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CHODAIIMMARIWALATMAL
जैनहितैषी
निकल गये । उन्होंने शिक्षाके उद्देश्यको धीरे धीरे किस निर्दयतासे तीसरे दर्जेके मुसाफिरोंको लूटते समझना शुरू किया और आज यूरोप शिक्षाकी और कष्ट देते हैं ! अदालतोंके मुहरिर गरीब किसाउन्नत अवस्थामें हैं । इसके विपरीत हमारे संस्कृतके नोंके साथ कैसा अत्याचार करते हैं ! जिधर देखो विद्वान्, 'पत्राधारे घृतं घृताधारे पत्रम् । घी उधर ही अँगरेजी शिक्षितोंके हाथसे भारतजनता पत्तेके ऊपर है या पत्ता घीके ऊपर है ? ऐसे अत्यन्त दुःखी है । वे अपने दूसरे जाहिल देशप्रश्नोंके हल करनेमें लगे हुए हैं । भला कहिए बन्धुओंको घृणाकी दृष्टि से देखते हैं और उनके देशकी उन्नति हो तो कैसे हो ? आजसे ५०० साथ पशुओंसे बदतर व्यवहार करते हैं। दूसरी वर्ष पहले जो हमारी आवश्यकतायें थीं वे आज ओर करोड़ों अशिक्षित इन बाबुओंपर तनिक नहीं है। आजसे ५० वर्ष पहले जो देशकी दशा विश्वास नहीं करते, वे इनको ठग और मक्कार थी वह अब नहीं है । हमको देशकालके अनुसार समझते हैं। " थोड़ी सी अँगरेजी पढ़ा हुआ लड़का अपनी आवश्यकताओंको समझ शिक्षाका प्रबन्ध अपनी भाषा भेष तथा भावसे घृणा करने लगता करना है । आज भारत पुराने दो हजार वर्ष पहले- है। उसके लिए अंगरेजी बोलना और अँगरेजी का भारत नहीं है । आज यदि अमेरिकामें रुईकी सभ्यताकी नकल करना ही शिक्षाका आदर्श है । फसल मामूलीसे अधिक होती है तो उसका प्रभाव कोट पतलून पहन गलेमें कुत्ते जैसा पट्टा डाल मुँहमें भारतवर्ष पर पड़ता है ! आज हमारा सम्बन्ध संसा- चुरट ले, अपने भाइयोंसे घृणा करना ही शिक्षाकी रके सभ्य देशोंसे हो गया है । हमारा मरना जीना सीढ़ीपर चढ़ना समझता है । अपनी भाषा तो उसे इसी पर निर्भर है कि हम दूसरी जातियोंके नये अच्छी लगती ही नहीं, और न अपने प्राचीन ऋषि वैज्ञानिक आविष्कारोंसे परिचित हों और अपनी मुनि उसकी आँखों में जंचते हैं। उसके लिए तो शिक्षाप्रणालीको आधुनिक कला कौशलके अनुसार अच्छा बूट, सूट, अच्छी गिटपिट और किसी बना डालें । पुराने जर्जर हथियारोंसे काम नहीं दफ्तरमें नौकरी ही स्वर्गीय जीवन है । रुपयेके लिए चलेगा। अब हमको आँखें खोलकर चलना चाहिए। घृणितसे घृणित कार्य करनेको वे उद्यत हैं । नौकयदि संस्कृत पाठशालाओंमें बराबर नई आव- रीके लिए यदि इनको अपने देशबन्धुओंका गलाश्यकताओं के मुताबिक ग्रन्थ पढ़ाये जाते तो आज भी काटना पड़े तो उसको ये लोग ड्यूटीके नामसे हमारी यह दुर्दशा कदापि नहीं होती !” अँगरेजी पुकारते हैं और तनिक नहीं सोचते कि अँगरेजीके शिक्षाके विषयमें कहा है:-"पिछले १०० वर्षों- इस श्रेष्ठ शब्दका अर्थ क्या है । वेश्याओंकी तरह धनके का अनुभव हमें बतलाता है कि जिस ढंगकी लिए शरीर और आत्माको बेचना ही इनके अंगरेजी शिक्षा भारतवर्षमें प्रचलित है उससे लिए ड्यूटी है। हम लाखबार ऐसी शिक्षाको कभी देशका कल्याण नहीं हो सकता। अंगरेजी धिक्कारते हैं । अपने देशकी ममता छोड़, प्यारे स्कूलों में शिक्षा पाये हुए लाखों भारतीय आज देशबन्धुओंसे पशुपनका व्यवहार कर, प्यारी मातृगवर्नमेंटके भिन्न भिन्न विभागोंमें नियुक्त हैं, और भाषासे मुँह मोड़ना, तथा अपने देशके पहिरावेसे हजारों रेलवे कर्मचारियोंका काम करते हैं । इन घृणाकर, अपने पूर्वजोंको तुच्छ दृष्टि से देखना, शिक्षित लोगोंसे देशका क्या उपकार होता है ? यदि ये ही इस अंगरेजी शिक्षाके फल हैं तो हम देशके अनपढ़, इन अँगरेजी शिक्षितोंके हाथसे इसको दूरहीसे नमस्कार करते हैं। " इस बानगीसे बाहि त्राहि कर रहे हैं । स्टेशनोंपर बाबू लोग पाठक इस पुस्तकका अभिप्राय समझ सकते हैं ।
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