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________________ ३८८ mummam जैनहितैषीIMATIOnlintiiiiiiiiiiiiii स्थान पर नहीं है इसी लिए क्लाराने शिष्टाचार अंगूठी पहरकर दिवाकरके आनन्दकी सीमा दिखाकर मित्रता दृढ़ करनेके अभिप्रायसे यह न रही। बहुत दिनोंके परिचितकी तरह क्लाराको अनुग्रह किया है। . हृदयसे लगाकर वह बड़े स्नेहसे उसका मुँह चुम्बन करने लगा। बादको उसी घरमें सबके अनेक तरहकी बातें करते करते रातके दस सो जानेकी प्रतीक्षा करने लगा। बज गये । सिर्फ एक नौकर उनकी सेवा कर [७] रहा था। दिवाकरने ऐसा सुख अपने जीवन मूर साहब जैसा कि उनका अभ्यास था कभी अनुभव नहीं किया था । प्रगल्भा क्लारा आते ही अपने भण्डारघरके सामने खडे होगये। अनेक तरहकी बातें करके दिवाकरको प्रसन्न बढेने सोचा कि क्या मैं स्वप्न देख रहा हूँ ? कर रही थी । रातको सोते समय पहननेकी बूढेने अपनी जेबमें हाथ डालकर देखा तो तापोशाकसे युवतीकारूप सौगुना बढ़ गया था। लियाँ उसमें पड़ी हुई थीं-पर फिर भी दर्वा में काराने हँसकर कहा-"बाबू आप तो जमा- लगा हआ ताला खला हुआ था। यह काम न्दार हैं । हमारी इस वृद्धके हाथसे रक्षा कीजिए, किसने किया था-वृद्ध कुछ निश्चय नहीं कर हमें कहीं ले चलिए।" __ सका। बूढ़ेने झटपट लैम्प जलाया और अन्दर दिवाकरने चिन्तित होकर उत्तर दिया-“यह यह जाकर उसने देखा कि जीवनभरमें पैदा की किस तरह हो सकता हैं मेमसाहब ?" हुई प्रियतम सम्पत्तिके पास एक काला आदमी मेम साहबने कहा-“बाबू, रुपयेमें कुछ सुख खडा हुआ है। बूढ़ेने उसे देखते ही जोरसे नहीं है।" ठीक इसी समय बाहर सड़कपर चीख मारी। घोड़ेकी टापका शब्द सुनाई दिया। विस्मित __वृद्धके साथ उसका हेउड नामका मित्र काली होकर क्लाराने कहा-“बाबू सर्वनाश होगया। मालूम होता है साहब आगये।" पहाड़ीसे आया था। मूरकी चीख सुनकर वह ___ भीत दिवाकर उठ खड़ा हुआ। क्लाराने . से और नौकर सभी वहाँ पहुँच गये। कहनेकी जरूकहा-"कुछ डर नहीं है। आप मेरे साथ आइए।" रत नहीं कि भय, लज्जा और विस्मयके मारे विस्मित दिवाकर अन्धकारको चीरकर पासके दिवाकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया । जब एक घरमें पहुँचा । क्लाराने चाबीसे ताला खोला, उसका थोड़ा बहुत विस्मय.दूर हुआ तब उसने उसके बाद दिवाकरको उस घरमें खड़ा करके अपना पहला कर्त्तव्य भागना स्थिर किया। इसी और चाबीका गुच्छा उसके हाथमें देकर कहा लिए वृद्धकी चीखको सुनकर उसने भागनेकी "बाबू इसी घरमें आप रुकिए। जब सब लोग चेष्टा की। किन्तु हेउडके आ जानेसे उसको सो जाये तब घरमें चाबी देकर चले जाना। बन्दी हो जाना पड़ा। इसी घरमें हमारे पतिकी सब सम्पत्ति है।" उस समय मूर साहबके बंगलेमें बड़ी गोलस्तब्ध दिवाकरने चाबी लेकर अन्धेरे घरमें माल मची। उसी समय धीरे धीरे आँखें पोंछती प्रवेश किया। हुई क्लाराने आकर कहा-"जोसेफ, प्रियतम, तुम युवतीने कहा-"बाबू , एक बात और है। कब आये-यह गोलमाल कैसा है ? ” । हमारी चिह्नस्वरूप यह अंगूठी हाथमेंसे न “मूरने कहा-प्रियतमे, सर्वनाश हुआ चाहता उतारिएगा।" था। इस समय भगवानने बड़ी रक्षा की, नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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