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________________ ३५६ जनहितैषी - 1 कीर्ति पण्डितदेव ' इसकी उपाधि थी । कविके कनड़ी श्लोकोंका अर्थ यह है : “उस मुनिने अपने बुद्धिरूप मन्दराचलसे श्रुतरूप समुद्रका मंथनकर यशके साथ व्याकरणरूप उत्तम अमृत निकाला । शाकटायनने उत्कृष्ट शब्दानुशासनको बनालेनेके बाद अमोघवृत्ति नामकी टीका — जिसे ‘बड़ी शाकटायन' कहते हैं— बनाई, जिसका कि परिमाण १८००० है । जगत्प्रसिद्ध शाकटायन मुनिने व्याकरणके सूत्र और साथ ही पूरी वृत्ति भी बनाकर एक प्रकारका पुण्य सम्पादन किया । एक बार अविद्धकर्ण सिद्धान्तचक्रवर्ती पद्मनन्दिने मुनियोंके मध्य पूजित हुए शाकटायनको ' मन्दरपवर्तके समान धीर ' विशेषण से विभूषित किया । " Jain Education International जैनधर्मके और इतिहासके मर्मज्ञ विद्वान् मुनि जिनविजयजीने इस विषय में एक बहुत ही पुष्ट प्रमाण दिया है । वह यह है कि विक्रमक तेरहवीं शताब्दिमें मलयगिरिसूरि नामके एक श्वेताम्बराचार्य हो गये हैं । उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की है और उनमें प्रायःः शाकटायन व्याकरणका उल्लेख किया है । 'नन्दिसूत्र' नामक जैनागमकी टीका: वे एक जगह लिखते हैं: शाकटायनोऽपि यापनीययतिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञ-शब्दानुशासनवृत्तावादौ स्तुतिमेवमाह- भगवतः 'श्रीवीरममृतं ज्योतिर्नत्वादिं सर्ववेधसाम् ।' अत्र च. न्यासकृतव्याख्या-सर्ववेधसां सर्वज्ञानानां सकलशास्त्रानुगतपरिज्ञानानां, आदिं प्रभवं प्रथममुत्पत्तिकारणमिति । ( - नन्दिसूत्र पृष्ठ २३ ) इसमें ' श्रीवीरममृतं - ' इत्यादि जो दो पाद हैं वे अमोघवृत्तिके प्रथम श्लोकके हैं और इन्हें मलयगिरि शाकटायनकी स्वोपज्ञवृत्तिके बतलाते हैं । इससे स्वतः सिद्ध है कि अमोघवृत्ति ही स्वोपज्ञवृत्ति है । गणरत्नमहोदधिके कर्ता वर्धमान कवि - जो कि विक्रमसंवत् ११९७ में हुए हैं - अपने ग्रन्थमें शाकटायनके नामसे जिन जिन बातोंको उद्धृत करते हैं वे अमोघवृत्ति में ही मिलती हैं, मूलसूत्रोंमें नहीं । इससे मालूम होता है कि वर्धमान जानते थे कि अमोघ वृत्ति शाकटायनकी ही है और इसी लिए उन्होंने उसके उदाहरण शाकटायनके नामसे देना अनुचित न समझा । शाकटायनस्तु कर्णे टिटिरिः कर्णे चुरुचुरुरित्याह । * इसी सूत्रकी वृत्तिमें एक उदाहरण और है- (- गणरत्नमहोदधि पृष्ठ ८२ और अमोघ० २1१/५७ ) ' अरुणद्देवः पाण्ड्यम्' अर्थात् देवने पाण्ड्यनरेशको रोका। शाकटायनस्तु अद्य पञ्चमी अद्य द्वितीयत्याह । अमोघवर्षके शर्वदेव, तुंगदेव आदि कई नाम हैं । आश्चर्य नहीं जो इस 'देव' से मतलब उन्हींका हो और उन्होंने किसी पाण्ड्य राजाको हराया हो । ( - गणरत्न • पृष्ठ ९०, अमोघवृत्ति २1१/७९ ) अब यह देखना चाहिए कि अमोघवृत्तिकी रचना किस समय हुई । ऊपर 'ख्याते दृश्ये ' सूत्रकी जो अमोघवृत्ति दी है, उसमें एक उदाहरण दिया गया है—' अदहदमोघवर्षोऽरातीन् ' * अर्थात्, अमोघवर्ष For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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