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________________ शाकटायनाचार्य । कहीं कहीं पर तो यक्षवर्माने अमोघवृत्ति ज्योंकी त्यों नकल भर कर दी है । जैसे:ख्याते दृश्ये | ४ | ३ | २०७१ ( मूल ) भूतेऽनद्यतने ख्याते लोकविज्ञाते दृश्ये प्रयोक्तुः शक्यदर्शने वर्तमानाद्धातोर्लत्ययो भवति । लिडपवादः।अरुणदेवः पाण्ड्यम् । अहदमोघवर्षोरा - बड़ी भारी वृत्ति ( अमोघवृत्ति ) का संकोच करके यह छोटीसी परन्तु सम्पूर्णलक्षणोंवाली वृत्तिको मैं ( यक्षवर्मा ) कहूँगा । तीन् । ख्यात इति किम् ? चकार कर्तुं देवदत्तः । दृश्य इति किम् ? जघान कंसं किल वासुदेवः । अनद्यते इति किम् ? उदगादादित्यः । ( -अमोघवृत्तिः ) उक्त सूत्रपर चिन्तामणिकी टीका भी इसी प्रकार है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि अमोघमें जहाँ ‘लङ् प्रत्ययो' लिखा है, वहाँ चिन्तामणिमें केवल ‘लङ्' लिखा है ' प्रत्यय ' छोड़ दिया है । उपर्युक्त बातोंसे यह तो सिद्ध हो गया कि चिन्तामणि अमोघवृत्तिसे पीछे बनी है और उसीको संकोच करके बनाई गई है । अब यह देखना है कि अमोघवृत्तिका कर्त्ता कौन है ? चिन्तामणिटीका के पूर्व ३–४–५–६–७ श्लोकोंका अर्थ अच्छी तरह लगानेसे इसका निश्चय हो जायगा । ३ -- जिन्होंने सकलज्ञानरूपी साम्राज्य पदको प्राप्त किया और जो बड़े भारी साधु समूह के अगुआ थे, वे शाकटायनाचार्य जयवन्त हो । ४–जिन अकेलेने बुद्धिरूप मन्दराच से शब्दसमुद्र मंथन करके, उसमेंसे यशरूप लक्ष्मी के साथ साथ सम्पूर्ण व्याकरणोंका साररूप यह अमृत निकाला । १ – जिनका रचा हुआ शब्दानुशासन आर्हत् धर्मकी तरह स्वल्पग्रन्थ ( प्रमाण में थोड़ा), सुखसाध्य और सम्पूर्ण है । Jain Education International ३५५ ६ - जिस ( शाकटायनमुनि ) के शब्दानुशासनमें इष्टि, उपसंख्यान, वक्तव्य, न वक्तव्य आदिका झगड़ा नहीं है । ७ — उसकी ( तस्य शाकटायनस्य ) - 1 ध्यान रखना चाहिए कि ये पाँचों श्लोक शाकटायनका वर्णन करनेवाले हैं । इनमेंके यः ( श्लो० ३ - ४ ) यदुपक्रम शब्दका यत् (श्लो० १ ) और यस्य ( श्लो० ६ ) ये तीनों सम्बन्धद्योतक सर्वनाम सातवें श्लोकके तस्य शब्दसे सम्बन्ध रखते हैं । यह 'तस्य' शब्द कर्तरि षष्ठिमें बनाया गया है और यह सातवें पद्यका मुख्य वाक्यांश है अन्वय इस तरह होता है - ' यदुपक्रमं शब्दानुशासनं सार्वं तस्य महतीं वृत्तिं संहृत्य इयं लघीयसी वृत्तिर्वक्ष्यते यक्षवर्मणा ' अर्थात् जिसका बनाया हुआ सर्वोपयोगी शब्दानुशासन नामक टीकाको संकोचकर मैं एक छोटीसी टीका व्याकरण है, उसीकी बनाई हुई बहुत बड़ी बनाता हूँ | इससे निश्चय हो गया कि मूल शब्दानुशासन और उसकी अमोघवृत्ति टीका ये दोनों ग्रन्थ एक शाकटायनने ही बनाये हैं। मि० ० राइस साहबने इसके लिए चिदानन्द कविके 'मुनिवंशाभ्युदय' नामक कनड़ी काव्यसे एक प्रमाण दिया है । यह कवि मैसूर के चिक्कदेव नामक राजाके समयमें ( ई० सन् १६७२ - १७०४ ) हुआ है और ' चारु For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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