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________________ ACHHAMITABOLIBABAMAITRIBAADDA शाकटायनाचार्य । ARREETTRIPLETTERNETITIMI RECEITMETRITETTERIORY ३५१ करना बहुत संगत होगा कि शाकटायनका -“ यथा तथा वास्तु वस्तुनो रूपं वक्तृही दूसरा नाम पाल्यकीर्ति आचार्य है। प्रकृतिर्विशेषायत्ता तु रसवत्ता। तथा च यमर्थ रक्तःस्तौति तं विरक्तो विनिन्दति शाकटायन-व्याकरणकी प्रक्रिया बनाते समय मध्यस्थस्तुतत्रोदास्ते, इति पाल्यकार्तिः।" यह संभव नहीं कि अभयचन्द्रसूरि शाकटा- इससे मालूम होता है कि शाकटायनका कोई यनको छोड़कर अन्य किसी वैयाकरणको न. साहित्यविषयक ग्रन्थ भी है जो अभी उपलमस्कार करें। ब्ध नहीं है। पाल्यकीर्ति या शाकटायनके व्याक- ईस्वी सन् १८९३ में मि० गुस्तव रणका नाम 'शब्दानुशासन' है । स्वयं आपर्टने 'शाकटायनप्रक्रियासंग्रह' प्रकाशित ग्रन्थकर्ताने और टीकाकारोंने उसे इसी किया और उसकी भूमिकामें बतलाया कि यह नामसे उल्लिखित किया है, परन्त ग्रन्थकर्ताके वही शाकटायन है जिसका उल्लेख पाणिनि नामके कारण वह शाकटायन व्याकरणके आदिने किया है । उन्होंने शाकटायनमेंसे नामसे भी प्रसिद्ध है। दो चार सूत्र ऐसे भी निकालकर बतला दिये जो वैदिक शाकटायनके उन्हीं सूत्रोंसे मिलते आचार्य शाकटायन या पाल्यकीर्तिने 1 जुलते थे जिनका कि पाणिनिने अपने सूत्रोंमें शब्दानुशासनके सिवाय और कितने उल्लेख किया है। साथ ही यह भी प्रकट ग्रन्थोंकी रचना की, इसका कुछ निश्चय किया कि ये शाकटायन जैन थे। नहीं है। वे बड़े भारी विद्वान् थे । शुरू शुरूमें बहुत लोग आपर्ट साहबके व्याकरणके समान न्याय, धर्मशास्त्र, साहि- विचारको सच मानने लगे थे । हमारे जैनी त्यादि अन्य विषयोंमें भी उनकी असाधारण भाई तो अपने एक वैयाकरणको तीन हजार गति जान पडती है। उनका एक ग्रन्थ पाट- वर्षका पुराना समझकर अभिमानसे फूल गये णमें मौजद है जिसका नाम 'केवलिभक्ति- थे, परन्तु जब यह मत सत्यकी कसोटीपर स्त्रीमुक्ति-प्रकरण ' है । इसके सिवाय श्रद्धास्पद कसा गया, तब बिल्कुल झूठा साबित हुआ। निश्चय हो गया कि पाणिनिके उल्लेख किये मुनि श्रीजिनविजयजीने अपने ' पाटणके जैनपुस्तक-भण्डार' शीर्षक लेखमें जो सरस्वतीकी सम्बन्ध नहीं है। जैन शाकटायन बहुत हुए शाकटायनसे इन शाकटायनका कोई जनवरी सन् १९१६की संख्यामें प्रकाशित हुआ प्राचीन नहीं हैं। क्योंकिःहै राजशेखर कविके जिस काव्यमीमांसा'नामक १. शाकटायनकी जितनी टीकायें और ग्रन्थका उल्लेख किया है उसमें पाल्यकीर्तिके वत्तियाँ हैं वे सब नौवीं शताब्दिके बादके मतका उल्लेख करते हुए लिखा है:- ही विद्वानोंकी ही लिखी हुई हैं । अमोघ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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