________________
३५२
HUDIORAMADARA
जैनहितैषी
वृत्ति महाराज अमोघवर्षके समयकी है। किया है। इनमेंसे हमारा अनुमान है कि क्योंकि उसमें जैसा कि आगे बतलाया जायगा 'सिद्ध नन्दि' प्रसिद्ध जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता अमोघवर्षका उल्लेख है और अमोघवर्षके नामसे पूज्यपाद या देवनन्दिका दूसरा नाम है। ही उसका अमोघवृत्ति नाम रक्खा गया 'सिद्ध' शब्द मुनियों आचार्यों और देवोंके लिए है । प्रभाचन्द्रकृत न्यास अमोघवृत्तिका अकसर व्यवहृत होता है । अतः देव-नन्दिको व्याख्यान है, अतएव वह उसके सिद्ध-नन्दि कह सकते हैं । इसी तरह 'आर्य पीछेका होना ही चाहिए। चिन्तामणिटीका वज्र वज्रनन्दि आचार्यका नामान्तर है । आर्य यक्षवर्माकी है और यह जैसा कि आगे सिद्ध शब्द आचार्यका पर्यायवाची है । पूज्यपादके किया जायगा शाकटायनकी महती वृत्ति शिष्य वज्रनन्दि जिन्होंने द्रविड संघकी अमोघवृत्तिको संक्षेप करके रची गई है, अत स्थापना की थी बहुत बड़े विद्वान् हो गये एव यह भी पीछेकी बनी हुई है । मणि- हैं । देवसेनसूरिके मतसे ये विक्रमकी प्रकाशिका अजितसेनाचार्यकी है और मृत्युके ५३६ वर्ष बाद हुए हैं । हरिवंशयह चिन्तामणिकी टीका है, अत एव उससे पुराणके कर्त्ताने देवनन्दिके बाद ही इन्हें भी पीछेकी है। अजितसेन अपने अलंकार- वज्रसूरिक नामसे स्मरण किया है। संभव चिन्तामणिमें जिनसेन और वाग्भटका उल्लेख है कि वज्रनन्दि किसी व्याकरणग्रन्थके रचयिता करते हैं। अत एव ये भी अमोघवर्षके भी हों । यदि सिद्धनन्दिसे देवनन्दिका और बहत पीछेके विद्वान् हैं । छटी टीका भावसेन आर्य वज्रसे वज्रसूरिका ही मतलब हो, तो विद्यदेव की है जो कातन्त्रप्रक्रियाके भी मानना पड़ेगा कि शाकटायन व्याकरण बहुत रचयिता हैं । यद्यपि इनका समय सुनिश्चित प्राचीन नहीं है-पूज्यपाद आदिसे पीछेका है। नहीं है तो भी ये अपेक्षाकृत अर्वाचीन ही पूज्यपादका समय ईसाकी पाँचवीं शताब्दि हैं । सातवीं टीका रूपसिद्धि है जो वादिरा- माना जाता है । जसरिके सतीर्थ दयापाल मुनिकी बनाई हुई ३. शाकटायनके कुछ सूत्र जैनेन्द्र-व्याकहै और उसके बननेका समय वि० संवत् रणसे मिलते हैं । यह अच्छी तरह सिद्ध १०८३ के लगभग है। इस तरह ये तमाम किया जा सकता है कि शाकटायनसे पूज्यवृत्तियाँ अमोघवर्षके पीछेकी हैं । यदि पाद पहले हुए हैं, अतएव वे सूत्र पूज्यपादके शाकटायन पाणिनिके पहलेका व्याकरण होता, जैनेन्द्रसे ही लिये गये होंगे । शाकटायनने तो अवश्य ही उसकी कोई प्राचीन टीका पूज्यपादका सिद्धनन्दिके नामसे उल्लेख किया भी मिलती।
है; परन्तु जैनेन्द्रमें शाकटायनके किसी मतका २. शाकटायनके सूत्रपाठमें इन्द्र, सिद्धनन्दि कहीं भी उल्लेख नहीं है । अत एव शाकटाऔर आर्यवज्र इन तीन वैयाकरणोंका उल्लेख यन बहुत प्राचीन नहीं है। .
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org