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________________ ३४४ mmum जैनहितैषी वे प्राचीन जैन आवृत्तियोंके प्रभावके समस्त भारतवर्षके लिए, बल्कि यों कहिए सूचक हैं। कि एशिया और यूरोपके लिए अतीव महत्त्वजो कुछ इस निबंधमें कहा गया है वह का होगा। मैंने अपनी पंचतंत्र विषयक बहुत ही संक्षेपमें है। इस विषयका संपूर्ण उपर्युक्त पुस्तकमें यह भी दिखाया है कि तृतीविवरण मेरी पुस्तकमें मिलेगा, जिसका नाम नामा, जिसका अनुवाद एशिया और यूरो• पंचतंत्र, उसका इतिहास और उसका पकी भिन्न भिन्न भाषाओंमें हो चुका है,शुकसप्तति भौगोलिक विभाग' है । यह पुस्तक प्रेसमें दी (शुकबहत्तरी) नामक जैनग्रंथका ही अनुवाद है। जा चुकी है। यदि इस पुस्तकके विषयके संसारमें भ्रमण करनेवाले जितने समूचे जैनसंबंधमें जो कुछ इस लेखमें लिखा जा चुका ग्रंथोंका अब तक पता लगा है उनमें यही है उससे भी अधिक जानना हो, तो मेरे ग्रंथ सबसे प्राचीन है । जैन विद्वानोंने समय तंत्राख्यायिका नामक ग्रंथकी प्रस्तावना समय पर अब तक मुझे जैसी सहायता दी देखनी चाहिए । इस ग्रंथका संपादन मैंने है यदि ऐसी ही सहायता वे मुझे भविष्यकिया है और यह लेपजिगमें हारवर्ड ओरि- में भी देते रहें, तो मुझे आशा है कि कथायण्टल सीरीजके लिए छप रहा है। साहित्यके क्षेत्रमें जैनसाहित्यका उच्च महत्त्व - यद्यपि यह निबन्ध बहुत ही संक्षिप्त है, निपट अंधोंपर भी प्रकट हो जायगा । * तथापि इसके द्वारा पाठकोंको यह मालूम हो जायगा कि जैनकथासाहित्यका समस्त वाचका मा म विधिका प्राबल्य और दौर्बल्य । भारतवर्ष पर कितना प्रभाव था । पहले इस se: बातका मालूम होना असंभव था, क्योंकि ले०-बाबू जुगलकिशोरजी, मुख्तार । जैनग्रंथभंडारों तक यूरोपीय विद्वानोंकी जीवनकी औ धनकी, पहुँच न थी। परन्तु सौभाग्यकी बात है आशा जिनके सदा लगी रहती। कि आज कलके जैनी उस लाभको समझने विधिका विधान सारा, उनहीके अर्थ होता है ॥१॥ लगे हैं जो उन्हें अपने सरस्वतीभंडारों द्वारा विधि क्या कर सकता है ? पश्चिमी और पूर्वी विद्वानोंकी सहायता कर- उनका, जिनके निराशता आशा। नेसे होता है। यदि जैनी इस काममें अधिक भय-काम वश न होकर, जगमें स्वाधीन रहते जो ॥ २॥ उदारता दिखलाते चले जायँ, तो हम आशा * यह जर्मनीके सुप्रसिद्ध डाक्टर जुहानीज़ हर्टलके एक लेखका अनुवाद है । पाठकोंको इस लेखके पढ़त्यके इतिहासके दर्शन होंगे। ऐसा इति नेसे यह भी मालूम होगा कि स्वाध्याय किसे हास केवल जैनोंके ही लिए नहीं, किन्तु कहते हैं ।-अनुवादक। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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