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________________ ४ अपने धर्मसम्बन्धी प्रश्नोंका फैसला देशके नेताओंके द्वारा होना, अपने समाज और अपने देश दोनोंके लिए गौरवकी बात है । विरुद्ध इसके अपने देशके नेताओंके द्वारा इन्साफ करानेकी सलाह न मानना, एक प्रकारसे अपना और अपने देशका अपमान करना है। हम अपना न्याय यदि आप नहीं कर सकते हैं, तो मानों यह साबित करते हैं कि हम अयोग्य हैं । और फिर हम तो वणिक हैं, सयाने हैं, हमारे पूर्वज बड़े बड़े राज्योंके मंत्री रहे हैं, नई नई युक्तियाँ सोचनेमें हम प्रसिद्ध हैं। यदि हम भी अपने धर्मसम्बन्धी झगड़ोंका फैसला करनेके लिए अदालतोंमें दौड़े जायँगे, तो फिर हमारा उक्त गौरव कहाँ रहेगा ? इस लिए . अन्तिम प्रार्थना यह है कि श्वेताम्बर और दिगम्बरोंके बीच जितने तीर्थक्षेत्रसम्बन्धी झगड़े इस समय हो रहे हैं उन सबके मिटानेके लिए और अन्तिम न्याय पानेके लिए सबसे पहले हमारे जो मुकद्दमे कोर्ट में चल रहे हैं उन्हें स्थगित कर देना चाहिए और फिर दोनों पक्षोंके द्वारा चुने हुए एक या अधिक नेताओंको पंच बनाकर, उनके समक्ष दोनों पक्षोंके खास पक्षकारों या वकीलोंके द्वारा तमाम हालात, सुबूत, दलीलें आदि उपस्थित कराना चाहिए और इस बातके पहले ही प्रतिज्ञापत्र लिख देना चाहिए कि वे जो फैसला करेंगे उन्हें दोनों पक्षवाले हमेशाके लिए मानेंगे । इस प्रकार पुराना वैर विरोध मिटाना, परस्पर सच्चे हृदयसे क्षमावनी करना और भविष्यमें भाईचारेकी मजबूत गाँठसे जुड़े रहनेका व्रत लेना, यही श्री महावीर भगवानके सच्चे भक्तोंका या दिगम्बर-श्वेताम्बरोंका कर्तव्य है । इसीमें दोनोंकी प्रतिष्ठा है, शोभा है, बल है और इसीमें पवित्र जैनधर्मका कल्याण और यशोविस्तार है। - यदि हम इस प्रकार वैरविरोध न टाल सकेंगे तो हमारा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण या क्षमावनी पर्व निरर्थक है, केवल एक दिखानेकी चीज है। यदि समझते हुए भी हम न चेतेंगे तो इसमें जरा भी सन्देह नहीं है कि जाग्रत अवस्थामें भी बिछौनेमें लघुशंका करनेवाले बालककी तरह मूर्ख गिने जायेंगे । ___ यदि हमसे यह भाई भाईके बीच एकता करनेका प्रयत्न न हो सका, तो सारी पृथ्वीके चौरासी लाख जीवयोनिसे मित्र भाव करनेका भगवानका वचन हम कहाँसे पाल सकेंगे और तब हमारा मनुष्यभव तथा जैनधर्मका पाना न पानेके ही बराबर ठहरेगा । इस लिए तीर्थ-सम्बन्धी सारे झगड़ोंके पक्षकार सज्जनोंसे हमारी प्रार्थना है कि, आप लोग आज-क्षमा करने-करानेके दिन-बैरभाव भुलानेवाले दिन-अवश्य अवश्य, सच्चे हृदयसे, गहरे उतरकर विचार कीजिए और यदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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