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________________ NA.I.* जैनहितैषी। 'Baminimaminimi सच तो यह है कि दिवाकरके मौनभावको कीजीवपूर्ण वास्तव जगतके घृणित और जघन्य देखकर और उसके सुन्दर मुखकी श्रीको देख- जेलखानेमें वास करना पड़ा है। कर विचारकके मनमें उसके अपराधके विषयमें सन्देह पैदा हुआ था । वह जान गया था कि समय किसीकी अपेक्षा नहीं करता । बात इस मामलेमें जरूर कोई रहस्य है, पर चाक्षुष पुरानी होकर भी सच्ची रहती है। दिवाकरके प्रमाणके सामने वह अपनी राय किस तरह कारागारका समय भी अनन्तके पथमें पिछड़ने जाहिर कर सकता था ? दिवाकर यदि सब लगा । सात दिन बाद उसकी कैदके तीन मास बात सच सच विचारकके सामने कह डालता पूरे होजायँगे-फिर वह अपनी खोई हुई स्वाधीतो कौन कह सकता है कि उसके भाग्यमें क्या नता पालेगा । जेलसे छूटकर दिवाकर घर नहीं होता? जायगा, यह सिद्धांत तो उसने स्थिर कर लिया जिस समय जेलखानेकी निर्जनतामें दिवाकर है। कौन कह सकता है कि इतनी चेष्टा करने घटनाके पर्वापर पर विचार कर रहा था. उस पर भी घरपर किसीको इस बातका पता लग समय उसने अगरेज महिलाके कपटकी ही गया हो । किस तरह उसका भविष्य जीवन निन्दा की हो-यह बात नहीं । एक तरहकी कटेगा-यही चिन्ता दिवाकरके हृदयको हर गभीर आत्मग्लानि उसके चित्तको सैकडों जेल- समय लगी रहती है। खानोंकी तकलीफोंके बराबर कष्ट देती थी। इसी समय कर्मचन्दने उसके पीछेसे आकर अच्छे वंशमें पैदा हुए, शिक्षाप्राप्त युवकके लिए रामराम की । दिवाकर किसी कैदीसे बातचीत जानबूझकर परस्त्रीके साथ व्यभिचारके पथमें नहीं करता था। समय काटनके लिए दो एकके अग्रसर होना कितना घृणित कार्य और नारकी साथ उसको बात करना पड़ती थी। उनमेसे आचरण है-धीरे धीरे युवकके मस्तिष्कमें ये बातें कर्मचन्द भी एक था। प्रवेश करने लगीं ! वह कभी सोचता-क्या मुझे कर्मचन्दने कहा-“ बाबू आपका समय तो बिना अपराधके दण्ड मिला है ? चोरीके अप- पूरा हो गया । पर हमारे समयका अब भी पाँच राधमें निर्दोष होते हुए भी उसकी अपेक्षा अ- वर्ष बाकी है।" धिक पापाचरण करनेको क्या मैं उद्यत नहीं हैं दिवाकरने जबर्दस्तीकी विषाद मिली हँसी भाभगवानके राज्यमें न्याय विचारका अभाव हँस दी । एक डाकके साथ सखदःखकी कथा मी बातका सोचना पागलपन नहीं है तो कहते हए उसको कछ नये प्रकारका आश्चर्यसा और क्या है । बचपनसे केवल भावोंकी उत्तेज- मालूम हुआ। नामें कार्य करता आया; चरित्रगठनकी ओर कर्मचन्दने कहा-“ बाबू, नाराज मत जितना ध्यान देना चाहिए उतना कभी नहीं होना । एक जगह मेरे कोई दश हजार रुपये दिया ! कभी स्थिरचित्त होकर विचार नहीं रक्खे हुए हैं। कोई हर्ज न समझें तो जेलसे किया कि जो कार्य कर रहा हूँ उसका कैसा छूटकर उन रुपयोंसे कोई रोजगार शुरू कर दें। फल निकलेगा-अच्छा या बुरा; कल्पना राज्यके जब मैं जेलसे छूट कर आऊँ तो आप मुझे बनमें, बागमें, महलमें, कुटीमें अनेक बार बिचरा आपके पास जितनी सम्पत्ति हो उसमेंसे आधी हूँ उसीका यह फल है कि आज मुझे इस नार-बाट दें। यह इकरार कीजिए ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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