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________________ Ammmmmmmmmmmm शाकटायनाचार्य। वक्ष्ये स्त्रीनिर्वाणं केवलि -“केवलिभुक्ति-स्त्रीमुक्तिप्रकरणम् । भुक्तिं च संक्षेपात् ॥१॥ शब्दानुशासनकृतशाकटानाचार्यकृतं तत्सं. अस्ति स्त्रीनिर्वाणं पुंवद् ग्रहश्लोकाश्च ९४।"* यदविकलहेतुकं स्त्रीषु । ऐसा जान पड़ता है कि पुराने विद्वानों मेंन विरुद्धच्यते हि रत्न यह प्रकरण अच्छी तरह परिचय था । त्रयसम्पनिर्वृतेर्हेतुः॥ रत्नत्रयं विरुद्धं स्त्रीत्वेन वादिवेताल शांतिसूरिने उत्तराध्ययनसूत्रकी यथामरादिभावेन । बृहत् -टीकाके ३६ वें अध्यायमें और रत्नइति वाङ्मात्रं नात्र प्रभाचार्यने रत्नाकरावतारिकामें स्त्रीमुक्तिप्रमाणमाप्तागमोऽन्यद्वा ॥३॥ प्रकरणकी कुछ कारिकायें उद्धृत की हैं। इसी अन्तकी कारिकाविग्रहगतिमापन्ना तरह यशोविजयजी उपाध्यायने अपनी अध्याद्यागमवचनं च सर्वमेतस्मिन् । त्ममतपरीक्षा तथा शास्त्रवार्तासमुच्चयमें भी भुक्तिं ब्रवीति तस्माद इसकी कारिकायें उद्धृत की हैं। दृष्टव्या केवलिनि भुक्तिः ॥ ३२॥ ___ स्त्रीमुक्तिप्रकरणमें मुनियोंके वस्त्रका नाना भोगाहारो निरन्तरः सो विशेषितो न भूत् (?) उल्लेख है, इससे मालूम होता है कि यायुक्या भेदेनाङ्गस्थिति पनीय संघके मुनि नग्न न रहते थे। . पुष्टिक्षुच्छमास्तेन ॥३३॥ शाकटायनके उक्त प्रकरणसे ही नहीं, तस्य विशिष्टस्य स्थितिरभविष्यत्तेन साविशिष्टेन । किन्तु और प्रमाणोंसे भी यह सिद्ध होता है यद्यभविष्यदिहैषां कि यापनीयसंघ स्त्रीमुक्ति मानता था । हरिसालीतरभोजनेनव ॥३४॥ इति स्त्रीनिर्वाणकेवलिभुक्तिप्रकरण भग- भद्रसारकृत लालितविस्तरामें लिखा है:.यदाचार्यशाकटायनकृदन्तपादानामिति । स्त्रीग्रहणं तासामपि तद्भव एव संसारक्षयो १५ वीं शताब्दिमें एक विद्वान्ने, अपने भवतीति ज्ञापनार्थ, वचः यथोक्तं यापनी यतन्त्रे-“णो खलु इत्थि अजीवो, ण यावि समयमें उपलब्ध जैनश्वेताम्बर ग्रन्थोंकी अभव्वा, ण यावि दसणविरोहिणी, णो एक नामावली संस्कृतमें बड़ी खोजके साथ अमाणुसा, णो अणारि उप्पती, णो असंलिखी है। उसमें कौन ग्रन्थ, किस भाषामें, खेज्जाउया, णो अइकूरमई, णो ण उवसंकिस विद्वानने, किस समय, कितना बड़ा । तमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्ध बोन्दी, णो ववसायवज्जिया, णो अपुव्वऔर किस विषयका लिखा है इसका संक्षिप्त , विषयका लिखा है इसका साक्षप्त करणविरोहिणी, णो णवगुणठाणरहिया,णो विवरण-जहाँ तक उपलब्ध हो सका- अजोगालद्धीए, णो अकल्लाण भायणंति, लिखा है । इस सूचीका नाम है 'बृहट्टि- कहं न उत्तमधम्मसाहिगत्ति।” (पृ० १०९) पणिका' । इस टिप्पणिकामें इस प्रकरण- *अनुष्टुप् श्लोकोंके हिसाबसे यह संख्या लिखी गई का भी नाम है:-- है। आर्या छन्द अनुष्टुप्से बडा होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522827
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages106
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size13 MB
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