प्रभो ! वह सुख कौनसा है ? लाभ सुलभ नहीं है पर क्षति तो सहज है। व्यास-विवेककी जयध्वनि, आत्माका सन्तोष हमारी इस निरीह पर्णकुटीरको देखो ! कुशाका और मनुष्योंका आशीर्वाद। इन सुखोंको क्या आसन है, वृक्षके बल्कलोंके वसन हैं, फलमूतुम नहीं जानते ? त्यागमें जो शान्ति और सख लोंका हम भोजन करते हैं, और झरनेके स्वच्छ है वह और कहीं नहीं। उसके सामने स्वार्थसि
- जलका पान करते हैं । परन्तु बतलाओ हमारे द्विका सुख उसी तरह फीका पड़ जाता है जिस .
" यहाँ किस चीजकी कभी है ? मैं अपनी इस तरह सूर्योदय होने पर चन्द्रमा। स्वार्थका बलिदान
- फूसकी झोपड़ीका सम्राट् हूँ।
। करनेमें ही मनुष्यका जय है और यही सभ्यता
भीष्म-प्रभो! आप सम्राट्से भी बड़े हैं। को आगे बढ़ानेवाला है। इस महान् उद्देश्यको
के इस फूसकी झोपड़ीमें रह कर भी आप भारत
" वर्षका शासन करते हैं और इसी लिए मैं वीर सामने रखकर अपने कर्तव्यका पालन करनेमें ,
नम परशुरामका शिष्य और हस्तिनाका युवराज बड़ा सुख है देवव्रत !
भीष्म आज आपके द्वारपर ज्ञानकी भिक्षा माँगभीष्म-प्रभो ! मैं समझ रहा हूँ। नेके लिए आया हूँ। व्यास-चित्तको स्थिर करके इस मंत्रका व्यास-देवव्रत ! क्या अभीतक तुम्हारी ज्यों ज्यों जप करोगे, त्यों त्यों तुम उस महा ज्ञानकी प्यास नहीं बुझी है ? संगीतको, स्पष्ट, स्पष्टतर, स्पष्टतम रूपमें सन भीष्म-देव, ज्ञानकी प्यास क्या कभी
बझती है? सकोगे जिसमें कि सम्मिलित पृथिवीकी समस्त बुझत गीतध्वनियाँ एक साथ बज उठती हैं और जिस ।
व्यास-देवव्रत ! तुमने विषपान कर लिया सामगानका प्रारंभ वेणुके मन्दस्वरसे होकर अन्त
है। शीघ्र ही उसका इलाज करो।
भीष्म-इसका मतलब ? सिंगीके उच्छासमें जाकर होता है। अच्छा तो
___ व्यास-क्षत्रियका धर्म ज्ञान-विचार नहीं है; देवव्रत ! मंत्रका जाप करो।
रणक्षेत्र ही क्षत्रियकी कर्मभूमि है । जाओ, भीष्म-जो आज्ञा ऋषिवर!
विचार करना छोड़ दो और काममें हाथ व्यास-सन्ध्या होनेको आई है । चलो, अब लगाओ । विचारने और सोचनेके लिए हम लोग आश्रमके भीतर चलें । दोनों जाते हैं । हैं। जाओ, घर लौट जाओ।
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जैनहितैषी -
परोपदेश - कुशल |
( ले० - - सिंघई मोहनचन्द्र जैन )
( १ )
था प्रभातका समय मनोहर, पवन सुरीली थी चलती । कंजकली अति ललित मुदित मन, रवि किरणोंसे थी खिलती ॥ जलदखण्ड आभा अनुपयुक्त, थे नभमण्डलमें छाये । विटपों पर थे विहगवृन्द, कलरव करते बहु मनभाये ॥
( २ )
झरझर करती सुन्दर सरिता, तरल मन्दगति से बहती । लता - गुल्मयुत उसके तट पर, आँखें निश्चल हो रहती ॥ इसी मनोरम भूमिभाग पर, फिरती थी डोली डोली । प्रेम भरी गंभीर केकड़ी, निज सुतसे बोली बोली ॥
(३)
सरल पंथगामकि सब ही, जगजन गुणगण-गाते हैं । सरल चाल है सब सुखदायक, नीतिवान् बतलाते हैं ॥ इससे अब तुम समझ सोचकर, चलो चाल सीधी प्यारे । मिले बड़ाई तुम्हें सब कहीं, शीतल हों मेरे तारे ॥ (8)
माताके सुन वचन पुत्र, यों हँसकर बोला मृदुवानी । सादर है स्वीकार मिली जो सीख मुझे जननी स्यानी ॥ लेकिन एक विनय है मेरी, यही एक मेरा कहना । सिखा दीजिए सरल चाल, चलके मुझको सीधा चलना ॥
(५)
सुन करके यह उत्तर सुतका, उसे न सूझा कोइ उपाय । अपनी टेढ़ी चाल छोड़ वह, चल न सकी डगभर भी हाय ! पर उपदेश - कुशल होते जो, स्वयं नहीं कुछ कर सकते । उनकी होती दशा यही है, लज्जित वे चुप रहते ॥
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आप पढ़िए और इस पुण्यकार्यकी सफलताके लिए अपने प्रत्येक जैनबन्धुको पढ़ने के लिए दीजिए ।
तीर्थोंके झगड़े मिटाइए ।
क्षमावनीके पवित्र पर्वमें
भगवानकी आज्ञा का पालन कीजिए ।
प्यारे भाइयो ! भगवानका नाम और भगवानकी आज्ञा, इन दो बातोंपर किसे प्रेम
'न होगा ? और फिर उस सर्वोत्कृष्ट पर्वके दिन - क्षमावणीके दिन - जिस दिन क्षुद्रसे क्षुद्र मनुष्य भी भगवानकी आज्ञा माथे पर चढ़ाने में नहीं चूकता है । इस शुभ दिन में ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो भगवानकी आज्ञा सुनने, समझने और अमल में लाने के लिए राजी न हो ?
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जिन भगवान् एक समय हमारे आपके ही समान मनुष्य थे; परन्तु जब वे ' मेरेतेरे ' का भेदभाव और समस्त प्राणियोंके साथका वैरभाव छोड़कर क्षमाके सागर बने, तब मनुष्य मिटकर भगवान् बन गये । वे अपने अनुयायियोंको भी इसी मार्ग पर चलनेका उपदेश दे गये हैं और इसी लिए शास्त्रकारोंने भगवानके उपदेशका अनुसरण करके यह आज्ञा दी है कि जैनधर्मके प्रत्येक अनुयायीको सबेरे और शामको प्रतिक्रमण करके वैर विरोधकी क्षमा माँगना चाहिए । जिससे प्रतिदिन न बन सके उसे हर सप्ताह में, हर महीने, हर छह महीने, और वह भी न बन सके तो वर्ष भरमें एक बार तो अवश्य ही वैरविरोधकी क्षमा करना-कराना चाहिए । यदि यह ' देना ' वर्ष भरमें एक बार भी न चुकाया जाय, तो धीरे धीरे चक्रवृद्धि ब्याज के समान कर्ज बढ़ता ही चला जाय और मनुष्य पापके बोझेसे इतना दब जाय कि उसके लिए सिर ऊँचा उठाना कठिन हो जाय । इसी लिए सांवत्सरिक प्रतिक्रमणकी योजना की गई है, इसी कारण हम सब लोग एक दूसरेके घर जाकर क्षमावणी करते-कराते हैं और अपने सम्बन्धियों तथा मित्र बन्धुओंको क्षमावणी के पत्र लिखते हैं । परन्तु इस समय अपना यह सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना तथा क्षमावणी करना - कराना अधिकांशरूपमें एक बाहरी दिखाव या दूसरोंको दिखानेकी चीज बन गया है | हम प्रतिक्रमणका पाठ तो कर जाते हैं; परन्तु उस पाठमें चौरासी लाख जीवयोनि के साथ वैर विरोध छोड़नेका जो वचन है हमसे उसकी पालना नहीं होती है । अपने मित्रों और रिश्तेदारोंसे तो हम क्षमावणी करते - कराते हैं; परन्तु जिनके साथ हमारे लड़ाई झगड़े चल रहे हैं उनसे क्षमावनी करने-कराने का हमें सूझता ही नहीं है । ऐसी दशा में हम भगवानकी आज्ञा पालनेवाले कैसे कहला सकते हैं ? क्या इस तरह दिनोंदिन बैरविरोधसे बढ़ते हुए पापका
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बोझा अधिक होते जानेसे हम अपना कल्याण कर सकेंगे ? एक ओर तो हम भगवानका नाम जपते हैं और दूसरी ओरसे उनकी मुख्य आज्ञाका भंग करते हैं । क्या सच्ची भक्ति इसीको कहते हैं ?
इतना ही नहीं किन्तु यदि हम अपने रागद्वेषहीन जिन भगवानके नामसे अर्थात् उनके धर्मके नामसे या पवित्र तीर्थक्षेत्रोंके नामसे आपसमें वैरविरोध करें और क्रोध, द्वेष, असत्य, एक दूसरेका बुरा चाहनेकी वृत्ति, आदि अनिष्ट तत्त्वोंको पुष्ट करें-स्वयं प्रशान्त भगवानके नामसे ऐसा करें-तो यह कितना बड़ा मूर्खतापूर्ण और आत्मघातक कार्य होगा, पवित्र क्षमावनीके दिन प्रत्येक भाईको इसका विचार करना चाहिए ।
तीर्थ तारनेके लिए हैं-डुबानेके लिए नहीं। ...
भाइयो, मनुष्य अधोगतिको न जाने पावे, इसके लिए 'धर्म की स्थापना हुई है। इसी प्रकार 'तीर्थ' भी मनुष्यको संसारसागरसे पार उतारनेके साधन हैं । विरुद्ध इसके जो क्रोध, झगड़े बखेड़े आदि कार्य हैं वे सब मनुष्यको डुबानेवाले हैं । तब फिर क्या तीर्थके लिए लड़ाई-झगड़ों और वैरविरोधोंका करना उचित हो सकता है ? धर्म-और खास करके पवित्र जैनधर्म-तो कहता है कि तुम अपने शत्रुओंको भी क्षमा कर दो, सिर काटनेवालेका भी भला चाहो । और तीर्थ' कहते हैं कि हमको माननेवाले सब लोगोंको चाहिए कि एकत्र होकर और एकताका बल संग्रह करके उस बलसे संसारको तारनेका पुल बनावें ।
परन्तु हम सब तो, एकताका जो थोड़ा बहुत बल बाकी रह गया है उसे भी तीर्थोके लिए ही तोड़ देनेको तैयार हुए हैं और सारी दुनियामें सब मिलकर जो तेरह लाखसे भी कम जैनी रह गये हैं उनमें भी अनेकता बढ़ाकर, परस्पर लडकर, निर्बल पड़ जानेका मार्ग ग्रहण कर रहे हैं । सज्जनो ! एकताके बलके बिना, इस प्रबल प्रतिस्पर्धा और जडवादके जमानेमें अपने पवित्र जैनधर्मको क्या आप लोग जीता जागता रख सकेंगे? ऐक्यबलके बिना क्या हम औरोंको जैनधर्मकी ओर आकर्षित कर सकेंगे ? एकताके बलके बिना हम सब क्या किसी भी प्रकारकी सासारिक या पारमार्थिक उन्नति कर सकेंगे ? हम जो
उन्नतिके बदले अवनति और उसके साथ पाप
प्रतिदिन बढ़ाते जा रहे हैं, उसका शान्तिपूर्वक विचार करनेके लिए यदि इस पवित्र दिनको भी तैयार न होंगे तो और कब होंगे? जिस प्रकार व्यापारी अपने हानि लाभका हिसाब दिवालीको निकालता है, उसी प्रकार प्रत्येक सच्चे जैनको पाप-पुण्यका हिसाब संवत्सरीके दिन-क्षमावणीके दिन-अवश्य निकालना चाहिए ।
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और भूतकालकी अपेक्षा इस समय हमें पापसे बहुत सचेत रहना चाहिए-पापसे हमें बहुत डरना चाहिए । एक तो इस समय हमारे पास अपने भाग्यशाली पूर्वजोंके समान दृढ संस्थान और प्रबल पुण्य नहीं है, जिससे हम अपने पापोंको सहजमें भस्म करनेका पराक्रम कर सकें। दूसरे आन कलका समय, रीति रिवाज, राज्य आदि सभी बातें इस प्रकारकी हैं कि जिनमें चलते फिरते पाप हो जाते हैं। तब ऐसे समयमें इतनी सावधानी तो अवश्य रखना चाहिए कि हमें पाप काटनेके साधनोंके ( धर्म, देव, गुरु, तीर्थके ) निमित्त तो पापमें न पड़ना पड़े, शान्ति पानेके स्थानोंको तो आगके स्थान न बनाना पड़ें। शास्त्रकार पुकार पुकार करके कहते हैं कि, भाइयो ! दूसरे ठिकानोंमें लगे हुए पाप तो तीर्थस्थानोंमें धोये जा सकते हैं। परन्तु तीर्थस्थानोंमें लगाये हुए पाप वज्रलेपके समान मजबूत हो जाते हैं।
तीर्थोंकी मालिकी । तीर्थस्थानोंके वास्तविक मालिक भगवान् हैं, न कि श्वेताम्बर या दिगम्बर। ये दोनों तो भगवानके 'ट्रस्टी' हैं। भगवानका एक पुत्र मन्दिर बनवावे-और दूसरा पुत्र उसका मालिक बननेको तैयार हो, यह जिस प्रकार शोभाका काम नहीं है, उसी प्रकार पहला पुत्र अदालतकी शरण जाकर ले; यह भी शोभाका काम नहीं है। यदि कभी भाई भाई भूल कर बैलें, क्योंकि भूल सभीसे होती है, तो भी भाई-भाईके झगड़े भाईचारेकी रीतिसे-समाधानी
और सुलह शान्तिकी रीतिसे-क्या मिटाये नहीं जा सकते ? भगवानके पुत्रोंके बीचके झगड़ोंके लिए, जिन भगवान् पर लेशमात्र भी श्रद्धा नहीं रखनेवालोंके पास जाकर न्यायकी भीख माँगी जाय और न्याय करानेके लिए लाखों रुपया खर्च किये जायँ, इसका अर्थ क्या यह नहीं होता है कि ये दोनों भाई किसी समय हिल मिलकर रहना ही नहीं चाहते हैं और इनके सारे समाजमें एक भी ऐसा समझदार आदमी नहीं हैं जो झगड़ोंका मिटा सके ? क्या हम आपको अपने अपने हक छोड़ देनेकी सलाह देते हैं ?
नहीं। हम सब प्रार्थना करनेवालों से किसीकी भी यह इच्छा नहीं है कि श्वेताम्बरोंको या दिगम्बरोंको अपने किसी तीर्थका बाजिब हक छोड़ देना चाहिए। यह तो हम मानते हैं कि हकका निर्णय होना ही चाहिए और न्यायपूर्वक ही हक दिये जाना चाहिए; परन्तु हमारी सूचना यह है कि भगवान् महावीरके पवित्र नामकी प्रतिष्ठाके लिए और उनके धर्मके गौरवके लिए तथा मुट्ठीभर बाकी रही हुई जैन प्रजाके गौरव तथा ऐक्य बलकी आवश्यकताके लिए, हमें अदालतोंमें जाना छोड़कर, भारतवर्षके सबसे अधिक लोकप्रिय, बुद्धिशाली और प्रामाणिक अगुओं या लीडरोंमेंसे एक अथवा अधिक अगुओंको चुन लेना चाहिए और उनसे इन्साफ कराना चाहिए।
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(४)
लाभालाभका विचार । कोर्ट या अदालतके द्वारा इन्साफ माँगनेमें और देशके नेताओंके द्वारा इन्साफ करानेमें क्या क्या हानि लाभ हैं, इस विषयमें हमें अपनी व्यापारी बुद्धिसे विचार करना चाहिए:
१ यह तो सभी जानते हैं कि सरकारी न्यायपद्धति बेहद खर्चवाली और अत्यन्त विलम्बबाली है । एक कोर्टमें बहुत समयतक मुकद्दमा चलता है, उसमें हजारों रुपया वकील बैरिस्टरोंको देना पड़ते हैं और अन्तमें दूसरी कार्टमें जाना पड़ता है । इसके बाद वहाँ भी हजारों लाखों रुपया फूंककर फिर उससे ऊँची कोर्टमें जाना पड़ता है । इस बेशु. मार खर्चके सिवाय दोनों पक्षवालोंको अपना जो बहुमूल्य समय खोना पड़ता है उसकी तो कुछ गिनती ही नहीं है । दौड़ धूप करनी पड़ती है और झंझटोंमें फँसना पड़ता है उसका भी कुछ हिसाब नहीं । इसके बदले यदि हम देशके नेताओंके द्वारा इन्साफ करावें, तो न अधिक समय लगे और न खर्च ही हो ।
२ कोर्टको कानूनकी दफाओंके माफिक ही चलना पड़ता है । यदि जजकी इच्छा भी हो कि मुझे इस प्रकारका फैसला करना चाहिए; तो भी कानूनकी दफाओंके आगे उसे मन मारकर रह जाना पड़ता है। कानूनकी बारीकियाँ सत्यको भी थोड़ी देरके लिए दबा दे सकती हैं, परन्तु यदि देशके किसी नेताके हाथमें यह न्यायका कार्य दिया जायगा तो वह ‘वालकी खाल निकालनेवाली ' कानूनकी बारीकियोंकी अपेक्षा सत्य घटनाओं पर अधिक ध्यान दे सकेगा । क्योंकि उसे कानूनकी बारीकियोंका बन्धन नहीं रहेगा-उसके लिए न्याय देनेमें सत्य और परमात्माका ही बन्धन रहेगा।
३ हमारे कई तीर्थ देशी राज्योंमें हैं और कई अँगरेजी सरहदमें । इन देशी और अँगरेजी राज्यके सभी न्यायदाता, हर मौके पर, अपने चरित्रबलको सम्पूर्ण तथा कायम रख सकेंगे, इस बातपर प्रत्येक मनुष्यसे विश्वास नहीं किया जा सकता । और विशेष करके उस समय जब कि रुपयोंका नहीं किन्तु ममताका प्रश्न होता है, इन्साफ करनेवालेके चारित्र पर ही निर्भर रहना पड़ता है। जिन देशभक्त नेताओंने अपना जीवन देशको अर्पण कर दिया है, उनके दृढ चारित्रमें और उनके द्वारा न्यायके जरा भी खंडित होनेमें किसीको लेशमात्र भी डर नहीं हो सकता। क्योंकि एक तो वे किसी पक्षकी ओर झुक नहीं सकते और दूसरे उनमें कानूनकी जानकारी भी देशी राज्यों या सरकारी अदालतोंके न्यायाधीशोंकी अपेक्षा कम नहीं होती है। ऐसी दशामें शुद्धनिष्ठा और विशाल कानूनी ज्ञान इन दोनोंके संयोगसे इस बातकी हरतरह संभावना है कि उनके द्वारा वास्तविक न्याय मिलेगा ।
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४ अपने धर्मसम्बन्धी प्रश्नोंका फैसला देशके नेताओंके द्वारा होना, अपने समाज और अपने देश दोनोंके लिए गौरवकी बात है । विरुद्ध इसके अपने देशके नेताओंके द्वारा इन्साफ करानेकी सलाह न मानना, एक प्रकारसे अपना और अपने देशका अपमान करना है। हम अपना न्याय यदि आप नहीं कर सकते हैं, तो मानों यह साबित करते हैं कि हम अयोग्य हैं । और फिर हम तो वणिक हैं, सयाने हैं, हमारे पूर्वज बड़े बड़े राज्योंके मंत्री रहे हैं, नई नई युक्तियाँ सोचनेमें हम प्रसिद्ध हैं। यदि हम भी अपने धर्मसम्बन्धी झगड़ोंका फैसला करनेके लिए अदालतोंमें दौड़े जायँगे, तो फिर हमारा उक्त गौरव कहाँ रहेगा ? इस लिए
. अन्तिम प्रार्थना यह है कि श्वेताम्बर और दिगम्बरोंके बीच जितने तीर्थक्षेत्रसम्बन्धी झगड़े इस समय हो रहे हैं उन सबके मिटानेके लिए और अन्तिम न्याय पानेके लिए सबसे पहले हमारे जो मुकद्दमे कोर्ट में चल रहे हैं उन्हें स्थगित कर देना चाहिए और फिर दोनों पक्षोंके द्वारा चुने हुए एक या अधिक नेताओंको पंच बनाकर, उनके समक्ष दोनों पक्षोंके खास पक्षकारों या वकीलोंके द्वारा तमाम हालात, सुबूत, दलीलें आदि उपस्थित कराना चाहिए और इस बातके पहले ही प्रतिज्ञापत्र लिख देना चाहिए कि वे जो फैसला करेंगे उन्हें दोनों पक्षवाले हमेशाके लिए मानेंगे । इस प्रकार पुराना वैर विरोध मिटाना, परस्पर सच्चे हृदयसे क्षमावनी करना और भविष्यमें भाईचारेकी मजबूत गाँठसे जुड़े रहनेका व्रत लेना, यही श्री महावीर भगवानके सच्चे भक्तोंका या दिगम्बर-श्वेताम्बरोंका कर्तव्य है । इसीमें दोनोंकी प्रतिष्ठा है, शोभा है, बल है और इसीमें पवित्र जैनधर्मका कल्याण और यशोविस्तार है। - यदि हम इस प्रकार वैरविरोध न टाल सकेंगे तो हमारा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण या क्षमावनी पर्व निरर्थक है, केवल एक दिखानेकी चीज है।
यदि समझते हुए भी हम न चेतेंगे तो इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि जाग्रत अवस्थामें भी बिछौनेमें लघुशंका करनेवाले बालककी तरह मूर्ख गिने जायेंगे ।
___ यदि हमसे यह भाई भाईके बीच एकता करनेका प्रयत्न न हो सका, तो सारी पृथ्वीके चौरासी लाख जीवयोनिसे मित्र भाव करनेका भगवानका वचन हम कहाँसे पाल सकेंगे और तब हमारा मनुष्यभव तथा जैनधर्मका पाना न पानेके ही बराबर ठहरेगा । इस लिए
तीर्थ-सम्बन्धी सारे झगड़ोंके पक्षकार सज्जनोंसे हमारी प्रार्थना है कि, आप लोग आज-क्षमा करने-करानेके दिन-बैरभाव भुलानेवाले दिन-अवश्य अवश्य, सच्चे हृदयसे, गहरे उतरकर विचार कीजिए और यदि
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कोई धर्मात्मा माई इसी प्रकारका कोई मार्ग सूचित करनेके लिए और उसके सम्बन्धमें आपसे सलाह लेनेके लिए आपके समीप आकर उपस्थित हो, तो आपको चाहिए कि श्री वीर परमात्माकी आज्ञाको अपनी दृष्टिके सम्मुख रखकर उसे उचित उत्तर देवें और उसकी पंच नियत करनेकी योजनामें कुछ संशोधन परिवर्तन करना आपको उचित अँच पड़े तो करनेकी सम्मति दे देवें कि जिससे इस विषयमें प्रयत्न करनेवाले सज्जन दोनों पक्षोंके विचा. रोंको एक करके जितनी जल्दी हो सके पंच नियत करनेके काममें सफलता प्राप्त कर सकें और
सारे भारतवर्षके श्वेताम्बर-दिगम्बर भाईयोंसे यह प्रार्थना है कि, यह जमाना आन्दोलनका है, इस लिए आप सबलोग इस प्रार्थनापत्रमें सूचित किये हुए आन्दोलनमें अवश्य शामिल हू जिए और अपने मुखिया भाईयोंसे कहिए तथा उनको चिट्ठियाँ लिखिए कि हम लोग धर्मके निमित्त लड़नेको राजी नहीं हैं
और आग्रहपूर्वक प्रेरणा करते हैं कि देशके नेताओं द्वारा सारे झगड़ोंका फैसला कराया जाय । श्वेताम्बर भाइयोंको अपने श्वेताम्बर अगुओंके पास और दिगम्बर भाइयोंको दिगम्बर अगुओंके पास पत्र भेजना चाहिए । इस तरह जब उनके पास हजारों पत्र एकटे होंगे तब उनका इतना प्रभाव पड़ेगा कि दोनों पक्षोंके अगुओंको यह बात माननी ही पड़ेगी। लोकमत बहुत बड़ा भारी बल है। इस बलसे हम जो चाहें उसी काममें सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इस लिए प्यारे भाइयो,
अपने अगुओंके पास पत्र भेजकर उनपर प्रभाव डालो, अपने गाँवों और शहरों में सभायें करके इस विषयमें लोकमत जागृत करो, और आपमें जितनी शक्ति हो, उस सबको लगाकर ऐक्यबळको दृढ करो।
. क्योंकि जहाँ एकता है वहीं शक्ति है, जहाँ एकता है वहीं सुख है, जहाँ एकता है वहीं स्वातन्त्र्य है, जहाँ एकता है वहीं गौरव है ।
और एकता ही महावीरका ' संघः' है।
एकता ही मुक्तिका 'मंत्र' है। इस एकताके बिना किसीका काम नहीं चल सकता। . इस एकताको छोड़कर क्या आप सुखी हो सकेंगे ?
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नहीं, नहीं, कदापि नहीं ! एकता नहीं तो धर्म नहीं,
__ और धर्म नहीं तो दिगम्बर श्वेताम्बर भी नहीं ।
याद रखिए, कि लड़ना इसका अर्थ है दोनों पक्षोंका निर्बल पड़ना,
अथवा लड़ना इसका अर्थ है दोके हाथकी रोटी तीसरेको खिलाना । लड़कर जीतनेवाला पक्ष भी अन्तमें यही कहता है कि इसकी अपेक्षा तो चुपचाप ही बैठे रहते तो कम हानि उठानी पड़ती।'
धर्म, समाज और देशकी सेवाके लिए । कर्तव्य कार्य अनेकानेक पड़े हैं;
परन्तु
... धनका टोटा है, उदारताकी कमी है,
और इतने पर भी धर्मके निमित्त धन एकहाकरके उसमेंसे परस्पर युद्ध करोगे ?
नहीं सज्जनो, नहीं। दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों परस्पर हाथ मिलाओ
और संयुक्त हाथोंके बलसे सारे संसारको 'शासनप्रेमी' बनाओ! इसी भावना और इसी प्रार्थनाके साथ विराम लेते हैं हम
आपके धर्मबन्धुसेठ विनोदीराम बालचन्द ( झालरापाटन) रतनचन्द खीमचन्द मोतीचन्द जगमन्दरलाल जैनी एम. ए. बार-एटला (बम्बई-श्वेताम्बर संघके संघपति)
( जज हाईकोर्ट, इन्दौर ) देवकरण मूलजी अजितप्रसाद जैन एम. ए. एलएल. बी. गुलाबचन्द देवचन्द जवेरी __ (एडीटर, जैनगजट, लखनौ ) रतनचन्द तलकचन्द मास्तर लल्लभाई प्रेमानन्ददास पारेख, एल. सी. ई. लखमसी हीरजी मैशरी बी. ए. एलएल. बी. ए. बी. लढे एम. ए. एलएल. बी. खीमजी हीरजी कायाणी जे. पी. ए. पी. चौगुले बी. ए. एलएल. बी. अमरचन्द घेलाभाई
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________________ सूरज भानु वकील, देवबन्द, चुन्नीलाल एम. कापड़िया एम. ए., जुगलकिशोर मुख्तार , एलएल. बी. बी. एससी. ज्योतीप्रसाद जैन , | मोहनलाल दलीचन्द देसाई बी. ए., (सम्पादक, जैनप्रदीप) एल एल. बी. ( एडीटर जैनश्वेताम्बर कान्फरेंस हेरल्ड ) ठाकोरदास भगवानदास जवेरी, बम्बई. डाक्टर नानचन्द के. मोदी एल. शाह चुनीलाल हेमचंद एम., एण्ड एस. चेतनदास जैन बी. ए. मूलचन्द हीरजी ( सैक्रेटरी, मांगरोल (आ० सै० भारतजैनमहामण्डल) जैन सभा, बम्बई ) दयाचन्द्र गोयलीए बी. ए. मणीलाल मोहकमचन्द शाह ( सेक्रेटरी, वालंटियर कमेटी __(सम्पादक जातिप्रबोधक ) दशवी जैन श्वे० कान्फरेंस ) नाथूराम प्रेमी ( सम्पादक जैनहितैषी ) जीवनचन्द साकरचन्द जवेरी गाँधी सूरचन्द शिवराम | ( सैक्रेटरी, देवचन्द लालभाई जैनपुस्तकोद्धार फण्ड ) बाडीलाल मोतीलाल शाह ( एडीटर, जैनहितेच्छु ) सूचना-इस महत्वके विषयमें यदि कोई सज्जन अनुभवयुक्त सम्मति देनेकी कृपा करेंगे तो वह दोन सम्प्रदायके उन सज्जनोंके पास जो इस आन्दोलनको पसन्द करते हे तत्काल ही पहुँचा दी जायगी और उसका उचित उपयोग किया जायगा / यदि किसी शहरमें सभा आदिके रूपमें आन्दोलन होगा और उसके रिपोर्ट हमारे पास कोई सज्जन भेजेंगे तो वह किसी भी पक्षके हकमें जरा भी हानि न पहुँचे इस प्रकारकी सावधानी रखकर सुधार दी जायगी और समाचारपत्रोंमें प्रकाशित करनेके लिए भेज दी जायगी। यदि कोई महाशय शुभेच्छुकके रूपमें सलाह या समाचारको गुप्त रखनेके लिए लिखेंगे, तो उनकी आज्ञाकी अक्षरशः पालना की जायगी। १इस आन्दोलनको पसन्द करनेवाले समस्त दिगम्बर-वेताम्बर भाईयोंको अपनी सहानुभूति नीचे पतेपर शीघ्रही भेजनेकी कृपा करनी चाहिए / 2 उक्त प्रार्थनापत्रमें पंच नियत करनेकी जो सूचना है उसका अर्थ यह है कि 1 पंचोंका चुनाव दोनों पक्षवालोंके द्वारा ही हो सकेगा, 2 पंच एक या अधिक चुने जा सकेंगे, 3 पंच अजैन ही बनाये जायँगे; परन्तु अजैन प्रमुखकी सहायताके लिए दोनों सम्प्रदायोंके कुछ विचारशील अगुओंकी कमेटी बनानेकी यदि; पक्षकारोंकी इच्छा होगी तो ऐसा भी वे कर सकेंगे / गरज यह कि प्रार्थना पत्र तो केवल मार्गसूचन करता है पर काम किस तरह किया जाय इसका निर्णय पक्षकारोंके ही हाथसे होगा और वे इस विषयमें अपने अपने सम्प्रदायके अगुओंकी सलाहसे सकेंगे। -निवेदक, वाडीलाल मोतीलाल शाह, 253 नागदेवी, बम्बई. ____ [ तारका पता-Brass-Bombay; टेलीफोन नं० 2556 ) प्रकाशक-नाथूराम प्रेमी, जैन ग्रंथरत्नाकर कार्यालय, हीराबाग-बम्बई: मुद्रक-चिं. स. देवळे, मुंबईवैभव प्रेस, सँढर्ट रोड, गिरगांव, मुंबई. For Personal & Private Use Only