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________________ आप पढ़िए और इस पुण्यकार्यकी सफलताके लिए अपने प्रत्येक जैनबन्धुको पढ़ने के लिए दीजिए । तीर्थोंके झगड़े मिटाइए । क्षमावनीके पवित्र पर्वमें भगवानकी आज्ञा का पालन कीजिए । प्यारे भाइयो ! भगवानका नाम और भगवानकी आज्ञा, इन दो बातोंपर किसे प्रेम 'न होगा ? और फिर उस सर्वोत्कृष्ट पर्वके दिन - क्षमावणीके दिन - जिस दिन क्षुद्रसे क्षुद्र मनुष्य भी भगवानकी आज्ञा माथे पर चढ़ाने में नहीं चूकता है । इस शुभ दिन में ऐसा कौन बुद्धिमान् होगा जो भगवानकी आज्ञा सुनने, समझने और अमल में लाने के लिए राजी न हो ? Jain Education International 1 जिन भगवान् एक समय हमारे आपके ही समान मनुष्य थे; परन्तु जब वे ' मेरेतेरे ' का भेदभाव और समस्त प्राणियोंके साथका वैरभाव छोड़कर क्षमाके सागर बने, तब मनुष्य मिटकर भगवान् बन गये । वे अपने अनुयायियोंको भी इसी मार्ग पर चलनेका उपदेश दे गये हैं और इसी लिए शास्त्रकारोंने भगवानके उपदेशका अनुसरण करके यह आज्ञा दी है कि जैनधर्मके प्रत्येक अनुयायीको सबेरे और शामको प्रतिक्रमण करके वैर विरोधकी क्षमा माँगना चाहिए । जिससे प्रतिदिन न बन सके उसे हर सप्ताह में, हर महीने, हर छह महीने, और वह भी न बन सके तो वर्ष भरमें एक बार तो अवश्य ही वैरविरोधकी क्षमा करना-कराना चाहिए । यदि यह ' देना ' वर्ष भरमें एक बार भी न चुकाया जाय, तो धीरे धीरे चक्रवृद्धि ब्याज के समान कर्ज बढ़ता ही चला जाय और मनुष्य पापके बोझेसे इतना दब जाय कि उसके लिए सिर ऊँचा उठाना कठिन हो जाय । इसी लिए सांवत्सरिक प्रतिक्रमणकी योजना की गई है, इसी कारण हम सब लोग एक दूसरेके घर जाकर क्षमावणी करते-कराते हैं और अपने सम्बन्धियों तथा मित्र बन्धुओंको क्षमावणी के पत्र लिखते हैं । परन्तु इस समय अपना यह सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना तथा क्षमावणी करना - कराना अधिकांशरूपमें एक बाहरी दिखाव या दूसरोंको दिखानेकी चीज बन गया है | हम प्रतिक्रमणका पाठ तो कर जाते हैं; परन्तु उस पाठमें चौरासी लाख जीवयोनि के साथ वैर विरोध छोड़नेका जो वचन है हमसे उसकी पालना नहीं होती है । अपने मित्रों और रिश्तेदारोंसे तो हम क्षमावणी करते - कराते हैं; परन्तु जिनके साथ हमारे लड़ाई झगड़े चल रहे हैं उनसे क्षमावनी करने-कराने का हमें सूझता ही नहीं है । ऐसी दशा में हम भगवानकी आज्ञा पालनेवाले कैसे कहला सकते हैं ? क्या इस तरह दिनोंदिन बैरविरोधसे बढ़ते हुए पापका 1 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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