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________________ ३६६ जैनहितैषी- - धिनी सुनहरीको ढूंढ निकाला और फाँसी चढ़नेके टीका है जो संभवतः सागबाड़ेके भट्टारक शुभचन्द्रठीक वक्तपर पहुँचाकर चम्पाको बचा दिया । जीकी की हुई है । मूल और संस्कृत टीकापर किसीने सुनहरीको काले पानीकी सजा हुई । चम्पाके साथ जयपुरी भाषामें एक वचनिका लिखी थी और उसको गोपालका ब्याह हो गया ।" यही इस पुस्तकका लाला गिरनारीलालजीने बहुत ही बुरी तरहपर खड़ी कथानक है । रचनामें अस्वाभाविकता बहुत है। बोलीमें परिवर्तन कराके प्रकाशित कराया है जिसका किसी भी पात्रका स्वभावचित्रण सर्वत्र एक सा नहीं यह गुजराती अनुवाद किया गया है । अनुवादहुआ। लेखकने चाहे जिस पात्रसे इच्छाके अनु- कको ये सब बातें अवश्य मालूम हो जाती यदि सार उसके स्थिरीकृत स्वभावका खयाल रक्खे वे थोडासा भी परिश्रम करते । बिना, चाहे जो काम कराये हैं और चाहे जो ७ देवकुलपाटक ।। शब्द उनके मुँइसे कहलवाये हैं । भाषामें भी लेखक, श्रीविजयधर्मसूरि और प्रकाशक, स्वाभाविकताका अभाव है । जो काम चार लाइ- अभयचन्द भगवानदास गाँधी । इस छोटीसी. २४ नोंसे निकल सकता था उसके लिए पृष्ठके पृष्ठ पृष्ठकी पुस्तकमें देवकलपाटकका और उसके मन्दिरों व्यर्थ खर्च किये गये हैं। वर्माजी स्वतंत्र रचनाके तथा प्रतिमाओंका ऐतिहासिक विवरण है। देलबड़े प्रेमी हैं । अच्छा हो यदि इसके बाड़ा या देवलबाड़ा देवकुलपाटकका अपभ्रंशरूप है । साथ ही वे रचनापद्धति सीखनेके और परिश्रम इसे आजकल देलबाडा या आबूजी कहते हैं । करनेके भी प्रेमी बनें। वहाँके श्वेताम्बर सम्प्रदायके मन्दिरों में जो शिला६ यशोधरचरित्र । लेख हैं वे सब इसमें संग्रह कर दिये गये हैं। लेख • सूरतसे श्रीयुत मूलचन्द कसनदासजी कापड़ि- प्रायः चौदहवीं शताब्दिके पीछेके हैं । इस समय याने गुजरातीमें एक सस्ती जैनग्रन्थमाला निकाल- प्रत्येक तीर्थस्थान और देवालयके इसी प्रकारके नेका प्रारंभ किया है जिसका यह दूसरा पुष्प है। लेखसंग्रह प्रकाशित होनेकी अवश्यकता है। तीर्थइसका मूल्य चार आने है जो लागत मात्र है। क्षेत्रकमेटीका ध्यान इस ओर जाना चाहिए । कापड़ियाजीके भाई ईश्वरलालजी इसके अनुवादक पुस्तक मुफ्तमें बाँटी गई है, और यशोविजयहैं । इसके टाइटिल पेज पर लिखा है-" पुष्पदन्त ग्रन्थमाला आफिस खारगेट, भावनगरसे मिलेगी। कविकृत हिन्दीग्रन्थपरसे अनुवादक-" और भूमि- .८ पाटलिपुत्रका विशेषाङ्क । कामें लिखा है- वच्छराज काविकृत मूल प्राकृत पटनेका पुराना नाम पाटलिपुत्र है। अतः पटपरसे पुष्पदन्त कविने उसकी संस्कृत छाया की और नेसे इसी ऐतहासिक नामपर हिन्दीका एक साप्ताउसका हिन्दी अनुवाद लालागिरनारीलालजीने प्रका- हिक पत्र निकलने लगा है । पाटलिपुत्रको निकलते शित किया और उसका यह गुजराती अनुवाद है।" हुए दो वर्षसे आधिक हो गये । उसके उत्साही इससे अनुवादक महाशयके प्रमादका खासा पता संचालकोंने गत माघमासमें पटना हाईकोर्ट तथा लगता है । मूल ग्रन्थ प्राकृत भाषामें है और उसके हिन्दू विश्वविद्यालयके उपलक्षमें पाटलिपुत्रका यह रचयिता पुष्पदन्त कवि हैं । पुष्पदन्तने वच्छराज विशेषाङ्क प्रकाशित किया था । हमें खेद है कि हम कविके प्राचीन कथासूत्रको पढ़कर अपने प्राकृत बहुत बिलम्बसे लगभग ५ महीनेके बाद इस अंकके ग्रन्थकी रचना की है । अर्थात् कविका यशोधर- विषयमें अपनी सम्मति लिख सके हैं । जैनमित्रके चरित प्राकृतमें नहीं । इस प्राकृतकी एक संस्कृत साइजसे कुछ बड़े ७२ पृष्ठोंपर यह छपा है। कागज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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