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________________ जैनकर्मवाद और तद्विषयक साहित्य | इसकी एक प्रति ताड़पत्रकी है; अन्यत्र देखने में नहीं आती । सर्वत्र सुलभ और विशेष प्रचलित टीका श्रीमलयगिरिसूरिकी बनाई हुई है । यह का बहुत बड़ी है । इसका ग्रंथप्रमाण १९००० श्लोक है । इसकी रचना बहुत सरल और स्पष्ट है । इसके सिवा, जिनेश्वरसूरिके शिष्य रामदेव ( वि० १२ वीं शताब्दीका पूर्वार्ध ) का बनाया हुआ संक्षिप्त टिप्पण भी कहीं कहीं दृष्टिगोचर होता है । इस ग्रंथका नाम पंचसंग्रह होने में दो कारण हैं । एक तो इसके अंदर शतक, सप्ततिका, कषायप्राभृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति इन पाँच ग्रंथों का संग्रह होनेसे यह पंचसंग्रह कहा जाता है। दूसरे, इसमें योगोपयोगमार्गणा, बंधक, बद्धव्य, बन्धहेतु और बन्धविधि इन पाँच अर्थाधिकारों-प्रकरणों का समावेश है । इससे भी पंचसंग्रह कहा जाता है । पाँच अर्थाधिकारों से प्रथम योगोपयोगमार्गणाधिकारमें, जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणा - स्थान द्वारा प्राणियों की प्रवृत्ति और ज्ञानशक्तिका वर्णन किया गया है । दूसरे बन्धकाधिकारमें, कर्म बाँधनेवाले जीवोंके भिन्न भिन्न स्वरूप और उनके भेद दिखाये गये हैं । बद्धव्यप्रकरण में जीवके बाँधने योग्य कर्मपुद्गलोंका स्वरूप निर्दिष्ट है। चौथे बंधहेतुनामक अधिकारमें कर्मबंधन के हेतुभूत मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगों का विवेचन है । पाँचवाँ बंधविधि नामका प्रकरण बहुत बड़ा है । सारे ग्रंथका लगभग आधा भाग इसने रोका है। इसमें कर्म - बंध विधानोंका अनेक प्रकारसे उल्लेख किया गया है । कर्मप्रकृतिके अनेक भंगजालोंका इसमें आश्चर्योत्पादक निरूपण है । ३ - प्राचीन कर्मग्रंथपंचक | १ कर्मविपाक, २ कर्मस्तव, ३ बंधस्वामित्व, ४ षडशीति और ५ शतक इन पाँच ग्रंथोंका, Jain Education International ३७९ सामान्यतया 'कर्मग्रंथ ' ही के नामसे उल्लेख किया जाता है । इन्हीं ग्रंथोंके नाम और विषयानुसार देवेन्द्रसूरिने पीछसे पाँच ग्रंथ नये बनाये हैं इस लिए ये प्राचीन कर्मग्रंथ कहे जाते हैं । इनके कर्ता भिन्न भिन्न आचार्य हैं जो जुदा जुदा समयमें हो गये हैं । इन पाँचोंके विषय पृथक् पृथक् हैं । कर्मतत्त्वविषयका अभ्यास करनेवालेको प्रथम इन ग्रंथोंका क्रमसे अध्ययन करना चाहिए । इन पाँचों कर्म ग्रंथोंपर जुदा जुदा विद्वानोंके बनाये हुए अनेक भाष्य, चूर्णि, टीका, टिप्पण और विवरण विद्यमान हैं जिनका विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाय तो केवल उनके नाम मात्रका उल्लेख करते हैं । एक छोटीसी पुस्तक बन जाय । हम यहाँ पर १ - इन ग्रन्थोंमेंसे प्रथम कर्मविपाक नामक ग्रंथकर्ता श्रीगर्षि नामके आचार्य हैं जो सुप्रसिद्ध कथा उपमितिभवप्रपंचाके रचयिता सिद्धर्षिके दीक्षागुरु थे । इस पर परमानंदसूरिकी टीका और उदयप्रभका टिप्पण बना हुआ है 1 २ - कर्मस्तव नामके दूसरे कर्मग्रंथके कर्ताका नाम उपलब्ध नहीं होता । इस पर एक गोविन्दाचार्यकी और दूसरी हरिभद्र ( १३ वीं शताब्दी ) की टीका मिलती है । सिवा एक पुरातन प्राकृत भाष्य और उदय-प्रभका टिप्पण भी देखने में आता है । ३- तीसरे ग्रंथ के कर्ताका नाम भी ज्ञात नहीं है । इस पर केवल एक हरिभद्रसूरिकी टीका मिलती है और कुछ नहीं । इसका विशेष साहित्य नष्ट हो गया । नवीन बंधस्वामित्वके रचयिता श्रीदेवेन्द्रसूरि को भी इसका विशेष प्रस्फोटन न मिलने से वे अपने ग्रंथ पर विस्तृत टीका नहीं लिख सके, जैसी और ४ ग्रंथों पर लिखी है । ४ - षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रंथ के बनानेवाले श्रीजिनवल्लभसूरि हैं जो बहुत करके नवांगवृत्ति For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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