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जैनहितैषी
तोंसे इन झगडाका निबटेरा हो सकता है ? अथवा से जो एक जीतेगा उस जीतसे क्या उसका धर्म अदालतें 'न्याय' कर सकती हैं ? कभी नहीं, वास्तवमें सत्य ठहर जायगा ? अरे अज्ञानियो ! और इसकी साक्षी प्रत्येक विचारशील जैनी दे यह उसके धर्म ' की नहीं, पर 'पैसे' की सकता है। 'बालकी खाल निकालनेवाली' जीत समझी जायगी और धर्मकी सत्यताका वर्तमान न्यायपद्धति ऐसी विलक्षण है कि उसके निर्णय होना तो करोड़ोंका खर्च कर चुकने परद्वारा जो कार्य 'अपराध' सिद्ध हुआ है वही भी बाकी ही रहेगा ! और फिर न्यायप्रिय 'हक ' सुबूत किया जा सकता है ! यह न्याय सज्जन तो दोनोंको अधर्मी कहेंगे। क्योंकि तुम्हारे हकों पर नहीं किन्तु वकील बैरिस्टरोंकी तीर्थकर महात्माओंने-जिन्हें दोनों ही पूज्य चतुराई, न्यायाधीशकी विचारशक्ति और अकावट मानते हैं-इन द्वेषकार्योंको अधर्म ही कहा है। पर अवलम्बित है। जिस पक्षको अपने मुकद्दमेंकी जो श्वेताम्बरसमाज विद्याप्रचारके लिए गत सत्यतामें सोलह आने विश्वास है वह भी यह आशा सात वर्षोंसे वार्षिक दो हजार रुपया खर्च करनहीं कर सकता कि अदालतमें हमारी जीत नेके लिए भी इधर उधर ताकता है, वही अवश्य होगी । ऐसी दशाम मच अठका फैसला
समाज सम्मेदशिखर पर दिगम्बरोंको पूजा न
करने देनेके पुण्यकार्यमें दो चार लाख रुपयोंका उक्त सन्दिग्ध और खाली न्यायपद्धतिक द्वारा पानी बना सकता है और जो दिगम्बरसमाज करानेका पागलपन छोड़कर समझमें नहीं स्वार्थत्यागी पण्डित पन्नालालजीके शास्त्रोद्धारआता कि कोई सीधा सरल और बिना वर्चका
का कार्यके लिए अथवा स्वयंसेवक पं० अर्जुनलालउपाय क्यों नहीं किया जाता । क्या जैन समा
- जी सेठीके छुटकारेके आन्दोलनके लिए दशबीस जकी चिरप्रसिद्ध व्यापारी बुद्धि पर पत्थर ही
। हजार रुपया खर्च करना कठिन समझता है, पड़ गये हैं जो वह और कोई अच्छा मार्ग ।
माग वही इन पहाड़ोंके मुकद्दमोंमें लाखों रुपया पानीकी नहीं खोज सकती ? कहा जाता है कि यदि
६ तरह बहा रहा है । अफसोस ! भाइयो ! रावणके यहाँ कोई चतुर वैश्य सलाहकार होता, क्या तम अपने इन्हीं कामोंसे अपने पड़ोसी तो उसका राज्य नष्ट नहीं होने पाता। वर्त- अजैन भाइयोंकी नजरमें ऊँचे चढ़ोगे ? दूसरे मानके जैनी उसी वैश्य जातिके ही तो वंशधर लोग तम्हारी मूर्खता पर हँसते हैं, तुम्हारे धनकी हैं: फिर आज ये अपने ही गज्यको और सो भी बरबादी होती है, तुम दोनों एक बापके दो धर्मसम्बन्धी राज्यको बचानेके लिए रावणकी सहा- बेटे हो तो भी तुममें दिनों दिन द्वेष बढ़ता जाता यता क्यों चाहते हैं ? भाईयो ! इस काममें तुम्हें है, और तीब कषायके वशवर्ती होकर तुम दोनों स्वयं प्रकृति (कुदरत) ही सफल न होने देगी। ही कर्मबन्ध करते हो। ये सब हानियाँ अन्धेसे प्रकृति माता दयालु नहीं पर न्यायप्रिय है, अन्धेकी भी आँखें खोलनेके लिए काफी हैं । इस लिए वह तुम्हें इन हार जीतकी बाजियोंमें इसके सिवाय एक और बड़ी भारी हानि इससे ही कंगाल और फटेहाल करके फेंक देगी। यह हो रही है कि जिस समय भारतके तमाम बतलाओ तो सही. तो तम यह लाखों करोडोंकी सपत्र और विदेशी होनेपर भी अपनी न्यायबरबादी किस बिरते पर कर रहे हो? इससे तुम्हारे प्रियताके कारण भारतका पक्ष लेनेवाले ब्रिटिश कौनसे उच्च आशयकी सफलता होगी? तुममें- सज्जन स्वराज्यकी माँग सदाकी अपेक्षा अधिक
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