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________________ CHAmmOAmm विविध प्रसङ्ग। रक्षा करना हिन्दुओंका धर्म रहा है, जैनोंका केरत हैं और न किसी कामको बन्द रखते हैं। भी उससे कम नहीं रहा है । ऐसी दशामें जैनश्रावकके अहिंसाव्रतमें एक शर्त मुख्य जैनधर्मकी अहिंसाको निर्बलताका या कायरताका है-उसे इच्छापूर्वक मारनेके लिए मारनेका बीज बतलाना जैनधर्म पर अन्याय करना है। और निरपराधीके मारनेका त्याग रहता है । ___ जैनधर्मका नीतिशास्त्र यह कदापि नहीं सिख- उच्च आशयके विना वह किसीको नहीं मारता।" लाता है कि तुम अपनी बहिन बेटियोंपर अत्या- गरज यह कि अहिंसाधर्म किसीको निर्बल या चारं होते हुए देखो और चुपचाप खडे रहो, कायर नहीं बनाता है और न अहिंसाका वह अथवा अपने शत्रुओंसे स्वयं अपनी या अपने अर्थही है जो लोगोंने समझ रक्खा है। भाईयोंकी रक्षा मत करो । उसकी दृष्टि में भी तब वर्तमान जैनोंकी निर्बलता और कायदुष्टता, अन्याय, अत्याचारोंको होते रहने देना रताका उत्तरदाता कौन है ? जैनधर्म ? कदापि और सहन करते रहना अप्रत्यक्ष रूपसे उन्हें नहा । ज नहीं । जैनधर्मकी अहिंसाको जैनोंके कायर या सहायता करना है । इसी लिए. एक जैनराजा निर्बल होनेमें कारण मानना वैसा ही है जैसा या न्यायाधीश सैकड़ोंको फाँसी दे सकता है भगवान् श्रीकृष्णकी गीताको वर्तमान हिन्दु ओंकी निर्बलताका कारण मानना । गीता और फिर भी निर्दोष रहता है । जैनसिद्धान्तमें अहिंसाके अनेक भेद किये गये हैं । केवल हिं- हए भी यदि हिन्दू हजार वर्षसे पददलित हा जैसी कर्मवीरता सिखलानेवाली शिक्षाके रहते साके लिए ही हिंसा करना अर्थात् संकल्पी हिंसा रहे हैं तो जैनधर्मकी अहिंसाके सर्वथा निर्दोष करना ही सबसे निन्य और त्याज्य हिंसा है । होने पर भी जैनोंका निर्बल होना कोई आश्चइसी लिए जनहितेच्छुके विचारशील सम्पादक र्यकी बात नहीं है। इसके कारण ही कुछ और महाशयने लिखा है कि " जैन लड़ते हैं जिनपर विचार करना इस देशके मनीषी अवश्य हैं; परन्तु तुच्छ प्राप्तियोंके लिए विद्वानोंका काम है । वास्तवमें इसमें न जैनया हिंसाबुद्धिसे लड़नेमें वे गौरव नहीं धर्मका दोष है और न हिन्दू धर्मका । जैनहिसमझते और इस लिए उस तरह लड़नेमें वे तेच्छुके सम्पादक महाशयने ठीक ही कहा है। पाप मानते हैं या ' हिंसा करना ' समझते हैं। कि " आज जैनधर्म और वेदधर्म दोनों मौजूद कोई खास जरूरत पड़ने पर, किसी महान् हैं । जैनधर्मके निश्चयनयके शास्त्र भी रक्खे हैं उद्देश्यकी सफलताके लिए ही वे लड़ते हैं और और पूर्णावतार कृष्णकी गीता भी कहीं चली धैर्यसे अप्रमत्त होकर उच्च दयाको दृष्टिबिन्दु नहीं गई है; तथापि जैन और हिन्दू दोनों ही बनाकर लड़ते हैं । कत्ल करना या हत्या करना प्रायः निर्माल्य-निकम्मे हो रहे हैं । दश बीस जैनोंका आशय नहीं होता; परन्तु यदि कल सम्माननीय अपवादोंको छोड़कर सारा भारतस्वयं चल करके आरही हो, या उसके आनेकी वर्ष आज अध्यात्मिक निर्बलतामें फँसा हुआ संभावना हो, तो उसे रोकनेके लिए वे लड़ेंगे है। शक्ति मैया-The Will to Powar-जीवऔर अवश्य लड़ेंगे; फिर चाहे उस लड़ाईमें वे नका यह सत्त्व-मनुष्योंका यह आत्मा-आत्माका मरें या दूसरे मरें इसकी उन्हें परवा नहीं रहती। यह धर्म-आज भारतमेंसे रूठ कर चला गया सच्चे जैन शरीर पर ममता नहीं रखते-शरी- है। इसमें न गीताका दोष है और न जैनरके लालन पालन की दृष्टिसे न वे कोई काम शास्त्रोंका ।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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