SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोझा अधिक होते जानेसे हम अपना कल्याण कर सकेंगे ? एक ओर तो हम भगवानका नाम जपते हैं और दूसरी ओरसे उनकी मुख्य आज्ञाका भंग करते हैं । क्या सच्ची भक्ति इसीको कहते हैं ? इतना ही नहीं किन्तु यदि हम अपने रागद्वेषहीन जिन भगवानके नामसे अर्थात् उनके धर्मके नामसे या पवित्र तीर्थक्षेत्रोंके नामसे आपसमें वैरविरोध करें और क्रोध, द्वेष, असत्य, एक दूसरेका बुरा चाहनेकी वृत्ति, आदि अनिष्ट तत्त्वोंको पुष्ट करें-स्वयं प्रशान्त भगवानके नामसे ऐसा करें-तो यह कितना बड़ा मूर्खतापूर्ण और आत्मघातक कार्य होगा, पवित्र क्षमावनीके दिन प्रत्येक भाईको इसका विचार करना चाहिए । तीर्थ तारनेके लिए हैं-डुबानेके लिए नहीं। ... भाइयो, मनुष्य अधोगतिको न जाने पावे, इसके लिए 'धर्म की स्थापना हुई है। इसी प्रकार 'तीर्थ' भी मनुष्यको संसारसागरसे पार उतारनेके साधन हैं । विरुद्ध इसके जो क्रोध, झगड़े बखेड़े आदि कार्य हैं वे सब मनुष्यको डुबानेवाले हैं । तब फिर क्या तीर्थके लिए लड़ाई-झगड़ों और वैरविरोधोंका करना उचित हो सकता है ? धर्म-और खास करके पवित्र जैनधर्म-तो कहता है कि तुम अपने शत्रुओंको भी क्षमा कर दो, सिर काटनेवालेका भी भला चाहो । और तीर्थ' कहते हैं कि हमको माननेवाले सब लोगोंको चाहिए कि एकत्र होकर और एकताका बल संग्रह करके उस बलसे संसारको तारनेका पुल बनावें । परन्तु हम सब तो, एकताका जो थोड़ा बहुत बल बाकी रह गया है उसे भी तीर्थोके लिए ही तोड़ देनेको तैयार हुए हैं और सारी दुनियामें सब मिलकर जो तेरह लाखसे भी कम जैनी रह गये हैं उनमें भी अनेकता बढ़ाकर, परस्पर लडकर, निर्बल पड़ जानेका मार्ग ग्रहण कर रहे हैं । सज्जनो ! एकताके बलके बिना, इस प्रबल प्रतिस्पर्धा और जडवादके जमानेमें अपने पवित्र जैनधर्मको क्या आप लोग जीता जागता रख सकेंगे? ऐक्यबलके बिना क्या हम औरोंको जैनधर्मकी ओर आकर्षित कर सकेंगे ? एकताके बलके बिना हम सब क्या किसी भी प्रकारकी सासारिक या पारमार्थिक उन्नति कर सकेंगे ? हम जो उन्नतिके बदले अवनति और उसके साथ पाप प्रतिदिन बढ़ाते जा रहे हैं, उसका शान्तिपूर्वक विचार करनेके लिए यदि इस पवित्र दिनको भी तैयार न होंगे तो और कब होंगे? जिस प्रकार व्यापारी अपने हानि लाभका हिसाब दिवालीको निकालता है, उसी प्रकार प्रत्येक सच्चे जैनको पाप-पुण्यका हिसाब संवत्सरीके दिन-क्षमावणीके दिन-अवश्य निकालना चाहिए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy