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________________ और भूतकालकी अपेक्षा इस समय हमें पापसे बहुत सचेत रहना चाहिए-पापसे हमें बहुत डरना चाहिए । एक तो इस समय हमारे पास अपने भाग्यशाली पूर्वजोंके समान दृढ संस्थान और प्रबल पुण्य नहीं है, जिससे हम अपने पापोंको सहजमें भस्म करनेका पराक्रम कर सकें। दूसरे आन कलका समय, रीति रिवाज, राज्य आदि सभी बातें इस प्रकारकी हैं कि जिनमें चलते फिरते पाप हो जाते हैं। तब ऐसे समयमें इतनी सावधानी तो अवश्य रखना चाहिए कि हमें पाप काटनेके साधनोंके ( धर्म, देव, गुरु, तीर्थके ) निमित्त तो पापमें न पड़ना पड़े, शान्ति पानेके स्थानोंको तो आगके स्थान न बनाना पड़ें। शास्त्रकार पुकार पुकार करके कहते हैं कि, भाइयो ! दूसरे ठिकानोंमें लगे हुए पाप तो तीर्थस्थानोंमें धोये जा सकते हैं। परन्तु तीर्थस्थानोंमें लगाये हुए पाप वज्रलेपके समान मजबूत हो जाते हैं। तीर्थोंकी मालिकी । तीर्थस्थानोंके वास्तविक मालिक भगवान् हैं, न कि श्वेताम्बर या दिगम्बर। ये दोनों तो भगवानके 'ट्रस्टी' हैं। भगवानका एक पुत्र मन्दिर बनवावे-और दूसरा पुत्र उसका मालिक बननेको तैयार हो, यह जिस प्रकार शोभाका काम नहीं है, उसी प्रकार पहला पुत्र अदालतकी शरण जाकर ले; यह भी शोभाका काम नहीं है। यदि कभी भाई भाई भूल कर बैलें, क्योंकि भूल सभीसे होती है, तो भी भाई-भाईके झगड़े भाईचारेकी रीतिसे-समाधानी और सुलह शान्तिकी रीतिसे-क्या मिटाये नहीं जा सकते ? भगवानके पुत्रोंके बीचके झगड़ोंके लिए, जिन भगवान् पर लेशमात्र भी श्रद्धा नहीं रखनेवालोंके पास जाकर न्यायकी भीख माँगी जाय और न्याय करानेके लिए लाखों रुपया खर्च किये जायँ, इसका अर्थ क्या यह नहीं होता है कि ये दोनों भाई किसी समय हिल मिलकर रहना ही नहीं चाहते हैं और इनके सारे समाजमें एक भी ऐसा समझदार आदमी नहीं हैं जो झगड़ोंका मिटा सके ? क्या हम आपको अपने अपने हक छोड़ देनेकी सलाह देते हैं ? नहीं। हम सब प्रार्थना करनेवालों से किसीकी भी यह इच्छा नहीं है कि श्वेताम्बरोंको या दिगम्बरोंको अपने किसी तीर्थका बाजिब हक छोड़ देना चाहिए। यह तो हम मानते हैं कि हकका निर्णय होना ही चाहिए और न्यायपूर्वक ही हक दिये जाना चाहिए; परन्तु हमारी सूचना यह है कि भगवान् महावीरके पवित्र नामकी प्रतिष्ठाके लिए और उनके धर्मके गौरवके लिए तथा मुट्ठीभर बाकी रही हुई जैन प्रजाके गौरव तथा ऐक्य बलकी आवश्यकताके लिए, हमें अदालतोंमें जाना छोड़कर, भारतवर्षके सबसे अधिक लोकप्रिय, बुद्धिशाली और प्रामाणिक अगुओं या लीडरोंमेंसे एक अथवा अधिक अगुओंको चुन लेना चाहिए और उनसे इन्साफ कराना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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