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________________ ३५० HAIHARITRIOTIONAL जैनहितैषी स्फोटायन, शाकल्य जैसे नाम नहीं रक्खे होता है। वादिराजसूरि इस मंगलाचरणके जाते थे। जैनोंमें उस समय विजयकीर्ति, 'श्री' पद पर ही लक्ष्य करके कहते हैं कि अर्ककीर्ति, पाल्यकीर्ति जैसे नाम रखनेकी पाल्यकीर्ति या शाकटायनके शब्दानुशासनका ही प्रथा थी । निर्णयसागर प्रेस द्वारा प्रका- प्रारंभ करते ही लोग वैयाकरण हो जाते शित प्राचीन लेखमालाके प्रथमभागमें राष्ट्रकू- हैं। अर्थात् जो इस व्याकरणका मंगला. टवंशीय द्वितीय प्रभूतवर्ष महीपतिका शक चरण ही सुन पाते हैं वे इसे पढ़े बिना और संवत् ७३५ का लिखा हुआ एक दानपत्र वैयाकरण बने बिना नहीं रहते। इससे यह छपा है जिसमें 'शिलाग्राम' के जिनमन्दिरको भी सिद्ध हो जाता हैं कि उक्त ' श्रीवीरममृतं 'जालमङ्गल' नामक ग्राम देनेका उल्लेख है। ज्योतिः ' आदि श्लोकके अथवा अमोघवृत्तिके इसमें यापनीय संघके श्रीकीर्ति, विजयकीर्ति कर्ता भी पाल्यकीर्ति (शाकटायन) ही हैं। और अर्ककीर्ति इन तीन आचार्योंका उल्लेख वादिराजसरिके उक्त श्लोकसे यह निश्चय है। जैसा कि आगे चलकर बतलाया जायगा, हो गया कि पाल्यकीर्ति कोई बड़े भारी. शाकटायन यापनीय संघके आचार्य थे, वक आचाय थ, वैयाकरण थे । अब शाकटायनप्रक्रियाके और लगभग उसी समय हुए हैं जिस मङ्गलाचरणको देखिए:समयका कि उक्त शिलालेख है, अतः उनका मुनीन्द्रमभिवन्द्याहं पाल्यकीर्ति जिनेश्वरं। 'पाल्यकीर्ति ' नाम होना असंभव नहीं। मन्दबुद्धयनुरोधेन प्रकियासंग्रहं बुवे ॥ एकीभावस्तोत्रके कर्ता महाकवि वादिरा- इसमें जो 'पाल्यकीर्ति' शब्द आया है जसरिका बनाया हुआ पार्श्वनाथचरित नामका वह जिनेश्वरका विशेषण भी है और एक एक काव्य है। यह विक्रम संवत् १०८३ आचार्यका नाम भी है। एक अर्थसे उसके का बना हुआ है । उसकी उत्थानिकामें द्वारा जिनेन्द्रदेवको और दूसरे अर्थसे प्रसिएक श्लोक है: द्ध वैयाकरण पाल्यकीर्तिको नमस्कार होता कुतत्स्या तस्य सा शक्तिः है। दूसरे अर्थमें मुनीन्द्र और जिनेश्वर ये पाल्यकीर्तेर्महौजसः। श्रीपदश्रवणं यस्य दो सुघटित विशेषण पाल्यकीर्तिके बन शाब्दिकान्कुरुते जनान् ॥ जाते हैं। अर्थात् उस महातेजस्वी पाल्यकीर्ति- प्रक्रियासंग्रहके कर्त्ताने जिन पाल्यकीकी शक्तिका क्या वर्णन किया जाय जिसके तिको नमस्कार किया है, इसमें तो कोई श्री-पदके सुनते ही लोग शाब्दिक या व्याक सन्देह नहीं कि वे वादिराजके उल्लेख किये रणज्ञ हो जाते हैं। अमोघवृत्तिका प्रारंभ हुए पाल्यकीर्ति वैयाकरण ही हैं और जब • श्रीवीरममृतं ज्योतिः ' आदि मंगलाचरणसे यह निश्चय हो गया तब यह अनुमान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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