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________________ AABHILARIATIMILAIMILAILE जैन लेखक और पंचतंत्र । ३४१ है, परन्तु उसका कुछ अंश एक और संस्कृत पंचाख्यानका एक अनुवाद और भी है जैनग्रंथ, अर्थात् मेघविजयकृत पंचाख्यानमें जो नवीन गुजरातीमें हैं और जिसके कर्ता मिला है । मेघविजय तपगच्छके थे और के नामका पता नहीं है। इसके तीन पाठ उन्होंने अपना ग्रंथ संवत् १७१६ ( अर्थात् मिलते हैं, जिनमेंसे दो लीथो ( पत्थरके १६५९-६० ई० ) में नवरंग-नगरके बाल- छापे ) के छपे हुए हैं और एक टाइपसे कोंको उपदेश देनेके लिए लिखा था। उनके छपा हुआ है । ये क्रमसे १८३२-३, ग्रंथमें सब कथायें वे ही हैं जो बच्छराजके १८४० और १८८२ के छपे हुए हैं। ग्रंथमें मिलती हैं। केवल अंतर यह है कि इस बातका कोई प्रमाण नहीं है कि इस मेघविजयने अपने ग्रंथके अंतमें रत्नपालकी अनुवादका कर्ता जैनधर्मानुयायी था; परन्तु कथा बढ़ा दी है। इस कथाके अन्य रूपान्तर उसने जिस पाठका अनुवाद किया है सोमनन्दनकृत रत्नपालकथामें, जो लगभग वह जैन आत्तिके दोनों अत्यन्त संवत् १५०३ में लिखी गई थी, और धर्म- प्राचीन संस्कृत पाठोंका मिश्रण है ।। कल्पद्रुम (द्वितीय सर्ग, ४ थे और ५ वे अब गुजरातसे महाराष्ट्रकी ओर अपनी श्लोक ) में भी मिलते हैं । मेघविजयने इस दृष्टि फेरिए । महाराष्ट्रमें पंचाख्यानके संस्कृकथाको संस्कृत छंदोबद्ध अनुवादसे लिया त और मराठीके कई रूपान्तर मिलते हैं। अथवा उसको स्वयं लिखा, इस बातका पता ये सब या तो पंचाख्यानकी दोनों उस समय तक नहीं लग सकता जब तक अत्यन्त प्राचीन जैन आवृत्तियोंके आधार कि कहीं वह आवृत्ति न मिल जाय। पर लिखे गये हैं अथवा उनके शब्दशः ___ पंचाख्यानकी एक और जैन आवृत्ति है, अनवाद हैं। जो निर्मल श्रावककी लिखी हुई है । इस इन रूपान्तरोंमें अनन्त नामक किसी आवृत्तिकी एक प्रति मुझे मेरे एक जैन वैष्णव ब्राह्मणका एक संस्कृत रूपान्तर है। धर्मानुयायी मित्रने भेजी है। उसमें केवल कर्ताने प्रस्तावनाके श्लोकोंमें अपने आपको प्रथम तंत्रका अधिकांश है; परन्तु यह अंश नागदेव भट्टका शिष्य बतलाया है। नागभी पाँच तंत्रोंमें विभाजित है । इस ग्रंथकी भाषा गुजराती नहीं किन्तु व्रजभाषा है और " देव भट्ट कण्वके वेदानुयायी संप्रदायके थे । संपूर्ण ग्रंथ छदोबद्ध है। परन्तु चकि इस अनन्तने अपने ग्रंथका नाम कथामृतग्रंथमें कई जगह गुजराती महाविरे और निधि अर्थात् कथारूपी अमृतका समुद्र रक्खा क्रियाओंका गुजराती रूप आया है, इस है, परन्तु यह ग्रन्थ असलमें सरलावृत्तिका लिए यह स्पष्ट है कि इसका कर्ता एक बहुत संक्षिप्त और निकम्मा रूपान्तर गुजराती था। है। कर्ताने जहाँ कहीं मूल ग्रंथके आशयको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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