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________________ प्रतिदान । ३८५ इस कुत्सिंत कथाके सत्य न होनेपर बालकके कहने पर दिवाकरने घोड़ेको तालाबमें भी आशुतोषने इसको अभ्रान्त मान रक्खा था। डाल दिया और जब वह घोड़ा तैर कर दिवादिवाकर बाबूके निराश प्रोमक होनेमें तो किसीको करके पास नहीं आया तब बालक दिवाकर सन्देह ही नहीं था। उनका विहाग जिन्होंने एक गहरी साँस छोड़कर एक बिल्लीके प्रेमपाशमें सुना है वे जानते हैं कि दिवाकर बाबूको सौ- बद्ध होगया । बिल्लीके बाद कई तरहके पक्षियोंसे न्दर्य परखनेकी कुछ कम क्षमता प्राप्त नहीं है। उसका प्रेम हुआ और अन्तमें विद्यालयके विहागकी मर्मस्पर्श लहर, मधुर झंकार, भैरवीकी एक बालकके साथ उसका प्रगाढ़ प्रेम होगया । आशामयी भाषा, किसी प्रेमिकके हृदयसे ही उसी समयसे उसका हृदय मधुररससे भीगने लगा। निकल सकती है-इसमें किसीको सन्देह नहीं उसी समयसे वह समझने लगा कि बिना दूसरे हो सकता। इसके सिवा घर सजानेमें, बातची- हृदयसे मिले उसका हृदय असम्पूर्ण है । दो तमें, हावभावमें-प्रतिपद पर मालूम होता था कि हृदय एक सूत्रमें ग्रथित न होनेसे मनुष्यका प्रौढ दिवाकरका हृदय जवानीमें प्रेमका अभिनय हृदय ज्योत्स्नाहीन नीलिमाकी तरह निरर्थक करके जरूर जख्मी हुआ है। और तमसावृत हो जाता है। [२] इन्ट्रेस पास करनेके बाद दिवाकरको जब अँगरेजीमें मसल है-राजा कभी नहीं मरता। मित्रनियोग हुआ उस समय पास होनेकी प्रसन्नदिवाकरका भी किसीको सच्चा इतिहास मालूम ता भी उसके लिए कष्टका कारण होगई । मनके होता तो वह जान पाता कि दिवाकर बाबूका साथ अनेक तर्क वितर्क करके अपने किसी सहहृदय सिंहासन भी बाल्य और यौवनकालमें कभी पाठीके परामर्शसे उसने एक सितार खरीद शून्य नहीं रहा । वास्तवमें बंकिम बाबूके उप- लिया और उसके मधुरस्वरोंमें उसने अपना प्रेम न्यास पढ़नेसे बहुत पहले ही वे एक तरहसे अर्पण कर दिया। प्रेमके पन्थमें पड़ गये थे। सबसे पहले तो काठके लाल घोड़ेसे उनका प्रेम हुआ था । उस यौवनके द्वारपर पहुँचते ही दिवाकर कितनी समय उनकी अवस्था चार वर्षकी थी । उनके कामिनियोंके गुणपर मुग्ध होकर एक एकको पिताने कलकत्तेसे उनके लिए वह काठका घोड़ा अपने हृदय-मन्दिरमें प्रतिष्ठित करके पूजा कर ला दिया था । बालक दिवाकर उससे रात चुका है-इसकी इयत्ता नहीं । अन्तमें जब बी. दिन प्रेम करता था। प्रातःकाल उठकर सबसे ए. की परीक्षामें अनुत्तीर्ण होकर वह मधुपुरमें पहले वह बागसे घास लाकर उसके सामने वायु परिवर्तन करनेके लिए गया उस समय रखता था । बादको मासे मिठाई माँगकर उसको उसके जीवनमें एक बड़ा भारी परिवर्तन होगया। दिक किया करता था। दिन भर घोड़ेके साथ यह बात आजसे बीस वर्ष पहलेकी है। इस खेलकर रातको उसे अपनी चारपाईसे बाँधकर तरहके महलोंके समान मकान मधपुरमें उस वह सोता था। इस तरह ६ दिन बीत जानेपर . समय नहीं थे। छोटे छोटे बंगले ही वहाँपर सातवें दिन एक बड़े बालकने पूछा-" दीब, दिखाई पड़ते थे। तेरा घोड़ा तैरना जानता है ? " गर्वित दिवाक- दिवाकर जिस बंगलेमें रहता था उसके पासरहे उत्तर दिया-“ हाँ।" उसके बाद उस वालेमें मूरनामके एक श्वेताङ्ग वास करते थे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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