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________________ SALIMBAIHIROLLOLLIERRI जैनहितैषी ४१२ है, और ऐसी विधवायें जिस समाजमें हैं वह करनेका आधिकार महान् आत्माओंको ही था; पर समाज जितना श्रेष्ठ और सभ्य है, विधवाओंको अब चाहे जो 'नारि मुई घर संपति नासी, मूंड़ बलपूर्वक वैधव्य पालन करनेके लिए लाचार मुड़ाय भये सन्यासी' की उक्तिको चरितार्थ करना और उन्हें गुप्त रूपसे पाप करनेके लिए करता है। और बेचारी विधवाके विषयमें तो प्रस्तुत करना उतना ही निन्द्य और तिरस्करणीय क्या कहा जाय ? वह बलात् वैधव्य भोग रही कार्य है और जिस समाजमें यह होता है वह थी, अज्ञान थी, वासनाओंकी प्रबलताके मध्याह्नउतना ही नीच और असभ्य है। मेंसे गुजर रही थी और एक वासनाओंकि दास साधु से एकान्तमें मिलने जुलने पाती थी । ऐसी अवस्थामें ६ एक मुनि और एक विधवा। उसका जितना अपराध है उसकी अपेक्षा उस समाकल्याणजी नामके एक स्थानकवासी जैन जका आधिक अपराध है जिसमें उस सरीखी अबमुनिने एक १७ वर्षकी विधवा श्राविका पर कृपा लायें इस प्रकार पतित होनेके लिए लाचार होती हैं। की और जब उसका फल एक पुत्रके रूपमें फला, तब अपने सास-ससुरके निकाल देनेपर बेचारी उसे लेकर उपाश्रयमें पहुँची । वहाँ रो-बिलख ७ झालरापाटनमें सरस्वतीभवन । कर उसने अपनी पापकहानी सनाई और श्रीमान् ऐलक पन्नालालजीके प्रयत्नसे झालमुनि महाराजके लिखे हुए वे पत्र पेश किये रापाटण शहरमें गत श्रुत पंचमीको एक सरस्वती जिसमें उसे इस विषयमें चिन्ता न करनेका भवनकी स्थापना हो चुकी है । इसके लिए ऐलक और भरण पोषणका प्रबन्ध कर देनेका आश्वा- जीन संस्कृत प्राकृत और भाषाके लगभग २००० सन दिया था। पर श्रावकोंको अपने धर्मकी ग्रन्थ एकत्र कर लिये हैं और कई हजारका और साधसम्प्रदायकी निन्दाके डरने सताया और चन्दा कर लिया है । भवनके लिए एक मकान उन्होंने इस मामलेको दबाने की कोशिश की। भी बन रहा है। इसके मंत्री श्रीयुत प्यारचन्दजी कहते हैं कि कुछ साधु भक्तोंने बेचारी अबलासे टोंग्या बड़ी बड़ी आशायें दिलाते हैं। भवनमें वे चिड़ियाँ छीनकर फाड-फड डालीं और उसे नये नये अलभ्य ग्रन्थ मँगाकर रक्खे जायँगे,बाहरधमकाया जिससे वह मुनि महाराजके पाप पर वालोंको ग्रन्थ लिखाकर भेजे जायँगे, जो लोग परदा डाल दे। यह सब कुछ हुआ पर देखते चाहेंगे उन्हें वैसे भी ग्रन्थ दिये जायँगे, मुद्रा, हैं कि अब यह मामला दबता नहीं है। कुछ ताम्रलेख, शिलालेख आदि भी संग्रह किये निष्पक्ष लोगोंकी आँख पर चढ़ जानेसे दूधका दूध जायेंगे । इत्यादि । हम भी यही चाहते हैं कि और पानीका पानी हुए बिना यह रहनेवाला सरस्वतीभवन एक आदर्श पुस्तकालयके रूपमें नहीं है। जो हो, यह घटना हमें सचेत करती चले और वह आरेके सरस्वतीभवनकी तरह है कि भाईयो! धर्मके नामसे ही मत भूल जाओ। उसके संचालकोंकी कीर्ति बढ़ानेके ही लिए जो धर्मात्मा कहलाते हैं, जिन्होंने धर्मके आव- नहीं किन्तु सर्वसाधारणको वास्तविक लाभ पहुँरणसे अपनी असलियतको छुपा रक्खा है, उनसे चानेके लिए हो । अच्छा हो यदि मंत्री महाशय सावधान रहो। साधु, यति, मुनि, क्षुल्लक, ब्रह्म- उपस्थित ग्रन्थोंकी एक सूची बनाकर प्रकाशित चारी आदिके पवित्र नामोंको कलङ्कित करने- कर दें और ग्रन्थ लिखाने आदिका भी प्रबन्ध वाले भी इनमें बहुत होते हैं । इन नामोंके धारण शीघ्र कर दें। जैनसमाजमें एक अच्छे सरस्वती Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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