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________________ ३४६ जैनहितैषी -- पुस्तकका नाम बहुत निकल गया है तो भी यह कहना पड़ता है कि विषयके प्रतिपाद नमें उसने अपनी बुद्धिसे काम नहीं लिया है । असावधानी के कारण क्षेमेन्द्रकी नृपावलीका एक भाग भी अशुद्धियोंसे रहित नहीं है । मैंने पुराने पंडितोंके इतिहासविषयक ग्यारह ग्रन्थ और नील ऋषिकी सम्मतियाँ उनके नीलमत-पुराण में देखी हैं । प्राचीन प्रशंसाविषयक तथा पुराने राजाओंके दानपत्रों और मन्दिरस्थापनसम्बन्धी लेखों और ग्रन्थों को देखनेसे बहुतसी अशुद्धियाँ हल हो गई हैं । " 1 * कल्हण के इस कथन से उसकी ऐतिहासिक निष्पक्षता, समालोचकप्रवृत्ति और उसके पहले इतिहासवेत्ताओं और लेखकोंके अस्तित्वका पूरा पता चलता है । यद्यपि उनमें - से किसीका लिखा हुआ कोई ग्रन्थ अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ है, फिर भी यूरोपीय विद्वानोंको मुँहतोड़ जवाब देनेके लिए इतना भी काफी है । फिर मुसलमानोंके नष्ट किये हुए हिन्दूग्रन्थसमूहका परिमाण देखते हुए क्या यह निसन्देह रूपसे हम नहीं कह सकते कि हमारे इतिहासग्रन्थ भी समुद्रतल - की शोभा बढ़ा रहे हैं ! यह स्मरण रखना चाहिए कि किसी जातिकी कीर्ति और मर्यादाको नष्ट करने का सबसे अच्छा और प्रभावो - त्पादक उपाय उसके इतिहासको तथा शिल्प - * Dr. Stein's translation of Raj tarangini. Jain Education International कलासम्बन्धी ग्रन्थोंको जल अथवा अग्निको समर्पण करना है । इसी दृष्टिसे मुसलमानोंने हमारे इस प्रकारके ग्रन्थ नष्ट कर दिये जिनका परिणाम यह हुआ कि, हम कला कौशलविहीन और अपने पूर्वजों के इतिहाससे रहित हो गये; पर हमारा सौभाग्य है कि राजतरंगिणी पर ऐसी आफत न आई और हमें इतना लिखनेका मौका मिला और साहस हुआ । इस सबन्ध में यह भी कह देना अनुचित न होगा कि पुराने पुस्तक भंडारोंका अनुसन्धान करनेसे कौटिल्य के अर्थशा की तरह किसी अद्वितीय इतिहास ग्रन्थके भी निकल आनेकी संभावना है। अनुसंधानकर्ताओंको ध्यान रखना चाहिए कि हजारों जैनपुस्तकभण्डार जिनमें अधिकतर कर्नाटक और राजपूताने में मुनियों के अधिकार और मन्दिरोंमें हैं अभीतक ज्योंके त्यों पड़े हैं । सम्भवतः सालमें एक बार वे ग्रन्थ धूपमें रक्खे जानेके लिए निकाले जाते हैं और फिर नये जाते हैं । सम्भव है कि खोज करने पर इनबेठनके अन्दर अपने पुराने स्थानपर रख दिये मेंसे राजतरंगिणीकी तरह जिसका स भाग सन् १४१७ से १४८६ तककी राजनीतिक घटनाओंका वर्णन करता है और जैनधर्मावलम्बी श्रीवरका बनाया हुआ है, दो एक अमूल्य इतिहासग्रन्थ निकल आवें । जिस राजतरंगिणीने इतिहासज्ञों की सभा में भारतका सिर नीच होने न दिया उसीके आधारपर मैं इस लेखमें काश्मीरके राजाओं का संक्षिप्त हाल लिखता हूँ 1 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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